Thursday 30 November 2023

राष्ट्रीय नेता बनने के फेर में राज्य भी गंवा देंगे नीतीश


बिहार किसी न किसी कारण से चर्चाओं में रहता ही है।  उ.प्र के बाद देश को सबसे ज्यादा आई.ए.एस और आई.पी. एस देने वाले इस राज्य में आर्थिक और सामाजिक विषमता चरम पर रही है। इसलिए आजादी के 75 वर्ष बीतने के बावजूद बिहार जातिवाद के शिकंजे से मुक्त नहीं हो सका । जबकि अतीत में  जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर जैसे धुरंधर समाजवादी नेताओं की कर्मभूमि रहे इस राज्य ने सामाजिक समरसता का बिगुल फूंकने में अग्रणी भूमिका निभाई। महात्मा गांधी ने जिस चंपारण से स्वाधीनता आंदोलन शुरू किया वह यहीं है और 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की चिंगारी भी बिहार से ही भड़की। मगध साम्राज्य के गौरवशाली इतिहास का साक्षी रहे बिहार को  नालंदा जैसे शिक्षा केंद्र के कारण विश्वव्यापी ख्याति मिली। बुद्ध और महावीर जैसे युगपुरूषों की यह जन्मभूमि रही। लेकिन धीरे - धीरे बिहार का  प्राचीन गौरव क्षीण होता गया और अपने स्वर्णिम अतीत से सर्वथा पृथक यह गरीबी , पिछड़ेपन ,  जातिवादी संघर्ष , शोषण और पलायन का जीवंत उदाहरण बनकर रह गया। बीमारू राज्यों में पहले क्रम पर बिहार को रखा जाना इसका प्रमाण है।  देश के विभिन्न हिस्सों में फैले बिहारी श्रमिक इस राज्य की दयनीय स्थिति का बयान करते हैं। बिहार रातों - रात इस दुर्दशा को प्राप्त हुआ ऐसा नहीं है किंतु आज जो हालात हैं उनके लिए काफी कुछ लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार का राज है जिसने इस राज्य को अराजकता का पर्याय बना दिया था। सामाजिक न्याय और धर्म निरपेक्षता का लबादा ओढ़कर लालू ने जिस परिवारवाद और भ्रष्टाचार का उदाहरण पेश किया उसी का परिणाम है कि समाजवादी आंदोलन से जुड़े  तमाम साथी उनसे छिटकते गए । उन्हीं में से एक हैं राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो उनके जंगलराज से लड़ने वालों में अग्रणी रहे । जार्ज फर्नांडीज जैसे प्रखर समाजवादी दिग्गज के साथ  समता पार्टी का गठन कर वे भाजपा के नेतृत्व वाले एन.डी.ए में शामिल होकर  केंद्र में मंत्री और बाद में भाजपा के  साथ मिलकर बिहार के मुख्यमंत्री बने। उस दौरान बिहार की छवि में काफी सुधार हुआ । कानून - व्यवस्था पटरी पर लौटी , आर्थिक विकास भी नजर आने लगा जिसकी वजह से बीमारू राज्य का दाग भी कुछ हल्का पड़ने लगा । इस सबके कारण ही नीतीश को सुशासन बाबू जैसा संबोधन प्राप्त हुआ। लेकिन बीते एक दशक में उनका राजनीतिक व्यवहार जिस प्रकार से बदला उसके कारण वे उन्हीं लालू के शिकंजे में उलझ गए जिन्हें उन्होंने जेल भिजवाया था । उनका यह कदम दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से निजी कुढ़न के कारण उठाया गया था। यद्यपि बीच में वे एक बार फिर श्री मोदी के साथ आकर भाजपा से जुड़े किंतु केंद्रीय मंत्रीमंडल में उनके दल को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलने की खुन्नस में फिर लालू एंड कंपनी के संग गठजोड़ कर लिया।  इस सबसे उनकी निजी छवि खराब हो गई और सुशासन बाबू का खिताब भी हाथ से जाता रहा। हालांकि आज के राजनीतिक माहौल में इस तरह की पैंतरेबाजी चौंकाती नहीं है किंतु प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने के बावजूद नीतीश जिस तरह का राजनीतिक व्यवहार करने लगे वह दिशाहीनता का संकेत है। उनके हालिया फैसले इसका प्रमाण हैं। जातीय जनगणना के बाद हिन्दू त्यौहारों के सरकारी अवकाश कम करने और मुस्लिम पर्वों पर बढ़ाने का फैसला ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि उनकी सोच सतही होने लगी है। इस निर्णय के कारण अपने दल के भीतर ही उनको अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। जातीय जनगणना के विवाद से वे उबर पाते उसके पूर्व ही हिन्दू तीज - त्यौहारों की छुट्टियां कम करने जैसा निर्णय उनके गले कि फांस बन गया। अब उनकी पार्टी के नेतागण इस फैसले को बदलने का आश्वासन देकर चमड़ी बचाने का प्रयास कर रहे हैं किंतु जो नुकसान होना था वह हो चुका। भाजपा ने इसे मुद्दा बनाया ये तो स्वाभाविक था किंतु बिहार का आम जनमानस भी नीतीश के बदलते राजनीतिक आचरण से हतप्रभ है। बिहार के बाहर भी जो लोग उनको एक सुलझा हुआ दूरदर्शी राजनेता समझते थे वे भी अपनी राय बदलने मजबूर हो रहे हैं। एक जमाना था जब मुलायम सिंह यादव ने उ.प्र की राजनीति में मुस्लिम तुष्टिकरण का रंग  भर दिया था। उसके चलते समाजवादी पार्टी को कुछ फायदा जरूर हुआ किंतु धीरे - धीरे उसके हाथ से हिन्दू छिटके और अब मुसलमानों का भी मोहभंग होने लगा है। नीतीश को इससे सबक लेना चाहिए  था क्योंकि भाजपा और मोदी विरोध में वे जिस रास्ते पर बढ़ चले हैं वह उनके राजनीतिक पराभव का कारण बने बिना नहीं रहेगा । पता नहीं उनका  सलाहकार कौन है जो उन्हें इस तरह की मूर्खतापूर्ण सलाह देता है। नीतीश राजनीतिक तौर पर भले ही  भाजपा का कितना भी विरोध करें लेकिन उन्हें समाज को जाति में विभाजित करने के साथ ही हिन्दू समाज की भावनाओं को आहत करने से बचना चाहिए। ऐसा लगता है वे इंडिया गठबंधन के नेता बनने के लालच में  मुस्लिम तुष्टिकरण में लग गए हैं। परिणामस्वरूप  राष्ट्रीय नेता बनने के फेर में वे राज्य में भी अपनी पकड़ को बैठें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 29 November 2023

श्रमिकों का बचना सुखद किंतु विकास की आड़ में हो रहे विनाश को रोका जाए


12 नवंबर को उत्तराखंड के उत्तरकाशी इलाके में निर्माण कार्य के दौरान  सिलक्यारा सुरंग ( टनल ) धसक जाने से 41 श्रमिक भीतर फंस गए थे। प्रारंभ में तो ये आशंका थी कि वे  सभी  भीतर ही दबकर  दम तोड़ देंगे। कई टन मलबा सुरंग के ऊपर और मुहानों पर होने के कारण भीतर फंसे लोगों से संपर्क नहीं हो पाने के कारण स्थिति का कुछ पता नहीं चल पा रहा था । लेकिन एन.डी.आर एफ (राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल ) ने उस चुनौती को स्वीकार किया और ऐसा बचाव अभियान हाथ में लिया जो भारत के लिए पहला अनुभव था। एन.डी.आर एफ को विदेशों से मंगाए गए उपकरण भी उपलब्ध करवाए गए। दरअसल इस अभियान में खतरा ये था कि सुरंग के भीतर जाने का रास्ता बनाने के लिए की जा रही ड्रिलिंग से जो ठोस जगह थी , वह भी धसक न जाए और बचाव कार्य पूरी तरह बंद करना पड़े। बीते 17 दिनों में  अनेक क्षण ऐसे आए जब  कभी उपकरण खराब हुए तो कभी जहां श्रमिकों तक पहुंचने हेतु छेद किया जा रहा था वहां की मिट्टी भसक गई। कुछ दिनों बाद जब एक पाइप भीतर तक पहुंचा और उन श्रमिकों से संपर्क कायम हो सका तब ये जानकर बचाव दल का हौसला बढ़ा कि सभी 41 श्रमिक न सिर्फ जीवित अपितु आत्मविश्वास से भरे हुए थे। धीरे - धीरे उन तक भोजन , पानी आदि पहुँचाने की व्यवस्था पाइप के जरिए की गई। कैमरों की मदद से उनकी कुशलता का प्रमाण भी मिला जिससे उनके परिजनों को उनके जीवित रहने का विश्वास हुआ। 17 दिनों तक दिन रात चले अभियान के उपरांत कल देर शाम पहला श्रमिक बाहर लाया गया और कुछ ही देर में सभी सकुशल मौत के मुंह से बाहर आने में कामयाब हो गए। इस अभियान से  आपदा प्रबंधन  में हमारे बढ़ते आत्मविश्वास का परिचय तो मिला ही । साथ में एन.डी.आर एफ , सेना , उत्तराखंड शासन - प्रशासन के साथ ही केंद्र सरकार के बीच बेहतरीन समन्वय भी सामने आया।  केंद्रीय मंत्री और पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल वी.के.सिंह की घटनास्थल पर उपस्थिति इसका प्रमाण रही। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी बचाव दल का हौसला बढ़ाते रहे। निश्चित रूप से इस अभियान की सफलता की चर्चा विश्व भर में होगी क्योंकि भविष्य में होने वाली ऐसी ही दुर्घटना के समय बचाव कार्य में यह अनुभव काम आएगा। भारत में प्राकृतिक आपदाएं  आती ही रहती हैं। उनके अलावा विभिन्न प्रकार के हादसे भी यदाकदा होते रहते हैं। जिनमें रेल  दुर्घटनाएं भी उल्लेखनीय हैं। उस दौरान    एन.डी.आर एफ राहत और बचाव के काम में सबसे आगे रहता है। उसके काम को वैश्विक स्तर पर भी  प्रशंसा मिलने लगी है। उदाहरण के लिए तुर्की में आए विनाशकारी भूकंप के समय भारत सरकार ने  ऑपरेशन दोस्त के अंतर्गत सेना के साथ ही एन.डी.आर एफ का को दल वहां भेजा उसने 10 दिन वहां बचाव कार्य किया । और जब उसके सदस्य लौट रहे थे तो तुर्की के लोगों ने हवाई अड्डे पर जो भावभीनी विदाई दी वह एक सुखद अनुभव था। लेकिन इस हादसे से एक और मुद्दा गहन रूप से विचारणीय हो गया है और वह है उत्तराखंड सहित समूचे हिमालय क्षेत्र में विकास के कारण प्राकृतिक संतुलन के साथ हो रही छेड़छाड़। कुछ समय पहले जब जोशीमठ में भूमि के फटने के कारण पूरे शहर का अस्तित्व खतरे में आ गया था तब भी इस बात को लेकर काफी हल्ला मचा था कि कथित विकास उत्तराखंड के  गढ़वाल अंचल में प्राकृतिक आपदाओं  का आधार बन रहा है। टिहरी बांध के निर्माण का विरोध करने वालों ने दशकों पूर्व जिन खतरों की चेतावनी दी थी वे समय के साथ ही सच साबित होती जा रही हैं। ताजा हादसे का सुखद पहलू ये जरूर है कि सुरंग में फंस गए 41 श्रमिक 17 दिन तक हर पल मृत्यु की आहट सुनते रहने के उपरांत जीवित लौट आए किंतु इस खुशी के साथ ही यह हादसा कैसे हुआ उसकी जांच के अलावा उत्तराखंड और शेष पहाड़ी क्षेत्रों में किए जा रहे विकास कार्यों की समीक्षा करते हुए ये देखा जाना जरूरी है कि प्राकृतिक भूगर्भीय संरचना को नुकसान पहुंचाकर किया जा रहा विकास  कहीं विनाश का कारण तो नहीं बन रहा? इस बारे में ये बात ध्यान रखने योग्य है कि  विज्ञान और तकनीक चाहे जितनी विकसित हो जाए किंतु प्रकृति की अदृश्य शक्ति के सामने वे  असहाय होकर रह जाती हैं। सिलक्यारा सुरंग हादसे में भी जब विदेशों से  आए महंगे उपकरण जवाब दे गए तब अंततः प्रतिबंधित कर दी गई परंपरागत पद्धति ही कारगर साबित हुई।  वैसे तो एन.डी.आर एफ के दल इस दौरान  हुए अनुभवों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे ही किंतु केंद्र और उत्तराखंड सरकार को भी चाहिए कि विकास कार्यों का ऐसा तरीका अपनाने पर जोर दिया जाए जिससे  प्राकृतिक संतुलन में गड़बड़ी न हो। बहरहाल एन.डी.आर एफ सहित बचाव कार्य में बिना रुके और बिना थके लगे रहे सभी लोगों के प्रयासों की पूरा देश सराहना  कर रहा है किंतु इस सफलता से आत्ममुग्ध होने के बजाय उन कारणों का सूक्ष्म विश्लेषण होना भी जरूरी है जिनके चलते 41 श्रमिकों की जान तो खतरे में पड़ी ही करोड़ों रु. लगाकर किए जा रहे विकास कार्यों के औचित्य पर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 27 November 2023

मुस्लिमों के लिए अलग आईटी पार्क का वायदा खतरनाक संकेत



मतदाताओं को रिझाने के लिए राजनीतिक दल तरह - तरह के प्रलोभन देते हैं। प्रतिमाह निश्चित राशि , मुफ्त और सस्ती बिजली , सरकारी नौकरियां , कृषि उत्पादों के खरीदी मूल्य में वृद्धि , वेतन - भत्ते बढ़ाना ,वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन , मुफ्त चिकित्सा और शिक्षा के अलावा दोपहिया वाहन तथा लैपटॉप आदि देकर चुनाव जीतने का फार्मूला लगभग सभी दलों ने अपना लिया है। इसे लेकर उनके बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा है। उदाहरण के तौर पर म.प्र में कांग्रेस ने सत्ता में आने पर 500 रु. में रसोई गैस सिलेंडर देने का वायदा किया। उसके जवाब में प्रदेश की भाजपा सरकार ने चुनाव के पहले ही 450 रु. में सिलेंडर देना शुरू कर दिया । इसी तरह कांग्रेस ने नारी सम्मान योजना के अंतर्गत महिलाओं को 1500 रु. हर माह देने के लिए आवेदन भरवाए किंतु शिवराज सरकार ने चुनाव के छह महीने पहले ही लाड़ली बहना योजना का ऐलान कर 1000 रु. प्रतिमाह से शुरुआत कर उसे 1250 रु. प्रतिमाह करते हुए भविष्य में 3000 रु. करने का वायदा भी कर दिया। साथ ही पक्का मकान देने की घोषणा भी कर दी । इस प्रकार चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे वायदे किए जाने लगे हैं जैसे अपना उत्पाद बेचने के लिए कंपनियां और व्यवसायी किया करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 लाख तक मुफ्त इलाज की आयुष्मान भारत नामक योजना प्रारंभ की थी । राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने उसे चिरंजीवी योजना नाम देकर उसकी राशि 25 लाख कर दी। लेकिन इन सबसे अलग हटकर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी.राव ने एक चुनावी सभा में घोषणा कर दी कि यदि वे सत्ता में लोटे तो हैदराबाद में मुस्लिम युवकों के लिए अलग आईटी पार्क बनवाएंगे। उनकी इस घोषणा का भाजपा द्वारा विरोध करना तो समझ में आता है लेकिन आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस ने भी श्री राव की उक्त घोषणा पर कड़ी आपत्ति जताई है। हालांकि वह भी तेलंगाना के अल्पसंखक कल्याण बजट में भारी वृद्धि का वायदा कर रही है। दरअसल मुख्यमंत्री की पार्टी बी.आर.एस को कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिलने के संकेत मिले रहे हैं। उधर भाजपा भी हिन्दू मतदाताओं के मतों में बंटवारा करने की स्थिति में तो है ही। ऐसे में श्री राव को चिंता हो उठी कि हैदराबाद और उससे लगे क्षेत्रों के मुस्लिम मतों का बड़ा हिस्सा तो असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार ले जाएंगे । वहीं राज्य के बाकी हिस्सों के मुसलमानों को कांग्रेस भी अपने पाले में खींचने में जुटी हुई है। स्मरणीय है कर्नाटक में कांग्रेस की जीत में मुस्लिम मतदाताओं का बहुत बड़ा योगदान रहा जो भाजपा को रोकने के लिए उसके पक्ष में एकजुट हो गए। कांग्रेस ने तेलंगाना के मुसलमानों को भी अपनी तरफ झुकाने की रणनीति बनाई और इसीलिए श्री गांधी सहित अन्य कांग्रेस नेता श्री राव और ओवैसी को भाजपा की बी टीम कहकर मुसलमानों को उनसे दूर करने की रणनीति अपना रहे हैं। ऐसा लगता है मुख्यमंत्री मुस्लिम मतों को लेकर आशंकित हो उठे हैं और इसीलिए उन्होंने मुस्लिम युवाओं के लिए अलग आईटी पार्क बनाए जाने का वायदा कर डाला। इस पर कांग्रेस की तीखी प्रतिक्रिया से साफ हो गया कि उसे श्री राव के इस ऐलान में अपना नुकसान नजर आने लगा है। लेकिन राजनीति से ऊपर उठकर देखें तो श्री राव का उक्त ऐलान बेहद खतरनाक है क्योंकि धर्म के आधार पर इस तरह के संस्थान बनाए जाएंगे तो ये सिलसिला कहां जाकर रुकेगा ये सोचने वाली बात है। वैसे भी हैदराबाद वह रियासत है जिसने आजादी के बाद भारतीय संघ में शामिल होने से मना कर दिया था। वहां के मुस्लिम शासक निजाम के रजाकारों ( भाड़े के सैनिक )ने हजारों हिंदुओं की हत्या कर दी थी। बाद में सरदार पटेल ने पुलिस एक्शन नामक कार्रवाई करते हुए हैदराबाद रियासत का विलीनीकरण भारत में करवाया। ओवैसी जैसे नेता आज भी पुरानी निजामशाही की यादें मुसलमानों के मन में ताजा बनाए रखना चाहते हैं किंतु श्री राव जैसे अनुभवी राजनेता महज चुनाव जीतने के लिए मुसलमानों के लिए अलग आईटी पार्क जैसे संस्थान खोलने का वायदा कर उनमें अलगाव का भाव उत्पन्न करने का अपराध कर रहे हैं। सरकार किसी विशेष धर्म के अनुयायियों के लिए संस्थान खोले ये देश की एकता के लिए बड़ा खतरा बने बिना नहीं रहेगा। ऐसा लगता है इतिहास की गलतियों से सबक लेने के प्रति हमारे राजनेता बेहद उदासीन हैं। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 

राष्ट्रपति द्वारा न्यायिक सेवा के सुझाव में छिपे हैं भविष्य के संकेत




संविधान दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू  ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी. वाय.चंद्रचूड़ की उपस्थिति में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा प्रारंभ किए जाने की जरूरत बताते हुए न्यायिक नियुक्ति आयोग के मुद्दे को गर्म कर दिया। राष्ट्रपति ने स्पष्ट कहा कि इससे वंचित पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को मदद मिलेगी । उल्लेखनीय है श्री चंद्रचूड़ सहित सर्वोच्च न्यायालय के ज्यादातर न्यायाधीश मौजूदा कालेजियम प्रणाली के पक्षधर हैं। श्रीमती मुर्मू ने स्पष्ट तौर पर कहा कि  ऐसी प्रणाली विकसित की जाए जिसमें योग्यता आधारित , प्रतिस्पर्धी तथा पारदर्शी चयन प्रक्रिया के जरिए विभिन्न पृष्ठभूमि से आए लोगों का चयन बतौर न्यायाधीश किया जा सके। राष्ट्रपति ने अ.भा प्रशासनिक और पुलिस सेवा की तरह ही न्यायिक सेवा के सृजन का जो मुद्दा छेड़ा वह केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे समय से तनाव का कारण बना हुआ है। हालांकि किरण रिजजू को कानून मंत्री पद से हटाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अघोषित युद्धविराम का संकेत दिया था किंतु उसके बाद भी न्यायाधीशों की नियुक्ति में विलंब को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच खटपट होती रही है। अनेक अवसरों पर तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चेतावनी दिए जाने के बाद सरकार ने मजबूरी में  नियुक्ति  को अंतिम रूप दिया। ऐसा लगने लगा था कि केंद्र सरकार इस  विवादास्पद विषय में न्यायपालिका से टकराव को टालना चाह रही है। लेकिन संविधान दिवस जैसे महत्वपूर्ण आयोजन में देश की संवैधानिक प्रमुख द्वारा  मुख्य न्यायाधीश के समक्ष न्यायिक सेवा की आवश्यकता जताने से ये मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आ गया है। यदि यह बात किसी और ने कही होती तो अब तक श्री चंद्रचूड़ सहित कालेजियम प्रणाली के समर्थकों की ओर से प्रत्याक्रमण हो चुका होता। हालांकि श्रीमती मुर्मू पर ये आरोप तो लगेगा ही कि उन्होंने सरकार की मंशा को ही व्यक्त किया किंतु दूसरी तरफ ये भी सही है कि समाज के वंचित कहे जाने वाले वर्ग को न्यायिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का समुचित अवसर नहीं मिल पाता। राष्ट्रपति ने इसीलिए इस बात का उल्लेख किया कि सिविल सेवाओं में जाने वाले अनेक प्रतिभाशाली अभ्यर्थी भी न्यायपालिका में आना चाहते हैं किंतु न्यायिक सेवा जैसी व्यवस्था के  अभाव में  उन्हें अवसर नहीं मिल पाता। निश्चित तौर पर ये गंभीर मुद्दा बनता जा रहा है। कालेजियम प्रणाली चूंकि संविधान के अंतर्गत न होकर आजादी के 46 साल बाद 1993 में लागू की गई इसलिए उसे पत्थर की लकीर मान लेना न्यायोचित नहीं होगा। उस पर ये आरोप लगातार लगते रहे हैं कि इसके जरिए न्यायपालिका में भी परिवारवाद हावी होता जा रहा है। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ के पिता भी इसी पद पर सबसे अधिक समय तक रहे। ये जरूर कहा जा सकता है कि न्यायपालिका का विधायिका और  कार्यपालिका के साथ टकराव पूर्वापेक्षा बढ़ा है । हालांकि इसकी शुरुआत तो इंदिरा गांधी के समय से ही हो चुकी थी जब कांग्रेस में चली वर्चस्व की लड़ाई में उनके द्वारा लिए गए कुछ नीतिगत निर्णयों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया था। उसके बाद प्रतिबद्ध न्यायपालिका की बात तक कही जाने लगी। अनेक न्यायाधीश ऐसे भी उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त हुए जिनकी पृष्ठभूमि तत्कालीन सत्तापक्ष के अनुकूल थी । लेकिन 1993 में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण हेतु बनाई गए कालेजियम प्रणाली के बाद चयन प्रक्रिया पर पूरी तरह से न्यायपालिका का ही एकाधिकार हो गया। केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद इस व्यवस्था के विकल्प के तौर पर लोकसेवा आयोग की तरह  न्यायिक नियुक्ति आयोग के सृजन का प्रस्ताव लोकसभा में सर्वसम्मति से पारित हुआ जबकि राज्यसभा में केवल एक मत विरोध में पड़ा। इतने प्रबल समर्थन के बाद भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उस फैसले को रद्द करने का फैसला ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि न्यायपालिका अपना वर्चस्व छोड़ने तैयार नहीं है। बहरहाल अब चूंकि राष्ट्रपति ने न्यायिक सेवा का सुझाव दिया है इसलिए  इस बात की संभावना व्यक्त की जाने लगी है कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद यदि श्री मोदी पुनः सत्ता में लौटे तब वे इस दिशा में निर्णायक कदम उठा सकते हैं । श्रीमती मुर्मू का वक्तव्य उसी का संकेत है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 25 November 2023

इजराइल भी रूस जैसी स्थिति में फंस गया


हमास और इजराइल के बीच जारी युद्ध को 45 दिन से ज्यादा हो चुके हैं। 7 अक्टूबर को हमास द्वारा अचानक किए गए हमले के बाद इजराइल ने भी पलटवार में हमास के कब्जे वाले गाजा पट्टी पर विनाश वर्षा शुरू करते हुए फिलिस्तीनियों को वहां से चले जाने को कह दिया। इसमें दो मत नहीं हैं कि हमास का हमला इजराइल की गुप्तचर एजेंसियों की बड़ी विफलता थी । उसके द्वारा दागे गए हजारों राकेटों ने इस देश के उस आकाशीय सुरक्षा तंत्र को छिन्न - भिन्न  कर दिया जिसे अभेद्य माना जाता रहा। हमास के लड़ाके जिस तरह इजराइल में घुसे और बड़े पैमाने पर हत्याएं कर डालीं उससे प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू बौखला उठे और उन्होंने उसको समूल नष्ट करने का ऐलान करते हुए गाजा पर थल और नभ दोनों से आक्रमण कर वहां की आपूर्ति व्यवस्था चौपट कर दी जिससे लोगों का जीवन दूभर हो गया। संरासंघ सहित इजराइल के कट्टर समर्थक अमेरिका तक ने मानवीय आधार पर नेतन्याहू से गाजा के नागरिकों को भोजन , पानी , बिजली , दवाइयां आदि की आपूर्ति जारी रखने की गुजारिश की किंतु वे नहीं माने। लेकिन डेढ़ महीने से ज्यादा से चली आ रही जंग में इजराइल भी उसी तरह फंसता लग रहा है जैसा रूस यूक्रेन में उलझा हुआ है। इसका कारण हमास द्वारा सैकड़ों इजराइलियों को बंधक बना लेना है। चूंकि यहूदी राष्ट्र अपने हर नागरिक को बहुमूल्य समझता है इसलिए इजराइल का पूरा जोर बंधकों को हमास के कब्जे से छुड़ाने पर टिक गया। हालांकि अतीत में भी उसे अपने चंद बंधकों के बदले हमास के बंदी बनाए गए लोगों को रिहा करना पड़ा था किंतु इस बार हमास ने बहुत बड़ी संख्या में इजराइली नागरिकों को पकड़कर गुप्त स्थानों में छिपा दिया और यही एक बात नेतन्याहू की  दबती नस साबित हो रही है। हालांकि हमास के हमले में  इजराइल के जितने नागरिक मारे गए उससे कई गुना लोग गाजा पट्टी में  वह मार चुका है। एक समय ऐसा था जब इजराइल अपने अपहृत नागरिकों को मृत मानकर अपहरण करने वालों को नष्ट करने की नीति पर चलता था किंतु हमास के हमले ने नेतन्याहू की राजनीतिक स्थिति खराब कर दी जो पहले से ही जनता का विरोध झेल रहे थे। इजराइल की सुरक्षा व्यवस्था में हमास द्वारा लगाई गई सेंध के पीछे यद्यपि ईरान और कतर जैसे देश थे जो अमेरिका द्वारा सऊदी अरब और यहूदी देश के बीच दोस्ताना कायम करने की बिसात बिछाए जाने से नाराज थे। और फिर जिस तरह इतने लंबे समय तक हमास इजराइल के जबरदस्त आक्रमण का सामना करता  आ रहा है वह भी साधारण बात नहीं है। इजराइल की ये सोच गलत साबित हो गई कि उसके  कड़े प्रहार के सामने हमास घुटने टेक देगा और बंधक बनाए गए उसके नागरिकों को दबाव वश रिहा कर देगा । यही कारण है कि किसी भी सूरत में युद्ध न रोकने का ऐलान कर चुके नेतन्याहू को बातचीत के लिए बाध्य होकर कुछ दिनों के लिए युद्धविराम करना पड़ा। गत दिवस हमास द्वारा कुछ बंधक और इजराइल की ओर से  फिलिस्तीनी कैदी  रिहा कर दिए गए। हो सकता है युद्धविराम के दौरान इस कार्य में कुछ और प्रगति हो किंतु नेतन्याहू जिस तरह आर - पार की लड़ाई का मन बना चुके हैं वह समूचे विश्व के लिए खतरे का बड़ा संकेत है। कूटनीति के जानकार भी ये चिंता जता रहे हैं कि कहीं ये संकट तीसरे विश्व युद्ध में न बदल जाए। यद्यपि इस युद्ध का एक रोचक पहलू ये भी है कि अरब जगत के मुस्लिम देशों का पहले जैसा समर्थन हमास को नहीं मिला। मिस्र ने तो गाजा से आने वाले शरणार्थियों के लिए अपनी सीमाएं ही सील कर दीं। सऊदी अरब ने भी इजराइल के विरुद्ध वैसा मोर्चा नहीं खोला जैसा अपेक्षित था। यद्यपि हमास  जिस तरह से इजराइल के ताबड़तोड़ हमलों का सामना कर रहा है वह बिना विदेशी मदद के असंभव था । और फिर गाजा में जिस पैमाने पर विध्वंस हुआ उसे भी कम नहीं कहा जा सकता । बावजूद उसके यदि वह इजराइल का मुकाबला करने का दुस्साहस कर सका तो उसके पीछे उसके कब्जे में इजराइली नागरिकों का होना ही है। दरअसल नेतन्याहू भी रूसी राष्ट्रपति पुतिन की तरह उस मोड़ पर आ चुके हैं जहां से बिना जीते वापसी करना पराजय स्वीकार करने जैसा होगा। लेकिन इन दोनों युद्धों ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने जबरदस्त मुसीबत उत्पन्न कर दी है। जिसका परिणाम कच्चे तेल के अलावा खाद्यान्न संकट के तौर पर भी देखने मिलना तय है। सबसे बड़ी बात ये है कि दोनों बड़ी लड़ाइयों के पीछे अमेरिका है क्योंकि उसकी आर्थिक , सामरिक और कूटनीतिक मदद के बिना न यूक्रेन इतनी लंबी लड़ाई लड़ सकता था और न ही इजराइल हमास की जड़ें खोदने जैसी जिद पकड़कर बैठता। दोनों लड़ाइयां कहां जाकर खत्म होंगी ये फिलहाल कोई नहीं बता सकता। लेकिन इनका रुकना जरूरी है अन्यथा कोरोना संकट से उबरी वैश्विक अर्थव्यवस्था नए संकट में फंसकर रह जाएगी।


-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 24 November 2023

बड़े नेताओं की बेलगाम जुबान से गिर रहा चुनाव प्रचार का स्तर


राजस्थान विधानसभा चुनाव में प्रचार के अंतिम चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी के लिए भाजपा की शिकायत पर चुनाव आयोग द्वारा कांग्रेस नेता राहुल गांधी को नोटिस दिया गया है। हालांकि इसका कोई असर नहीं होने वाला क्योंकि ऐसी टिप्पणियां हर चुनाव में सुनाई देती हैं जिन पर आयोग कार्रवाई की औपचारिकता का निर्वहन भी करता है। कुछ नेताओं को प्रचार करने से प्रतिबंधित भी किया जाता है। लेकिन मतदान होते ही किसी को इस तरफ ध्यान देने की फुरसत नहीं रहती । आयोग भी अगले चुनाव की व्यवस्था में व्यस्त हो जाता है। लेकिन चिंता का विषय ये है कि चुनाव प्रचार  का स्तर चुनाव दर चुनाव गिरता ही जा रहा है। बात केवल प्रधानमंत्री के मान - अपमान तक ही सीमित न रहे बल्कि सभी राजनीतिक नेताओं को चाहिए एक दूसरे के सम्मान का ध्यान रखें। सही बात तो ये है कि जब कोई नेता किसी अन्य के बारे में आपत्तिजनक बातें सार्वजनिक मंच से बोलता है तो उससे उसकी विकृत मानसिकता ही उजागर होती है। राजनीति में वैचारिक मतभेद होना तो स्वाभाविक है और वही लोकतंत्र की खूबसूरती भी है । विरोधी को शत्रु मानने की प्रवृत्ति साम्यवादी शासन और तानाशाहों के राज में तो देखने मिलती है किंतु भारत में जो संसदीय लोकतंत्र है उसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का समान महत्व है और इस दृष्टि से सौजन्यता और सामान्य शिष्टाचार का पालन नितांत आवश्यक है। दुख का विषय है कि इस कसौटी पर दोनों पक्ष खरे साबित नहीं हो रहे। चुनावों के दौरान  प्रतिस्पर्धा  चरम पर होने से नीतिगत के साथ ही व्यक्तिगत आलोचना भी स्वाभाविक तौर देखने मिलती है। लेकिन वह शालीनता के मापदंडों के अंतर्गत न हो  शत्रुता कही जाएगी । ये बात प्रधानमंत्री  से लेकर स्थानीय नेताओं तक पर बराबरी से लागू होती है। इस समय जिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की सर्वत्र चर्चा है उनमें मिजोरम के बारे में तो  ज्यादा रुचि लोगों में नहीं है किंतु राजस्थान , छत्तीसगढ़ , म.प्र और तेलंगाना को लेकर जबरदस्त उत्सुकता है। चूंकि आगामी वर्ष की गर्मियों में लोकसभा के चुनाव होना हैं इसलिए इन चुनावों के नतीजों पर सबकी नजर है। उक्त चार राज्यों में से पहले तीन में तो भाजपा और कांग्रेस ही प्रमुख प्रतिद्वंदी हैं जबकि तेलंगाना में इन दोनों को सत्तारूढ़ क्षेत्रीय पार्टी वीआरएस से जूझना पड़ रहा है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के शीर्ष नेता सभी राज्यों में स्टार प्रचारक के तौर पर सभाएं और रोड शो करते नजर आए। लेकिन जिस प्रकार की शब्दावली कतिपय दिग्गज नेताओं द्वारा उपयोग की गई वह इनके राजनीतिक कद के अनुरूप कतई नहीं है। इस मामले में किसी विशेष नेता को कठघरे में खड़ा करना तो अन्याय होगा क्योंकि शब्दों की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन सभी की ओर से किया गया। कुछ अपवाद अवश्य होंगे लेकिन ज्यादातर ने आलोचना करते समय लोकतांत्रिक सौजन्यता की खुलकर उपेक्षा की। चुनाव आयोग में इस बारे में की जाने वाली शिकायतें अपनी जगह हैं किंतु क्या राजनीतिक दलों को खुद होकर अपने नेताओं की बदजुबानी पर नियंत्रण नहीं करना चाहिए? धार्मिक और जातिगत मुद्दों पर किसी आपत्तिजनक बयान के लिए तो राजनीतिक दल बिना देर लगाए संबंधित नेता पर कार्रवाई करते हैं किंतु  विरोधी नेता पर की जाने वाली स्तरहीन टिप्पणी पर न सिर्फ मौन साधा जाता है अपितु उसका बचाव भी किया जाता है। यही कारण है कि इस तरह के लोगों का हौसला बुलंद होता जा रहा है। लेकिन इसके लिए बड़े नेता ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि उनकी देखासीखी ही अन्य नेता गण भी राजनीतिक बहस को शर्मनाक स्थिति तक ले आए हैं। चिंता तो तब होती है जब किसी स्तरहीन बयान का बचाव ये कहकर किया जाता है कि दूसरे नेता ने भी तो वैसा ही किया था। चुनाव में राजनीतिक दल अपने नेताओं के माध्यम से नीतियों और विचारधारा के आधार पर जनता से समर्थन मांगते हैं। मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणापत्र में किए गए वायदों का प्रचार भी किया जाता है। चूंकि अब चुनावी वायदे नीतिगत न होकर व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा का रूप ले बैठे हैं इसलिए मतदाता को ग्राहक समझकर अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ मचती है। इसीलिए चारों प्रमुख राज्यों में नीतिगत मुद्दे तो दबकर रह गए और व्यक्तिगत छींटाकशी तथा मुफ्त उपहारों के वायदे समूचे परिदृश्य पर हावी हो गए जो निश्चित रूप से इसलिए भी चिंतनीय है क्योंकि इन चुनावों में फैली कटुता का विस्तार लोकसभा चुनाव में होना सुनिश्चित है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 22 November 2023

देश के सभी शहर प्रदूषण का शिकार होते जा रहे हैं


देश की राजधानी दिल्ली दुनिया के प्रदूषित शहरों में अव्वल घोषित हुई है। वैसे कोलकाता  और मुंबई भी दुनिया के प्रदूषित शहरों में हैं किंतु वे दिल्ली से पीछे हैं।  ये स्थिति निश्चित रूप से शर्मनाक है। दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर देश की राजधानी के अतिरिक्त दो अन्य महानगर यदि प्रदूषण के लिए  दुनिया में जाने जाएं तो इससे ज्यादा शर्मनाक क्या होगा ? गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब और हरियाणा के खेतों में फसल काटने  के बाद किसानों द्वारा पराली जलाए जाने पर सरकार को लताड़ लगाते हुए कहा कि वह अपनी गलतियों को दूसरों के कंधों पर न डाले तथा इस बारे में बनाए कानूनों का सख्ती से पालन कराए । दिल्ली में सर्दियां शुरू होते ही वायु प्रदूषण की समस्या शुरू हो जाती है जिसके लिए मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा की तरफ से आने वाले पराली के धुएं को जिम्मेदार माना जाता है। पहले तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजलीवाल पंजाब की तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर दोषारोपण किया करते थे किंतु अब तो पंजाब में भी आम आदमी पार्टी की सत्ता है जिसकी कमान श्री केजरीवाल के निकटस्थ भगवंत सिंह मान के पास है। यद्यपि उक्त दोनों राज्यों में पराली जलाने वाले किसानों के विरुद्ध प्रकरण दर्ज किए जाने लगे हैं , किंतु इससे भी समस्या हल नहीं हो पा रही। यहां एक सवाल ये उठता है कि जब पराली जलाने का मौसम नहीं रहता तब क्या दिल्ली की हवा पूरी तरह शुद्ध होती है ? और उत्तर है ,नहीं । दिल्ली में बहने वाली यमुना नदी के पानी को देखकर तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं जिसमें फैक्ट्रियों से निकले रसायन युक्त पानी के मिलने से सतह के ऊपर झाग ही झाग तैरता है। छठ पूजा के अवसर पर श्रद्धालु जनों  को यमुना के इसी जल में स्नान करते देख शर्म भी आती है और उनके स्वास्थ्य की भी चिंता होती है। दिल्ली में हाल ही में जी - 20 का सम्मेलन हुआ जिसमें दुनिया भर के दिग्गज राष्ट्र अध्यक्ष एकत्रित हुए थे। उनकी आवभगत के लिए दिल्ली को नई दुल्हन जैसा सजाया गया था। गनीमत है बड़े देशों के नेतागण वहां यमुना देखने नहीं गए। और यदि उनको जामा मस्जिद के आसपास का इलाका भी घुमाया जाता तब वे दिल्ली की विरोधाभासी स्थिति देखकर भारत के बारे में क्या अवधारणा लेकर जाते ये सोचने वाली बात है। पराली तो खैर फसल कटने के बाद की समस्या है किंतु दिल्ली का वायु प्रदूषण तो पूरे वर्ष बना रहता है। और दिल्ली ही क्यों देश का शायद ही कोई शहर या कस्बा ऐसा हो जहां की हवा को पूरी तरह शुद्ध कहा जा सके। अब तो देश के वे पहाड़ी क्षेत्र भी शहरी प्रदूषण की गिरफ्त में आ गए हैं जहां कभी लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए जाते थे। ये दुर्भाग्य है कि जिस देश में पहाड़ , धरती , नदी , तालाब , कुएं , पेड़ - पौधे , पशु - पक्षी सभी को पूजने की संस्कृति रही हो , वहां की ये हालत है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई फटकार भले ही व्यवहारिकता की कसौटी पर ज्यादती लगे किंतु सत्ता चाहे केंद्र की हो या राज्य की अथवा स्थानीय निकाय की , उसे प्रदूषण रोकने को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए। क्योंकि एक तरफ तो सरकार जनता को मुफ्त चिकित्सा की सुविधा दे रही है वहीं दूसरी ओर प्रदूषण की वजह से बीमारियां बढ़ रही हैं। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं वहां विभिन्न राजनीतिक दल मतदाताओं को तरह - तरह के मुफ्त उपहारों और सुविधाओं का वायदा कर रहे हैं। लेकिन प्रदूषण निवारण और पर्यावरण संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे जिस तरह उपेक्षित हैं उनको देखकर ये कहा जा सकता है कि जन स्वास्थ्य को लेकर राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह लापरवाह हैं । दिल्ली में मेट्रो रेल और सीएनजी के बाद सार्वजनिक इलेक्ट्रिक वाहन चलाए जाने के बाद वायु प्रदूषण घटने का दावा किया जा रहा था किंतु प्रदूषण बढ़ाने के लिए जिम्मेदार अन्य कारणों पर ध्यान नहीं दिए जाने से एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी हुई है। यदि देश वाकई वैश्विक स्तर की आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है तब उसे पर्यावरण संरक्षण को भी सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। भौतिक प्रगति की अंधी दौड़ का परिणाम यदि हवा में जहर घोलना ही है तो फिर उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। समय की मांग है कि प्रदूषण रोकने के प्रति सरकार और जनता दोनों मिलकर काम करें क्योंकि इसके लिए सामूहिक दायित्वबोध की आवश्यकता है। यदि जल्द ही इस समस्या के हल के लिए सार्थक प्रयास नहीं किए गए तो दिल्ली जैसी चिंताजनक स्थिति हर जगह नजर आयेगी। वैसे कड़वी सच्चाई ये है कि दिल्ली तथा अन्य बड़े शहरों की जानकारी तो प्रकाश में आ भी जाती है किंतु देश के करोड़ों लोग जिन बस्तियों में रहते हैं वहां के हालात किसी नर्क से कम नहीं हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 21 November 2023

चुनाव में नगदी और शराब बांटने पर रोक लगाने में आयोग असफल साबित हो रहा




चुनाव आयोग द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के दौरान 1760 करोड़ रु. की नगदी , शराब , ड्रग्स और उपहार सामग्री जप्त गई जिसके बारे में संदेह है कि उसका उपयोग मतदाताओं को लुभाने की लिए किया जाना था। चिंता का विषय ये है कि 2018 की तुलना में ये आंकड़ा सात गुना अधिक है। जाहिर है चुनाव में उपयोग किया गया जो काला धन , शराब , मादक पदार्थ और उपहार में दी गई चीजें चुनाव आयोग की पकड़ से बाहर रहीं , उनका मूल्य कई गुना अधिक होगा। इससे साबित होता है कि आयोग की तमाम सख्तियों के बावजूद मतदाताओं को लुभाने या सीधे तौर पर कहें तो खरीदने के लिए नगद राशि , शराब और अन्य चीजें बांटने जैसे अनुचित तरीकों में रत्ती भर भी सुधार नहीं हुआ। वह भी तब जब अचार संहिता घोषित होते ही प्रशासन जबर्दस्त घेराबंदी करने लगता है। वाहनों को रोककर और छापेमारी जैसी कार्रवाई भी की जाती है। इसके परिणामस्वरूप ही तो 1760 करोड़ कीमत की जप्ती हो सकी। लेकिन जैसी खबरें चुनाव के दौरान आती रहीं उनके अनुसार तो जमकर नगद रुपया , शराब आदि बांटी गई। मतदान के एक दिन पूर्व गरीबों की बस्तियों में शराब और नगदी का वितरण बेरोकटोक होता रहा। इसके लिए किसी एक पार्टी या प्रत्याशी विशेष को आरोपित करना तो गलत होगा क्योंकि चुनाव जीतने के लिए इस तरह के तरीके अपनाया जाना आम हो गया है। वाहनों की जो संख्या प्रत्याशी चुनाव कार्यालय को लिखकर देता है उससे ज्यादा का उपयोग होता है। मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल निर्दलीय प्रत्याशियों के कोटे से अपने वाहन चलवाने का इंतजाम भी कर लिया करते हैं। सबसे आश्चर्यजनक तो प्रत्याशियों द्वारा दिया जाने वाला खर्च का ब्यौरा है । चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्याशियों को चुनाव के दौरान ही समय - समय पर खर्च का विवरण और मतदान के बाद चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा ऑडिट करवाया हुआ कुल खर्च का विवरण अनिवार्य रूप से जमा करना होता है। हाल ही में जहां - जहां मतदान संपन्न हुआ वहां - वहां प्रत्याशियों ने चुनावी खर्च का जो ब्यौरा दिया उसे पढ़कर हंसी आती है। निर्दलीय उम्मीदवार कम व्यय दर्शाएं तो फिर भी समझ में आता है किंतु भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी जितने कम खर्च में चुनाव लड़ने की जानकारी अधिकृत तौर पर देते हैं उसके सत्यापन की कोई सूक्ष्म व्यवस्था नहीं है । और फिर चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद जब तक कोई चुनाव याचिका पेश नहीं होती तब तक उन विवरणों पर कोई ध्यान भी नहीं दिया जाता । इस प्रकार चुनाव के दौरान आयोग द्वारा दिखाई जाने वाली सख्ती ऊपरी तौर पर तो प्रभावशाली नजर आती है किंतु सच्चाई ये है कि चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के बीच तुम डाल - डाल तो हम पात - पात वाली कहावत चरितार्थ होती है। यही कारण है कि चुनावों में होने वाले बेतहाशा खर्च को नियंत्रित करने के उपाय अपेक्षानुसार कारगर नहीं हो पाते। सबसे बड़ी बात ये है कि नगदी , शराब , नशीले पदार्थ और उपहार सामग्री जिनसे जप्त होती है उनमें से कितनों को और कितनी सजा मिली ये पता ही नहीं चलता। यही वजह है कि अपवादस्वरूप लोग पकड़े जाने वाले कब छूट जाते हैं , पता ही नहीं चलता। यही कारण है कि चुनाव के दौरान काले धन , शराब और मुफ्त उपहार बांटने वाले पूरी तरह से बेखौफ रहते हैं। मतदान के समय भले ही अन्य राज्यों का पुलिस बल तैनात किया जाता है किंतु प्रारंभिक दौर में तो स्थानीय प्रशासन और पुलिस ही चूंकि चुनाव प्रक्रिया का संचालन करते हैं जिनका नेताओं और शराब माफिया से रिश्ता बताने की जरूरत नहीं हैं । ये बात आम नागरिक को भी पता है कि प्रशासन और पुलिस पूरी तरह ईमानदार और पारदर्शी हो जाए तो चुनाव लड़ने वालों द्वारा अपनाए जाने वाले अनुचित और अवैध तरीकों पर पूर्णरूपेण न सही किंतु काफी हद तक तो रोक लग ही सकती है। बहरहाल वर्तमान स्थिति तो किसी मजाक से कम नहीं है क्योंकि जिस दरियादिली से प्रत्याशी और राजनीतिक दल चुनाव में खर्च करते हैं उसका आधा भी आयोग को दिए जाने वाले विवरण में नहीं दर्शाया जाता। स्व.टी. एन.शेषन ने चुनाव सुधार का जो दुस्साहस दिखाया था उनके उत्तराधिकारियों द्वारा उसे आगे तो बढ़ाया गया किंतु कागजों पर जितना दावा किया जाता है व्यवहार में नजर नहीं आने से चुनाव लगातार खर्चीले होते जा रहे हैं। यही वजह है कि राजनीति में आने के इच्छुक बुद्धिजीवी और पेशेवर लोगों को मजबूरन किसी दल का सहारा लेना पड़ता है । लोकतंत्र की सार्थकता तभी है जब समाज का वह वर्ग भी चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटा सके जिसके पास मतदाता को लुभाने के लिए रुपया और शराब बांटने का सामर्थ्य नहीं है। अन्यथा चुनावों का जो स्वरूप सामने आने लगा है वह और विकृत होता जाएगा।


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 20 November 2023

असफलता में छिपा होता है सफलता का सबक



लगातार 10  मैच जीतने के बाद कोई टीम यदि  खिताब से वंचित रह जाए तो ये  अफसोस की बात है । एक दिवसीय क्रिकेट के विश्व कप मुकाबले में गत दिवस भारत की टीम आस्ट्रेलिया से पराजित हो गई। यद्यपि इसके पूर्व भी भारत ज्यादातर सेमी फाइनल और फाइनल में आकर हारता रहा है। लेकिन इस हार को इसलिए सहज नहीं माना जा रहा क्योंकि  भारत फाइनल के पूर्व एक भी मैच नहीं हारा और उसके बल्लेबाजों और गेंदबाजों का प्रदर्शन विश्वस्तरीय रहा। इसीलिए सारे समीक्षक मानने लगे थे कि यह विश्व कप भारत का ही होगा । लेकिन कल जैसे ही टॉस जीतकर ऑस्ट्रेलिया ने पहले क्षेत्ररक्षण चुना , भारत की संभावनाओं पर संदेह व्यक्त होने लगे क्योंकि ऐसे मुकाबलों में लक्ष्य का पीछा करना लाभदायक रहता है। बावजूद इसके भारतीय बल्लेबाजों से अपेक्षा थी कि वे रनों का अंबार लगाकर आस्ट्रेलिया पर दबाव बना देंगे और  बचा हुआ काम  गेंदबाज कर देंगे । भारत ने शुरुआत भी धमाकेदार अंदाज में की लेकिन  एक - दो बल्लेबाजों के आउट होते ही टीम दबाव में आ गई । दो  अर्धशतकों के बल पर किसी तरह 240 रन बन सके । रोहित ने भी स्वीकार किया कि 30 - 40 रन और बन जाते तो मुकाबला नजदीकी होता।लेकिन क्रिकेट और अनिश्चितता दोनों पर्यायवाची कहे जाते हैं। इसलिए उम्मीद थी कि लीग मैचों में दिग्गज बल्लेबाजों को आसानी से आउट करने वाले भारतीय गेंदबाज अपना कौशल दिखाएंगे किंतु ऑस्ट्रेलिया के तीन विकेट 47 रन पर चटकाने के बाद  भारत का प्रतिरोध खत्म हो चला था। इसका प्रमाण चौथा विकेट 239 पर गिरना था जब ऑस्ट्रेलिया को मात्र 2 रन चाहिए थे जीतने के लिए। हार के बाद कोई रोहित के अनावश्यक जोश को जिम्मेदार मान रहा है , तो कोई शुभमन गिल और श्रेयस अय्यर की सस्ते में आउट होने के लिए आलोचना कर रहा है। विराट कोहली और के. एल.राहुल ने भले ही अर्धशतक बनाए किंतु उन दोनों को भी समीक्षक कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।  गेंदबाजी भी मौके पर बेअसर साबित हुई।  भारत  बजाय आक्रामक होने के रक्षात्मक होता गया जिसकी वजह से दो आस्ट्रेलिया बल्लेबाजों ने अभेद्य दीवार खड़ी कर दी। वैसे फाइनल भी आखिर मैच ही है जो आम मुकाबलों से इसलिए अलग होता है क्योंकि उसमें जीतने पर ट्रॉफी  के साथ विजेता कहलाने का सौभाग्य भी मिलता है जिससे भारतीय टीम वंचित रह गई। जब 240 पर रोहित के लड़ाके सिमट गए तब भारतीय समर्थकों को उम्मीद रही कि  शायद 1983 की पुनरावृत्ति हो जाए। उस विश्व कप में कई मैच हारने के बाद भारत फाइनल में पहुंचा तब उसे अप्रत्याशित माना गया ।  और फिर सामने थी दो विश्व कप जीत चुकी क्लाइव लायड की मजबूत टीम । पहले बल्लेबजी करते हुए भारत मात्र 183 रनों ही बना सका था। जिस पर वेस्ट इंडीज के पूर्व कप्तान गैरी सोबर्स ने कटाक्ष किया कि दर्शकों की टिकिट के पैसे वसूल नहीं होंगे और उनकी टीम 25 - 30 ओवर में ही लक्ष्य प्राप्त कर लेगी। शुरुआत में ऐसा लगा भी लेकिन कप्तान कपिल देव ने  विवियन रिचर्ड का कैच लपककर पांसा पलट दिया और साधारण सी दिखने वाली वह टीम विश्व कप लेकर लौटी। रोहित शर्मा की टीम कपिल के दल से कहीं बेहतर और अनुभवी है। लेकिन उसने उस जैसा हौसला नहीं दिखाया। 2003 के विश्व कप फाइनल में भी ऑस्ट्रेलिया ने हमारे गेंदबाजों के धुर्रे उड़ाते हुए 359 रन बना डाले थे जिनमें कप्तान रिकी पोंटिंग के 140 रन  थे। उसके बाद कपिल देव ने कहा था कि जीतना है तो किसी भारतीय बल्लेबाज को अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ पारी खेलनी होगी , जो नहीं हो सका । कल भी  जब भारतीय टीम 240 रन ही बना सकी तब किसी गेंदबाज से ऐतिहासिक प्रदर्शन अपेक्षित था किंतु अब तक शानदार प्रदर्शन करने वाले गेंदबाज बेहद मामूली साबित हुए।  कहावत है कि जीत के हजार बाप होते हैं और हार अनाथ। उस आधार पर रोहित शर्मा और उनके साथी खिलाड़ियों की तारीफ के पुल बांधने वाले अब आलोचनाओं का पहाड़ खड़ा कर देंगे। लेकिन ऐसे  मामले में  भावनाओं से ऊपर उठकर  पेशेवर दृष्टिकोण अपनाना चाहिए । जब तक खेल केवल ओलंपिक तक सीमित रहते थे तब तक हार - जीत दोनों को  उसका हिस्सा माना जाता था किंतु जबसे उनका स्वरूप व्यवसायिक हुआ तबसे जीत महत्वपूर्ण हो गई। इसकी वजह उससे जुड़ा पैसा है। अब किसी देश की शक्ति और संपन्नता का एक पैमाना खेलों में उसका प्रदर्शन भी  है। बीते एक - दो  दशकों से भारत में भी क्रिकेट के अलावा अन्य मैदानी खेलों पर काफी ध्यान दिया जाने लगा है। प्रायोजक मिलने से खिलाड़ियों को संसाधन और विदेशों में प्रशिक्षण भी मिलने लगा है। झारखंड और उत्तर पूर्वी राज्यों के गरीब परिवारों से निकले लड़के - लड़कियां देश के लिए पदक जीत रहे हैं । इनसे लगता है आने वाले एक दशक में भारत भी ओलंपिक और अन्य विश्वस्तरीय प्रतियोगिताओं की पदक तालिकाओं में सम्मानजनक स्थिति में नजर आने लगेगा। कल  फाइनल में मिली पराजय निश्चित रूप से निराश करने वाली है किंतु प्रत्येक असफलता में सफलता का सबक भी छिपा होता है। रोहित शर्मा की टीम को भारत की अब तक की सर्वश्रेष्ठ टीम कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसे में  असफलता का रंज पालकर बैठे रहने के बजाय भावी चुनौतियों के लिए तैयार होना चाहिए। विश्व कप के सफल आयोजन से बीसीसीआई की प्रबंधन क्षमता एक बार उजागर हुई । लगता है वह समय दूर नहीं जब भारत को विश्व ओलंपिक की मेज़बानी करने का भी अवसर मिलेगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Sunday 19 November 2023

इतिहास अपने को दोहरा सकता है...



40 साल पहले महज 183 रन बनाने के बाद भी भारत ने  वेस्ट इंडीज को फाइनल में हराकर विश्व कप जीता था। आज तो 240 रन बनाए हैं। 
यदि पहले 10 ओवर में भारतीय गेंदबाजों ने ऑस्ट्रेलिया के 3 बल्लेबाजों को आउट कर दिया तो इतिहास अपने आपको दोहरा सकता है।

एक हफ्ते में दूसरी दीवाली हो सकती है...




अब सारा दारोमदार गेंदबाजी और क्षेत्ररक्षण पर है। पिच धीमा है ,इसलिए रन बनाने में ऑस्ट्रेलिया को दिक्कत होगी। यदि शुरुआती दबाव बना दिया तो एक हफ्ते में दूसरी दीवाली हो सकती है। भारतीय टीम का हौसला अब तक बुलंद रहा है। यदि वह बना रहा तो जीत सुनिश्चित है। लेकिन ऑस्ट्रेलिया की टीम भी बेहद पेशेवर है और उसका रिकॉर्ड भी बेहतर है। शमी, सिराज , बुमराह और यादव के लिए कर गुजरने का मौका है। कैच किसी भी हालत में न छूटें ये ध्यान देना भी जरूरी है।

Saturday 18 November 2023

नारी सम्मान के सपने पर भारी पड़ गई लाड़ली बहना की हकीकत



म.प्र विधानसभा की 230 सीटों के लिए गत दिवस मतदान संपन्न हुआ। हालांकि मत प्रतिशत आधा प्रतिशत से थोड़ा सा ही ज्यादा बढ़ा किंतु ये भी कम उपलब्धि नहीं है । वरना रोजाना घंटों राजनीति और चुनाव पर बातचीत करने वाले तमाम लोग मतदान के दिन या तो पिकनिक मनाते हैं या घर में आराम फरमाते हैं। इसके अलावा महिलाओं का मत प्रतिशत यद्यपि उतना नहीं बढ़ा जितना ढिंढोरा पीटा जा रहा था किंतु जितना भी हुआ वह ये साबित करता है कि आधी आबादी भी अब निर्णय प्रक्रिया में हिस्सेदारी कटिबद्ध हो रही है। वैसे भी ये चुनाव महिला मतदाताओं पर काफी हद तक केंद्रित था । कांग्रेस की नारी सम्मान योजना के जवाब में शिवराज सिंह चौहान सरकार द्वारा लाई गई लाड़ली बहना योजना भाजपा के लिए तुरुप का पत्ता बन गई। कांग्रेस द्वारा महिलाओं को 1500 रु. प्रति माह दिए जाने का वायदा किया गया था किंतु शिवराज सरकार द्वारा जून महीने से 1000 देने शुरू कर दिए जिसे बढ़ाकर 1250 किया जा चुका है और भविष्य में 3000 किया जाने वाला है। इस योजना से भाजपा मुकाबले में वापिस आई वरना उसके 60 -70 सीटों तक सिमटने की आशंका जताई जाने लगी थी। सर्वेक्षण एजेंसियां भी इस योजना को खेल उलट देने वाली मानते हुए भाजपा को 100 से 115 तक सीटें मिलने की बात कहने लगीं। मतदान से 10 दिन पहले लाभार्थी महिलाओं के खाते में 1250 रुपए की मासिक किश्त जमा होने का असर मतदान केंद्रों पर महिलाओं की लंबी कतारों से देखने मिला। हालांकि उनमें सभी लाड़ली बहना श्रेणी की नहीं थीं। सामान्य वर्ग की महिलाएं भी बराबरी से मतदान केंद्रों पर नजर आईं। कांग्रेस की संभावनाओं को मजबूत मानने वालों का कहना है कि सरकारी कर्मचारियों ने अपनी नाराजगी सपत्नीक विरोध में मतदान कर व्यक्त की। पुरानी पेंशन शुरू करने का उसका वायदा इसके पीछे था । हालांकि सरकारी कर्मचारियों का बड़ा वर्ग भाजपा और रास्वसंघ से प्रेरित और प्रभावित है और इसे जाहिर करने में संकोच भी नहीं करता। जो राम को लाए उनको लाएंगे का नारा जिस तरह चला उसका भी अदृश्य असर उस वर्ग में दिखाई दिया जो भाजपा और राज्य सरकार से रूष्ट होने के बावजूद सरकार बदलने के तैयार नहीं हो सका। ऐसे में मतदान प्रतिशत 2018 की तुलना में बढ़ा तो जरूर किंतु उसे सत्ता विरोधी लहर मानना व्यवहारिक नहीं लगता। मतदाताओं की आम प्रतिक्रिया से लगता है कि 3 दिसंबर को जो जनादेश म.प्र में आएगा वह पूरी तरह से स्पष्ट होगा । हालांकि भाजपा का यह आशावाद विचारणीय है कि हर सीट पर औसतन 25 से 30 हजार जो लाड़ली बहना मतदाता हैं उनके अधिकांश मत भाजपा की झोली में गिरे। उनके पति तथा अन्य परिजनों को भी यदि भाजपा का पक्षधर मान लिया जाए तो ऐसे में पार्टी 2003 का परिणाम दोहरा सकती है । एक और बात मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवारों में देखने मिल रही है कि पुरुषों से अधिक महिलाएं सनातन मुद्दे पर मुखर होने लगी हैं। अयोध्या में राममंदिर के निर्माण की तिथि निकट आने का भी असर है। कांग्रेस को इस बात से भी चिंतित होना चाहिए कि साधु - सन्यासियों और मंदिरों में बैठे ज्यादातर पुजारियों द्वारा बिना नाम लिए सनातन और राम समर्थक सरकार लाने का संदेश दिया गया। स्मरणीय है कि छिंदवाड़ा में बागेश्वर धाम के धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की कथा के आयोजन में कमलनाथ भगवा चोला धारण कर आगे - आगे रहे किंतु जाते - जाते स्वामीजी भारत को हिन्दू राष्ट्र बता गए और श्री नाथ को मजबूरन उनका समर्थन करना पड़ा जिस पर कांग्रेसी नेताओं और अन्य विपक्षी दलों ने उनकी आलोचना की। वैसे मतदान का विश्लेषण हर कोई अपने - अपने तरीके से कर रहा है किंतु 76 फीसदी मतदान के बाद भाजपा खेमे में उत्साह की लहर है । वहीं कांग्रेस भारी मतदान को लेकर असमंजस में है । महिलाओं द्वारा स्वप्रेरणा से निकलकर मतदान करने से उसे खतरा नजर आ रहा है। जो लोग किसी दल से जुड़े नहीं हैं वे भी मान रहे हैं कि लाड़ली बहना योजना ने भाजपा को कांग्रेस की बराबरी पर लाकर खड़ा कर ही दिया और कमलनाथ आखिरी तक उसकी काट नहीं ढूंढ सके। इस चुनाव का एक रोचक पहलू ये भी है कि जिन शिवराज सिंह चौहान को राजनीतिक विश्लेषक पूरी तरह हाशिए से बाहर मान रहे थे वे ही भाजपा को विजय मंच के इतने करीब लेकर आए हैं । इसीलिए अब विरोधी भी उनकी मेहनत और सक्रियता के कायल हो उठे हैं। कांग्रेस इस चुनाव में हारती है तो उसके द्वारा श्री चौहान को कमतर आंकना भी बड़ा कारण होगा। वहीं कांग्रेस यदि जीती तो उसका श्रेय अकेले कमलनाथ ही लूटेंगे और यही उनकी रणनीति 2020 में सरकार हाथ से निकल जाने के बाद से देखी गई है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 16 November 2023

तीन राज्यों के नतीजे विपक्षी गठबंधन का भविष्य तय करेंगे



2003 में म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा को शानदार सफलता मिली । इससे अति आत्मविश्वास में भरकर अटल बिहारी वाजपेयी की केंद्र सरकार ने लोकसभा भंग कर जल्दी चुनाव करवा दिए किंतु निराशा हाथ लगी और दस साल तक भाजपा को केंद्र की सत्ता से बाहर रहना पड़ा। इसका उल्टा देखने मिला 2018 में जब उक्त तीनों राज्यों में कांग्रेस ने सरकार बनाई किंतु कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को इन राज्यों में जबरदस्त सफलता मिली। इन दो उदाहरणों से ये साबित हुआ कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मतदाता एक ही पार्टी या गठबंधन को समर्थन दें ये जरूरी नहीं है। अनेक राज्यों के मतदाताओं ने राज्य और केंद्र की सरकार लिए अलग - अलग पार्टियों को मत देकर ये संदेश दिया कि उन्हें अपने मत का समुचित उपयोग करने की भरपूर समझ है। ये देखते हुए म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मौजूदा विधानसभा चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनाव की रिहर्सल मान लेने पर भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। इन तीनों में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है । यद्यपि सपा , बसपा , जनता दल (यू)और आम आदमी पार्टी भी मैदान में कुछ सीटों पर लड़ रही हैं लेकिन उनकी अहमियत तभी रहेगी जब उनके कुछ विधायक जीतें और त्रिशंकु विधानसभा बने । 2018 में म.प्र में ऐसा हुआ भी। लेकिन जो संकेत आए हैं उनके अनुसार तीनों राज्यों में जो भी सरकार बने उसके पास स्पष्ट बहुमत होगा। कांग्रेस को उम्मीद है वह तीनों राज्य जीत लेगी और जिसका लाभ 2024 में उसे मिलेगा। वहीं भाजपा के रणनीतिकार मान रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर विधानसभा चुनाव लड़कर वह लोकसभा के मुकाबले के लिए खुद को मजबूत कर लेगी। वैसे ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि वे प्रदेश में किसी को भी मत दें किंतु लोकसभा चुनाव में उनका समर्थन श्री मोदी को ही मिलेगा। कांग्रेस को उम्मीद है कि म.प्र की सत्ता भाजपा से छीन लेने के साथ ही वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बचाए रखने में कामयाब हो जायेगी। दूसरी तरफ भाजपा म.प्र में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में वापसी का भरोसा पालने के साथ ही राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने तथा छत्तीसगढ़ में 2018 से बेहतर प्रदर्शन करने के प्रति आश्वस्त है। दोनों का आशावाद उनके अपने आकलन पर आधारित है लेकिन जो बात जनता के बीच से निकलकर आ रही है उस पर यकीन करें तो इस विधानसभा चुनाव के परिणामों का आगामी लोकसभा चुनाव पर असर पड़ने की संभावना बहुत ज्यादा नहीं हैं। हालांकि जो लोक लुभावन घोषणाएं विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों की तरफ से की गईं उनसे मतदाता प्रभावित हो सकते हैं । उस लिहाज से श्री मोदी की लोकप्रियता भी कसौटी पर है। हालांकि कांग्रेस बाकी विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करती तब उसे 2024 का पूर्वाभ्यास कहा जा सकता था। लेकिन उक्त तीनों राज्यों में गैर भाजपा पार्टियां एकजुट नहीं हो सकीं जिसके लिए सपा , आम आदमी पार्टी और जनता दल (यू) ने कांग्रेस की आलोचना भी की। बसपा तो वैसे भी विपक्ष के गठबंधन से अलग ही है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि जिन गैर भाजपा पार्टियों के साथ कांग्रेस ने सीटों का बंटवारा करने से इंकार कर दिया वे ही यदि अपना संयुक्त उम्मीदवार उतारतीं तब तीसरी ताकत के तौर पर दबाव बनाने में भी सक्षम हो जातीं। ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा विरोधी विपक्षी पार्टियों की मोर्चेबंदी पर आशंका के बादल मंडराने लगे हैं । लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। भाजपा ने प्रधानमंत्री के नाम पर उक्त तीनों राज्यों में चुनाव लड़कर बड़ा जोखिम उठाया है ।यदि परिणाम प्रतिकूल आए तब कांग्रेस को ये कहने का अवसर मिल जायेगा कि मोदी की गारंटी पर मतदाताओं का भरोसा नहीं रहा। हिमाचल और कर्नाटक के बाद यदि उक्त तीन में से भाजपा दो राज्यों में नहीं जीती तब वह दबाव में आ जायेगी । इसी तरह कांग्रेस यदि दो राज्य भी बचा ले गई तब वह विपक्षी दलों को अपने झंडे तले एकजुट होने के लिए दबाने की हैसियत में होगी। लेकिन केवल छत्तीसगढ़ में सिमट गई तब छोटी - छोटी पार्टियां भी उसे आंखें दिखाने से बाज नहीं आएंगी। इस आधार पर कह सकते हैं कि संदर्भित तीनों राज्यों के चुनाव परिणाम भाजपा विरोधी गठबंधन का भविष्य निश्चित करेंगे। इस आलेख में तेलंगाना की चर्चा इसलिए नहीं की गई क्योंकि वहां बाकी विपक्षी दल उतने ताकतवर नहीं हैं जबकि मिजोरम में राष्ट्रीय पार्टियां नाममात्र के लिए हैं। रही बात भाजपा की तो यदि वह 2018 के नतीजों को उलटने में सफल रही तब यह साबित हो जायेगा कि उसके प्रादेशिक नेता भले ही साख खो बैठे हों किंतु प्रधानमंत्री के प्रति लोगों का भरोसा कायम है। 


-रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 15 November 2023

हाईटेक प्रचार में डूब गया विचार : न वैसे नेता रहे और न ही श्रोता


समय के साथ सभी चीजें बदलती हैं। इसलिए चुनाव भी नए रंग और नए रूप में नजर आने लगे हैं। सघन जनसंपर्क अब औपचारिकता में बदल गया है। मतदाताओं की बढ़ती संख्या और निर्वाचन क्षेत्र के फैलाव ने प्रत्याशियों की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इसीलिए घर - घर जाकर दरवाजा खटखटाने वाले प्रचार की जगह अब हाईटेक संचार माध्यमों ने ले ली है। मोबाइल पर धड़ाधड़ संदेश आते हैं , प्रत्याशी का रिकॉर्डेड अनुरोध भी सुनाई देता है। सोशल मीडिया के सभी मंच चुनावी प्रचार से भरे हैं । बड़े  नेताओं के तामझाम भरे रोड शो होने लगे हैं। कुछ विशिष्ट हस्तियों के नाम पर भीड़ जमा करने का तरीका भी अपनाया जाने लगा है किंतु इस सबके बीच देर रात तक चलने वाली छोटी - बड़ी सभाएं अतीत बन चुकी हैं जिनमें विभिन्न दलों के नेता घंटों अपनी विचारधारा का बखान करते हुए मतदाताओं से समर्थन की अपील करते थे। वे नेता  हेलीकॉप्टर और चार्टर्ड विमानों से नहीं अपितु रेल या सड़क मार्ग से आते। उनके आने में  देर होने पर भी जनता उनको सुनने घंटों प्रतीक्षा करती रहती थी। नुक्कड़ सभाओं में प्रादेशिक या स्थानीय नेतागण अपनी पार्टी का पक्ष रखते थे। आज की तरह रैलियों में शामियाना और कुर्सियां नहीं लगती थीं । आगे बिछी कुछ दरियों पर पहले से आए श्रोता कब्जा जमा लेते और पीछे हजारों श्रोता खड़े -खड़े भाषण सुनते थे। प्रधानमंत्री के अलावा अनेक ऐसे राष्ट्रीय नेता भी थे जो भले सांसद - विधायक न रहे हों किंतु जनता उनको सुनने बेताब रहा करती थी। सबसे बड़ी बात ये थी कि उन नेताओं को सुनने के लिए वे लोग भी आते जो उनकी विचारधारा से सहमत नहीं होते थे । नुक्कड़ सभाओं के माध्यम से प्रादेशिक नेता छोटे - छोटे श्रोता समूह से मुखातिब होते और लोग भी धैर्यपूर्वक उन्हें सुनते थे। समय बीतने के साथ चुनाव महंगे होते जा रहे हैं। चुनाव आयोग ने बीते कुछ दशकों में उनका रंग - रूप पूरी तरह बदल दिया। खर्च कम करने के लिए किए गए उपाय कितने सफल हुए ये बड़ा सवाल है क्योंकि धन का उपयोग पहले से कई गुना बढ़ गया है। रात 10 बजे सभाएं बंद कर दी जाती हैं। आयोग एक - एक कुर्सी और वाहन का हिसाब रखता है। चाय , समोसे तक का खर्च जोड़ा जाने लगा है। अखबारी विज्ञापन के अलावा सोशल मीडिया पर भी  हेट, फेक और पेड समाचार पर 24 घंटे निगाह रखी जाने लगी है। वृद्ध और निःशक्त मतदाताओं को घर पर मतदान की सुविधा भी शुरू हो गई है। मतदाता सूचियां बनाने और मतपर्चियां घर - घर भेजने का सरकारी इंतजाम  मत प्रतिशत बढ़ाने में  सहायक हुआ है। लेकिन चुनावी सभाओं का  असली आनंद  लुप्त हो गया है। न वैसे ओजस्वी वक्ता रहे और न ही प्रतिबद्ध श्रोता। इसका मुख्य कारण ये भी है कि सभी प्रमुख राजनीतिक दल और उनके नेता सत्ता में रह चुके हैं। ऐसे में वे केवल अपने विरोधी की आलोचना कर जनता को प्रभावित नहीं कर सकते। उन्हें सरकार में रहते हुए जनहित में किए गए कामों का हिसाब भी देना होता है।  वह पीढ़ी भी धीरे - धीरे समाप्त होती जा रही है जो किसी पार्टी  या नेता की अंधभक्त होती थी। नेहरू जी ,  डा.लोहिया और अटल जी जैसे जननेताओं के विरोधी भी उनके प्रति सम्मान का भाव रखते थे। धीरे - धीरे नेताओं का स्तर गिरने लगा जिसके परिणामस्वरूप राजनीति के प्रति समाज में व्याप्त आदर भाव में  भी कमी आती गई। आज देश में शायद ही कोई नेता बचा हो जिसको सुनने स्वस्फूर्त जनता उमड़ पड़ती हो। गांव और कस्बों में हेलीकॉप्टर देखने जरूर लोग जमा हो जाते हैं किंतु नेताओं को सुनने का लालच खत्म होने लगा है। और हो भी क्यों न , बीते 75 साल से भाषण सुनती आई जनता जब देखती है कि साधारण परिस्थिति का व्यक्ति तो चुनाव जीतने के बाद अपार धन संपत्ति अर्जित कर लेता है किंतु उसकी अपनी  दशा नहीं बदलती तब उसके मन में गुस्सा जागता है। और इसी गुस्से ने नेताओं के प्रति असम्मानजनक संबोधनों को जन्म दिया । जो राजनीति समाज को दिशा देती थी वह खुद ही दिशाहीन हो चली है । इसी तरह जिन नेताओं को जनता अपना पथ प्रदर्शक माना करती थी वे खुद भटकाव का शिकार  हैं। ये स्थिति अच्छी नहीं है जिसका प्रमाण राजनीति से अच्छे  लोगों का दूर होते जाना है। हालांकि सभी पार्टियों और नेताओं को कठघरे में खड़ा करना न्यायोचित नहीं होगा किंतु अधिकांश की साख में कमी आई है , जो लोकतंत्र के लिए शुभ  संकेत नहीं है। चूंकि हमारा समाज काफी धैर्यवान है इसलिए अपनी उपेक्षा और बदहाली पर उत्तेजित नहीं होता। हर चुनाव के बाद लोकतंत्र की मजबूती और मतदाताओं की समझदारी का बखान तो खूब होता है किंतु  अधिक मतदान और चुनाव के निर्विघ्न संपन्न हो जाने को ही सफलता और संतोष का पैमाना माना लेना सच्चाई से आंखें चुराने जैसा है। भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भले हो किंतु वह अपनी नैसर्गिक खूबसूरती खोता जा रहा है। कृत्रिमता , बाजारवाद और नीतिगत भटकाव उसकी पहिचान बन चुके हैं। चुनावों के  लगातार महंगे होने से भी उनकी गंभीरता और गरिमा में कमी आई है। नेताओं के आकर्षण में कमी आने का ही प्रमाण है कि पहले उनको देखने - सुनने जनसैलाब उमड़ा करता था किंतु अब वही नेता रोड शो के माध्यम से खुद को दिखाने नजर आते हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी

मुफ्त उपहारों पर केंद्रित होकर रह गया म.प्र का चुनाव


वैसे तो हर चुनाव कशमकश भरा होता है लेकिन म.प्र विधानसभा का मौजूदा चुनाव अनेक दृष्टि से अलग हटकर है। इसका कारण ये है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों का चुनाव प्रचार नीतियों पर बहस की बजाय मुफ्त उपहारों पर आकर सिमट गया है। 20 साल पहले भाजपा ने दिग्विजय सिंह सरकार के विरुद्ध जो चुनाव अभियान चलाया था उसका आधार बिजली , सड़क और पानी था। दिग्विजय को मिस्टर बंटाधार कहकर प्रचारित किया गया था जिसका जनमानस पर काफी असर हुआ क्योंकि श्री सिंह के 10  वर्षीय शासन में प्रदेश बिजली और सड़कों के अलावा पानी के मामले में भी बहुत खराब स्थिति में था। भाजपा को उस चुनाव में ऐतिहासिक सफलता मिली। उमाश्री भारती मुख्यमंत्री बनीं किंतु जल्दी ही उन्हें पद छोड़ना पड़ा । उनके उत्तराधिकारी बनाए गए बाबूलाल गौर भी पार्टी की आंतरिक राजनीति का शिकार होकर चलते किए गए और फिर आया शिवराज सिंह चौहान का दौर जो अभी तक जारी है। प्रदेश में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने का कीर्तिमान स्थापित कर चुके श्री चौहान को इस बार कठिन अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ रहा है। 2018 की हार के बाद भले ही 15 महीने बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा कांग्रेस से बगावत के शिवराज सरकार की वापसी हो गई लेकिन इस चुनाव में भाजपा की शुरुआत जिस रक्षात्मक तरीके से हुई और पार्टी हाईकमान ने मुख्यमंत्री के चेहरे पर अनिश्चितता बनाए रखी उससे कांग्रेस को अपने पक्ष में माहौल बनाने में आसानी हो गई। लेकिन जल्द ही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने प्रचार में आक्रामकता का समावेश किया जिससे वह मुकाबले में बराबर आने के बाद अब आगे निकलती लग रही है । लेकिन अभी भी सर्वेक्षण करने वाले दावे के साथ ये नहीं कह पा रहे कि भाजपा और कांग्रेस कितनी सीटें जीतेंगी ? पिछले चुनाव में चूंकि अनुमान गलत साबित हो गए थे इसलिए इस बार दोनों पार्टियों के प्रवक्ता भी संभलकर दावे कर रहे हैं किंतु एक बात  दोनों के प्रचार से स्पष्ट है कि विपक्ष ये चुनाव सरकार की विफलता से ज्यादा मतदाताओं को लुभावने वायदे के नाम पर लड़ रहा है। वहीं सत्ताधारी भाजपा भी अपनी उपलब्धियों से ज्यादा मतदाताओं के सामने परोसी जा रही खैरातों को बढ़ - चढ़कर प्रचारित कर रही है। ऐसा लगता है कांग्रेस विपक्ष के रूप में अपनी भूमिका ठीक तरह से नहीं निभा पाने के कारण अपराधबोध से ग्रस्त है। वहीं भाजपा कांग्रेस से ज्यादा मुफ्त उपहार देकर चुनाव जीतने की मानसिकता से प्रेरित है। 2018 में कांग्रेस  ने अनेक ऐसे वायदे किए जिनसे आकर्षित होकर मतदाताओं ने उसे बहुमत के करीब पहुंचा दिया था। भाजपा महज 8 सीटों की कमी से सत्ता गंवा बैठी। इसलिए उसने बजाय अपनी उपलब्धियों के नई आकर्षक योजनाओं को  चुनावी हथियार बनाया जिनमें लाड़ली बहना सबसे प्रमुख है। घोषणापत्र में भी भाजपा ने लाड़ली बहना योजना की लाभार्थियों को मकान देने का वायदा कर दिया, वृद्धों की पेंशन बढ़ा दी और लाड़ली लक्ष्मी की राशि को दोगुना कर दिया। कांग्रेस अपने प्रचार में हर माह कितनी राशि का लाभ होगा ये बता रही है। मुफ्त और सस्ती बिजली का वायदा दोनों ओर से हो रहा है। किसानों की फसल के खरीदी मूल्य ज्यादा से ज्यादा देने की होड़ मची है। कहने का आशय ये है कि राजनीतिक विचारधारा और नीतियां तो पृष्ठभूमि में चली गईं और मुफ्त उपहारों ने पूरे चुनाव अभियान पर कब्जा कर लिया। हालांकि दोनों प्रतिद्वंदियों ने अपने घोषणापत्र में लंबी - चौड़ी बातें की हैं। लाखों नौकरियों निकाले जाने के वायदे के साथ बेरोजगारों को भत्ते का लालच भी दिया जा रहा है। लेकिन प्रदेश में नए उद्योग लाने , बिजली उत्पादन और सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि जैसे मुद्दे पर  कोई ठोस कार्ययोजना दोनों पक्षों ने पेश नहीं की । और यदि घोषणापत्र के किसी कोने में उनका जिक्र है तब भी प्रचार कर रहे नेता उनका उल्लेख करने में पीछे हैं। म.प्र में पर्यटन की असीम संभावनाएं होने के बाद भी यह पर्यटन के क्षेत्र में अपेक्षित सफलता हासिल न कर सका। दोनों पार्टियां इस क्षेत्र को प्राथमिकता देने के बारे में ज्यादा गंभीर नहीं लग रहीं । सही मायने में ऐसा लगता है जैसे इनको केवल उन मतदाताओं में रुचि है जिनको मुफ्त देकर आकर्षित किया जा सकता है। जबकि उन करदाताओं के हित संवर्धन के प्रति राजनीतिक दल बेहद उदासीन नजर आने लगे हैं जिनके कारण सरकारी खजाना भरता है। यही कारण है कि समाज का ये वर्ग राजनीति के प्रति वितृष्णा से भर उठा है। समय आ गया है जब समाज को आत्मनिर्भर बनाकर सम्मान के साथ  जीने हेतु प्रेरित किया जाए क्योंकि सरकार किसी की भी हो खैरात बांटकर  हमेशा राज नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र , कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था है किंतु कल्याण का अर्थ व्यक्ति को अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम बनाना है न कि निकम्मा और निठल्ला । उस दृष्टि से ये चुनाव गुणवत्ता और गंभीरता से कोसों दूर चला गया है। यहां तक कि राष्ट्रीय नेता तक सतही बातें करने लगे हैं। ये प्रवृत्ति शुभ संकेत नहीं है। यद्यपि इसके लिए मतदाता भी जिम्मेदार हैं जो दूरगामी लक्ष्यों को उपेक्षित करते हुए तात्कालिक फायदों से आकर्षित होकर निर्णय कर लेते हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 14 November 2023

म.प्र का चुनाव रोमांचक स्थिति में : अब दबाव कांग्रेस पर



म.प्र विधानसभा चुनाव का प्रचार बुधवार की शाम समाप्त हो जाएगा। भाजपा और कांग्रेस ही हमेशा की तरह प्रमुख प्रतिद्वंदी हैं। हालांकि  सपा , बसपा , आप और गोंगपा के अलावा ढेर सारे निर्दलीय भी मैदान में हैं किंतु जितने भी अनुमान और विश्लेषण आ रहे हैं वे तीसरी ताकत के रूप में चुनाव लड़ रही पार्टियों को विशेष महत्व नहीं दे रहे। शुरुआती रुझानों से  ये अवधारणा बनी थी कि कांग्रेस आसान  जीत हासिल कर लेगी। कर्नाटक में सरकार बनाने के बाद उसका हौसला काफी बुलंद था। इंडिया गठबंधन के अस्तित्व में आने के बाद ये उम्मीद लगाई जाने लगी थी कि भाजपा के विरुद्ध सभी विपक्षी पार्टियां मिलकर मोर्चा संभालेंगी। इससे सत्ताधारी भाजपा भी चिंतित हो उठी थी। टिकिट वितरण को लेकर उसमें उपजे असंतोष के बाद तो ऐसा लगा मानो उसके हाथ से बाजी निकलने वाली है।  यद्यपि ऐसी घटनाएं कांग्रेस में भी जमकर हुईं और उसके भी अनेक बागी किसी दूसरी पार्टी अथवा निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं परंतु भाजपा के लिए बड़े पैमाने पर नेतृत्व के विरुद्ध उठे विरोध के स्वर चौंकाने वाले थे। कांग्रेस इससे बहुत खुश थी। लेकिन बीते दो सप्ताह के भीतर भाजपा ने अपने घर को काफी संभाला । बागियों को मनाया और फिर संगठन को पूरी तरह काम में लगा दिया। इसका परिणाम ये निकला कि सर्वेक्षण करने वाले भी कांग्रेस की सुनिश्चित जीत के बजाय भाजपा के साथ नजदीकी मुकाबले की बात कहने लगे। ये बात भी स्वीकार की जाने लगी कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन में शामिल जो पार्टियां म.प्र में अलग से चुनाव लड़ रही हैं वे सब कांग्रेस के लिए गड्ढा  खोदने में जुटी हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें मनाया जाना असंभव था किंतु प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के चेहरे कमलनाथ ने उन दलों के प्रति जो उपेक्षा भाव  दर्शाया उसने पूरा खेल खराब कर दिया। दूसरी तरफ भाजपा 2018 के कड़वे अनुभव  की याद करते हुए सतर्क होकर चल रही थी। इसलिए उसने कांग्रेस के ठीक उलट बजाय किसी एक चेहरे के सामूहिक नेतृत्व के फार्मूले को अपनाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को महानायक के तौर पर पेश कर दिया। असंतुष्टों की नाराजगी दूर करने के बाद भाजपा ने तेजी से वापसी की और कांग्रेस के लिए असुविधाजनक हालात बना दिए। इन चरण में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने पूरी ताकत झोंक दी है । प्रधानमंत्री के अलावा अमित शाह ,जगतप्रकाश नड्डा लगातार दौरे कर रहे हैं। कांग्रेस भी मल्लिकार्जुन खरगे , राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा को मुकाबले में उतार रही है। अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल भी म.प्र में प्रचार कर रहे हैं। मतदान के तीन दिन पहले तक जो स्थिति है उसमें हालांकि कोई भविष्यवाणी करना तो उचित नहीं है किंतु भाजपा ने पीछे से आकर जिस तरह कांग्रेस को चौंकाया वह अंतिम परिणाम को प्रभावित कर सकता है। ऐसा लगता है कमलनाथ द्वारा पूरे अभियान का नियंत्रण अपने हाथ में लेने से अन्य छत्रप रूष्ट हैं। पार्टी के विज्ञापन में पहले केवल सोनिया गांधी , खरगे  जी राहुल और प्रियंका के ही चित्र थे । लेकिन जब भाजपा ने श्री नाथ और दिग्विजय सिंह के बीच मतभेद को मुद्दा बनाया तब उनका भी चित्र जोड़ा जाने लगा। जबकि भाजपा के प्रचार में राष्ट्रीय के  साथ ही प्रादेशिक नेताओं के चेहरे भी उभारे गए । इस  सबसे ये संदेश गया कि कांग्रेस और कमलनाथ पर्यायवाची बन गए वहीं दूसरी तरफ भाजपा ने सामूहिक नेतृत्व का परिचय देकर मुख्यमंत्री का सवाल खुला छोड़ दिया। इसका लाभ ये तो हुआ ही कि पार्टी आत्मविश्वास से भरपूर नजर आने लगी है। बीते कुछ दिनों में प्रदेश का राजनीतिक वातावरण जिस तेजी से बदला है उसके बाद अब विश्लेषक भी मानने लगे हैं कि कांग्रेस ने जो मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया था वह अब उल्टा उसी के ऊपर दिखने लगा है। यहां तक कि श्री नाथ के अपने गढ़ छिंदवाड़ा में भाजपा सेंध लगाने में कामयाब होती लग रही है। चंबल संभाग में सपा और बसपा कांग्रेस का खेल बिगाड़ रही हैं तो मालवा , निमाड़ और नर्मदांचल में भाजपा अपना किला सुरक्षित रखती लग रही है । महाकोशल में भी समीकरण तेजी से बदल रहे हैं जहां भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के अलावा केंद्रीय मंत्री और नरसिंहपुर से प्रत्याशी प्रहलाद सिंह पटेल ने सघन प्रचार कर कांग्रेस को कड़े मुकाबले में उलझा दिया है। विंध्य और बुंदेलखंड से कांग्रेस को अभी भी काफ़ी आशाएं हैं लेकिन वहां सपा , बसपा और आम आदमी पार्टी उसके लिए सिरदर्द बन गए हैं। ये देखते हुए म.प्र का चुनाव बेहद रोमांचक हो उठा है। कांग्रेस  के जवाब में भाजपा का जो घोषणापत्र आया उससे पार्टी को लग रहा है कि बाजी उसके हाथ ही लगेगी। अगले दो दिन में किसी बड़े चमत्कार की बात सोचना तो अतिशयोक्ति होगी किंतु आज की स्थिति में भाजपा ने कांग्रेस को रक्षात्मक होने मजबूर कर दिया है। मतदान के दिन  जिस पार्टी के मैदानी दस्ते अपना काम ईमानदारी से करेंगे वही 3 दिसंबर को विजय पताका फहराएगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Sunday 12 November 2023

इस दीपावली का ऐतिहासिक महत्व है



भारत की महान पर्व परंपरा में दीपावली का विशेष महत्व है। इसके साथ अनेक पौराणिक कथाएं और किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। शीत ऋतु  और नई फसल के आगमन का सुखद संयोग भी है दीपावली। अमावस की अंधियारी रात में उमंग और - उत्साह रूपी दीपमालिका के माध्यम से समूचे वातावरण को आलोकित करते हुए झोपड़ी से महलों तक में उत्साह रूपी उजाला समाज की सामूहिक संकल्प शक्ति का उद्घोष है। दीपावली पर धन - धान्य की देवी लक्ष्मी का पूजन होता है। इसलिए उसे व्यवसायी वर्ग से जोड़ दिया गया जबकि सही मायनों में ये समूचे समाज को एक सूत्र में पिरोने का माध्यम है। माटी के छोटे से दिये से लेकर सोना - चांदी सहित विलासिता की अन्य चीजों को खरीदने की परंपरा अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने की दूरगामी सोच का प्रमाण है। जब दुनिया को शॉपिंग फेस्टिवल का क , ख , ग तक नहीं आता था उसके पहले से दीपावली पर्व इतने बड़े देश में एक साथ बाजार को गुलजार करने का माध्यम बना। यह आने वाले समय में देश के आर्थिक नियोजन की दिशा तय करने का आधार माना जाता है। एक समय था जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी तकरीबन 35 फीसदी थी। पश्चिम और मध्य  के साथ ही दक्षिण  एशिया तथा अफ्रीका तक भारत से विभिन्न वस्तुओं का निर्यात होता था। उसी से आकर्षित होकर विदेशी आक्रांता इसकी  तरफ आकर्षित हुए और उसके बाद गुलामी का लंबा दौर चला। ऐसा  नहीं था कि तब हमारी सीमाएं असुरक्षित थीं या सीमावर्ती इलाकों के शासक कमजोर थे । लेकिन सांस्कृतिक एकता के बावजूद राष्ट्रीय सोच के अभाव के परिणामस्वरूप एक के बाद एक आक्रमण हुए और अंततः विदेशी लुटेरे यहां के शासक बनने में कामयाब हो गए। 1947 में मिली आजादी भी खंडित ही थी। अंग्रेजों ने बड़ी ही कुटिलता से हमारी भौगोलिक सीमाओं को इस तरह  तय किया जिससे हमारे और पश्चिम एशिया के बीच दुश्मन देश खड़ा हो गया । इससे हमारा व्यापार तो प्रभावित हुआ ही किंतु उसे बड़ा नुकसान पश्चिमी  सीमाओं के  असुरक्षित हो जाने के रूप में देखने मिला। लेकिन धीरे - धीरे देश आगे बढ़ा और आज ये कहते हुए गर्व हो रहा है कि सपेरों और मदारियों के देश के रूप में प्रचारित किया जाने वाला भारत अब चंद्रमा की धरती पर अपना यान भेजने का सामर्थ्य अर्जित कर चुका है। विदेशों से सैन्य सामग्री खरीदने के साथ अब हम उसके निर्यात में भी अग्रणी हो रहे हैं। सूचना तकनीक के क्षेत्र में वह विश्व की बड़ी ताकत है। पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद हमारे कदम तीसरे क्रमांक पर पहुंचने की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। पूरे विश्व में हमारे इंजीनियर, डाक्टर, व्यवसाय प्रबंधक और उद्योगपतियों की गौरवशाली उपस्थित देखी जा सकती है। मोबाइल फोन और ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में  देश विश्व के विकसित देशों की कतार में  खड़ा हुआ है। कूटनीतिक जगत में भी हमारी साख और धाक में वृद्धि हुई है। वैश्विक मंचों पर भारत की बात को न केवल सुना अपितु माना भी जाता है। सबसे बड़ी बात ये है कि विश्व की महाशक्तियों का  पिछलग्गू बनने के बजाय देश अब वैश्विक मसलों पर अपनी स्वतंत्र राय रखने में सक्षम है। इस बारे में उल्लेखनीय यह है कि भारत अब एक शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र के साथ ही विश्वसनीय देश के रूप में सम्मानित है। ये सब देखते हुए यह दीपावली देश के  बढ़ते आत्मविश्वास और गौरव की अनुभूति का अवसर है। जनवरी में अयोध्या में राम मंदिर का शुभारंभ होने वाला है जो सदियों बाद देश के सांस्कृतिक उत्थान का उद्घोष होगा। पूरे देश में इस समय सनातनी परंपराओं को लेकर जो उत्साह है वह इतिहास के करवट लेने का  संकेत है। अगले साल देश को अपनी सरकार चुनने का  अवसर मिलेगा। उस दृष्टि से ये दीपावली अनेक मामलों में विशिष्ट है।   हर नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह देश की बेहतरी में अपना हरसंभव योगदान दे। ऐसा करते समय हमें माटी के उन छोटे - छोटे दीपकों से प्रेरणा प्राप्त करना चाहिए जो कतारबद्ध होकर अमावस्या के घने अंधकार को परास्त करने का पुरुषार्थ प्रदर्शित करते हैं।  स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद ने 21 वीं सदी के भारत की सदी बनने की जो भविष्यवाणी की थी वह सच होने के निकट है। हमारा सौभाग्य है कि हम उस गौरव के साक्षी बन सकेंगे।
दीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएं।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Saturday 11 November 2023

राजभवनों की तरह न्यायपालिका में भी मामले को टांगे रखने की प्रवृत्ति है


सर्वोच्च न्यायालय  पंजाब और तमिलनाडु के राज्यपालों से इस बात पर नाराज है  कि वे विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे। उक्त राज्यों में गैर भाजपा सरकार है जबकि राज्यपाल भाजपाई पृष्ठभूमि के हैं। ऐसे में वैचारिक  मतभेद तो स्वाभाविक हैं किंतु विधायी कार्यों में राजभवन और सरकार में  टकराव लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। संघीय ढांचा होने से केंद्र और राज्यों में अलग - अलग दल की सरकार होना स्वाभाविक है। हालांकि  ये कोई पहला मामला नहीं है जब इस तरह के मतभेद सामने आए हैं। केरल की नंबूदरीपाद सरकार को 1959 में राज्यपाल की सिफारिश पर महज इसलिए भंग कर दिया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को देश की वह एकमात्र गैर कांग्रेस सरकार नापसंद थी। उसके बाद से राज्यपाल के जरिए प्रदेश सरकारों को  बर्खास्त किया जाना मामूली बात हो गई। यद्यपि अब वह चलन बंद हो चुका है किंतु राज्यपाल और मुख्यमंत्री में  खींचातानी बढ़ती जा रही है। बाकी बातें  अपनी जगह हैं किंतु विधानसभा द्वारा स्वीकृत विधेयकों को रोके रखना निर्वाचित सरकार के अधिकारों पर अतिक्रमण है। वैसे राज्यपाल का ये दायित्व जरूर है कि वे विधानमंडल द्वारा पारित  विधेयक  की जांच करें । यदि वे संतुष्ट नहीं है तब उसे  पुनर्विचार हेतु लौटा सकते हैं। लेकिन दोबारा पारित होने के बाद उस पर  स्वीकृति देने की बाध्यता भी है। और इसीलिए राजभवनों में विधेयकों को रोकने का सिलसिला शुरू हुआ। केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने पर तो  दिक्कत नहीं आती किंतु विरोधी विचारधारा की सरकारें होने पर इस तरह की रस्साकशी आम हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय की संदर्भित टिप्पणी भले ही पंजाब और तामिलनाडु के राज्यपालों पर केंद्रित है किंतु केरल , प.बंगाल , छत्तीसगढ़ , राजस्थान , झारखंड आदि में भी राज्यपाल और मुख्यमंत्री में तनातनी चला ही करती है।  राज्यपाल विधेयक को स्वीकृति हेतु कब तक रोके रख सकता है इसकी कोई समय सीमा नहीं है । हालांकि कुछ राज्यों में विरोधी मानसिकता वाले राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच काफी सौहार्दपूर्ण संबंध भी रहे । दरअसल राजभवन में बैठे ज्यादातर लोग सक्रिय राजनीति से रिटायर होते हैं या सेवानिवृत्त नौकरशाह । कुछ पूर्व सैन्य अधिकारियों को भी महामहिम बनाया जाता रहा है। इनमें से ज्यादातर निजी स्वार्थवश केंद्र सरकार को खुश करने में जुटे रहते हैं । हालांकि  अनेक मुख्यमंत्री  भी जानबूझकर टकराव के हालात पैदा करते हैं ,  जिसका उद्देश्य अपनी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाना होता है। पंजाब , दिल्ली , तामिलनाडु , केरल ,प.बंगाल इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं ।  ये स्थिति अच्छी नहीं है । लेकिन जो सर्वोच्च न्यायालय राज्यपालों को लताड़ रहा है,  वह भी तो अति महत्वपूर्ण मामलों को अनिश्चितकाल तक लटकाए रखने की आदत पाले हुए है। अनेक जरूरी मामले बरसों से विचाराधीन हैं। अति विशिष्ट व्यक्तियों के लिए अदालत आधी रात भी खुल जाती है जबकि साधारण पक्षकार पेशी दर पेशी भटकता है। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश डी.वाय.चंद्रचूड़ इस बारे में काफी सक्रिय हैं और न्यायपालिका की विसंगतियों के उन्मूलन हेतु प्रयासरत भी ।  ऐसे में उनको चाहिए  सर्वोच्च न्यायालय से लेकर निचली अदालतों में प्रकरण को मामूली कारणों से टालने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएं । विशेष रूप से दीवानी अदालतों में तो  लाखों प्रकरण ऐसे हैं जिनके निपटारे के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। आशय ये कि  जैसे राज्यपाल विधेयकों को टांगे रखने की बुराई से ग्रसित हैं उसी तरह  अनेक न्यायाधीशों को भी फैसले  टालने का शौक है। सर्वोच्च न्यायालय को ये देखना चाहिए कि राज्यपालों द्वारा रोककर रखे गए विधेयकों जैसे ही कितने ऐसे न्यायालयीन प्रकरण हैं जिनके फैसले लंबित रखने से  समाज का बड़ा नुकसान हो रहा है। ऐसे में  श्री चंद्रचूड़ से अपेक्षा है कि जिस तरह की तीखी टिप्पणी उन्होंने राजभवनों में बैठे लाट साहबों के बारे में की वैसा ही कुछ अपनी बिरादरी के उन लोगों के बारे में भी कहें जो पंच परमेश्वर की अवधारणा को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। 

राजभवनों की तरह न्यायपालिका में भी मामले को टांगे रखने की प्रवृत्ति है

सर्वोच्च न्यायालय  पंजाब और तमिलनाडु के राज्यपालों से इस बात पर नाराज है  कि वे विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे। उक्त राज्यों में गैर भाजपा सरकार है जबकि राज्यपाल भाजपाई पृष्ठभूमि के हैं। ऐसे में वैचारिक  मतभेद तो स्वाभाविक हैं किंतु विधायी कार्यों में राजभवन और सरकार में  टकराव लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। संघीय ढांचा होने से केंद्र और राज्यों में अलग - अलग दल की सरकार होना स्वाभाविक है। हालांकि  ये कोई पहला मामला नहीं है जब इस तरह के मतभेद सामने आए हैं। केरल की नंबूदरीपाद सरकार को 1959 में राज्यपाल की सिफारिश पर महज इसलिए भंग कर दिया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को देश की वह एकमात्र गैर कांग्रेस सरकार नापसंद थी। उसके बाद से राज्यपाल के जरिए प्रदेश सरकारों को  बर्खास्त किया जाना मामूली बात हो गई। यद्यपि अब वह चलन बंद हो चुका है किंतु राज्यपाल और मुख्यमंत्री में  खींचातानी बढ़ती जा रही है। बाकी बातें  अपनी जगह हैं किंतु विधानसभा द्वारा स्वीकृत विधेयकों को रोके रखना निर्वाचित सरकार के अधिकारों पर अतिक्रमण है। वैसे राज्यपाल का ये दायित्व जरूर है कि वे विधानमंडल द्वारा पारित  विधेयक  की जांच करें । यदि वे संतुष्ट नहीं है तब उसे  पुनर्विचार हेतु लौटा सकते हैं। लेकिन दोबारा पारित होने के बाद उस पर  स्वीकृति देने की बाध्यता भी है। और इसीलिए राजभवनों में विधेयकों को रोकने का सिलसिला शुरू हुआ। केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने पर तो  दिक्कत नहीं आती किंतु विरोधी विचारधारा की सरकारें होने पर इस तरह की रस्साकशी आम हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय की संदर्भित टिप्पणी भले ही पंजाब और तामिलनाडु के राज्यपालों पर केंद्रित है किंतु केरल , प.बंगाल , छत्तीसगढ़ , राजस्थान , झारखंड आदि में भी राज्यपाल और मुख्यमंत्री में तनातनी चला ही करती है।  राज्यपाल विधेयक को स्वीकृति हेतु कब तक रोके रख सकता है इसकी कोई समय सीमा नहीं है । हालांकि कुछ राज्यों में विरोधी मानसिकता वाले राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच काफी सौहार्दपूर्ण संबंध भी रहे । दरअसल राजभवन में बैठे ज्यादातर लोग सक्रिय राजनीति से रिटायर होते हैं या सेवानिवृत्त नौकरशाह । कुछ पूर्व सैन्य अधिकारियों को भी महामहिम बनाया जाता रहा है। इनमें से ज्यादातर निजी स्वार्थवश केंद्र सरकार को खुश करने में जुटे रहते हैं । हालांकि  अनेक मुख्यमंत्री  भी जानबूझकर टकराव के हालात पैदा करते हैं ,  जिसका उद्देश्य अपनी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाना होता है। पंजाब , दिल्ली , तामिलनाडु , केरल ,प.बंगाल इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं ।  ये स्थिति अच्छी नहीं है । लेकिन जो सर्वोच्च न्यायालय राज्यपालों को लताड़ रहा है,  वह भी तो अति महत्वपूर्ण मामलों को अनिश्चितकाल तक लटकाए रखने की आदत पाले हुए है। अनेक जरूरी मामले बरसों से विचाराधीन हैं। अति विशिष्ट व्यक्तियों के लिए अदालत आधी रात भी खुल जाती है जबकि साधारण पक्षकार पेशी दर पेशी भटकता है। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश डी.वाय.चंद्रचूड़ इस बारे में काफी सक्रिय हैं और न्यायपालिका की विसंगतियों के उन्मूलन हेतु प्रयासरत भी ।  ऐसे में उनको चाहिए  सर्वोच्च न्यायालय से लेकर निचली अदालतों में प्रकरण को मामूली कारणों से टालने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएं । विशेष रूप से दीवानी अदालतों में तो  लाखों प्रकरण ऐसे हैं जिनके निपटारे के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। आशय ये कि  जैसे राज्यपाल विधेयकों को टांगे रखने की बुराई से ग्रसित हैं उसी तरह  अनेक न्यायाधीशों को भी फैसले  टालने का शौक है। सर्वोच्च न्यायालय को ये देखना चाहिए कि राज्यपालों द्वारा रोककर रखे गए विधेयकों जैसे ही कितने ऐसे न्यायालयीन प्रकरण हैं जिनके फैसले लंबित रखने से  समाज का बड़ा नुकसान हो रहा है। ऐसे में  श्री चंद्रचूड़ से अपेक्षा है कि जिस तरह की तीखी टिप्पणी उन्होंने राजभवनों में बैठे लाट साहबों के बारे में की वैसा ही कुछ अपनी बिरादरी के उन लोगों के बारे में भी कहें जो पंच परमेश्वर की अवधारणा को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Friday 10 November 2023

75 प्रतिशत आरक्षण : नीतीश का नया झुनझुना


बिहार विधानसभा ने आरक्षण का कोटा बढ़ाकर 75 फीसदी करने संबंधी नीतीश सरकार के विधेयक को मंजूरी दे दी। विपक्ष में बैठी भाजपा ने भी इस विधेयक का समर्थन किया। यद्यपि वह जानती थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकतम 50 आरक्षण की सीमा तय कर रखी है और ये भी कि विधान परिषद की स्वीकृति मिलने के बावजूद केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल इस विधेयक को मंजूरी नहीं देंगे । फिर भी आरक्षण विरोधी होने के आरोप से बचने मजबूरीवश उसने नीतीश के इस राजनीतिक दांव का समर्थन किया। जातिगत जनगणना और जातीय - आर्थिक सर्वे के बाद नीतीश द्वारा अचानक 75 फीसदी आरक्षण का जिन्न बोतल से निकालकर विपक्ष को झटका देने की चाल तो चल दी किंतु वे भूल गए कि जाट , गुर्जर और मराठा जैसी जातियों को आरक्षण दिए जाने का फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने 50 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा होने पर रोक दिया था। मौजूदा व्यवस्था में 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके के लिए है जिसे मिलाने से वह 60 प्रतिशत होता है किंतु नीतीश ने उसमें 15 प्रतिशत की वृद्धि करने का निर्णय कर डाला। दरअसल जातिगत जनगणना के आंकड़े उनके गले की फांस बनने लगे थे। जिनके सार्वजनिक होते ही अनेक छोटी - छोटी जातियां उनको पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिलने से आंदोलित होने लगीं। लोकसभा चुनाव के पहले अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के उद्देश्य से नीतीश ने अचानक जो पैंतरे दिखाने शुरू किए उनके पीछे एक तीर से अनेक निशाने साधने की कोशिश है। अव्वल तो वे लालू परिवार को ये एहसास करवाना चाह रहे हैं कि अभी भी राज्य की राजनीति पर उनकी पकड़ कमजोर नहीं हुई है और दूसरा वे राष्ट्रीय राजनीति में ओबीसी के सबसे बड़े चेहरे बनकर सामाजिक न्याय के पुरोधा बनना चाह रहे हैं। इसके अलावा उनके ताजा राजनीतिक दांव के पीछे जो एक और वजह राजनीतिक प्रेक्षक समझ पा रहे हैं वह है उनके सुशासन बाबू की छवि का तार - तार हो जाना। कुछ समय पहले वे न जाने किस झोंक में तेजस्वी यादव को अगला मुख्यमंत्री घोषित कर बैठे थे। इसी तरह पिछले विधानसभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान के पहले नीतीश ने आखिरी चुनाव जैसी बात कहकर भावनात्मक पांसा चला था। उस चुनाव में जनता दल (यू) पिछड़ गया और पहली बार भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई। हालांकि मुख्यमंत्री नीतीश ही बनाए गए किंतु जल्द ही वे अपने पुराने साथी लालू प्रसाद के साथ जुड़ गए । उसके बाद उनके और भाजपा के बीच कड़वाहट बढ़ती ही गई जिसके कारण वे उसे चिढ़ाने के लिए हर वह फैसला लेने पर उतारू हैं जो उसके साथ रहते करने में परेशानी महसूस करते थे। राजनीति और कानून के जानकार स्पष्ट तौर पर कह रहे हैं कि 75 फीसदी आरक्षण का फैसला केवल झुनझुना है जिसका लागू होना बिना संविधान संशोधन के असंभव है। देश के अनेक राज्यों में यह मुद्दा अनिर्णीत पड़ा हुआ है । लेकिन इससे अलग हटकर विषय ये है कि आरक्षण की पात्रता का निर्धारण करने की प्रक्रिया वास्तविक स्थिति से पूरी तरह अलग हटकर राजनीति से प्रेरित और निर्देशित है। नीतीश और उन जैसे अन्य राजनेता पिछड़ी और दलित जातियों के सामाजिक , शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान की बजाय इन वर्गों का राजनीतिक दोहन करने से आगे की सोच नहीं रखते । यही कारण है कि जो जातियां अपने को पिछड़ा कहलवाना अपमान समझती थीं वे भी अब आरक्षण के लिए आंदोलित हो रही हैं। नीतीश हालांकि पिछड़ी जाति से ताल्लुकात रखते हैं लेकिन उनकी छवि जातिवादी नेता की नहीं रही। भले ही वे जिन लोगों के साथ आगे बढ़े वे सभी कालांतर में जातिवादी सियासत में उलझ गए जबकि उन्होंने अपनी छवि अलग हटकर बनाई थी। लेकिन अचानक वे नए अवतार में आ गए हैं। इसका एक कारण ये भी है कि राहुल गांधी जिस तरह से जातिगत जनगणना के पैरोकार बनकर उभरे उससे वे आशंकित हो उठे हैं। इसीलिए ये जानते हुए भी कि 75 प्रतिशत आरक्षण का फैसला लागू नहीं हो सकेगा , उन्होंने ये दांव चल दिया। सही बात ये है कि दलित और पिछड़ों की राजनीति करने वाले राजनेता ही उनके सबसे बड़े दुश्मन हैं जो उन वर्गों के उत्थान के नाम पर अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करते हैं। नीतीश को बिहार के सभी वर्गों का समर्थन मिलता रहा है। लेकिन जिन लालू के जंगल राज से उन्होंने बिहार को आजाद करवाने के लिए लंबा संघर्ष किया आखिरकार वे उन्हीं के मकड़जाल में फंसकर अपनी पुण्याई को गंवाते जा रहे हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 9 November 2023

बिना रुके , बिना झुके जारी रहेगी ये यात्रा



 वर्ष 1989 में आज ही के दिन  मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस का पहला अंक प्रकाशित हुआ था | उस समय मंडल और मंदिर जैसे मुद्दों के कारण  राजनीतिक  समीकरण नया आकार ले रहे थे | महत्वाकांक्षाओं के खतरनाक रूप में सामने आने से  समाज को जातियों में खंडित करने के  षडयंत्र के साथ ही बेमेल गठबंधनों के जरिए स्थापित  छत्रपों के स्थान पर ही नए पुतलों में प्राण प्रतिष्ठा की जा रही थी । अविश्वास  और अस्थिरता के कारण  भ्रम और भय का माहौल बन गया | उस वातावरण में  महाकोशल की  चेतनास्थली संस्कारधानी जबलपुर में जब एक नए सांध्य दैनिक का उदय हुआ तब उसके लिए अपनी पहिचान बनाना सरल नहीं था | लेकिन देखते - देखते मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस पाठकों की पसंद बन गया | निर्भीक और सटीक टिप्पणियों के कारण उसे  हर वर्ग का प्यार और समर्थन जिस मात्रा में मिला उसके कारण ही  हम अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में समर्थ हो सके |  34 वर्ष  की इस यात्रा में मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस दायित्वबोध से कभी विमुख नहीं हुआ  |  स्वस्थ पत्रकारिता की ध्वजा को हमने जिस मजबूती से थामे रखा उसके कारण इसकी जो अलग पहिचान बनी , वह यथावत है | यद्यपि इसके लिए हमें अनेकानेक तकलीफों और  विरोध से गुजरना पड़ा | वैसे भी तकनीक में हो रहे बदलाव के कारण लघु और मध्यम श्रेणी के समाचार पत्रों के समक्ष आर्थिक संसाधनों का जबरदस्त संकट आ खड़ा हुआ है | वहीं  डिजिटल माध्यम  ने भी नई प्रतिस्पर्धा उत्पन्न कर दी है | बावजूद इसके  मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस आगे बढ़ता जा रहा है | पाठकों का इस पर जो भरोसा है वही इसकी शक्ति है | इस वर्ष आपका यह अखबार आठ पृष्ठों के साथ रंगीन हो गया है।  निःस्वार्थ भाव से  सहयोग देने वाले विज्ञापनदाताओं की उदारता हमारा संबल है | पत्रकारिता के आदर्श रास्ते पर बिना रुके चलते रहना हमारा संकल्प है। साथ ही  जिसे पढ़े बिना शाम अधूरी है नामक विशेषण को जीवंत रखने हम प्रतिबद्ध हैं | मौजूदा समय बेहद चुनौतीपूर्ण है | राजनीतिक घटनाक्रम नित बदल रहा  है | इस समय  म.प्र , राजस्थान , छत्तीसगढ़ , तेलंगाना और मिजोरम में  विधानसभा चुनाव  की सरगर्मी है। 3 दिसंबर को आने वाले परिणाम आगामी वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। इस बीच एक बार फिर मंदिर और मंडल का दौर लौटता दिख रहा है। अयोध्या में राममंदिर का शुभारंभ होने के सुखद क्षण ज्यों - ज्यों नजदीक आ रहे हैं त्यों -  त्यों जातिगत जनगणना और आरक्षण का मुद्दा  गरमाया जा रहा है , जिसके निहित उद्देश्य सर्वविदित हैं। इन हालातों में  समाचार माध्यमों को अपनी विश्वसनीयता और छवि बचाए रखने के प्रति गंभीर रहना होगा | जिस तेजी से उन पर आरोपों और आक्षेपों की बौछार की जा रही है वह भी सुनियोजित है ताकि उनकी आवाज को दबाया जा सके।  हालांकि इसके लिए इस पवित्र पेशे में घुस आए धंधेबाज किस्म के तत्व ही  जिम्मेदार हैं | लेकिन मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस पाठकों के विश्वास और पत्रकारिता की गरिमा को सुरक्षित रखने के लिए पूरी ईमानदारी से खड़ा रहेगा  |   34 साल के इस सफर में हर तरह के दबाव आते रहे परन्तु हमने साहस के साथ उनका प्रतिकार किया और आगे भी हमारी ये तासीर जारी रहेगी । ब्लैक एंड व्हाइट से शुरू यह अखबार भले ही अब रंगीन होकर आपके सामने आने लगा है किंतु पत्रकारिता की मौलिकता और समाज में सकारात्मकता के प्रसार के अपने मिशन को हम पूरे समर्पण भाव से जारी रखेंगे।


- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 8 November 2023

नक्सलवाद और आतंकवाद जैसी ही नुकसानदेह है जातिवादी राजनीति


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की गिनती  सुलझे हुए राजनेताओं में  थी। नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उभरने से पहले उनको एनडीए का प्रधानमंत्री चेहरा माना जाता था। लंबे समय तक भाजपा के साथ रहते हुए  वे केंद्र में मंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री बने और इस बीमारू राज्य की छवि काफी बदली। लालू  यादव को जेल भिजवाने में भी श्री कुमार की भूमिका मानी जाती रही। सुशासन  बाबू कहलाने वाले नीतीश ने जाति और परिवार से हटकर अपनी एक सौम्य छवि बनाई थी। बिहार में जंगल राज खत्म करने का कारनामा भी उनके और भाजपा के नाम पर है। लेकिन 2013 में ज्योंही भाजपा ने श्री मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाया त्योंही श्री कुमार खफा हो उठे और दोबारा लालू एंड कंपनी से मिल गए। हालांकि  कुछ समय बाद पलटी मारकर एनडीए में लौट आए और मिलकर लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव भी लड़ा किंतु  अचानक भाजपा से दोबारा न मिलने की कसम खाते हुए लालू और कांग्रेस के साथ हो लिए। सैद्धांतिक मतभेदों के चलते पार्टी छोड़ना और तोड़ना स्व.डा. लोहिया के मानसपुत्रों का चरित्र रहा है और इस लिहाज से श्री कुमार भी अपवाद नहीं हैं । उन्होंने भी स्व.जॉर्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर समता पार्टी बनाई थी जिसे बाद  में जनता दल (यू) में विलय कर दिया गया। फिलहाल वे इसके सर्वेसर्वा हैं।  इन दिनों नीतीश 2024 के लोकसभा चुनाव  में मोदी विरोधी विपक्ष का  गठबंधन बनाने को लेकर चर्चा में हैं । बिहार में इस बात की चर्चाएं आम हैं कि उनका राजनीतिक सफर पूर्ण विराम की ओर बढ़ रहा है जिससे उनके साथी भी छिटकते जा रहे हैं । इससे बचने के लिए उन्होंने भी वही हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए जिसके लिए वे लालू और स्व.शरद यादव को कोसा करते थे। भले ही वे कितना भी इंकार करें किंतु उनके मन में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा हिलोरें मार रही है। इसीलिए वे  विपक्षी एकता के स्वयंभू झंडाबरदार बन बैठे। लेकिन इसके लिए उनको कोई राष्ट्रीय मुद्दा तैयार करना था।  आखिरकार वे मंडलवादी  राजनीति के उसी दौर को पुनर्जीवित करने में जुट गए जिसने 1990 में  समाज में  जातिवाद की खाई को और चौड़ा कर दिया। जाति आधारित जनगणना , जातीय - आर्थिक सर्वे और उसके साथ ही आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाकर 75 फीसदी कराने के प्रस्ताव के जरिए वे  खुद को देश का सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा साबित करने में जुट गए हैं। दरअसल उनके मन में एक बात घर कर चुकी है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए शरद पवार , ममता बैनर्जी , अरविंद केजरीवाल जैसे नेता राजी नहीं होंगे। तेलंगाना चुनाव में कांग्रेस के मैदान में उतरने के कारण मुख्यमंत्री के. सी.रेड्डी का भी इसी जमात में शामिल होना तय है।  इसीलिए उन्होंने श्री मोदी के हिंदुत्व के मुकाबले ओबीसी कार्ड खेलकर राजनीतिक विमर्श को विपरीत दिशा में मोड़ने का दुस्साहस कर डाला।उनके पहले कदम का अन्य गैर भाजपा पार्टियों को भी समर्थन करने मजबूर होना पड़ा जिससे उनका हौसला बढ़ा और उन्होंने जातिगत जनगणना और जातीय - आर्थिक सर्वे के फौरन बाद आरक्षण की सीमा 75 फीसदी बढ़ाए जाने का अस्त्र फेंक दिया । हालांकि तमिलनाडु में पहले से आरक्षण की सीमा सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों से ज्यादा है। म.प्र सहित अनेक  राज्यों में भी ओबीसी आरक्षण को लेकर लंबे समय से राजनीतिक और कानूनी पचड़ा फंसा हुआ है। कमलनाथ ने ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का  चुनावी वायदा भी कर दिया है। लेकिन नीतीश को एक बात  समझ लेना चाहिए कि जाति , भाषा और क्षेत्र की राजनीति करने वाले नेताओं का   आभामंडल सीमित ही रहता है। यदि  ऐसा न  होता तो तमिलनाडु की दोनों प्रमुख पार्टियों की जड़ें देश भर में रह रहे  तमिल भाषियों के बीच फैल जातीं । इसी तरह शिवसेना भी राष्ट्रीय पार्टी बन जाती। 1990 में  मंडल  मुद्दे के उठने पर मुलायम सिंह यादव , शरद यादव और लालू यादव जैसे नेताओं को प्रधानमंत्री बनने के सपने आने लगे थे। लेकिन वे रेत के घरौंदे की तरह ढह गए। जातिवाद का लाभ लेकर प्रधानमंत्री तो चौधरी चरण सिंह भी बने किंतु  जल्द ही अर्श से फर्श पर  आ गए। पता  नहीं क्यों नीतीश जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ सब समझते हुए  भी ओबीसी की राजनीति के फेर में बिहार के साथ ही पूरे देश को जातीय संघर्ष की ओर धकेलने का पाप कर रहे हैं? भाजपा और श्री मोदी के प्रति उनके मन में जो  कुंठा है उसकी वजह से वे  सामाजिक ढांचे को कमजोर करने पर आमादा हो जाएं तो ऐसी राजनीति क्षणिक आवेग  पैदा करने के बाद फुस्स हो जाती है। गौरतलब है मंडल राजनीति के उदय के  बाद ही नई - नई जातियां और उपजातियां उभरकर सामने आने लगीं। लेकिन उनके नेता बहुत ही छोटे से  दायरे में हैं। नीतीश  इस वास्तविकता को जानते हुए भी ऐसा क्यों कर रहे हैं ये बड़ा सवाल है। दुर्भाग्य से कोई भी पार्टी ऐसे मामलों में सच्ची बात कहने का साहस नहीं दिखा पाती। ये देखते हुए बुद्धिजीवियों और समाजशास्त्रियों को आगे आकर दिशा देनी चाहिए। इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि देश की एकता और अखंडता के लिए जितना नुकसानदेह नक्सलवाद और आतंकवाद है उतनी ही जातिवादी राजनीति भी । इसलिए इसको रोकना जरूरी है। आज की जरूरत जाति व्यवस्था से उत्पन्न विसंगतियां मिटाने की है न कि उसे और मजबूत करने की।


- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 7 November 2023

बिहार के जातीय - आर्थिक सर्वे से नए सवाल उठे बिना नहीं रहेंगे



जातीय जनगणना के बाद बिहार में जातीय - आर्थिक सर्वे के जो आंकड़े आए हैं उनको लेकर राष्ट्रव्यापी राजनीति शुरू हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।  सर्वे के अनुसार राज्य में 96 लाख लोगों को गरीब की श्रेणी में रखा गया है। यहां तक तो बात  सामान्य थी किंतु राज्य में  25 फीसदी सवर्णों के गरीबों की सूची में आने से जातीय जनगणना को लेकर अब नए सिरे से बहस और विवाद शुरू हो गया। उल्लेखनीय है जाति आधारित जनगणना में  यादवों की सबसे बड़ी संख्या सामने आने से अन्य पिछड़ी जातियों में नाराजगी पैदा हुई। अहीर और गोप कहलाने वालों ने भी ये कहकर विरोध जताया कि उनकी अलग पहिचान ही नष्ट कर दी गई।  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा करवाई गई जातीय जनगणना को अन्य विपक्षी दल भी समर्थन दे रहे हैं।  कांग्रेस भी उसका वायदा कर रही है। लेकिन जातीय - आर्थिक सर्वे के आंकड़े आ जाने के बाद आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग को बल मिलना तय है। बिहार में सवर्ण आबादी भले कम हो किंतु गरीबों  में  25 फीसदी सवर्ण आबादी यदि  6 हजार प्रतिमाह से कम कमाती है तो निश्चित रूप से अन्य राज्यों में भी राजनीति का मुद्दा बन सकता है। सोचने वाली बात ये है कि आजकल ज्यादातर पार्टियां वोट बैंक के कारण सवर्णों को भाव नहीं दे रहीं। यहां तक कि ब्राह्मण और बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा भी सोशल इन्जीनियरिंग का सहारा लेने लगी है। 1989 से उत्तर भारत की उच्च जातियां भाजपा की खेवनहार बनना शुरू हुईं जिसके कारण वह लोकसभा में 2 से 100 सीटों तक पहुंचने लगी। लेकिन जब उसे लगा कि महज उतने से ही वह देश की सत्ता हासिल नहीं कर सकेगी  तब उसने  पिछड़ी और दलित जातियों को अपने पाले में खींचने की रूपरेखा बनाई जिसमें उसे  सफलता भी मिली। आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग के प्रति भी भाजपा काफी पहले से मुखर रही है। लेकिन अब उसके भीतर भी जातीय दबाव समूह पैदा हो गए हैं। यही कारण है कि अन्य पार्टियों की तरह ही चुनावी टिकिट देते समय प्रत्याशी की योग्यता और क्षमता के अलावा उसकी जाति का  संज्ञान भाजपा भी लेना नहीं भूलती । इस उधेड़बुन में आर्थिक आरक्षण का मुद्दा छूने के बारे में भी वह काफी सतर्कता बरतने लगी है। लेकिन बिहार के जातीय - आर्थिक सर्वे के नतीजों ने प्रधानमंत्री द्वारा गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताए जाने की बात को बल प्रदान किया है। हालांकि आज के राजनीतिक हालात में ऐसा होना बेहद कठिन प्रतीत होता है लेकिन जिस  तरह का बदलाव समाज में देखने मिल रहा है उसके मद्देनजर संदर्भित सर्वे के आंकड़े उथल पुथल मचाए बिना नहीं रहेंगे । सरकारी नौकरियों के लगातार घटते जाने से भी  आर्थिक स्थितियां जातिगत आरक्षण पर हावी होना सुनिश्चित है। चूंकि जातीय जनगणना का मुद्दा बिहार से ही गरमाया इसलिए बड़ी बात नहीं यदि गरीबी को लेकर आए जातीय सर्वे के आंकड़े अन्य राज्यों में भी इसकी  मांग बुलंद करें।  गौरतलब है कि सवर्ण जातियों में भी राजनीतिक गोलबंदी के तहत बसपा जैसी पार्टी से गठबंधन किए जाने के दृष्टांत सामने आ रहे हैं।  म.प्र विधानसभा के मौजूदा चुनाव में मुरैना में अनेक सीटों पर बसपा ने ब्राह्मण प्रत्याशी उतारकर भाजपा और कांग्रेस के सामने कड़ी चुनौती पेश की है । केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी दिमनी सीट पर ऐसे ही मुकाबले में फंसे हुए हैं। इसी तरह भाजपा छोड़ने वाले पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह द्वारा अपने बेटे को बसपा से लड़वा दिया,जबकि वे खुद प्रभावशाली गुर्जर जाति से हैं। कहने का आशय ये है। कि यदि राष्ट्रीय पार्टियां आर्थिक स्थिति के आधार पर जातियों को सुविधा देने से परहेज करेंगी तब उच्च जातियों के गरीब भी बसपा या फिर ऐसी ही अन्य किसी ताकत से जुड़कर अपना महत्व साबित करने से नहीं चूकेंगे। म.प्र में कांग्रेस ने ओबीसी कार्ड खेलकर जो चाल चली है उसके जवाब में भाजपा शिवराज सिंह चौहान को पिछड़ी जाति का बताकर पलटवार कर रही है। इसी तरह उसने केंद्रीय मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल को भी वैकल्पिक चेहरे के तौर पर आगे कर दिया है। लेकिन न सिर्फ म.प्र अपितु अन्य राज्यों में भी सवर्ण जातियों का  गरीब तबका  अपनी उपेक्षा से खिन्न होकर नए  विकल्प तलाशने में जुटा है।  इसमें दो मत नहीं है कि दलित , आदिवासी और पिछड़ी जातियों के सामाजिक , आर्थिक और शैक्षणिक उत्थान के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना जरूरी है लेकिन  सामाजिक समरसता  जीवंत रखने के लिए आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों का ध्यान रखा जाना भी बेहद जरूरी है। गरीब चाहे किसी भी जाति या धर्म का हो उस पर सरकार की दया दृष्टि पड़नी ही चाहिए। बिहार सरकार के जातीय - आर्थिक सर्वे का समुचित विश्लेषण कर इस बारे में राष्ट्रीय नीति बनाया जाना समय की मांग भी है और जरूरत भी।

- रवीन्द्र वाजपेयी 




Monday 6 November 2023

गरीबी आर्थिक प्रगति के दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है


चुनाव प्रचार करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताया है। कांग्रेस द्वारा जातिगत जनगणना कराए जाने के चुनावी वायदे से होने वाले संभावित नुकसान की काट के तौर पर  श्री मोदी गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताकर उन वर्गों को साधने की कोशिश में जुटे हुए हैं जो ओबीसी श्रेणी में आने के बावजूद लाभान्वित नहीं हो सके। बिहार में जातिगत जनगणना  के बाद उससे जुड़ी विसंगतियां जिस तरह से सामने आने लगी हैं उसका सूक्ष्म अध्ययन करते हुए भाजपा  2024 के लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस और मंडलवादी अन्य पार्टियों के हाथ से ये हथियार छीनने की फिराक में हैं।  सुनने में आ रहा है कि पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद पार्टी आरक्षण और जातिगत जनगणना के राजनीतिक प्रभाव का आकलन करने के बाद किसी ऐसी नीति का ऐलान करने पर विचार करेगी जिससे आरक्षण का मौजूदा ढांचा बदले बिना ही आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके को सभी प्रकार से संतुष्ट कर दिया जाए। आज के राजनीतिक माहौल में जातिगत आरक्षण को आर्थिक आधार प्रदान करना तो खतरे से खाली नहीं होगा परंतु एक बात अब निष्कर्ष में बदलने लगी है कि जातिगत आरक्षण केवल  राजनीतिक नेताओं और उनके परिवारों की मिल्कियत बनकर रह गया है। उनके अलावा नौकरशाहों का एक वर्ग भी उसके फायदों पर कुंडली मारकर बैठा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने  इस संबंध में अनेक बार टिप्पणी भी की । सामाजिक मंचों पर भी इस बारे में मंथन चल रहा है। लेकिन राजनेता  साहस नहीं दिखा पा रहे। कुछ साल पहले बिहार विधानसभा के चुनाव के समय रास्वसंघ प्रमुख डा.मोहन भागवत ने सहज रूप से आरक्षण की समीक्षा किए जाने का सुझाव दिया था। उसकी बेहद तीखी प्रतिक्रिया हुई और भाजपा को काफी नुकसान हो गया। हालांकि बाद में संघ प्रमुख ने इस बात को कई बार दोहराया कि फिलहाल आरक्षण को हटाने की स्थितियां नहीं बनी हैं। तभी से भाजपा भी इस विषय में सतर्क हो गई । और  सोशल इन्जीनियरिंग का  उपयोग करते हुए पिछड़ी जातियों को अपने साथ जोड़ लिया  जिससे दूसरी पार्टियों को तकलीफ है। जातिगत जनगणना का अस्त्र दरअसल इसी के जवाब में निकाला गया। भाजपा की दुविधा ये है कि इसका समर्थन करने पर उसका सवर्ण जनाधार खिसक जाएगा और विरोध करने पर  पिछड़ी और दलित जातियां हाथ से निकल जाएंगी। प्रधानमंत्री चूंकि इस बात को समझ गए हैं इसीलिए उन्होंने जातिगत जनगणना  के जवाब में गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताकर नए विमर्श को जन्म दे दिया। हालांकि अभी तक ये मुख्यधारा की राजनीति का विषय तो नहीं बन सका किंतु जिस तरह वे लगातार इसे दोहरा रहे हैं उससे लगता है कि गरीबी को सबसे बड़ी जाति बनाना किसी बड़े खेल का पूर्वाभ्यास है। गौरतलब है कि श्री मोदी  शतरंज के खेल की तरह बहुत आगे की सोचकर चाल चलते हैं। म.प्र में चूंकि कांग्रेस ने जातिगत जनगणना को अपने चुनावी वायदे में शामिल कर लिया है इसलिए उन्होंने भी पलटवार कर दिया है। लेकिन भाजपा के बाकी नेता  इस बारे में उतने मुखर नहीं है। सही मायनों में अब समय आ गया है जब आरक्षण के मामले में राजनेताओं को  खुलकर अपने विचार व्यक्त करना चाहिए क्योंकि ये मुद्दा अब समाज में जातिगत दरारें चौड़ी करने का कारण बनता जा रहा है। एक समय था जब बिहार और उ.प्र ही जाति की राजनीति का बोलबाला था किंतु वोटों की राजनीति ने अब जाति को भारतीय राजनीति की अनिवार्य बुराई बना दिया है। पहले क्षेत्रीय पार्टियां ही इस बारे में  मुखर थीं किंतु जिस तरह से राष्ट्रीय पार्टियां  इससे जुड़ती जा रही हैं वह खतरनाक है। भाजपा शुरू में हालांकि सवर्ण जातियों की हितचिंतक मानी जाती थी किंतु धीरे - धीरे  उसने भी जाति की राजनीति को अपना हथियार बनाया। हालांकि उसे इसका लाभ भी हुआ किंतु एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर उसे साहस के साथ आगे आना होगा। इसके पहले कि स्वार्थी राजनेता  देश को जातीय गृहयुद्ध की आग में झोंक दें  , इस मुद्दे को सही दिशा देना जरूरी है। गरीबी वाकई एक कलंक है जो हमारी सारी प्रगति पर सवालिया निशान लगा देती है । पांच  राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद इस बारे में खुली राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए । समाज में ऊंच - नीच का पैमाना यदि आर्थिक स्थिति बना दी जाए तभी सबके विकास का लक्ष्य पूरा हो सकेगा । अन्यथा चुनाव आते - जाते रहेंगे और जनता नारों और वायदों के भूल - भुलैयों में फंसकर ठगी जाती रहेगी।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 4 November 2023

2024 के पहले ही बिखरने लगा विपक्ष

2024 के पहले ही बिखरने लगा विपक्ष 


समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच म.प्र विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर जो विवाद उत्पन्न हुआ उसको शांत करने की कोशिश कांग्रेस आलाकमान द्वारा की गई थी। सुनने में आया कि राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे ने इस बारे में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव से बात कर उनके गुस्से पर पानी डालने की कोशिश भी की। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को दिल्ली तलब भी किया गया था।कांग्रेस द्वारा सपा के लिए 6 सीटें छोड़ने के आश्वासन से मुकर जाने के बाद अखिलेश ने  धोखेबाजी का आरोप लगाते हुए अपने  उम्मीदवार भी घोषित कर दिए । इधर कमलननाथ ने कौन अखिलेश - वखलेश जैसी टिप्पणी कर सपा अध्यक्ष को और नाराज कर दिया । अखिलेश ने तो इस पर  ये धमकी भी दे डाली कि कांग्रेस के साथ भविष्य में होने वाले गठबंधन के बारे में उन्हें सोचना पड़ेगा  । गत दिवस म.प्र के छतरपुर जिले में सपा प्रत्याशी का प्रचार करने के दौरान उन्होंने एक बार फिर कांग्रेस को भला - बुरा कहते हुए याद दिलाया कि 2018 में कमलनाथ की सरकार सपा के समर्थन से ही बनी थी। लेकिन इस बार उसके विधायक जीते तो किसी का साथ नहीं देंगे क्योंकि कांग्रेस और भाजपा मिले हुए हैं। इसीलिए उनके नेता एक दूसरे में आते - जाते रहते हैं। स्मरणीय है बुंदेलखंड का उक्त इलाका उ.प्र से सटा हुआ है जहां सपा का प्रभाव कुछ सीटों पर है। बीच में लगा था कि श्री गांधी और श्री खरगे के प्रयासों से अखिलेश ठंडे पड़ गए किंतु गत दिवस उन्होंने जिस तरह कांग्रेस को गरियाया उससे लगा कि उनके तेवर अभी भी गर्म हैं। प्रदेश में सपा को कितनी सफलता मिलेगी ये कोई नहीं बता सकता । लेकिन वह कांग्रेस के लिए सिरदर्द तो बन ही गई है। विचारणीय प्रश्न  ये है कि कमलनाथ द्वारा  अन्य विपक्षी दलों के साथ गठबंधन नहीं किए जाने की रणनीति प्रदेश स्तर पर तय की गई अथवा राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा ? बहरहाल प्रदेश में  सपा के  अलावा आम आदमी पार्टी और जनता दल (यू) ने भी अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं। दो दिन पहले अरविंद केजरीवाल और भगवंत सिंह मान ने सिंगरौली आकर  भाजपा के साथ कांग्रेस पर भी खूब हमले किए। यद्यपि जनता दल (यू) के प्रचार हेतु कोई बड़ा नेता तो नहीं आया किंतु बिहार में सीपीआई के एक आयोजन में नीतीश कुमार ने कांग्रेस पर इंडिया गठबंधन की उपेक्षा करने का जो आरोप लगाया उसके बाद से 2024 के महासमर के पहले ही विपक्षी खेमे में मतभेद उभरने लगे हैं। राजनीतिक विश्लेषक भी ये लिख रहे  हैं कि कांग्रेस में अहंकार लौटता लग रहा है। जिन पांच राज्यों में फिलहाल चुनाव हो रहे हैं उनमें अनुकूल नतीजों की उम्मीद में वह बाकी विपक्षी दलों की उपेक्षा करने लगी है। नीतीश ने खुले मंच से कटाक्ष किया कि गठबंधन का काम छोड़कर कांग्रेस इन दिनों चुनाव में व्यस्त है। कांग्रेस  नेतृत्व भी जिस तरह से इंडिया में शामिल अन्य दलों के प्रति उदासीन नजर आ रहा है उससे लगता है पार्टी लोकसभा चुनाव में अपना हाथ ऊपर रखने की तैयारी अभी से कर रही है। तेलंगाना में के.सी.रेड्डी की पार्टी बी.आर.एस और कांग्रेस में घमासान चल रहा है। आम आदमी पार्टी के दोनों मुख्यमंत्री चुनाव वाले राज्यों में जिस तरह कांग्रेस को भ्रष्ट बता रहे हैं वह जगजाहिर है। इसी तरह पंजाब में मान सरकार अनेक कांग्रेस नेताओं पर कार्रवाई में जुटी है तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी नेताओं के आबकारी मामले में गिरफ्त में आने पर स्थानीय कांग्रेसी नेता खुशी जता रहे हैं। कुल मिलाकर लोकसभा चुनाव के पहले विपक्ष भाजपा के विरुद्ध जिस एकजुटता का प्रदर्शन कर सकता था वह किसी भी कोण से नजर नहीं आ रही। उल्टे जो सौजन्यता  उपजी वह भी  कटुता में तब्दील होती दिखती है । दरअसल इंडिया में शामिल दलों के मन में ये आशंका जगह बनाने लगी है कि पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को यदि उसकी उम्मीद के अनुसार सफलता मिल गई तब वह 2024 के आम चुनाव में उन सबको ठेंगे पर रखने से बाज नहीं आयेगी। उनका सोचना रहा कि पांच राज्यों के चुनाव में इंडिया गठबंधन रूपी प्रयोग को आजमाकर जनता के सामने विपक्षी एकता का उदाहरण पेश किया जा सकता था। लेकिन कांग्रेस ने इसमें रुचि दिखाना तो दूर उल्टे अन्य दलों को बातों में उलझाए रखते हुए अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए। अखिलेश , नीतीश और अरविंद की कांग्रेस पर नाराजगी देखते हुए विपक्षी एकता की आशाओं पर पानी फिरता लग रहा है। बड़ी बात नहीं पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद तीसरे मोर्चे की  कवायद नए सिरे से जन्म लेने लगे क्योंकि सपा , जदयू और आप के प्रभावक्षेत्र क्रमशः उ.प्र , बिहार और दिल्ली में कांग्रेस का स्वतंत्र अस्तित्व लगभग खत्म सा हो चुका है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 3 November 2023

जहरीली होती हवा : जनता उदासीन और नेता मौन



देश की राजधानी दिल्ली में हालात गंभीर हैं। शालाओं में अवकाश घोषित कर दिया गया है। लोग सांस लेने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं।  शुद्ध हवा के लिये  सैर पर जाने वालों के फेफड़ों में जहर समाने लगा है। अस्थमा  से ग्रसित लोगों के लिए ऐसी स्थितियां जानलेवा  हो सकती हैं। घरों में तो वायु शुद्ध करने वाले उपकरण लगाए जा सकते हैं किंतु बाहर निकलने पर प्रदूषित  सांस ही लेनी पड़ती है। और फिर जो लोग झुग्गियों में रहते हैं उनकी तकलीफ का अंदाजा लगाया जा सकता है। देश का दिल कहे जाने वाले  महानगर पर दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहर होने का कलंक लग चुका है। बावजूद उसके हालात साल दर साल बद से बदतर होते जा रहे हैं। कभी पंजाब से आने वाले पराली के  धुएं तो कभी औद्योगिक इकाइयों से होने वाले प्रदूषण से दिल्ली का वायुमंडल जहर भरा हो जाता है। वाहनों से निकलने वाले धुएं को रोकने के लिए सीएनजी और बैटरी चलित वाहनों के उपयोग को बढ़ावा देने की नीति बनी। 10 वर्ष पुरानी गाड़ियों को सड़क से बाहर करने का प्रावधान भी अस्तित्व में है। मेट्रो ट्रेन चलने से निजी वाहनों का प्रयोग कुछ कम हुआ है। लेकिन बढ़ती आबादी और वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि की वजह से आगे पाट पीछे सपाट की स्थिति बनती रही है।  सर्वोच्च न्यायालय , केंद्र और राज्य सरकार के अलावा तमाम स्वयंसेवी संगठन पर्यावरण सुधारने में लगे हैं ।  लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकल पा रहा। उल्टे स्थितियां खराब हो रही हैं। प्रतिवर्ष इसका हल्ला मचता है । जनहित याचिकाएं लगती हैं । पहले दिल्ली की केजरीवाल सरकार पंजाब को कोसती थी जहां के किसान फसल कटने के बाद खेतों में आग लगा  दिया करते हैं। लेकिन अब तो उस राज्य में भी आप आदमी पार्टी की ही सरकार है। ऐसे में अरविंद केजरीवाल और भगवंत सिंह मान दोनों को मिलकर  कोई रास्ता निकालना चाहिए। केंद्र सरकार को भी इस समस्या के स्थायी समाधान के प्रति गंभीर होना पड़ेगा। वैसे ये समस्या पूरे देश की है। चंडीगढ़ जैसे कुछ शहर ही अपवाद हैं जहां प्रदूषण काफी हद तक नियंत्रित है । अन्यथा क्या मुंबई और क्या कोलकाता , सभी में हालात संगीन हो रहे हैं। मुंबई में में वरली सी फेस के पास समुद्र से आने वाली बदबू वहां से निकलने वालों की नाक में घुसे बिना नहीं रहती। कोलकाता के कंधे तो आबादी के  बोझ से पहले से ही दबे जा रहे हैं। दो दशक पहले तक बेंगुलुरु जैसे महानगर का मौसम बेहद खुशनुमा हुआ करता था किंतु सायबर सिटी बनने का गौरव हासिल होने के साथ ही वहां का पर्यावरण खराब होने लगा । वाहनों की कतारें और उनके  धुएं ने पुराने मैसूर रियासत की इस ग्रीष्मकालीन राजधानी के मौसम का सत्यानाश कर डाला। दुर्भाग्य से पर्यावरण संरक्षण को लेकर होने वाला समूचा  कर्मकांड दिखावा होकर रह गया है। जब देश की राजधानी के वाशिंदे ज़हर भरी सांसें लेने बाध्य हैं तब बाकी की क्या दशा होगी ?  लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी या नेता प्रदूषण के विरुद्ध लड़ाई को मुख्य मुद्दा नहीं बनाता। मोदी सरकार के  परिवहन मंत्री नितिन गडकरी जरूर बैटरी चालित वाहनों के अलावा पेट्रोल में एथनाल मिलाए जाने और हाइड्रोजन को पेट्रोल - डीजल का विकल्प बनाए जाने जैसे उपायों के प्रति गंभीर हैं किंतु बाकी राजनेता उदासीन नजर आते हैं ।  ये भी सही है कि जनता भी ऐसे मुद्दों पर जागरूक नहीं है। यही कारण है कि आज तक एक भी चुनाव , प्रदूषण दूर करने के नाम पर नहीं हुआ। वर्तमान में जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं वहां  भी मुफ्त खैरात बांटकर मतदाता को लुभाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है । कोई नगदी दे रहा है तो कोई सस्ती गैस। मुफ्त बिजली , सायकिल और स्कूटी भी चुनावी वायदों में है । सड़कें  , स्कूल , अस्पताल जैसी सुविधाओं का भी जिक्र हो रहा है। लेकिन पर्यावरण संरक्षण कहीं भी  चर्चा का विषय नहीं है। दरअसल जनता की इन विषयों में रुचि न होने से नेता भी इस तरफ ध्यान नहीं देते।  दिल्ली के मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को विधानसभा और नगर निगम में जिताया । वहीं लोकसभा सीटों पर भाजपा का एकाधिकार चला आ रहा है। दोनों पार्टियां अलग - अलग मुद्दों पर जनता का समर्थन हासिल करती रही हैं किंतु दिल्ली की हवा को प्रदूषण से मुक्त करवाने की प्रतिबद्धता दोनों ने नहीं दर्शाई। औद्योगिकीकरण और आबादी , प्रदूषण का बड़ा कारण है। सुख - सुविधाओं से भरी जीवन शैली भी पर्यावरण को क्षति पहुंचाती है। समस्या क्यों और कैसे है  , इस बारे में जानकारी सभी को है किंतु  उसे दूर करने के लिए आगे कोई नहीं आना चाहता ।   आजादी मिले 75 साल से ज्यादा बीत गए किंतु आज भी जनता को न शुद्ध पीने का पानी नसीब है और न ही हवा । बड़ी बात नहीं भविष्य में होने वाले चुनावों में वायु शुद्ध करने वाले उपकरण (एयर प्योरीफायर) भी चुनावी उपहारों की सूची में शामिल हो जाएं। 

-रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 2 November 2023

काले धन और चुनावी चंदे का चोली दामन का साथ है



सर्वोच्च न्यायालय में चुनावी बॉन्ड की गोपनीयता को लेकर बहस चल रही है। सरकार की तरफ से बॉन्ड के जरिए चंदा देने वालों के नाम उजागर करने की आवश्यकता को नकारा जा रहा है वहीं याचिकाकर्ता चाहता है कि पारदर्शिता के मद्देनजर पहिचान सामने आना चाहिए। गत दिवस प्रधान न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ ने पूछा कि बॉन्ड खरीदने वाले का पूरा विवरण  भारतीय स्टेट बैंक के पास है तब  गोपनीयता कहां रह जाती है ? दरअसल ये एक तरह का वचन पत्र है जिसे  बैंक से खरीदकर किसी  राजनीतिक दल को दिया जाता है और इसमें चंदा देने वाला उजागर नहीं होता। इसका उद्देश्य नगद चंदे को रोकना था जो काले धन के रूप में होता था। बॉन्ड से जो चंदा मिलता है वह पार्टियों के बैंक खातों में जमा होने से चुनाव आयोग के जरिए जनता को पता चलता है। बॉन्ड खरीदने वालों की पहिचान छिपाने के पीछे सरकारी वकील ने तर्क दिया कि  किसी  दल को मिलने वाले चंदे का स्रोत जानना  मौलिक अधिकार नहीं है और इससे एक दल को चंदा देने वाला दूसरे के कोप भाजन का शिकार हो सकता है। रही बात चुनावी चंदे में पारदर्शिता की तो जब तक देश में काला धन रहेगा तब ये गोरखधंधा चलेगा । आजादी के पहले से बिरला और बजाज जैसे घराने कांग्रेस के आर्थिक स्रोत हुआ करते थे। घनश्याम दास बिरला और जमनालाल बजाज की महात्मा गांधी और पं. जवाहरलाल नेहरू से निकटता किसी से छिपी नहीं रही। कई दशकों तक लाइसेंस राज चलाकर कांग्रेस ने इनके साथ ही कुछ अन्य उद्योगपतियों को जी भरकर उपकृत किया । इंदिरा जी के दौर में प्रणब मुखर्जी के जरिए धीरुभाई अंबानी उभरे । फिर जब पी.वी. नरसिम्हा राव उदारीकरण लेकर आए तो और भी नए समूहों ने पैर जमाए। संचार क्रांति के आने से गैर परंपरागत उद्योगों ने  पहिचान बनाई। बीते दो दशक में भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग भी वैश्विक स्तर पर अपनी धाक जमा रहा है। विदेशी कम्पनियां भी खूब कारोबार कर रही हैं । मोबाइल फोन , दवाइयां , अनाज और अन्य चीजों का निर्यात होने लगा है। इस प्रकार देश में अब दो चार उद्योगपति ही धनकुबेर नहीं रहे अपितु संख्या काफी बड़ी हो गई है। इसी तरह चुनाव तंत्र भी  साठ - सत्तर के  दशक से बहुत आगे निकल आया है। तब  राष्ट्रीय नेता तक सड़क मार्ग से दौरे करते थे और  आज हेलीकाप्टर और विमान सामान्य बात हो चली है।  इन सबसे चुनाव  खर्च बढ़ रहा है और  राजनीतिक दलों की चंदे की भूख भी। जाहिर है कार्यकर्ताओं और  समर्थकों के सहयोग से राजनीति संभव नहीं रही । इस तरह चुनावी चंदे और  काले धन में चोली दामन का साथ हो गया है। जब इलेक्टोरल बॉन्ड  नहीं थे तब भी रतन टाटा और राहुल बजाज ने चैक से राजनीतिक दलों को चंदा देने की पहल की किंतु  उसे ज्यादा समर्थन नहीं मिला । बॉन्ड आने के बाद कम से कम बैंक खातों में आए चंदे की जानकारी तो मिलने लगी।  वरना एक जमाने में  कांग्रेस के भीतर प्रचलित कहावत  , न खाता न बही - जो केसरी कहे वो सही  , हर पार्टी पर  लागू होती थी।जो कांग्रेस पार्टी भाजपा को मिलने वाले चंदे से बौखलाई है जब वह  सत्ता में लंबे समय तक रही तब उसने  पारदर्शिता की कभी बात नहीं की। रही बात बॉन्ड दाताओं के नाम उजागर करने की तो क्या हमारे राजनीतिक नेताओं और पार्टियों में इतनी परिपक्वता है कि वे अन्य पार्टियों के समर्थक उद्योगपतियों के प्रति दुर्भावना न रखें ? चूंकि ऐसा होना असंभव है इसलिए  चंदे की पारदर्शिता भी सुन्दर सपने जैसा है। जिस दिन बॉन्ड खरीदने वाले की पहिचान जाहिर होने लगेगी उस दिन इसका कारोबार खत्म ही हो जायेगा।  एक बात  अकाट्य सत्य है कि  बिना चंदे के चुनाव सम्भव नहीं। चूंकि देश में बेशुमार काला धन है इसलिए उसका बतौर चंदा उपयोग होना भी जारी रहेगा। जहां तक बात जनता के जानने के अधिकार की है तो जिस तरह नामांकन पत्र में  दिए जाने वाले धन - संपत्ति और अपराधों के विवरण का कोई संज्ञान नहीं लिया जाता उसी  तरह चंदे संबंधी जानकारी से आम जनता को कुछ भी लेना देना नहीं है। इस बारे में सबसे हास्यास्पद बात चुनाव में प्रत्याशी द्वारा किए जाने वाले खर्च की सीमा का निर्धारण है। चुनाव आयोग जितनी राशि लोकसभा चुनाव में खर्च करने की अनुमति देता है उससे ज्यादा तो पार्षद के चुनाव में अनेक प्रत्याशी खर्च कर देते हैं । 

- रवीन्द्र वाजपेयी