Saturday 25 May 2019

इंसानी जान की कीमत मुआवजा तो नेताओं को सुरक्षा क्यों?

देश में नई सरकार बनने के जश्न के बीच गुजरात की व्यवसायिक राजधानी सूरत से जो दुखद समाचार आया उसने प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति की आंखें नम कर दीं। एक बहुमंजिला व्यवसायिक इमारत में दोपहर लगी आग से वहां संचालित एक कोचिंग सेंटर में मौजूद 21 बच्चे जलकर मौत के आगोश में चले गये। कुछ ने कूदकर अपनी जान बचाई लेकिन उनमें से भी कई की स्थिति नाजुक है। राज्य सरकार ने मामला सूरत की महानगरपालिका पर ढाल दिया है क्योंकि किसी बहुमंजिला इमारत में अग्निशमन की व्यवस्था संबंधी जाँच करने का दायित्व स्थानीय निकाय के अंतर्गत ही आता है। प्रधानमन्त्री ने भी अपना दु:ख व्यक्त कर दिया। मरने वाले बच्चों के परिजनों को सरकार आर्थिक मुआवजा दे देगी। उसके बाद जाँच समिति बनेगी, दो-चार निलम्बित होंगे, भवन स्वामी के विरुद्ध लापरवाही का मुकदमा दर्ज होगा और हो सकता है दिल्ली के उपहार सिनेमा कांड की तरह सालों तक चलने वाली अदालती कार्रवाई के उपरांत उन्हें जेल भी जाना पड़ जाए। लेकिन इन सबसे न तो उन मासूमों की जि़न्दगी लौटकर आयेगी और न ही उनके परिवारजनों के सीने में जल उठी दु:ख की आग कभी ठंडी होगी। इस तरह का ये कोई पहला मामला नहीं है और न ही आखिऱी होगा क्योंकि बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि लेय वाली उक्ति हमारी मानसिकता पर स्थायी तौर पर हावी हो चुकी है। दुनिया के विकसित देशों में भी ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं। लेकिन वहां गलतियों से सीखने की जो प्रवृत्ति है उसकी वजह से हादसों की पुनरावृत्ति रोकने के प्रबंध सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर किये जाते हैं। जिस इमारत में कल की घटना घटी उसका मालिक यदि कोई राजनेता या उसका करीबी हुआ तब ये मानकर चलिए कि सूरत से दिल्ली तक उसके लिए बचाव कार्य शुरू हो चुका होगा। बड़े-बड़े वकील अग्रिम जमानत की अर्जी तैयार करने में जुट गये होंगे। प्रश्न ये है कि विकास के आसमानी दावों के बीच मूलभूत जरूरतों और सावधानियों के प्रति लापरवाही की ये प्रवृत्ति हम कब तक ढोते रहेंगे? 1997 में जबलपुर में आये भूकम्प के फौरन बाद भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी यहाँ आये थे। भूकम्प प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने के बाद उन्होंने पत्रकार वार्ता में तत्कालीन दिग्विजय सिंह की राज्य सरकार पर Criminal indifference (अपराधिक उदासीनता) का आरोप लगाया था। संयोगवश उसी दिन दिल्ली के उपहार सिनेमा में आग की खबर आई और तब श्री आडवाणीं के साथ आईं सुषमा स्वराज को तुरंत उन्होंने दिल्ली जाने का निर्देश दिया। श्रीमती स्वराज उस समय दिल्ली की सदर लोकसभा सीट से सांसद थीं और उपहार सिनेमा उसके अंतर्गत आता था। उस घटना को 22 साल बीत गये लेकिन अग्नि शमन या उस जैसी अन्य दुर्घटनाओं से बचने के उपायों को लेकर व्यवस्थाजनित हमारी उदासीनता यथावत है। सूरत में हुआ हादसा वाकई दिल दहलाने वाला है। अग्निकांड पर बनी Towering Inferno (टावरिंग इन्फर्नो ) नामक हालीवुड की फिल्म पूरी दुनिया में चर्चित हुई थी। उस फिल्म का कथानक एक बहुमंजिला इमारत में लगी भीषण आग और बचाव कार्य पर आधारित था। फिल्म देखने के बाद दुनिया के अनेक देशों में बहुमंजिला इमारतों में इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने संबंधी प्रबंध किये जाने लगे किन्तु हमारे देश में विकास के नाम पर छोटे-छोटे शहरों तक में अट्टालिकाएं तो तन गईं लेकिन उनमें रहने वालों की सुरक्षा के प्रति बरती जाने वाली लापरवाही भी उतनी ही ऊँची होती चली गई। उस विदेशी फिल्म की नकल करते हुए हमारे देश में भी बर्निंग ट्रेन नामक फिल्म बनी लेकिन उसमें मनोरंजन हावी रहा। सूरत की घटना से कुछ बदलेगा या सुधरेगा ये मान लेना दिल को बहलाने के लिए काफी होगा क्योंकि हमारे देश में सुरक्षा और सुविधा पर केवल नेताओं का एकाधिकार है। यदि इंदिरा गांधी की हत्या नहीं हुई होती तब नेताओं को जेड स्तर की सुरक्षा देने के प्रति भी विचार नहीं हुआ होता। सरकार हर व्यक्ति की जान की रक्षा करे ये तो सम्भव नहीं लेकिन उसकी लापरवाही से लोग सस्ते में मर जाएं ये भी आदर्श स्थिति नहीं हो सकती। यदि केवल कुछ लाख रूपये ही इंसानी जान की कीमत है तो बेहतर हो नेताओं की सुरक्षा का तामझाम भी बंद कर दिया जाए। आखिर वे भी तो देश के दूसरे आम इंसानों की तरह ही दो हाथ पैर वाले इंसान ही तो हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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