Tuesday 21 May 2019

विपक्षी एकता : जब चिड़िया चुग गई खेत

आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू चुनाव खत्म होने के साथ ही विपक्षी नेताओं को एकजुट करने के लिए भागदौड़ कर रहे हैं। इसे सोनिया गांधी द्वारा चुनाव परिणाम के दिन आमंत्रित बैठक से जोड़कर भी देखा जा रहा है क्योंकि एनडीए से नाता तोडऩे के बाद श्री नायडू ने कांग्रेस से गठबंधन कर लिया था। लोकसभा चुनाव के पहले विपक्षी एकता की अनेक कोशिशें की गईं जिनमें ममता बैनर्जी के साथ चंद्रबाबू भी आगे-आगे थे लेकिन बाद में ममता एकला चलो हो गईं। उप्र में अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से हुए गठबन्धन को बिना सूचना तोड़ते हुए मायावती के साथ समझौता कर लिया। बिहार में लालू पुत्रों ने महागठबंधन बनाने की कोशिश तो की लेकिन सीटों के बंटवारे और प्रत्याशी चयन में गड़बड़ी के चलते वह अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ सका। महाराष्ट्र में अवश्य कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी में ठीकठाक तालमेल बैठा और तमिलनाडु में भी कांग्रेस द्रमुक के साथ गठजोड़ कर सकी लेकिन शेष भारत में कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां राष्ट्रीय महागठबंधन जैसा कोई विकल्प नहीं खड़ा कर सकीं। यद्यपि इसके लिए तमाम छोटे दल कांग्रेस के अहंकार को कसूरवार ठहराते हैं लेकिन ये अर्धसत्य है। हालाँकि सबसे बड़े विपक्षी दल के साथ ही देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी होने की वजह से ये अपेक्षा की जाती थी कि वह समूचे विपक्ष को एक छतरी के नीचे लाकर चुनाव पूर्व गठबंधन करेगी जिससे भाजपा विरोधी मतों का बंटवारा रुक सके लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उप्र में कांग्रेस द्वारा अकेले चुनाव मैदान में उतरने के बाद से ही उस तथाकथित विपक्षी एकता की हवा निकल गयी जो कुछ महीने पहले विभिन्न अवसरों पर दिखाई दी थी। ममता बैनर्जी भाजपा के विरोध में सबसे ज्यादा आक्रामक और निर्मम रहीं लेकिन बंगाल में कांग्रेस के साथ उनकी भी पटरी नहीं बैठी। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के साथ तालमेल बिठाने की हरसंभव कोशिश की लेकिन वह भी सफलीभूत नहीं हुई। इस प्रकार विपक्ष भावनात्मक स्तर पर भले ही मोदी विरोधी माहौल बनाने के लिए एकस्वर में बोलता रहा लेकिन जमीनी स्तर पर मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाली स्थिति ही बनी रही। दूसरी तरफ  बीते पांच साल तक अपने सहयोगियों की नाराजगी झेलती रही भाजपा ने चुनाव आने के पहले नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे जैसे बड़े सहयोगियों को संतुष्ट कर दिया। इन पर विपक्ष भी डोरे डालता रहा किन्तु उसे निराशा हाथ लगी। उप्र में अपना दल (अनुप्रिया धड़ा) और निषाद पार्टी को साधने का उसका दांव भी काफी कारगार लग रहा है। बिहार में नीतीश और रामविलास पासवान के कारण उपेन्द्र कुशवाहा को छोडऩे में भाजपा ने तनिक भी परहेज नहीं किया। एग्जिट पोल से मिले संकेत इतने स्पष्ट हैं कि भाजपा विरोधी राजनीतिक विश्लेषक भी ये मानने के लिए मजबूर हो गये कि भले ही भाजपा स्पष्ट बहुमत से कुछ पीछे रह जाए लेकिन सरकार उसी के नेतृत्व में एनडीए बनायेगा जिसके प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ही बनेंगे। हालाँकि विपक्ष को अभी भी मरुस्थल में पानी की बूंद की तरह ये लग रहा है कि त्रिशंकु लोकसभा उबरने की हालत में यदि भाजपा 200 के आसपास सिमट गयी तब एनडीए के घटक दलों के अलावा बाहर से सम्भावित समर्थन देने वाले जगनमोहन रेड्डी और के. चन्द्रशेखर राव जैसे नेता चाहेंगे कि श्री मोदी की जगह भाजपा किसी और को प्रधानमन्त्री पद के लिए आगे बढ़ाये। लेकिन ये संभव नहीं होगा क्योंकि श्री मोदी और अमित शाह तब विपक्ष में बैठकर खिचड़ी सरकार के बनने और गिरने का इंतजार करना पसंद करेंगे। लेकिन एग्जिट पोल के नतीजों के बाद ये स्थिति काल्पनिक ही लगती है। और उसी का कारण है कि त्रिशंकु की दशा में कर्नाटक वाली रणनीति के तहत सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को सरकार बनाने से रोकने का दबाव बनाने के उद्देश्य से ही सोनिया गांधी ने 23 मई को विपक्षी नेताओं की बैठक बुलवाई थी लेकिन ज्योंही एग्जिट पोल में मोदी मैजिक के कारगर होने की खबर आई त्योंही बैठक तो रद्द कर दी गयी लेकिन श्री नायडू ने बिखरे विपक्ष को एकजुट करने की कवायद जारी रखी। उन्होंने अखिलेश और मायावती को भी साधने की कोशिश की लेकिन इसी बीच ये खबर भी आ गयी कि वे मायावती को प्रधानमंत्री देखना चाहेंगे। सपा-बसपा दोनों को उम्मीद है कि महागठबंधन को उप्र में 50 से 55 सीटें जरुर मिल जायेंगी। यदि ममता भी बंगाल में अच्छी खासी सफलता हासिल कर लेती हैं उस सूरत में वे मायावती को प्रधानमन्त्री स्वीकार करेंगी इसमें भी संदेह है। और कहीं कांग्रेस 100 के करीब पहुँच गईं तब वह भी भाजपा और नरेंद्र मोदी का डर दिखाकर राहुल की ताजपोशी का प्रयास करेगी जिसका संकेत गुलाम नबी आजाद दे चुके हैं। ये सब देखते हुए ही भाजपा विरोधी राजनीतिक विश्लेषक भी ये कहने मजबूर हो गये हैं कि इतना दिशाहीन विपक्ष इसके पहले नहीं दिखा। ये कहना गलत नहीं है कि यदि विपक्ष वाकई भाजपा और श्री मोदी को हटाना चाहता था तब उसे चुनाव पूर्व गठबंधन करते हुए वोटों का बंटवारा रोकने के साथ एक साझा घोषणापत्र और नेता मतदाताओं के सामने रखना था। भाजपा के सहयोगी भी भले ही श्री मोदी को पूरी तरह से पचा नहीं पाते हों लेकिन एनडीए में नेता को लेकर किसी भी तरह का विवाद या अनिश्चितता नहीं रही। अमित शाह और श्री मोदी के नामांकन के अवसर पर एनडीए के सभी वरिष्ठ नेताओं की उपस्थिति से जो सकारात्मक सन्देश गया वैसा कुछ करने से कांग्रेस और अन्य भाजपा विरोधी दल चूक गये। यही वजह है कि एग्जिट पोल के बाद मोदी विरोधी तबका भी विपक्ष के एकजुट नहीं होने को मोदी की वापिसी के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है। एक बात और यहाँ उल्लेखनीय है कि यदि भाजपा 300 पार कर गई तब मोदी-शाह की जोड़ी विपक्ष को और कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। कल अमित शाह द्वारा उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को एनडीए में शांमिल होने का आमंत्रण देना उस दिशा में पहला कदम कहा जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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