Wednesday 29 May 2019

खुद विफल रहीं प्रियंका दूसरों को डांट रहीं

ऐसा लगता है कार्यकर्ताओं की भावनाओं का दोहन करते हुए पार्टी पर अपना आधिपत्य बनाए रखने हेतु गांधी परिवार अपने परंपरागत खेल को जारी रखे हुए है। एक तरफ तो राहुल गांधी द्वारा अध्यक्ष पद छोडऩे को लेकर अनिश्चितता बनाकर रखी जा  रही है वहीं दूसरी  तरफ  उन्हें मनाने का नाटक भी समानांतर चल रहा है। ये भी सुनाई दे रहा है कि श्री गांधी ने यहाँ तक कह दिया है कि नया अध्यक्ष उनके परिवार से बाहर का हो। लेकिन इन सबके बीच उनकी बहिन और कांग्रेस की नई नवेली महासचिव प्रियंका वाड्रा जिस तैश में बड़े - बड़े नेताओं से चुनावी पराजय पर सफाई मांगते हुए डांट-फटकार कर रही हैं उससे तो यही लगता है कि गांधी परिवार पार्टी को अपनी निजी जागीर समझकर बाकी सबको अपना अनुचर समझता है। राहुल गांधी का बतौर अध्यक्ष हार के नतीजों पर नेताओं से सफाई मांगना तो समझ आता है लेकिन श्रीमती वाड्रा को उनके भाई ने चुनाव की घोषणा के बाद अचानक महासचिव नियुक्त करते हुए पूर्वी उप्र का प्रभार सौंपा था। उनके साथ मप्र के ज्योतिरादित्य सिंधिया को महासचिव नियुक्त करते हुए पश्चिमी उप्र में कांग्रेस को जिताने की कमान सौंपी गई। उप्र में पार्टी दुर्दशा की पराकाष्ठा तक जा पहुँची और प्रियंका जमीन आसमान एक करने के बाद भी अमेठी में राहुल तक को हारने से नहीं बचा सकीं जबकि इस सीट से  उनके पिता, माता और भाई जीतते रहे हैं। अमेठी के अलावा अवध और पूर्वी उप्र की सभी सीटों पर कांगे्रस औंधे मुंह गिरी जिसके लिए प्रियंका वाड्रा खुद कठघरे में खड़े किये जाने लायक हैं। कहाँ तो वे वाराणसी में नरेंद्र मोदी को घेरने का हौसला दिखा रही थीं और कहाँ अपना घर बचाने में ही नाकामयाब रहीं। आश्चर्य की बात ये है कि जो राहुल गांधी दूसरे  नेताओं को पुत्र और परिवार प्रेम पर फटकार रहे हैं वे अपनी बहिन से ये पूछने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहे  कि वे भी रायबरेली और अमेठी में ही ध्यान लगाए रहीं जिसका खामियाजा अगल-बगल की सीटों पर भी पार्टी को भोगना पड़ा। जब चुनाव पूरे शबाब पर था तब उनका ये बयान कांग्रेस की डूबती नाव में छेद कर गया कि पार्टी ने उप्र में बहुत से उम्मीदवार वोट कटवा के तौर पर खड़े किये  हैं। यदि उनकी जगह किसी अन्य कांग्रेसी नेता ने वह बयान दिया होता तब उसकी शामत आ गई होती लेकिन प्रियंका के बोलने पर सवाल करने की हिम्मत भला कौन दिखाता ? अब ऐतिहासिक पराजय के बाद राहुल गांधी ने दिखावे के लिए ही सही लेकिन इस्तीफ़े  की पेशकश करते हुए पार्टी के माथे पर लगे गांधी परिवार  निशान को अलग करने की बात कहते हुए वरिष्ठ नेताओं पर पुत्र प्रेम में डूबे रहने का आरोप लगाया तब निष्पक्षता का तकाजा है उन्हें अपनी बहिन से भी पूछना चाहिए कि उनके प्रभार वाली उप्र की सीटों पर कांग्रेस का कबाड़ा क्यों और कैसे हो गया और अमेठी में पार्टी की खस्ता हालत का अंदाजा वे क्यों नहीं लगा सकीं ? लेकिन इंग्लेंड मे King can do no wrong(राजा गलती कर ही नहीं सकता ) कांग्रेस में गांधी परिवार पर पूरी तरह फिट बैठती है। वरना जिस तरह से बड़े - बड़े नेताओं से सवाल पूछे जा रहे हैं उसी तरह का व्यवहार प्रियंका वाड्रा के साथ भी होना चाहिए। अखबारी खबरों के मुताबिक कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक और उसके बाद श्रीमती वाड्रा वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं पर इस बात के लिए जमकर बरसीं कि जिस तरह राहुल नरेंद्र मोदी पर चौकीदार चोर कहकर हमलावर थे वैसा ही बाकी सभी ने क्यों नहीं किया? अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने पार्टी के अन्य छत्रपों पर उदासीन रहने का आरोप ही मढ़ दिया। गत दिवस राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की जिस तरह से प्रियंका ने खिचाई की उससे तो लगता है राहुल से ज्यादा वे गुस्से में हैं जबकि उनकी हैसियत पार्टी संगठन के बाकी महासचिवों के बराबर की ही है। ये सब नाटकबाजी देखते हुए ये कहना पड़ता है कि गांधी परिवार केवल श्रेय लेना चाहता है। जब भी पार्टी पराजय झेलती है या उसकी स्थिति खराब होती है तब-तब गांधी परिवार ऐसी ही स्थिति पैदा करते हुए पार्टी में विभाजन करवा देता है या फिर अपनी गलतियों की सजा शक्तिहीन नेताओ को बली का बकरा बानकर दे देता है। सही बात तो ये है कि लोकसभा चुनाव की पराजय के लिए केवल और केवल राहुल और पूरा गांधी परिवार जिम्मेदार है जो कांग्रेस पर कुंडली मारकर बैठ गया है और बाकी नेताओं को दरबारी समझता है। यदि राहुल में तनिक भी ईमानदारी है तब उन्हें सबसे पहले प्रियंका वाड्रा से इस्तीफा लेना चाहिए था जिन्हें ब्रह्मास्त्र मानकर मैदान में उतारा गया लेकिन वे पूरी तरह बेअसर ही नहीं अपितु नुकसानदेह साबित हुईं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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