Wednesday 15 May 2019

ममता भी वामपंथी हिंसा की राह पर

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की संघर्षशीलता और सादगी से उनके विरोधी भी प्रभावित रहे हैं। वामपंथियों के लगभग चार दशक पुराने दुर्ग पर झंडा फहराने का कारनामा निश्चित रूप से उन्हें एक जनाधार वाली नेत्री के रूप में साबित करता है। सत्ता में आने के बाद भी साधारण रहन-सहन की वजह से वे जनता से जुडाव बनाये रखती हैं। कांग्रेस में रहते हुए जब उन्हें ये महसूस हुआ कि वह साम्यवादियों के प्रति नर्म रवैये पर चलती है तब उन्होंने तृणमूल कांग्रेस नामक अपनी पार्टी बना ली और वामपंथी शासन को उखाड फेंकने के लिए भाजपा से गठजोड़ भी किया। वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री जैसा महत्वपूर्ण विभाग भी उन्हें मिला लेकिन अपने जिद्दी स्वाभाव और मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाले रवैये की वजह से वे अटल जी जैसे समन्वयवादी व्यक्ति के साथ भी अपेक्षित तालमेल नहीं बना सकीं और आये दिन सरकार से समर्थन वापिस लेने की धमकी देती रहीं। बाद में वे पूरी तरह स्वतंत्र होकर सियासत करने लगीं और बंगाल की सत्ता हाथ में आने के बाद तो उन्होंने न सिर्फ  कांग्रेस वरन माक्र्सवादियों के कैडर को भी तोड़कर अपनी पार्टी का हिस्सा बना लिया। उन्हें लगा होगा कि लोकप्रियता के दम पर सत्ता तो हासिल की जा सकती है किन्तु उसमें बने रहने के लिए शायद वही शैली जरूरी है जो वामपंथी चार दशक  तक अपनाते हुए बंगाल पर एकछत्र राज करते रहे। इसी के साथ सत्ता मिलने के बाद ममता की ईमानदारी पर भी सवाल उठने लगे और चिट फंड सहित अनेक घोटालों में उनकी पार्टी के तमाम नेताओं के संलग्न होने की जानकारी बाहर आ गई। कांग्रेस चूँकि बंगाल में अपनी मारक क्षमता पूरी तरह खो चुकी थी और वामपंथी भी धीरे-धीरे अप्रासंगिक होते चले गये तब रास्वसंघ द्वारा तैयार की गयी जमीन पर भाजपा ने अपनी फसल बोनी शुरू कर दी जो बीते दस वर्ष में काफी तेजी से फैलती गई। हालाँकि ये एक विचारणीय पहलू है कि वह जिस जनसंघ का पुनर्जन्म मानी जाती है उसके संस्थापक स्व. डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के गृहप्रदेश में भाजपा को अपनी उपस्थिति महसूस करवाने में कई दशक लग गये। लेकिन ये कहना कतई गलत नहीं होगा कि कांग्रेस और वामपंथियों को चौंकाते हुए भाजपा ने जिस चपलता से ममता का विकल्प बनने की स्थिति उत्पन्न की उससे वे बौखला सी गईं क्योंकि पहले कांग्रेस और फिर साम्यवादियों का विकल्प बन जाने के बाद उन्हें ये स्वीकार नहीं हो रहा था कि उनके वर्चस्व को इतनी जल्दी कोई चुनौती देने  लगे। विशेष रूप से नरेंद्र मोदी और अमित शाह के राष्ट्रीय राजनीति में उदय के बाद भाजपा ने जिस योजनाबद्ध तरीके से बंगाल के साथ ही पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में अपने पाँव जमाये उसका असर बंगाल में भी दिखाई देने लगा। 2014 में दो लोकसभा सीटों के बाद विधानसभा चुनाव में जोरदार प्रदर्शन के साथ ही भाजपा ने ग्राम पंचायतों के चुनाव में दूसरा स्थान प्राप्त कर राज्य में प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर स्वयं को स्थापित करते हुए मतदाताओं के एक बड़े वर्ग में ये विश्वास प्रबल कर दिया कि तृणमूल का सामने आकर मुकाबला करने की ताकत और हिम्मत उसी में है। और इसी वजह से ममता ने अपने नाम को गलत साबित करते हुए भाजपा के विरुद्ध शत्रुवत व्यवहार शुरू कर दिया। चिटफंड घोटाले को भाजपा ने जिस तरह अपना प्रमुख मुद्दा बनाते हुए तृणमूल के अनेक प्रमुख नेताओं के जेल जाने की नौबत पैदा कर दी उससे ममता भी भयभीत हो उठीं और जिस वामपंथी दमन के विरुद्ध संघर्ष करते हुए वे जननेत्री बनीं उसे ही उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने का जरिया बना लिया। वामपंथियों के दौर के तमाम असामाजिक तत्व धीरे-धीरे ममता की छत्रछाया में आकर सुरक्षित हो गये। बीते पांच वर्ष में भाजपा ने बंगाल को अपना प्रमुख लक्ष्य बना लिया और अमित शाह ने लगातार दौरे करते हुए वहां ग्रामीण इलाकों तक में पार्टी की प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज करा दी। इस राज्य की लगभग 27 फीसदी मुस्लिम आबादी एक ज़माने में वामपंथी शासन  के साथ थी  लेकिन अब वही ममता की रीढ़ बन गयी है। भाजपा ने असम की तरह यहाँ भी मुस्लिम घुसपैठियों के विरुद्ध मुहिम छेड़ी जिसका अनुकूल असर हुआ और हिन्दुओं को ये लगने लगा कि भाजपा ही उनकी हितचिन्तक है और बंगाल में जनसँख्या के असंतुलन को रोकने के प्रति प्रयासरत भी है। बीते कुछ वर्षों में राज्य के भीतर हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद ममता के अल्पसंख्यक प्रेम ने भाजपा को और मजबूती प्रदान कर दी जिसके बलबूते वह लोकसभा चुनाव में 20 से भी ज्यादा सीटें जीतने के दावे पूरे आत्मविश्वास से करने लगी। पहले-पहल तो ये मुंगेरीलाल का सपना लगा लेकिन जिस तरह वहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अलावा उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सभाओं में जनता उमड़ी उसने ये संकेत तो दे ही दिया कि भाजपा ही तृणमूल का विकल्प बनने की स्थिति में आ चुकी है। और इसी वजह से ममता ने हर वह काम किया जिससे भाजपा के समर्थकों का मनोबल तोड़ा जा सके। श्री मोदी को प्रधानमंत्री नहीं मानने जैसा बयान उनकी खीज और भय दोनों को साबित कर गया। बात उन्हें थप्पड़ मारने तक जा पहुँची। लेकिन गत दिवस कोलकाता में अमित शाह के रोड शो में जिस तरह से प्रायोजित हिंसा करवाई गई उसके बाद ये स्पष्ट हो गया कि भले ही भाजपा अपने दावे के अनुरूप सीटें नहीं जीत सके लेकिन उसने ममता के एकाधिकार के लिए खतरा तो उत्पन्न कर ही दिया जो भविष्य में असर दिखाए बिना नहीं रहेगा।  ममता को बंगाल की जनता ने वामपन्थी निरंकुशता के विरुद्ध संघर्ष करने के पुरस्कार स्वरूप सत्ता सौंपी थी लेकिन अब वे भी उसी बुराई में पूरी तरह डूब चुकी हैं। प्रधानमन्त्री बनने के उनके सपने में भाजपा चूंकि सबसे बड़ी बाधा है इसलिए कांग्रेस और वामपंथियों को छोड़कर बीते कुछ समय से वे भाजपा के विरूद्ध पूरी ताकत दिखा रही हैं। उन्हें ये भी अखर रहा है कि वामपथियों के समर्थक मतदाता बड़ी संख्या में भाजपा की तरफ  झुकते जा रहे हैं। 23 मई को यदि भाजपा ने बंगाल की दस लोकसभा सीटे भी जीत लीं तब राष्ट्रीय राजनीति में उनकी ऊँची उड़ान का सपना धरा रह जाएगा। कल और उसके पहले बंगाल में ममता बैनर्जी ने सरकारी संरक्षण में राजनीतिक गुंडागर्दी का जो नजारा पेश किया उसने वामपंथी शासन के भयावह दौर को भी पीछे छोड़ दिया है। भले ही इससे उनको तात्कालिक सियासी लाभ हो जाये लेकिन उनके प्रभुत्व का पतन भी ज्यादा दूर नहीं लगता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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