Thursday 16 May 2019

इसके पहले कि वितृष्णा घृणा में बदल जाए ..........

संभवत: ये पहला अवसर है जब समय सीमा से पहले ही चुनाव प्रचार पर रोक लगा दी गई। कोलकाता में परसों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो में हुई हिंसा के बाद गत दिवस चुनाव आयोग ने विशेष  प्रावधानों के अंतर्गत 17 मई की शाम से बंद होने वाला प्रचार आज से ही रोक दिया। इसे लेकर तरह-तरह की प्रातिक्रियाएं आ रही हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने चुनाव आयोग को रास्वसंघ से नियंत्रित बताया वहीं सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने सवाल उठाया कि आयोग ने ये निर्णय करने में 24 घंटे क्यों लगाये? उन्होंने आरोप लगाया कि ऐसा गत दिवस बंगाल में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की दो रैलियों के संपन्न हो जाने के लिए किया गया। आश्चर्य की बात है कि ममता से सबसे ज्यादा प्रताडि़त वामपंथी इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की गुंडागर्दी के विरुद्ध बोलने से इसलिए पीछे हट रहे हैं क्योंकि उनका ताजा निशाना भाजपा है। चौंकाने वाली बात ये रही कि पूरे देश में चुनावी हिंसा न के बराबर हुई जबकि बंगाल में हर चरण के मतदान में जमकर खूनखराबा हुआ। ममता विरोधी मतों का धु्रवीकरण भाजपा के पक्ष में होने की सम्भावना से भी तृणमूल भयाक्रांत है। दरअसल वामपंथी और कांग्रेस चूँकि चुनाव बाद भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन की बात करते सुनाई दे रहे हैं इसलिए जो मतदाता ममता से त्रस्त हैं उन्हें भाजपा ही उनका विकल्प दिखाई दे रही है। लेकिन परसों हुई हिंसा की प्रतिक्रिया से आशंकित चुनाव आयोग ने 17 की बजाय 16 मई को ही प्रचार रोक देने जैसा कदम उठाकर एक नया रास्ता देश को दिखा दिया है। लगभग डेढ़ माह लम्बे चुनाव अभियान ने राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं को ही नहीं अपितु पूरे देश को थका दिया है। देश के भविष्य का फैसला जिस प्रक्रिया से जुड़ा हुआ हो वही अब बोझ लगने लगी है। एक जमाना था जब फिल्मों की लम्बाई तीन घंटे की हुआ करती थी। 10-12 गीत होते थे। साधारण फिल्में तक 10-12 हफ्ते सिनेमा घरों में चला करती थीं। लेकिन आज के दौर में सुपर हिट फिल्म भी हफ्ते दो हफ्ते चल जाये तो बहुत बड़ी बात मानी जाती है। और अब तो 15-20 मिनिट वाली लघु फिल्मों का दौर आ गया है जिसे देखने के लिए सिनेमा घर तक जाने की तकलीफ  उठाने की भी जरूरत नहीं पड़ती। बदलाव के इस दौर में इतने बड़े देश को इतने लम्बे समय तक एक ही खूंटे से बांधे रखना अटपटा और अवांछनीय लगने लगा है। दो दिन पूर्व इसी स्तम्भ में लम्बे चुनाव अभियान से जनता के ऊब जाने का मुद्दा उठाया गया था। उसी को आगे बढाते हुए ऐसा लगने लगा है कि चुनाव प्रचार के गिरते स्तर और उससे भी बढ़कर उस पर होने वाले खर्च के मद्देनजर मतदान के 36 घंटे पहले बंद होने वाला शोर-शराबा और पहले बंद कर  दिया जाए। संचार क्रांति के इस दौर में जनता तक अपनी बात पहुँचाने के अनेक तरीके निकल आये हैं। प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री करोड़ों लोगों से फोन पर वोट की अपील कर  देते हैं। व्हाट्स एप, ट्विटर, एसएमएस और फेसबुक सरीखे सोशल मीडिया के माध्यम से भी राजनीतिक चर्चा का सैलाब आ जाता है। ऐसे में 36 घंटे पहले तक प्रचार की सुविधा बंद करते हुए इसे और पीछे ले जाया जाए जिससे चुनावी शोर कम हो तथा पैसे की होली जलने पर भी नियंत्रण किया जा सके। एक समय था जब दूरदर्शन विभिन्न पार्टियों को चुनाव प्रचार हेतु प्रसारण की सुविधा देता था लेकिन निजी चैनलों की बाढ़ आ जाने के बाद वह सुविधा महत्वहीन होकर रह गई। अर्से से ये मांग होती आई है कि चुनाव को सस्ता बनाने के लिए सरकार उसका पूरा खर्च वहन करे। इससे काले धन का उपयोग रुक सकेगा और भ्रष्टाचार पर भी नकेल कस जायेगी। बीते कुछ समय से मतदाता पर्चियां घर-घर पहुँचाने का दायित्व चुनाव आयोग ने अपने हाथ में ले लिया। इससे राजनीतिक दलों का बड़ा सिरदर्द दूर हो गया है। मतदान का प्रतिशत भी इसकी वजह से बढ़ा है। इसी तरह से सभी प्रत्याशियों का परिचय और प्रचार सामग्री घर-घर मतदान के हफ्ते भर पहले तक पहुंचाने का प्रबंध भी सरकारी खर्च पर हो। कहते हैं जापान और ब्रिटेन सहित अनेक लोकतान्त्रिक देशों में चुनाव सामग्री डाक से नि:शुल्क भेजी जाने की व्यवस्था है। इसी के साथ ये भी किया जावे कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद बड़ी सभाओं, रैलियों और रोड शो जैसे आयोजनों पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगाकर केवल व्यक्तिगत सम्पर्क, बैठकें और गोष्ठियों की अनुमति दी जावे। इस सम्बन्ध में रोचक बात ये है कि जिस सीट पर प्रचार  बंद हो जाता है उसके 25-50 किलोमीटर दूर किसी दूसरी सीट पर स्टार प्रचारक की रैली या रोड शो आयोजित किया जाता है। इस तरह से चुनाव की आचार संहिता का मजाक ही उड़ता है। ये सब देखते हुए बेहतर रहेगा कि चुनाव आयोग द्वारा जैसे ही चुनाव की अधिसूचना जारी की जाती है त्योंही पूरे देश में सार्वजानिक प्रचार प्रतिबंधित कर दिया जाए। इसका सबसे बड़ा लाभ ये होगा कि व्यर्थ के आरोप-प्रत्यारोपों से उत्पन्न कीचड़ उछाल प्रतियोगिता और उसके परिणामस्वरूप तनाव से देश बच सकेगा। अन्यथा लम्बा चुनाव अभियान पूरे देश के लिए समस्या बनता जा रहा है। चुनाव सुधारों के लिए होने वाली तमाम बातों के बीच इस बारे में भी यदि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों से हटकर जनमत जानने का प्रयास करे तो ऐसा लगता है अधिकाँश लोग इस सुझाव के पक्ष में खड़े होंगे। नेताओं के प्रति बढ़ती असम्मानजनक और व्यक्तिगत टिप्पणियों से उनके प्रति वितृष्णा घृणा में बदल जाए उसके पहले ही समुचित कदम उठा लेना चाहिए। बंगाल के चुनाव ने भविष्य के संकेत दे दिए हैं और फिर पुरानी उक्ति भी है कि जो बंगाल आज सोचता है वही पूरा देश भविष्य में सोचता है। क्या देश लोकतंत्र के उस मॉडल को पसंद करेगा?

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment