Tuesday 14 May 2019

लंबा चुनाव अभियान मुद्दों से भटकाव का कारण

लोकसभा चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा के बाद इसी स्तम्भ में लिखा गया था कि बहुत लंबा चुनाव अभियान थकाऊ और उबाऊ हो जाता है। आखिरी चरण आते-आते तक मूल मुद्दे तो लुप्त हो जाते हैं और व्यर्थ की रस्साखींच प्रतियोगिता शुरू हो जाती है। आरोप-प्रत्यारोप भी नीतिगत न होकर व्यक्तिगत स्तर पर आ जाते हैं। खिलाड़ी भावना की जगह शत्रुता का भाव दिखाई देने लगता है। विभिन्न दलों ने अपने जो घोषणापत्र मतदान के पहले जारी किये थे उनमें किये गये वायदे उनके नेताओं को ही याद नहीं रहे।  59 सीटों के मतदान वाला अंतिम चरण आगामी 19 मई को सम्पन्न हो जाएगा और उसके फौरन बाद विपक्ष और सत्तापक्ष 23 तारीख की दोपहर तक आने वाले नतीजों का पूर्वानुमान लगाकर गोटियाँ बिठाने में व्यस्त हो जायेंगे। ये कोई नई बात नहीं है। भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश में चुनाव कराना हंसी खेल नहीं है। उस दृष्टि से चुनाव आयोग ने जो और जितना किया वह प्रशंसा के योग्य है। चुनावी हिंसा को रोकना एक बड़ी समस्या थी। बिहार और उप्र तो इस मामले में कुख्यात थे लेकिन बंगाल को अपवाद मान लें तो अभी तक के छह चरणों में बाकी राज्यों में हिंसा की घटनाएँ पूर्वापेक्षा कम हुईं जो निश्चित तौर पर बड़ी सफलता है। लेकिन ये कहना भी गलत नहीं होगा कि इतना लंबा अभियान चुनावों की सहजता को समाप्त कर देता है। उदाहरण के तौर पर उप्र को ही लें तो वहां हर चरण में मतदान हुआ। इसकी वजह से प्रचार करने वाले नेताओं को नये-नये मुद्दे तलाशने में कितनी मशक्कत करनी पड़ी ये विचारणीय प्रश्न है। संचार क्रांति के इस युग में दुनिया के एक कोने की खबर दूसरे तक पहुँचने में कुछ सेकेण्ड लगते हैं तब एक नेता किसी प्रदेश की एक सीट पर क्या बोल आया उसकी जानकारी दूसरी सीट के मतदाताओं तक तत्काल पहुंचने से जब वह उनके बीच में आता है तब तक उसका भाषण पुराना हो चुका होता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय मुद्दों से शुरू हुआ चुनाव आधा होते तक तात्कालिक और स्थानीय मुद्दों पर केन्द्रित हो गया। कभी-कभी तो लगता है कि हमारे देश के नेताओं को चुनाव लडऩे का विधिवत प्रशिक्षण दिलवाना चाहिए। स्टार प्रचारकों के नाम पर जिस तरह के बड़बोले और फूहड़ लोगों को मंच दिया जा रहा है वह हंसी से ज्यादा चिंता का विषय है। चुनावी भाषणों में जैसी स्तरहीन टिप्पणियाँ और कटाक्ष सुनने को मिले वे अच्छा संकेत नहीं है। आपत्तिजनक बयानों पर सम्बंधित नेता को दो-तीन दिनों तक प्रचार से प्रतिबंधित कर देना किसी उद्दंड विद्यार्थी को बतौर सजा कुछ देर तक कक्षा के बाहर खड़ा कर देने जैसा ही है। होना तो ये चाहिए कि आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के दोषी चुनाव प्रचारक को शेष चुनाव के दौरान प्रचार से रोक दिया जाए। ऐसा होने पर दूसरे नेता अनर्गल प्रलाप करने से डरेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होने से सभी पक्षों के कुछ नेताओं की जुबान बेलगाम हो गई है। इसका कारण भी ये है कि लंबा चुनाव अभियान होने के कारण उनके पास मतदाताओं से कहने को कुछ नया नहीं बचता। चुनाव किसी भी राजनीतिक दल के लिए अपनी नीतियों और सिद्धांतों का प्रचार करने का अवसर होता है लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे देश में येन केन प्रकारेण जीत हासिल करने का जो जूनून समूची राजनीतिक बिरादरी पर सवार हो गया है उसके कारण पार्टियों को अपने प्रतिबद्ध और प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की जगह अभिनेताओं और खिलाडिय़ों को प्रत्याशी बनाना पड़ रहा है। वरना उर्मिला मातोंडकर और सनी देओल जैसे चेहरों को पार्टी की सदस्यता लेते ही उम्मीदवारी देना किसी फिल्म के लिए साइन करने जैसा ही है। इसी तरह से टिकिट कटते ही पुरानी पार्टी छोड़कर आने वाले नेताओं को अपनी पार्टी से उम्मीदवार बना देना भी राजनीतिक दलों के सैद्धांतिक दिवालियेपन का परिचायक नहीं तो और क्या है? कुल मिलाकर राजनीति भी आईपीएल के आयोजन जैसी हो गई है जिसमें जीत हासिल करना ही एकमात्र लक्ष्य है और जिसके लिए किसी भी खिलाड़ी को ज्यादा बोली लगाकर खरीदा जा सकता है। यही नहीं तो टीम के मालिकों में खिलाड़ी की जगह उद्योगपति और फिल्मी अभिनेता आगे आ जाते हैं जिनकी खेल की बेहतरी में कोई रूचि नहीं बल्कि केवल और केवल पैसा बटोरने में रहती है। अब चुनाव लडऩे के लिए प्रत्याशी की योग्यता का पैमाना उसका अनुभव और सैद्धांतिक प्रतिबद्धता न होकर उसकी जाति, आर्थिक स्थिति और जीतने की क्षमता हो गया है। इसकी वजह भी यही है कि लम्बे चुनाव अभियान के चलते राजनीतिक दलों और उसके नेताओं की जमीनी पकड़ और विश्वसनीयता में जबरदस्त कमी आई है। बेहतर हो इस चुनाव के बाद चुनाव आयोग इस बारे में विचार करते हुए चुनाव कार्यकम को संक्षिप्त करने की कार्ययोजना बनाये। इसके अलावा एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर भी राष्ट्रीय विमर्श शुरू किया जाना चाहिए क्योंकि हर समय चुनाव की वजह से देश का वातावारण लगातार विषाक्त होता जा रहा है। विकास परियोजनाओं में विलम्ब के साथ ही संवेदनशील मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति का एक कारण भी चुनाव ही  हैं वरना राम जन्मभूमि जैसा विवाद कभी का सुलझ गया होता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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