Monday 27 May 2019

कांग्रेस को परिवार की बजाय विचार आधारित बनना चाहिए

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अब अनुभवहीन कहना गलत होगा। लोकसभा में तीन कार्यकाल वे पूरे कर चुके हैं। बतौर पार्टी उपाध्यक्ष भी वे वस्तुत: अध्यक्ष का कार्यभार ही सम्भाल रहे थे। सोनिया गांधी ने बिगड़ते स्वास्थ्य और बढ़ती आयु की वजह से उन्हें अध्यक्ष का पदभार भी सौंप दिया था। जिसे सभी कांग्रेसजनों ने बिना किसी एतराज के स्वीकार कर लिया। उसके बाद अनेक राज्यों के चुनाव हुए जिनमें कांग्रेस को मिली-जुली सफलता मिली। उस वजह से ये कहा जाने लगा कि श्री गांधी में परिपक्वता और क्षमता दोनों आ गए हैं। विशेष रूप से गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर देने और कर्नाटक में उसको सबसे बड़ी पार्टी होने पर भी सरकार बनाने से रोकने के बाद ये माना जाने लगा कि वे नरेंद्र मोदी के विकल्प बन सकते हैं। कम से कम विपक्ष के अन्य किसी भी युवा अथवा वरिष्ठ नेता की अपेक्षा राहुल को जानने और चाहने वाले अपेक्षाकृत अधिक होते जा रहे थे। बीते वर्ष दिसम्बर में मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा से सत्ता छीनकर कांग्रेस ने जो कारनामा किया उसने श्री गांधी की लोकप्रियता को और बढ़ा दिया। उसके बाद वे जिस तरह से आक्रामक हुए उससे ये एहसास भी होने लगा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में श्री मोदी के लिए कठिन चुनौती खड़ी कर देंगे। ज्यों-ज्यों चुनाव करीब आते गए त्यों-त्यों श्री गांधी प्रधानमंत्री के प्रति और कठोर होते गए। जिस अंदाज में वे श्री मोदी को बहस के लिए उकसाते हुए चौकीदार चोर का नारा लगाते रहे उससे उनके आत्मविश्वास की झलक मिलती थी। आखिरी चरण के मतदान के उपरांत तो श्री गांधी ने खुले आम मोदी सरकार की विदाई की भविष्यवाणी कर डाली। यद्यपि कांग्रेस के बहुमत की बात उन्होंनें कभी नहीं कही किन्तु उसके समर्थन से एक मिली जुली सरकार बनाने का दावा वे पूरी जोरदारी से करते रहे। लेकिन 23 मई की दोपहर आते-आते तक उनकी उम्मीदें धूल में मिल चुकी थीं। कांग्रेस के 100 सीटों तक पहुंचने के अनुमान भी ध्वस्त हो गए। बमुश्किल वह 50 की संख्या पार कर सकी किन्तु मान्यता प्राप्त विपक्षी दल बनने की उसकी इच्छा अधूरी रह गई। सबसे ज्यादा शर्मनाक तो ये हुआ कि राहुल अपनी पुश्तैनी सीट अमेठी ही हार गए। बड़ी संख्या में ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला। उसके साथ जुड़े सहयोगी दलों में सिर्फ  द्रमुक ही तमिलनाडु में शानदार प्रदर्शन कर सकी। तेलुगु देशम तो पूरी तरह से फुस्स हो गई। पंजाब छोड़कर कांग्रेस कहीं भी मुंह दिखाने लायक नहीं बची। इस शर्मनाक पराजय के बाद श्री गांधी की जो छवि में जो इजाफा हुआ था वह काफूर हो गया। वे एक निरीह और लाचार सेनापति के तौर पर देखे जाने लगे। जो राजनीतिक विश्लेषक उन्हें श्री मोदी का विकल्प मान बैठे थे वे ही कहने लगे कि उन दोनों के बीच कोई बराबरी ही नहीं थी। और यही वह सच है जिसे कांग्रेस को समझना चाहिए। बहरहाल परिणामों से उत्पन्न निराशा या यूं कहें कि खीझ की वजह से कांग्रेस कार्यसमिति की समीक्षा बैठक से पहले उन्होंने पार्टी अध्यक्ष पद से अपने इस्तीफे का शिगूफा छोड़कर ये प्रचारित करवा दिया कि श्रीमती गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उन्हें रोक रखा है। बैठक में क्या हुआ ये तो खुलकर बाहर नहीं आया लेकिन कहते हैं सभी सदस्यों द्वारा उनका समर्थन किये जाने पर भी राहुल ने नए अध्यक्ष की नियुक्ति के साथ ये शर्त भी रखी कि वह गांधी परिवार से बाहर का हो। इसके साथ ही उन्होंने अनेक नेताओं के पुत्र प्रेम पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी करते हए कहा कि वे पार्टी छोड़कर उन्हें जिताने में लगे रहे। जबकि वे स्वयं भी पुत्र मोह के चलते ही कांग्रेस अध्यक्ष बन बैठे। बैठक में पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को बड़ी जिम्मेदारी देने की बात भी उठी। बैठक बेनतीजा खत्म हो गई। बाद में जब अमरिंदर सिंह ने नवजोत सिद्धू की शिकायत हेतु मिलने का समय मांगा जो श्री गांधी ने उन्हें नहीं दिया। इससे ये साबित हो गया कि इतनी बड़ी हार के बावजूद वे अपनी कार्यशैली बदलने तैयार नहीं हैं। लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद राहुल ने अपनी बहिन प्रियंका वाड्रा को महासचिव बनाकर पूर्वी उप्र का प्रभार सौंप दिया। ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की गई जैसे प्रियंका वह ब्रह्मास्त्र हैं जिसे गांधी परिवार ने इस मौके के लिए बचाकर रखा था। फिल्मी स्टाइल में उन्होंने अपना प्रचार शुरू कर दिया और इसी बीच वाराणसी से श्री मोदी के विरुद्ध लडऩे के संकेत भी दे दिए लेकिन बाद में जो हुआ वह सर्वविदित है। कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वह गांधी और अब वाड्रा परिवार के अलावा कुछ और सोचने की मन:स्थिति में ही नहीं आ पाती। प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा अनेक मामलों में फंसे हैं। ऐसे में ये माना गया कि उनके बचाव के लिए ही वे राजनीति में सक्रिय हुईं। होना तो ये चाहिए कि श्री गांधी पार्टी में गम्भीर किस्म के नेताओं से अपनी गलतियों और पार्टी की कमियों के बारे में सही जानकारी हासिल करते हुए उनमें सुधार की तैयारी करते। आगामी महीनों में कई राज्यों के चुनाव होने वाले हैं। उनमें उतरने तथा पार्टीजनों में उत्साह का संचार करने के लिए जरूरी है नेतृत्व की अपनी दिशा और सोच स्पष्ट हो जिसका कांग्रेस में सर्वथा अभाव है। ज्योतिरादित्य सिंधिया, दीपेंद्र हुड्डा, मिलिंद देवड़ा, तरुण गोगोई, मल्लिकार्जुन खडग़े और उन जैसे तमाम सक्रिय और सक्षम सांसदों के हार जाने से लोकसभा में पार्टी के पास नेता बनाने लायक तक कोई नहीं बचा। सोनिया जी कभी-कभार बोलती हैं और राहुल अभी तक संसदीय बहस में खुद को स्थापित नहीं कर सके। ऐसी स्थिति में पहले ही सत्र में भाजपा कांग्रेस पर दबाव बनाने का पुरजोर प्रयास करेगी। बेहतर हो राहुल और कांग्रेस ईवीएम और मीडिया जैसे बहाने छोड़कर हार के असली कारणों को समझें और उन कमियों को दूर करने का प्रयास तेज करें जिनकी वजह से जनता ने उन्हें पूरी तरह खारिज कर दिया। हालांकि इतनी बुरी हार के बाद तत्काल उबरना बहुत कठिन होता है लेकिन कांग्रेस को भाजपा से सीखना चाहिए जिसने पांच महीने पहले अपने कब्जे वाले तीन प्रमुख राज्य गंवाने के बाद बजाय निराश होने के अपने को मुकाबले के लिए तैयार कर लिया और पूरे देश में झंडा गाडऩे में कामयाब हो गई। राहुल गांधी को ये बात महसूस कर लेना चाहिए कि अब गांधी परिवार का वह रुतबा और ग्लैमर नहीं बचा। वरना अमेठी में इतनी बुरी हार नहीं हुई होती। गुना से श्री सिंधिया की चौंकाने वाली हार ने नव सामंतवाद के दिन पूरे होने की पुष्टि कर दी। कांग्रेस के आधा दर्जन से ज्यादा पूर्व मुख्यमंत्रियों और उनके बेटों की पराजय भी पार्टी के भीतर बड़े बदलाव की जरूरत की तरफ  इशारा है। राहुल को ये भी समझ लेना चाहिए कि उन्हें गठबंधन करते समय ज्यादा विवेकशील और सतर्क रहना होगा। कर्नाटक में सरकार बनाने की आपाधापी कांग्रेस को कितनी महंगी पड़ी ये सबके सामने है। बिहार में लालू का मोहपाश उसे ले डूबा। यदि राहुल वाकई पद छोडऩा चाहते हैं तब उन्हें पार्टी में खुलापन लाना चाहिए। भाजपा में मोदी-शाह के आभामंडल के पीछे रास्वसंघ का विशाल संगठन भी है जिसके बिना पार्टी बंगाल सहित पूर्वोत्तर राज्यों में इतनी सफल कभी नहीं हुई होती। वहीं कांग्रेस में संगठन केवल कागजों पर बचा है। राहुल ने जिस तरह हिन्दू मतों को लुभाने की कोशिश की वह दिखावटी होने से जनता को आकर्षित नहीं कर सकी। ऐसे में उसे अल्पसंख्यक प्रेम से ऊपर उठकर बहुसंख्यकों का भरोसा जीतना होगा। यदि अब भी कांग्रेस गांधी परिवार के करिश्मे पर निर्भर बैठी रही तब उसका पुनरुद्धार मुश्किल होगा। देश की सबसे पुरानी पार्टी का लगातार दुरावस्था की तरफ बढऩा ठीक उसी तरह खतरनाक होगा जैसा एक जमाने में उसका विकल्प नहीं होने के समय था। बेहतर होगा गांधी परिवार भी इस सच्चाई को समझे कि कांग्रेस उसके बिना भी चल सकती है। भाजपा ने 2004 की पराजय के दस वर्ष बाद ही राष्ट्रीय राजनीति में खुद को मजबूती से स्थापित करते हुए ये साबित कर दिया कि अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व के बिना भी वह सफलता के शिखर को छू सकती है। कांग्रेस भी परिवार छोड़ यदि विचार आधारित बने तब ही उसका भविष्य है वरना क्या होगा ये बताने की जरूरत नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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