Friday 31 May 2019

दूसरी पारी : ज्यादा उम्मीदों के साथ बड़ी चुनौतियां

मंत्रीमंडल की शपथ विधि के साथ मोदी सरकार की दूसरी पारी का विधिवत शुभारंभ हो गया। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के साथ 57 मंत्रियों ने शपथ ली। सभी सहयोगी दलों को एक-एक मंत्री पद दिया गया। इस फार्मूले से बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल (यू) संतुष्ट नहीं हुई जिसके लोकसभा में लगभग डेढ़ दर्जन सांसद जीते हैं। ऐसा लगता है दो सदस्यों वाले अकाली दल को एक और छह सीटें जीतने वाली लोक जनशक्ति पार्टी से एक मंत्री बनाया जाना नीतिश को रास नहीं आया। अपना दल की अनुप्रिया पटेल भी मंत्री नहीं बनाये जाने से शपथ ग्रहण समारोह तक में नहीं आईं। हालांकि नीतिश और अनुप्रिया दोनों ने एनडीए में बने रहने की बात कही। नीतिश तो शपथ विधि के साक्षी भी रहे। ऐसा माना जा रहा है कि महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा के विधानसभा चुनाव नजदीक होने से इन राज्यों पर विशेष ध्यान दिए जाने से श्री मोदी ने जनता दल (यू) को कम प्रतिनिधित्व देने का फैसला लिया होगा वरना शिवसेना भी एक से ज्यादा मंत्री के लिए दबाव बना सकती थी। मंत्रियों की सूची से जयंत सिन्हा, महेश शर्मा, मेनका गांधी राज्यवर्धन सिंह राठौड़, सत्यपाल सिंह जैसे अपेक्षित नाम जहां गायब रहे वहीं पूर्व विदेश सचिव एस.जयशंकर को सीधे कैबिनेट मंत्री बनाये जाने से सभी चौंक गए लेकिन पिछली सरकार में भी श्री मोदी ने मंत्रीमंडल का विस्तार करते हुए कुछ पूर्व नौकरशाहों को मंत्री बनाया था जिनमें एक दो तो उस समय तक सांसद तक नहीं बने थे। इससे ये संकेत मिला कि प्रधानमन्त्री राजनीतिक अनुभव के साथ ही प्रशासनिक दक्षता को भी महत्व देते हैं। हालाँकि मेनका गाँधी, जयंत सिन्हा, राज्यवर्धन राठौड़ की गिनती सक्षम और सफल मंत्रियों में की जाती रही लेकिन भाजपा के 303 सांसद जीत जाने की वजह से श्री मोदी को उन्हें बाहर रखना पड़ गया। राजनीतिक क्षेत्रों में चर्चा है कि अभी जो 23 स्थान मंत्रीमंडल में रिक्त हैं उन्हें भी शीघ्र भरा जाएगा और तब सहयोगी दलों की नाराजगी दूर करने का प्रयास होगा। अरुण जेटली और सुषमा स्वराज ने जहां स्वास्थ्य संबंधी कारणों से मंत्री पद नहीं लिया वहीं जगत प्रकाश नड्डा को अमित शाह की जगह भाजपा अध्यक्ष बनाए जाने की संभावना के चलते बाहर रखा गया। कुल मिलाकर मोदी मंत्रीमंडल काफी संतुलित नजर आ रहा है और फिर जब खुद अमित शाह उसमें वरिष्ठता क्रम पर तीसरे नम्बर पर हों तब प्रधानमन्त्री की ताकत और प्रभाव दोनों स्वाभाविक रूप से बढ़ जायेंगे। वैसे बीते पांच साल का अनुभव बताता है कि श्री मोदी की अपने सहयोगियों पर पूरी पकड़ रही तथा हर मंत्रालय पर उन्होंने पैनी नजर रखी जिसे कुछ लोग उनकी तानाशाही बताने से बाज नहीं आये लेकिन उसी का नातीजा रहा कि भाजपा को आशातीत सफलता मिल सकी। नरेंद्र मोदी अपने पूर्ववर्ती डा. मनमोहन सिंह के विपरीत किसी समानांतर शक्ति केंद्र से संचालित नहीं होते। सरकार और पार्टी संगठन दोनों पर उनकी जबर्दस्त पकड़ की वजह से ही बीते पांच वर्ष में वे कठोर निर्णय ले सके। जिस भाजपा को व्यापारियों की पार्टी कहकर मजाक उड़ाया जाता था उसके प्रति गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय मतदाताओं को आकर्षित करने के कारनामे के बाद उनके आलोचक भी दबी जुबान उन्हें इन्दिरा गांधी के कद का नेता मानने मजबूर हो गए। प्रधानमन्त्री जानते हैं कि विशाल बहुमत की वजह से जनता की उम्मीदें और बढ़ गई हैं और लोग उन्हें एक चमत्कारी नेता समझने लग गए हैं। पहले कार्यकाल में उनसे बहुत सी गलतियाँ भी हुईं लेकिन नेकनीयती की वजह से लोगों ने उन्हें नजरंदाज करते हुए पहले से भी ज्यादा बहुमत के साथ उनकी सरकार दोबारा बनवा दी। प्रधानमन्त्री सफलता पर इतराने वाले इंसान नहीं हैं और कार्य शुरू करने में समय व्यर्थ नहीं गंवाते। केन्द्रीय सचिवालय में चल रही चर्चाओं के अनुसार प्रधानमन्त्री ने चुनाव परिणाम आने के पहले ही अगले 100 दिन की कार्ययोजना तैयार करवा ली थी जो उनके आत्मविश्वास के साथ ही कार्य संस्कृति के प्रति प्रतिबद्धता का परिचायक है। 2014 में पद सँभालते ही उन्होंने केन्द्रीय सचिवालय में सचिवों के ऊपर जिस तरह से लगाम कसी और सत्ता के गलियारों को दलालों से आजाद किया उसके अनुकूल नतीजे आये। शुरू-शुरू में उन पर ये आरोप भी लगे कि वे मंत्रियों की तुलना में नौकरशाही को ज्यादा महत्व देते हैं लेकिन कालान्तर में ये साबित हो गया कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों के बेहतर समन्वय से अनुकूल नतीजे हासिल किये जा सके। नोटबंदी का फैसला जिस तरह गोपनीय रहा वह इसकी सर्वोत्तम मिसाल कही जा सकती है। दूसरी पारी में जिन मंत्रियों को बाहर रखा गया उनमें से कुछ को भाजपा संगठन में दायित्व दिए जाने की उम्मीद है। दो दर्जन स्थान खाली रखे जाने के पीछे भी श्री मोदी की कुछ न कुछ सोच अवश्य रही होगी। नीतिश कुमार की नाराजगी दूर करने के साथ ही वे जगन मोहन रेड्डी जैसे नये सहयोगी एनडीए में जोडऩे के लिए प्रयासरत रहेंगे। सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण निर्णय अमित शाह को मंत्रीमंडल में शामिल करने का रहा जो भारतीय राजनीति में नये चाणक्य के तौर पर स्थापित हो चुके हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि उन्हें संगठन से सरकार में लाकर प्रधानमन्त्री ने अपना कुछ भार कम करने का दांव चला है। मंत्रियों के बीच समन्वय के साथ ही नीतियों के सफल क्रियान्वयन का काम संभवत: अब श्री शाह के जिम्मे होगा। यदि वे वित्त मंत्री बने तब ये माना जाएगा कि प्रधानमन्त्री इस विभाग को अलोकप्रियता से उबारना चाहते हैं जो बीते पांच वर्ष में अरुण जेटली की वजह से उसके साथ चिपकी रही। मंत्रीमंडल में क्षेत्रीय संतुलन के साथ ही जातीय समीकरणों को भी साधा गया है वहीं एस. जयशंकर जैसे विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी को लेकर प्रधानमन्त्री ने ये जता दिया कि वे अपनी दूसरी पारी में भी अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर भारत को एक मजबूत स्थिति में खड़ा रखना चाहेंगे जो उनकी चुनावी विजय में सहायक बनी। इस सरकार के सामने चुनौतियों का अंबार है। औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, छोटे और मझोले उद्योग-व्यापार बंद होने के कगार पर हैं जिसकी वजह से बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। आयात बढ़ते जाने से व्यापार घाटा अभी चरम पर है। लेकिन इन सबके बीच सबसे अच्छी बात ये है कि जनता को प्रधानमन्त्री की मेहनत और ईमानदारी पर पूरा भरोसा है और ये बेहद सुखद स्थिति है क्योंकि शासक के पीछे जनता खड़ी रहे तब वह अपना काम भी मुस्तैदी से कर सकता है। विशेष रूप से निर्णय लेने का साहस उसमें आ जाता है। राजनीतिक खींचातानी से उपर उठकर ये समय नई सरकार को शुभकामनाएं देने का है क्योंकि उसकी सफलता पर किसी एक व्यक्ति या पार्टी का नहीं अपितु देश का भविष्य निर्भर है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 30 May 2019

मोदी : मुखालफत से मेरी शख्सियत संवरती है ......

बतौर प्रधानमन्त्री अपनी दूसरी पारी शुरू करने जा रहे नरेंद्र मोदी ने आज सुबह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और भाजपा के संस्थापक अध्यक्ष अटलबिहारी वाजपेयी की समाधि पर श्रद्धासुमन अर्पित कर राजनीतिक जगत को ये संदेश दे दिया कि उनकी दिशा क्या होगी ? कांग्रेस सहित दूसरे दलों को ये शिकायत रहा करती है कि श्री मोदी ने पहले सरदार पटेल और अब गांधी जी की विरासत पर कब्जा कर लिया है। वे ये आरोप भी लगाते हैं कि उनके प्रधानमन्त्री बनने के बाद से भाजपा ने उस समन्वयवादी राजनीति से मुंह मोड़ लिया है जिसके श्री वाजपेयी जीवंत प्रतीक रहे। लेकिन आलोचक इस बात को भूल जाते हैं कि श्री मोदी राजनीति में आने से पहले रास्वसंघ  के प्रचारक रहे हैं और उस दौरान विभिन्न व्यक्तित्वों और विचारधाराओं के अध्ययन का अवसर उन्हें  मिला। लोगों को ये भी ध्यान होगा कि लालकिले से अपने पहले भाषण में ही श्री मोदी ने 2019 में गांधी जी के जन्म  के 150 साल पूरे होने की बात कहते हुए स्वच्छ भारत का अभियान शुरू किया था। तब किसे मालूम था कि उन्हें ही इस अवसर पर देश का नेतृत्व करने का जनादेश दोबारा प्राप्त होगा। संसदीय दल के नेता चुने जाने के बाद बीते सप्ताह उन्होंने एक बार फिर  महात्मा जी को उसी सन्दर्भ में याद किया। इसी तरह 2014 में संसद के केन्द्रीय कक्ष में नवनिर्वाचित सांसदों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा  था कि अटल जी आज यहाँ होते तो सोने  में सुहागा हो जाता। उनकी मृत्यु पर शवयात्रा में कई किलोमीटर पैदल चलकर उन्होंने ये दर्शा दिया था कि दिवंगत नेता के प्रति उनके मन में किस हद तक श्रद्धा भाव था। आज उन्होंने एक बार फिर दिखा दिया कि वे अपनी दिशा से नहीं भटकते और अपना कहा भूलते नहीं। श्री मोदी अवसर की गम्भीरता और महत्व को समझकर उसका सही उपयोग करने के लिए जाने जाते हैं। देश का नेतृत्व दोबारा  करने के लिए जो प्रचंड जनादेश उन्हें बीते सप्ताह मिला उसमें उनके इस गुण का खासा योगदान है। गांधी जी और अटल जी दोनों उन विभूतियों में हैं जिनके प्रति उनके वैचारिक विरोधी भी सम्मान का भाव रखते हैं। प्रधानमंत्री ने आज उन दोनों की समाधि पर आदरभाव प्रगट कर अपने विरोधियों के साथ ही पूरी दुनिया को ये संदेश दे दिया है कि वे एक कठोर शासक भले हों लेकिन उनकी सोच में सबका साथ सबका विकास जैसी भावना समाहित है। हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में दक्षिण के एक दो राज्य छोड़कर श्री मोदी के व्यक्तित्व का जादू यदि हर जगह छाया रहा तो उसके पीछे उनकी समन्वयवादी सोच ही थी वरना उनके कटु आलोचक उद्धव ठाकरे और नीतीश कुमार जैसे नेता उनके नेतृत्व को कभी स्वीकार नहीं करते। जातिवादी दायरों में कैद राजनीति को चौतरफा धराशायी करने का कारनामा उन्होंने लगातार दोबारा दोहराकर ये साबित कर दिया कि राजनीति को प्रचलित ढर्रे से निकला जा सकता है बशर्ते नेता में ईमानदारी रहे। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में गच्चा खाने के बाद उन्होंने उप्र विधानसभा के चुनाव में जाति के तिलिस्म को तोड़ा और इस लोकसभा चुनाव में उसकी पूर्णाहुति कर दी। नरेंद्र मोदी ने हाल  ही में ये भी कहा कि आगामी पांच वर्ष का कालखंड 1942 से 1947 जैसा है जिसमें अनेक ऐतिहासिक घटनाओं से देश रूबरू होगा। निश्चित रूप से उनमें वह क्षमता है कि वे अप्रासंगिक हो चुके इतिहास को भी आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिक बनाकर उसे राष्ट्रीय जीवन से जोड़ देते हैं। अपने स्वच्छता अभियान को उन्होंने जिस तरह से गांधी जी से जोड़ा वह उनकी दूरगामी सोच का प्रमाण है। इसी तरह से वे सदैव अटल जी का स्मरण करते हुए उन्हें सम्मान देने से नहीं चूकते जिनके बारे में ये प्रचारित होता रहा है कि गुजरात दंगों के बाद वे श्री मोदी को राजधर्म का हवाला देते हुए मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते थे। आज अपना दूसरा  कार्यकाल प्रारंभ करते हुए उन्हें न गांधी जी के नाम की जरूरत है और न ही अटल जी का स्मरण करने की। 2019 का चुनाव उन्होंने अपने नाम के बल पर जीता है। भाजपा सहित एनडीए के जो 350 से ज्यादा सांसद जीते उनका नाम और काम तो पूरी तरह से पृष्ठभूमि में चला गया और मोदी-मोदी के नारे का सहारा लेकर लायक-नालायक सब चुनावी वैतरणी पार कर गए। ऐसे में यदि वे खुद को स्वयंभू मानकर आत्मकेंद्रित हो जाएँ तब उन्हें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है। लेकिन एक बात मानना पड़ेगी कि व्यवहारिकता में इस इंसान का कोई सानी नहीं है जो महज दो सीटें जीतने वाले अकाली दल के प्रमुख प्रकाश सिंह बादल के सार्वजनिक रूप  से चरण स्पर्श करने में नहीं सकुचाता। वे लोग जो बीते कुछ दिनों से गोड़से को लेकर श्री मोदी को घेरना चाह रहे थे उन्हें उनने माकूल जवाब दे दिया। वहीं अटल जी की समाधि पर श्रद्धावनत होकर उन आलोचकों को भी ठंडा कर दिया जो कहते थे कि भाजपा अटल-आडवाणी की पुण्याई को भुलाकर श्री  मोदी के शिकंजे में फंस गई है। ऐसे समय में जब देश की जनता ने एक तथाकथित गांधी को अपरिपक्व मानकर पूरी तरह उपेक्षित कर दिया तब महात्मा गांधी की समाधि पर सिर झुकाकर नरेन्द्र मोदी ने एक साथ बहुत सारे संदेश दे दिए। उसी के साथ स्व. वाजपेयी की समाधि पर उनका जाना शपथ ग्रहण के पहले राष्ट्र को ये आश्वस्त  करने का प्रयास है कि वे जनादेश का मर्म और भारतीय जनमानस की भावनाओं को गहराई तक समझते हैं और उनका शासन प्रखर राष्ट्रवाद से प्रेरित और प्रभावित होने के बाद भी उस कट्टर सोच से मुक्त रहेगा जिसके लिए उन्हें बीते डेढ़ दशक से भी ज्यादा बदनाम करने का योजनाबद्ध षडयंत्र चला आ रहा है। चुनाव परिणामों के बाद भी उनके प्रति घृणा फैलाने वाले गिरोह अपनी खीझ मिटाने से बाज नहीं आ रहे लेकिन वे भूल जाते हैं कि जितना विरोध हुआ उनकी ताकत और लोकप्रियता उतनी ही बढ़ती गई। मशहूर शायर डा. बशीर बद्र का ये शेर शायद नरेंद्र मोदी के लिए ही लिखा  गया था :- 
मुखालफत से मेरी शख्सियत संवरती है, मैं दुश्मनों का बड़ा ऐहतराम करता हूँ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 29 May 2019

खुद विफल रहीं प्रियंका दूसरों को डांट रहीं

ऐसा लगता है कार्यकर्ताओं की भावनाओं का दोहन करते हुए पार्टी पर अपना आधिपत्य बनाए रखने हेतु गांधी परिवार अपने परंपरागत खेल को जारी रखे हुए है। एक तरफ तो राहुल गांधी द्वारा अध्यक्ष पद छोडऩे को लेकर अनिश्चितता बनाकर रखी जा  रही है वहीं दूसरी  तरफ  उन्हें मनाने का नाटक भी समानांतर चल रहा है। ये भी सुनाई दे रहा है कि श्री गांधी ने यहाँ तक कह दिया है कि नया अध्यक्ष उनके परिवार से बाहर का हो। लेकिन इन सबके बीच उनकी बहिन और कांग्रेस की नई नवेली महासचिव प्रियंका वाड्रा जिस तैश में बड़े - बड़े नेताओं से चुनावी पराजय पर सफाई मांगते हुए डांट-फटकार कर रही हैं उससे तो यही लगता है कि गांधी परिवार पार्टी को अपनी निजी जागीर समझकर बाकी सबको अपना अनुचर समझता है। राहुल गांधी का बतौर अध्यक्ष हार के नतीजों पर नेताओं से सफाई मांगना तो समझ आता है लेकिन श्रीमती वाड्रा को उनके भाई ने चुनाव की घोषणा के बाद अचानक महासचिव नियुक्त करते हुए पूर्वी उप्र का प्रभार सौंपा था। उनके साथ मप्र के ज्योतिरादित्य सिंधिया को महासचिव नियुक्त करते हुए पश्चिमी उप्र में कांग्रेस को जिताने की कमान सौंपी गई। उप्र में पार्टी दुर्दशा की पराकाष्ठा तक जा पहुँची और प्रियंका जमीन आसमान एक करने के बाद भी अमेठी में राहुल तक को हारने से नहीं बचा सकीं जबकि इस सीट से  उनके पिता, माता और भाई जीतते रहे हैं। अमेठी के अलावा अवध और पूर्वी उप्र की सभी सीटों पर कांगे्रस औंधे मुंह गिरी जिसके लिए प्रियंका वाड्रा खुद कठघरे में खड़े किये जाने लायक हैं। कहाँ तो वे वाराणसी में नरेंद्र मोदी को घेरने का हौसला दिखा रही थीं और कहाँ अपना घर बचाने में ही नाकामयाब रहीं। आश्चर्य की बात ये है कि जो राहुल गांधी दूसरे  नेताओं को पुत्र और परिवार प्रेम पर फटकार रहे हैं वे अपनी बहिन से ये पूछने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहे  कि वे भी रायबरेली और अमेठी में ही ध्यान लगाए रहीं जिसका खामियाजा अगल-बगल की सीटों पर भी पार्टी को भोगना पड़ा। जब चुनाव पूरे शबाब पर था तब उनका ये बयान कांग्रेस की डूबती नाव में छेद कर गया कि पार्टी ने उप्र में बहुत से उम्मीदवार वोट कटवा के तौर पर खड़े किये  हैं। यदि उनकी जगह किसी अन्य कांग्रेसी नेता ने वह बयान दिया होता तब उसकी शामत आ गई होती लेकिन प्रियंका के बोलने पर सवाल करने की हिम्मत भला कौन दिखाता ? अब ऐतिहासिक पराजय के बाद राहुल गांधी ने दिखावे के लिए ही सही लेकिन इस्तीफ़े  की पेशकश करते हुए पार्टी के माथे पर लगे गांधी परिवार  निशान को अलग करने की बात कहते हुए वरिष्ठ नेताओं पर पुत्र प्रेम में डूबे रहने का आरोप लगाया तब निष्पक्षता का तकाजा है उन्हें अपनी बहिन से भी पूछना चाहिए कि उनके प्रभार वाली उप्र की सीटों पर कांग्रेस का कबाड़ा क्यों और कैसे हो गया और अमेठी में पार्टी की खस्ता हालत का अंदाजा वे क्यों नहीं लगा सकीं ? लेकिन इंग्लेंड मे King can do no wrong(राजा गलती कर ही नहीं सकता ) कांग्रेस में गांधी परिवार पर पूरी तरह फिट बैठती है। वरना जिस तरह से बड़े - बड़े नेताओं से सवाल पूछे जा रहे हैं उसी तरह का व्यवहार प्रियंका वाड्रा के साथ भी होना चाहिए। अखबारी खबरों के मुताबिक कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक और उसके बाद श्रीमती वाड्रा वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं पर इस बात के लिए जमकर बरसीं कि जिस तरह राहुल नरेंद्र मोदी पर चौकीदार चोर कहकर हमलावर थे वैसा ही बाकी सभी ने क्यों नहीं किया? अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने पार्टी के अन्य छत्रपों पर उदासीन रहने का आरोप ही मढ़ दिया। गत दिवस राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की जिस तरह से प्रियंका ने खिचाई की उससे तो लगता है राहुल से ज्यादा वे गुस्से में हैं जबकि उनकी हैसियत पार्टी संगठन के बाकी महासचिवों के बराबर की ही है। ये सब नाटकबाजी देखते हुए ये कहना पड़ता है कि गांधी परिवार केवल श्रेय लेना चाहता है। जब भी पार्टी पराजय झेलती है या उसकी स्थिति खराब होती है तब-तब गांधी परिवार ऐसी ही स्थिति पैदा करते हुए पार्टी में विभाजन करवा देता है या फिर अपनी गलतियों की सजा शक्तिहीन नेताओ को बली का बकरा बानकर दे देता है। सही बात तो ये है कि लोकसभा चुनाव की पराजय के लिए केवल और केवल राहुल और पूरा गांधी परिवार जिम्मेदार है जो कांग्रेस पर कुंडली मारकर बैठ गया है और बाकी नेताओं को दरबारी समझता है। यदि राहुल में तनिक भी ईमानदारी है तब उन्हें सबसे पहले प्रियंका वाड्रा से इस्तीफा लेना चाहिए था जिन्हें ब्रह्मास्त्र मानकर मैदान में उतारा गया लेकिन वे पूरी तरह बेअसर ही नहीं अपितु नुकसानदेह साबित हुईं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 28 May 2019

अगला लक्ष्य साम्यवाद मुक्त भारत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसदीय दल का नेता चुने के बाद संसद के केंद्रीय कक्ष में पूरे एनडीए नेतृत्व के सामने अपने लम्बे भाषण में राजनीतिक विचारधाराओं का जिक्र करते हुए कहा कि आज की राजनीति में गांधी , लोहिया और दीनदयाल नामक तीन धाराओं से निकले लोग हैं। उनका आशय मुख्यत: कांग्रेस , समाजवादी खेमा और भाजपा से था। सामान्य तौर पर राजनीतिक विश्लेषक इन्हीं तीन का उल्लेख किया करते हैं। दक्षिण भारत की विशिष्ट शैली को छोड़ दें तो अधिकांश राजनेता और पार्टियों का उद्गम स्थल यही हैं। कुछ क्षेत्रीय दल जैसे तेलगु देशम , तृणमूल कांग्रेस , टीआरएस (तेलंगाना राज्य परिषद), वाई एसआर कांग्रेस जहां कांग्रेस से अलग होकर बने वहीं लालू , मुलायम , शरद यादव , रामविलास पासवान, देवेगौड़ा आदि समाजवादी शिविर से निकले। बीजू जनता दल में कांग्रेस और समाजवादी दोनों का समावेश है। भाजपा की अपनी मौलिक पहिचान है जिसके मूल में हिंदूवादी राष्ट्रवाद है जिसका कुछ अंश शिवसेना में भी देखा जा सकता है। अकाली दल और छोटे-छोटे दूसरे क्षेत्रीय दल मुख्यधारा में नहीं हैं इसलिए उनका वैचारिक आधार उल्लेखनीय नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री ने एक प्रमुख वैचारिक शाखा का उल्लेख नहीं किया जिसे साम्यवादी या वामपंथी कहा जाता है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि कांग्रेस यद्यपि राजनीतिक तौर पर भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी है लेकिन वैचारिक दृष्टि से उसका मुकाबला वामपंथ से ही है क्योंकि जो राष्ट्रवाद और हिंदुत्व भाजपा का सैद्धांतिक आधार है उसे वामपंथ पूरी तरह से नकार देता है। राष्ट्रवाद को वह संकुचित सोच और धर्म को अफीम मानता है। आज़ादी के पहले से ही देश में वामपंथ की जड़ें जम चुकी थीं। उन्होंने गांधी जी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को लेकर जो कहा वह इतिहास का अमिट हिस्सा है। आज़ादी के बाद तेलंगाना का सशस्त्र विद्रोह वामपंथियों के भारत विरोधी दुस्साहस का उदाहरण था। सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित पं नेहरू की सरकार ने जब केरल की नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त किया तब उसके पीछे उनके मन में साम्यवादी खतरे से उत्पन्न भय ही होगा। हालांकि नेहरू जी के इर्दगिर्द सदैव वामपंथ में दीक्षित लोगों का जमावड़ा रहा जिनमें वीके कृष्णा मेनन का नाम प्रमुख था। जब वामपंथियों को लगा कि वे भारत में रूस और चीन जैसी क्रांति नहीं करवा सकेंगे तब उन्होंने नक्सलवाद जैसा छद्म रास्ता अपनाया लेकिन उसके बाद भी वे अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सके। बंगाल और केरल के अलावा देश के विभिन्न राज्यों में जहां उनका प्रभाव क्षेत्र रहा वहां से उनके सांसद चुनकर आते रहे किन्तु अब वे सुनहरे दिन बीत चुके हैं और साम्यवाद कुछ बुद्धिजीवियों के अलावा शहरी नक्सलियों तक सीमित रह गया है। हालांकि माओवाद अभी भी हिंसा के जरिये अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता रहता है लेकिन धीरे-धीरे उसका प्रभाव भी घट रहा है। क्योंकि बीते पांच वर्ष में उनको विदेश से मिलने वाली सहायता पर काफी रोक लगी है। वहीं बुद्धिजीवियों की जमात में घुसे वामपंथियों की भी जमकर फजीहत होने से वे रक्षात्मक होने को बाध्य हो गए हैं। जेएनयू जैसे उनके अड्डों की असलियत भी जिस तरह राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनी उससे वामपंथी पूरी तरह बेनकाब हो गए। इसका परिणाम लोकसभा चुनाव में साम्यवादियों के सफाए के तौर पर सामने आया। बेगूसराय में कन्हैया कुमार को देश भर के साम्यवादियों ने अपनी प्रतीकात्मक लड़ाई का हिस्सा बनाना चाहा किन्तु वह कामयाब नहीं हुआ। बंगाल और केरल में भी वामपंथी कुछ खास नहीं कर सके। शायद यही वजह रही कि नरेंद्र मोदी ने उन्हें उल्लेख करने लायक तक नहीं समझा। हो सकता है भाजपा की रणनीति ही वामपंथियों को पूरी तरह उपेक्षित करने की हो किन्तु ये बात भी सही है कि केरल में सरकार होने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में साम्यवाद अब हाशिये से भी बाहर होने लगा है। त्रिपुरा और बंगाल में वह अस्तित्वहीन हो चला है। अन्य राज्यों में एक भी लोकसभा सीट ऐसी नहीं है जिसे वामपंथियों का अभेद्य गढ़ कहा जा सके। त्रिपुरा और बंगाल में भाजपा का अभ्युदय वामपंथ के विकल्प के तौर पर ही हो सका है। भाजपा भी जानती है कि उसका अंतिम वैचारिक संघर्ष वामपंथियों से ही होगा। नरेंद्र मोदी केवल भाजपा के चुनावी चेहरे नहीं बल्कि वैचारिक प्रतीक भी हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी की शैली से अलग विचारधारा के प्रस्तुतीकरण में बेहद मुखर और कठोर भी हैं। ऐसा लगता है अपने दूसरे कार्यकाल में श्री मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की जगह वामपंथ मुक्त भारत पर ध्यान केंद्रित करेंगे लेकिन ये काम बिना शोर -शराबे के होगा क्योंकि साम्यवाद राजनीतिक ताकत बनने की स्थिति खोता जा रहा है। यही बात है 23 मई के बाद से ही छद्म वामपंथियों ने रुदन-क्रंदन शुरू कर दिया है। सोशल मीडिया पर घृणा का प्रसार तेज कर दिया गया है। भय के नए भूत पैदा करने का अभियान भी शुरू हो चुका है। इसका असर क्या होगा ये कहना कठिन है क्योंकि उदारीकरण के बाद की नई पीढ़ी में साम्यवाद को लेकर कोई आकर्षण नहीं है। कांग्रेस और भाजपा विरोधी दूसरी पार्टियों को धराशायी करने के बाद नरेंद्र मोदी वामपंथ की जड़ों में मठा डालने से बाज नहीं आएंगे। उस दृष्टि से आगामी पांच साल बेहद महत्वपूर्ण रहेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी