Wednesday 28 April 2021

ताकि तीसरे हमले के दौरान ऐसी भयावह स्थिति न बने



 देश में ऑक्सीजन के संकट के कारण  बीते कुछ दिनों के भीतर ही  हजारों जानें चली गईं | बवाल मचा तो आनन - फानन में युद्धस्तर पर प्रयास हो रहे हैं।  विदेशों तक से आयात किया जाने लगा । निजी  क्षेत्र के उद्योगों द्वारा  भी अपने काम की ऑक्सीजन अस्पतालों को दी जा रही है | देश भर में ऑक्सीजन उत्पादन में  जबरदस्त वृद्धि हो रही है | सरकारी और निजी अस्पताल अपने यहाँ संयंत्र लगाने में जुटे हुए हैं जिससे भविष्य में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर चिकित्सा व्यवस्था इस तरह विकलांग होकर न खड़ी हो जाये | इसके अलावा छोटे घरेलू सिलेंडर भी तेजी से बाजार में आ रहे हैं | तकनीक के विकास ने आक्सीजन कंसनट्रेटर नामक मशीन भी ईजाद कर दी जो घर बैठे ताजी आक्सीजन प्रदान करने में मददगार साबित हो रही है | हालाँकि वह पहले से बाजार में उपलब्ध थी लेकिन कोरोना की दूसरी लहर में ज्योंही प्राणवायु की किल्लत शुरू हुई उसकी मांग और कीमतें तेजी से बढ़ गईं | इस कारण बड़े पैमाने पर इसका आयात किया जा रहा है | कुल मिलाकर रेमिडिसिविर इंजेक्शन के बाद अब ऑक्सीजन देश में सबसे चर्चित विषय बन गया | ये अच्छी बात हुई कि जिस तेजी से समस्या पैदा हुई उतनी ही तेजी से उसका समाधान निकालने की कोशिशें भी सफ़ल हो रही हैं | इस दौरान एक बार फिर  ये साबित हो गया कि भारत  की मिट्टी में  उद्यमशीलता और सृजनशीलता समाई हुई है | लेकिन उसी के साथ जो सबसे बड़ा दुर्गुण ये है  कि उसका उपयोग समय पर नहीं हो पाने से अक्सर जरूरत के समय वह काम  नहीं आती | शत्रु से  घर के दरवाजे पर आने के बाद  जूझने में तो जबर्दस्त बहादुरी दिखाई जाती है | लेकिन उस संकट को दूर से पहिचानकर पहले ही बेअसर करने के बारे में जो मुस्तैदी दिखाई जानी  चाहिए उसका अभाव रहा है | इतिहास गवाह है कि विश्व की सर्वश्रेष्ठ शौर्य ( लड़ाकू ) जातियों के सीमावर्ती इलाकों में रहने तथा युद्धकौशल में उनकी महारत के बावजूद देश लगातार  विदेशी आक्रमण झेलता रहा और अंततः सैकड़ों वर्षों  लिए उसे गुलाम होना पड़ा | लम्बे संघर्ष के बाद अंग्रेज तो देश छोड़कर चले गए लेकिन हमारी वह कमी बदस्तूर जारी रही जिसकी वजह से आजादी के बाद से अनेक समस्याएँ नासूर बन गईं | कोरोना के दूसरे  हमले से पैदा हुए हालात उसी गलती का नतीजा है | उसके आकलन के अलावा बचाव के संसाधनों का समुचित प्रबन्ध करने में चिकित्सा जगत बुरी तरह चूका | इसी तरह सरकार भी इस भरोसे रही कि जब पिछले आक्रमण का  सामना देश ने कर लिया तब इसका भी कर ही लेगा | लेकिन हम ये नहीं  जान सके   कि शत्रु इस बार ज्यादा तैयारी से आएगा और वही हुआ भी | सरकारों की तो खैर , ये आदत ही बन चुकी थी किन्तु चिकित्सा जगत के  साथ ही  वैज्ञानिक भी टीका खोज लिए जाने के जश्न में तल्लीन रहे | और बची जनता तो उसे तो न पहले फ़िक्र थी  और न ही  अब है | अपनी  और अपनों की जान बचाने में सहायक मास्क जैसी  छोटी  सी चीज के उपयोग तक में लापरवाही किये जाने की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी ये सामने है | सवाल ये है कि क्या इससे कोई सबक लिया जाएगा या फिर जैसी कि आशंका जताई जा रही है तीसरे हमले के समय भी हम ऐसे ही असहाय खड़े रहेंगे ? जितनी फुर्ती ऑक्सीजन के उत्पादन और परिवहन में अब जाकर दिखाई जा रही है ऐसी ही आपाताकालीन तैयारियों के लिए जरूरी अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई जानी चाहिये क्योंकि  ये देश के सुरक्षित भविष्य की सबसे बड़ी जरूरत बन गई है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 26 April 2021

समय पर आक्सीजन संयंत्र बन जाते तो सैकड़ों जिंदगियां बच जातीं


किसकी गलती है फ़िलहाल इस बहस में पड़कर मूल विषय से ध्यान हटाने की बजाय आगे की सुधि लेय वाली सलाह का पालन करना ही बुद्धिमत्ता होगी फिर भी  पीएम केयर कोष द्वारा जनवरी में देश के विभिन्न शहरों के सरकारी अस्पतालों में ऑक्सीजन संयंत्र लगवाने हेतु दी गई राशि का उपयोग न हो पाना वाकई दुःख का विषय है जैसी जानकारी है उसके मुताबिक जनवरी में विभिन्न राज्यों के सरकारी अस्पतालों में 162 संयंत्र लगाने के लिए उक्त कोष से 200 करोड़ रु. जारी किये गये किन्तु अपवाद स्वरुप छोड़कर  या तो संयंत्र का काम शुरू नहीं हुआ अथवा मंथर गति से चल रहा है | गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने देश के 551 जिलों के सरकारी अस्पतालों में आक्सीजन संयंत्र लगाने के लिए फिर राशि स्वीकृत कर दी है जिनके प्रारम्भ हो जाने के बाद से देश के तकरीबन सभी हिस्सों में आक्सीजन की आपूर्ति और परिवहन आसान हो जाएगा | हालाँकि जिस तरह की परिस्थितियां बीते कुछ दिनों में बनीं उसके बाद इसे आग लगने पर कुआ खोदने का प्रयास ही कहा जाएगा लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि जो राज्य पूर्व  में धन मिलने के बावजूद  समय रहते आक्सीजन संयंत्र नहीं बना सके उनसे उसका कारण तो पता किया जाना ही चाहिए  | इसके साथ ही जो धनराशि गत दिवस पीएम केयर कोष से स्वीकृत हुई उससे बनने वाले आक्सीजन संयंत्र कितने समय में बनकर तैयार हो जायेंगे इसकी समय सीमा भी निश्चित करना जरूरी है | इस बारे में कुछ माह पहले सडक परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का एक वीडियो काफी चर्चित होकर प्रसारित हुआ था | उसमें वे अपने मंत्रालय के अंतर्गत एक विभाग के कार्यालय के नवनिर्मित भवन का लोकार्पण आभासी माध्यम से कर रहे थे | विभागीय अधिकारीयों को उम्मीद रही होगी कि मंत्री जी नए भवन के निर्माण पर सबको बधाई  देते हुए परम्परागत शैली में कहेंगे कि इससे विभाग के कार्य में सुधार आयेगा वगैरह.... वगैरह | लेकिन हुआ बिलकुल अलग क्योंकि मंत्री जी ने बजाय बधाई और तारीफ के पुल बांधने के कहा कि भवन के निर्माण में हुई  देरी के लिए जिम्मेदार शीर्ष स्तर के अधिकारियों के चित्र उसकी दीवारों पर टांगकर लिखा जाए इनके कारण देश का नुक्सान हुआ | साथ ही उन्होंने उपस्थित कर्मचरियों और अधिकारियों को कहा कि ये अभिनन्दन नहीं अपितु  चिंतन का अवसर है कि किसी भी कार्य को निर्धारित समय सीमा में पूरा नहीं किये जाने से राष्ट्रीय संसाधनों की कितनी क्षति होती है और विकास के लक्ष्य भी उसी मुताबिक पिछड़ जाते हैं | हालाँकि श्री गडकरी के साथी मंत्री भी उनकी उस नसीहत से कितने प्रेरित और प्रभावित हुए ये तो पता नहीं लेकिन जिस किसी ने भी वह वीडियो देखा वह श्री गडकरी का प्रशंसक अवश्य बन गया | संदर्भित प्रसंग में आक्सीजन संयंत्रों के लिए धन प्राप्त हो जाने के बाद भी उनका न बन पाना सामान्य हलात्तों में तो संज्ञान में न आता किन्तु कोरोना की  दूसरी लहर ने जो रौद्र रूप दिखाया उसकी वजह से ज्योंही अस्पतालों में आक्सीजन की कमी से बड़ी संख्या में मरीजों के मरने की खबरें आने लगीं और ठीकरा केंद्र सरकार पर फूटा तब जाकर ये सच्चाई सामने आई कि पैसा मिलने के बाद भी संयंत्रों का लाभ नहीं  मिल सका , अन्यथा सैकड़ों जिंदगियां बचाई जा सकती थीं | इस अनुभव को नजीर बनाते हुए भविष्य के  लिए एक नीति बननी चाहिए जिसमें किसी भी कार्य में सीमा  का पालन न होने पर  जो नुकसान होता है उसके लिए सम्बन्धित अधिकारियों - कर्मचारियों को जिम्मेदार ठहराया  जाए | बीते कुछ दिनों से देश भर में नए आक्सीजन संयंत्र जिस त्वरित गति से लगाये गए उससे ये तो सिद्ध हो गया कि ये काम नदी पर पुल बनाने अथवा फ्लायओवर बनाए जैसा नहीं  है जिसके निर्माण में बरसों लगते हों | लेकिन हमारे देश में जब संसद और न्यायपालिका  जैसी जिम्मेदार संस्थाएं तक समय सीमा के अनुशासन का पालन नहीं कर पातीं तब बाकी से क्या उम्मीद ? चीन के विकास की प्रशंसा करने वालों की संख्या अनगिनत होगी किन्तु वहाँ आक्सीजन संयंत्र लगाने में इतनी गफलत होती तो जिम्मेदार छोटे - बड़े सभी पर शिकंजा कस दिया जाता | आपदा में अवसर का जो नारा श्री मोदी ने कोरोना काल के दौरान दिया उसका एक अभिप्राय ये भी निकाला जाना चाहिए कि हम विलम्ब के लिए खेद व्यक्त कर छुट्टी पाने  की आदत से बाहर निकलें | किसी काम को समय पर करने के लिए आपात्कालीन परिस्थितियों का इंतजार क्यों किया जाये ये बड़ा सवाल है | जिन अधिकारियों अथवा सत्ताधारी नेताओं के कारण आक्सीजन संयंत्रों के निर्माण में अनावश्यक विलम्ब हुआ , काश वे इस बात का पश्चाताप करें कि उनकी लापरवाही ने कितने जीवन दीप बुझा दिए |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 24 April 2021

मानव जीवन को खतरे में डालकर मुनाफा कमाने वालों का पर्दाफाश जरूरी



कोरोना की दूसरी लहर वाकई सुनामी बनकर आई है | बीते तीन दिनों में ही 10 लाख से ज्यादा नए मरीजों का मिलना डरा देने वाला है | यद्यपि गत दिवस स्वस्थ होकर घर लौटने वाले भी अब तक के सबसे   ज्यादा  रहे | लेकिन चारों ओर से आ रही मौतों की  संख्या के अलावा ऑक्सीजन और कतिपय दवाइयों की कमी मुख्य समाचार बने हुए हैं | यद्यपि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर व्यवस्थाओं को पटरी पर लाने  का भरसक प्रयास कर रही हैं | ऑक्सीजन की अप्रत्याशित कमी को दूर करने के लिए विशेष रेल गाड़ियों के अलावा वायुमार्ग तक से  उसकी आपूर्ति कराई जा रही है | देश में ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने का भी युद्धस्तरीय प्रयास चल रहा है | उसका औद्योगिक उपयोग रोककर केवल अस्पतालों को दिए जाने की नीति भी बन गई है | दवाइयों का स्टॉक भी जरूरत वाली जगहों पर पहुंचाया जा रहा है | अस्थायी अस्पताल बनाकर ज्यादा से ज्यादा मरीजों को चिकित्सा सुविधा प्रदान किये जाने की कोशिशें चल रही हैं | ये संतोष का विषय है कि निजी क्षेत्र के उद्यमी और समाजसेवा से जुड़े लोग भी इस काम में मदद करने आगे आ रहे हैं |  कुछ लोगों द्वारा धन एकत्र कर ऑक्सीजन की आपूर्ति जरूरतमंदों को किये जाने के समाचार भी मिल रहे हैं | गत वर्ष भी लम्बे समय तक चले  लॉक डाउन के दौरान आम जनता ने इसी तरह की सहायता देकर अपने सामाजिक कर्तव्य का निर्वहन  किया था | लेकिन इस सबसे हटकर कुछ ऐसी खबरें भी आ रही हैं जो दुखी के साथ ही शर्मसार भी करती हैं | गत दिवस दो समाचार ऐसे आये जिनसे लगा कि जिन्हें देवदूत समझा जाता है उनमें भी कुछ ऐसे लोग घुस आये हैं जिनकी मानसिकता राक्षसी प्रवृत्तियों से प्रेरित है | एक नर्स द्वारा लगाये जा रहे इंजेक्शन के बारे में ज्ञात हुआ कि  किसी मरीज के लिए जो विशेष इंजेक्शन  मंगवाया गया था वह डाक्टर ने अपने पास रखकर नर्स को कोई साधारण  इंजेक्शन दे दिया | लेकिन इस प्रकरण में  दोष नर्स का नहीं वरन  डाक्टर का है जिसने अपने पेशे की प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला दिया | दूसरी ऐसी ही घटना में एक नर्स महंगा इंजेक्शन चुराकर अपने प्रेमी  के जरिये  उसकी कालाबाजारी करवा रही थी |  उससे होने वाली कमाई  का कुछ हिस्सा संबंधित डाक्टर को दिए जाने की जानकारी भी मिली है | सरकारी अस्पतालों से रेमेडिसिविर के सैकड़ों इंजेक्शन चोरी होने की खबरें भी अनेक स्थानों   से आईं | कुछ लोगों ने अपने घरों में आक्सीजन के भरे सिलेंडर छिपाकर रख लिए हैं | कोरोना संबंधी अनेक दवाइयों का कृत्रिम अभाव पैदा करते हुए दो के चार करने का गंदा खेल भी चल रहा है | इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि उक्त घटनाएँ तो महज बानगी हैं | देश भर में हजारों मामले ऐसे हैं जिनमें मानवता पर मंडरा रहे इस संकट के समय भी कुछ लोग  मुनाफाखोरी और कालाबाजारी के  जरिये लोगों की मजबूरी का बेजा लाभ उठा रहे हैं | जैसी कि जानकारी मिल रही है उसके अनुसार इस खेल में शामिल छोटी मछलियाँ तो जाल में फंस जाती हैं किन्तु मगरमच्छ बचे रहते हैं | निजी क्षेत्र के अस्पताल चूँकि  उद्योग की शक्ल ले चुके हैं इसलिए उनका उद्देश्य सेवा से ज्यादा  अपनी पूंजी  पर लाभ कमाना रह गया है | कहते हैं किसी भी देश के चरित्र की  पहिचान संकट के समय ही होती है | उस दृष्टि से हमारे देश में कोरोना काल के दौरान कतिपय लोगों का आचरण पूरी तरह से मानवीयता से परे है | फिलहाल तो लोगों की जान  बचाना मुख्य काम है किन्तु  ये दौर गुजर जाने के बाद ऐसे लोगों का पर्दाफाश किया जाना चाहिए | जो लोग मानव जीवन को खतरे में डालकर भी पैसा बटोरने में लगे हुए हैं उन्हें यदि दंड न मिला तो ये प्रवृत्ति और मजबूत होती जायेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 22 April 2021

योग , आयुर्वेद और होम्योपैथी को भी बराबरी से सम्मान मिले



कोरोना का दूसरा हमला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा | गत दिवस तीन  लाख से ज्यादा नए मरीज  मिले जबकि स्वस्थ होने वालों की संख्या काफी कम होने से अस्पतालों पर बोझ बढ़ता ही जा रहा है | वैसे एक बात धीरे - धीरे स्पष्ट हो रही है कि लोगों में  जगरूकता बढ़ने से जांच का आंकड़ा भी बढ़ा है जिससे नए संक्रमितों का पता लगाने में आसानी  हो रही है | लेकिन बड़ी संख्या  में हुई मौतों ने भय का जो माहौल बनाया उसे आक्सीजन और जरूरी दवाओं की कमी ने और हवा दे दी | अनेक नामी - गिरामी चिकित्सकों ने सार्वजनिक तौर पर ये कहा है कि हर कोरोना मरीज को रेमडेसिवीर , फेबिफ्लू और ऑक्सीजन की जरूरत नहीं है | इसी तरह वेंटीलेटर की अनिवार्यता भी सभी को नहीं पड़ती किन्तु संक्रमण का बढ़ता दायरा और बड़ी संख्या में हो रही मौतों ने जनमानस पर बुरा  असर किया जिससे उक्त चीजों की अफरातफरी मच गई | कोढ़ में खाज की स्थिति पैदा कर दी चिकित्सा जगत में सक्रिय माफिया ने जो लाशों का कारोबार करने से बाज नहीं आ रहा | और जो चिकित्सक अब जाकर बता रहे हैं कि उक्त दवाएं रामबाण नहीं है वे भी देर से जागे और तब तक तो बड़ा खेल हो चुका था | आश्चर्य की बात ये है कि जिस चिकित्सा जगत ने अब जाकर ये कहना शुरू किया कि  कोरोना के सभी  मरीजों को अस्पाताल में भर्ती होने की जरूरत नहीं है और साधारण से इलाज के साथ कुछ सावधानियों से घर पर रहते हुए भी ठीक हो सकते हैं वही  पहले  भयभीत करता रहा | टीवी पर लोगों को जानकारी देते हुए देश के अनेक  बड़े एलोपैथी चिकित्सक ये सलाह दे रहे हैं कि योग और प्राणायाम कोरोना से बचाव और इलाज में सहायक है | लेकिन जब यही बात योग गुरुओं ने कही थी तब उनका जमकर उपहास किया गया | भारतीय चिकित्सा पद्धति में भले ही कोरोना को लेकर हाल ही में   टीके जैसा  कोई नया  शोध भले न हुआ  हुआ हो किन्तु उसे सिरे से नकार देना भी संक्रमण  के विस्तार का कारण बना | देखने वाली बात ये है कि जब निजी क्षेत्र के अनेकानेक छोटे और बड़े अस्पतालों ने अंग्रेजी दवाओं के साथ ही मरीजों को योग संबंधी व्यायाम करवाने के लिए प्रशिक्षक रखे हुए हैं तब इस विधा का मजाक उड़ाना अपने आप में विरोधाभास ही है | कोरोना के प्रकोप को कम करने के लिए निश्चित रूप से आधुनिक चिकित्सा पद्धति का महत्वपूर्ण योगदान है | बहुत कम समय में टीका तैयार करना  बड़ी सफलता  है | लेकिन जैसे - जैसे जानकारी आ रही है वैसे - वैसे ये साफ़ होता जा रहा है कि कोरोना से बचाव के साथ ही संक्रमण को प्रारम्भिक अवस्था में  ही नियंत्रित करने में योग और आयुर्वेद के साथ ही होम्योयोपैथी भी कारगर है | भारत सरकार ने आयुष मंत्रालय के अंतर्गत एलोपैथी  के अलावा अन्य चिकित्सा पद्धतियों को संरक्षण देते हुए सस्ते और समय पर मिलने वाले इलाज की दिशा में जो कदम बढ़ाये वे भले ही कोरोना नामक आपदा के कारण धीमे पड़ गये हों किन्तु इस दौर के निकल जाने के बाद प्राचीन  भारतीय चिकित्सा पद्धति और योग को उनका अपेक्षित सम्मान दिया जाना चाहिए | एलोपैथी में नये - नये शोध के अलावा शल्य क्रिया बहुत  ही सहायक हुई है | विज्ञान और तकनीक का भरपूर उपयोग करते हुए इस पद्धति ने पूरी दुनिया को बीमारियों से लड़ने में उल्लेखनीय सहायता की किन्तु व्यवसायीकरण  उसकी तमाम उपलब्धियों और अच्छाइयों पर भारी पड़ जाता है | उसकी चकाचौंध ने वैद्यों की परम्परा को  भी  भारी नुकसान पहुंचाया जिसका लाभ उठाकर आयुर्वैदिक दवाइयों का कारोबार स्थानीय फार्मेसियों से निकलकर बड़ी कंपनियों के हाथ में जा पहुंचा जिनमें से कुछ तो बहुराष्ट्रीय हैं | ये सब देखते हुए भारत में जिस चिकित्सा क्रांति की आवश्यकता महसूस  की जा रही है उसमें एलोपैथी के साथ ही आयुर्वेद के अलावा अन्य परम्परागत चिकित्सा प्रणालियों को भी समुचित महत्व दिया जावे जिससे इलाज सुलभ होने के साथ ही सस्ता भी हो | निश्चित रूप से वर्तमान समय बड़ा ही संकट भरा है | चारों तरफ से दुखद खबरें ही आ रही हैं लेकिन मानव जाति पर ऐसे संकट अतीत में  भी  आते रहे है और हर बार वह पहले से ज्यादा समझदार बनकर उभरी | इस बार भी  ऐसा ही होगा ये उम्मीद करना गलत नहीं है  किन्तु इसके लिये धैर्य के साथ ही ईमानदार और दूरगामी सोच की जरूरत है | जिस तरह कोरोना का टीका बनाने में भारत ने पूरे विश्व में अपनी धाक जमाई ठीक वैसे ही चिकित्सा तंत्र को मजबूती देकर हम सशक्त और समृद्ध  के साथ ही स्वस्थ भारत की बुनियाद भी रख सकते हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 20 April 2021

टीकाकरण अभियान में समाज की सहभागिता भी जरूरी



चौतरफा मांग के बाद आखिरकार केंद्र सरकार ने आगामी 1 मई से 18 वर्ष से ऊपर के प्रत्येक व्यक्ति को कोरोना का टीका लगाने का फैसला कर ही लिया | इसके साथ ही वर्तमान व्यवस्था में अनेक व्यवहारिक बदलाव किये गये | देश में कोरोना का टीका बनाने वाली कम्पनियों को अपने उत्पादन का 50 फीसदी अनिवार्य रूप से केंद्र सरकार को देना होगा | लेकिन शेष वे राज्य सरकारों के साथ ही  खुले बाजार में विक्रय कर सकेंगी | विक्रय करने के पहले उसकी कीमत का खुलासा करना होगा जिससे कि उसे लेकर अनिश्चितता न रहे | इस प्रकार अब केंद्र सरकार द्वारा चलाये जा रहे निःशुल्क टीकाकरण के साथ ही निजी तौर पर भी टीका खरीदा जा सकेगा , जिसकी जरूरत संपन्न वर्ग महसूस  कर ही  रहा था | इस तरह की वैकल्पिक व्यवस्था से टीकाकरण केन्द्रों पर लगने वाली भीड़ और उससे उत्पन्न अव्यवस्था पर काबू पाया जा सकेगा | केंद्र सरकार ने टीकों की आपूर्ति सुचारू रूप से जारी रखने के उद्देश्य से विदेशों से उनका आयात करने की अनुमति भी  दे दी है | जिसके बाद  अब लोगों के पास अनेक विकल्प हो जायेंगे और सरकार का भार भी कम  होगा | ये भी देखने में आया है कि टीकाकरण केन्द्रों पर लोगों का हुजूम उमड़ने की वजह से भी अनेक लोग संक्रमित हो गये | कोरोना की दूसरी लहर जिस तरह से विकराल रूप धारण कर चुकी है उसे देखते हुए व्यापक पैमाने पर टीकाकरण  बेहद जरूरी हो गया है | अभी तक सरकार ने दो विकल्प दे  रखे थे | पहला सरकारी केंद्र में जाकर निःशुल्क और दूसरा निजी अस्पताल में उसकी निर्धारित कीमत 150 रु. के अलावा 100 रु. सेवा शुल्क देकर टीकाकरण करवा लिया जावे | आर्थिक  तौर पर सक्षम और भीड़भाड़ से बचने के इच्छुक लोगों ने तो दूसरा विकल्प चुना लेकिन अधिकतर लोगों ने निःशुल्क सरकारी  टीकाकरण सुविधा का लाभ उठाया | ये अभियान  शुरुवाती हिचक के बाद जोर पकड़ने ही लगा था कि संक्रमण का फैलाव तेज हो चला |  जिससे इसमें रूकावट तो आई ही लगे हाथ टीकों की आपूर्ति भी गड़बड़ा गई | ये बात  सही है कि अनेक राज्य ऐसे भी हैं जहां पर्याप्त टीके उपलब्ध होने के बाद भी लक्ष्य पूरा नहीं  किया जा सका क्योंकि  अशिक्षा के कारण बड़ी संख्या में लोग टीका लगवाने से बच रहे हैं | लेकिन आश्चर्य तब ज्यादा होता है जब पढ़े - लिखे वर्ग में भी कुछ लोगों के मन में टीके को लेकर आशंकाएं हैं | अब जबकि करोड़ों लोगों को टीका लग चुका है तब इसे लेकर फैलाये  जा रहे डर को निराधार मानकर उपेक्षित कर देना  चाहिए | जाहिर है खुले बाजार में आने वाले टीके अपेक्षाकृत महंगे  ही होंगे लेकिन समाज  का संपन्न वर्ग यदि  कुछ राशि खर्च कर भी ले तो उस पर बहुत  बड़ा बोझ नहीं पड़ेगा | और फिर  ऐसा करने से सरकार पर दबाव कम होने से आम जनता को जल्द टीका उपलब्ध हो सकेगा | वैसे भी अब 18 वर्ष से ऊपर के सभी व्यक्तियों को टीका  लगाये जाने के कारण टीकाकरण केन्द्रों पर युवा वर्ग की  जबर्दस्त भीड़ उमड़ेगी | इसका आकलन करते हुए ही सरकार ने निजी स्तर पर टीकों  की खरीद और विक्रय की सुविधा दे दी , जो देर सवेर तो होना ही था | लेकिन सरकार से हटकर अब टीकाकरण का दायित्व जनप्रतिनिधियों , समाजसेवी संस्थाओं ,धार्मिक और सामाजिक न्यासों सहित बड़े औद्योगिक घरानों को भी लेना चाहिए | हालाँकि  समूची  प्रक्रिया में  चिकित्सकीय देख - रेख सहित  अनेक तरह की सावधानियां रखना अनिवार्य होता है  किन्तु थोड़े से प्रबंधन से इस जरूरत को पूरा किया जा सकता है | बेहतर हो देश भर में बड़े पैमाने पर टीकाकरण शिविर लगाये जाएं  | ये बात पूरी तरह सही है कि मौजूदा टीका लम्बे समय तक कारगर रहेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है और हो सकता है इसके बाद कालान्तर में फिर से टीकाकरण करवाना पड़े किन्तु ये भी उतना ही सच है कि मौजूदा परिस्थितियों में ये टीके औसतन 75 फ़ीसदी से ज्यादा कारगर हैं | ऐसे में जरूरी  होगा कि अगले कुछ महीनों में देश की बड़ी आबादी को इस रक्षा कवच का संरक्षण मिल सके | ये भी अपेक्षित है कि आर्थिक दृष्टि से संपन्न वर्ग अपने कर्मचारियों के टीकाकरण में मदद कर्रे | विशेष रूप से घरेलू कर्मचारियों के लिए ऐसा किया जाना हम सबका कर्तव्य है | कोरोना चूँकि तेजी से फैलने वाली  संक्रामक बीमारी है इसलिए उससे अपनी सुरक्षा  के साथ ही जितना हो सके दूसरों के बचाव में सहभागिता भी मानवीय कर्तव्य है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 19 April 2021

वरना इनकी आत्माएं हमें माफ़ नहीं करेगी



 
ये समय न आलोचना का है और न ही बलि के बकरे तलाशने का | देश के जो हालात हैं उन्हें देखते हुए ये कहना गलत न होगा कि आजादी के बाद से आये तमाम संकटों में ये सबसे बड़ा और भयावह है | समूचा ज्ञान - विज्ञान और सुख  - सुविधाओं के अनगिनत संसाधन महत्वहीन हो चले हैं | जिन लोगों को अपनी सम्पन्नता के बल पर सब कुछ खरीदने का गुमान था वे भी असहाय  नजर आ रहे हैं | सत्ता के उच्च आसन पर विराजमान अनेक  महानुभाव महामारी की चपेट में आकर जान गँवा बैठे | देश की राजधानी से लेकर कस्बों तक के छोटे - बड़े अस्पताल कोरोना मरीजों से भरे पड़े हैं | जिंन  दवाइयों  से उपचार और जीवनरक्षा संभव है वे या तो उपलब्ध ही नहीं है  या फिर दोगुने - चौगुने दाम पर मिल रही हैं | अस्पतालों  में आक्सीजन की आपूर्ति बाधित हो रही है जिसकी वजह से  सैकड़ों मरीजों की जान जा चुकी है | अस्थायी अस्पताल जैसी व्यवस्थाएं भी की जा रही हैं | हालाँकि गत वर्ष भी कोरोना के कारण आपातकालीन इंतजाम किये गये थे लेकिन इस बार उसका हमला बहुत ही तेज और बड़ा होने से चिकित्सा जगत के हाथ पाँव फूल गये हैं | बावजूद इसके जंग जारी है और तमाम विसंगतियों के बावजूद भारत एक बार फिर इस संकट पर विजय हासिल करेगा ये विश्वास भी कायम है  | लेकिन मुद्दे की बात ये है कि इस दौरान मिले अच्छे - बुरे अनुभवों से कुछ सीखा भी जायेगा या रात गई बात गई वाली मानसिकता पर चलते हुए सब भुला दिया जाएगा | बीते सात दशक के दौरान भारत ने समय - समय पर  सुरक्षा , आर्थिक , खाद्यान्न और प्राकृतिक संकटों का सामना किया है | आतंकवाद भी हमारी धरती पर पैर जमाये हुए है | संवैधानिक और राजनीतिक स्तर पर पर भी अनेक अवसर आये जब देश मुसीबत  में फंसता नजर आया किन्तु  उन सबका सामना साहस के साथ करते हुए हम आगे बढ़ते गये | लेकिन मौजूदा संकट अपनी तरह का अलग ही है जिसने हर मोर्चे पर हमें घेर रखा है | ये कहना पूरी तरह सही होगा कि इसके चले जाने के बाद भी यदि हम भविष्य की चुनौतियों से निपटने के प्रति अपने आपको  तैयार नहीं करते तो फिर ये मान लेना होगा कि हम आग लगने पर कुआ खोदने की आदत से  मजबूर हैं | मौजूदा संकट में एक बात  तेजी से उभरकर सामने आई कि हमें  स्वास्थ्य सेवाओं का विकेंद्रीकरण करना होगा | आशय ये है कि महानगरों या अन्य बड़े  शहरों तक सीमित चिकित्सा सुविधाएँ यदि जिला स्तर पर उपलब्ध कराई जा सकें तो मरीजों को ज़रा - जरा सी बात पर अपने शहर से बाहर न भागना पड़े | उदाहरण के तौर पर जबलपुर जैसे संभागीय मुख्यालय तक से सामान्य हालातों में भी बड़ी संख्या में मरीज 300 किमी. दूर नागपुर जाते हैं | जिससे साबित हो जाता है कि स्थानीय चिकित्सा सुविधाएँ  अपर्याप्त हैं | यहाँ काफ़ी पुराना मेडिकल कॉलेज होने के साथ ही मेडीकल विवि भी खुल गया है | लेकिन उसके बाद भी मरीजों को नागपुर जैसे शहर ले जाने की बाध्यता सवाल तो खड़े करती ही है | ये तो महज एक उदाहरण है क्योंकि जबलपुर जैसे देश के सैकड़ों संभागीय मुख्यालयों की स्वास्थ्य सेवाएं चाहे वे सरकारी हो या निजी  , जनता का विश्वास हासिल करने में विफल रही हैं | कोरोना तो चलिए एक आकस्मिक और अप्रत्याशित  संकट है जिसकी चपेट से अमेरिका जैसा संपन्न और हर क्षेत्र में विकसित देश तक नहीं  बच सका किन्तु जानी - पहिचानी  बीमारियों के  भी समुचित इलाज की व्यवस्था आज जिला स्तर पर नहीं  है और ये स्थिति बीते  सात दशक की बाकी उपलब्धियों को महत्वहीन साबित कर देती है | जनकल्याण के लिए केंद्र और राज्य सरकारें लगातार नए - नए कार्यक्रम और नीतियाँ लागू करती रही हैं |  आयुष्मान योजना के अंतर्गत  तकरीबन 50 करोड़ साधनहीन  लोगों को   5 लाख  तक की निःशुल्क  चिकित्सा मोदी सरकार ने उपलब्ध करवाई है | अनेक राज्य सरकारें भी चिकित्सा के लिए लोगों की  मदद करती हैं | केन्द्रीय कर्मचारियों को सीजीएचएस जैसी सुविधा मिली हुई है | लेकिन कोरोना के दूसरे हमले ने उन सबकी निरर्थकता उजागर कर दी | देश की राजधानी दिल्ली  और  आर्थिक राजधानी मुम्बई हो या फिर भोपाल जैसी  प्रादेशिक राजधानी , सभी की चिकित्सा सुविधाएँ दम तोड़ती नजर आ रही हैं  | वर्तमान संकट जब भी खत्म हो तब देश भर में चिकित्सा सुविधाओं का जिला स्तर पर विकेंद्रीकरण किये जाने का समयबद्ध अभियान चलाया  जाना चाहिए | इसके लिए जरूरी संरचना को ध्यान में रखते हुए युद्धस्तर पर काम करना होगा | चिकित्सकों के साथ ही दवाएं , जरूरी उपकरण आदि की व्यवस्था भी की जानी चाहिए | निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को भी ये देखना  होगा कि वे अपने क्षेत्र को  चिकित्सा सुविधाओं के मद्देनजर सक्षम बनाएं जिससे छोटी - छोटी जरूरतों के लिए जनता को बड़े शहरों के चक्कर लगाने की मजबूरी से मुक्ति मिल सके | कोरोना संकट का सबसे बड़ा सबक यही होगा कि हमें सीमा की सुरक्षा और आर्थिक विकास  के साथ ही हर नागरिक को समय पर समुचित चिकित्सा सुविधा प्रदान करने का पुख्ता प्रबंध करना चाहिए | कोरोना नामक महामारी को प्रकृति का संकेत मानकर भविष्य में आने वाले ऐसे ही किसी भी संकट से निपटने के लिए काम शुरू करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए  | वरना इस दौरान अपनी  जान गंवाने वाले देशवासियों  की आत्मा हमें कभी माफ़ नहीं करेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी



Saturday 17 April 2021

प्रचार के घिसे पिटे तौर - तरीकों में सुधार और संशोधन जरूरी




कुछ वर्ष पहले हमारे देश से एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल जापान गया हुआ था | उद्देश्य था उस देश की संसदीय प्रणाली का अवलोकन करना | प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों  को जब ये बताया गया कि उस समय वहां  राष्ट्रीय चुनाव चल रहे थे तो वे आश्चर्यचकित रह गये क्योंकि उन्हें न कहीं कोई रैली या जुलूस दिखा न झंडे , बैनर और पोस्टर | जब कुछ सदस्यों ने पता किया तो उन्हें ये जानकर आश्चर्य हुआ कि विभिन्न पार्टियां और प्रत्याशी अपनी  प्रचार सामग्री डाक द्वारा मतदाताओं के घर पहुंचा देते हैं | इसके अलावा टेलीविजन के जरिये मतदाताओं को अपनी नीतियों और वायदों से अवगत करवाया जाता है | उन्हें ये सुनकर भी हैरत हुई कि चुनाव प्रचार करने के लिए घर - घर संपर्क करने का चलन भी नहीं है क्योंकि बिना समय लिए किसी के घर पहुंचना आपत्तिजनक  माना जाता है | उक्त प्रसंग का उल्लेख करने के पीछे उद्देश्य हमारे देश  की चुनाव प्रचार शैली में समयानुकूल सुधार और बदलाव को लेकर शुरू हुई चर्चा को आगे बढ़ाना है | पांच राज्यों की विधानसभा के चुनावों के बीच ही  कोरोना के दूसरे हमले से उत्पन्न हालातों में ये बात  पूरे  देश से उठ रही है कि ऐसे समय जब कोरोना से बचाव के लिए देश के बड़े हिस्से में लॉक डाउन का सहारा  लिया जा रहा है और आम जनता से कहा जा रहा है कि वह बिना किसी काम के घर से बाहर न निकले तब नेतागण न केवल खुले  आम घूम रहे हैं अपितु रैलियों और रोड शो में हजारों  का मजमा जमा करते हुए शारीरिक दूरी का मजाक बनवा रहे हैं | चार राज्यों के चुनाव तो खैर हो चुके हैं लेकिन बंगाल में आज का मतदान होने के बाद  तीन चरण चूँकि  अभी बाकी  हैं इसलिए प्रचार भी चल रहा है | कोरोना के तेजी से फैलने की वजह से चुनाव आयोग ने रात 7 से सुबह 10 बजे तक  रैलियों पर रोक लगाते  हुए मतदान के 72 घंटे पहले ही चुनावी  शोर - शराबा बंद करने का निर्देश जारी कर दिया |  देश भर में इस बात पर गुस्सा है कि आम जनता को मास्क पहिनने , बिना जरूरी  काम के घर से नहीं निकलने और दो गज की दूरी बनाये रखने की समझाइश देने वाली  नेता बिरादरी अपने ही उपदेशों के सर्वथा विरुद्ध आचरण कर रही है | ये मजाक भी सब दूर चल पड़ा कि कोरोना चुनाव वाले राज्यों में घुसने से डरता है | हालांकि इसके पहले बिहार के चुनाव जब हुए तब भी  कोरोना  की पहली लहर अपने चरमोत्कर्ष पर थी और उस समय भी नेताओं के रोड शो और रैलियों में कोरोना नियमों की धज्जियां उडाये जाने का मामला जोरशोर से उठा था  | लेकिन फिर भी चुनाव संपन्न हो ही गया और आश्चर्य इस बात का था कि जनता ने भी बिना डरे मतदान में बढ़ - चढ़कर हिस्सेदारी की | बंगाल के जिन चार चरणों में अब तक मत डाले गये उनमें भी औसतन 80 फीसदी मतदान होना ये साबित करता है कि मतदाताओं में  कोरोना को लेकर तनिक भी भय नहीं है | और इसकी वजह हमारे  राजनेताओं का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ही है जो अपने स्वार्थ के लिये  बजाय समझाने के जनता को उकसाते है | ऐसे में अब सुझाव आने लगे हैं कि हमारे देश में चुनाव प्रचार के प्रचलित तौर -तरीकों में समयानुकूल सुधार  और संशोधन हो | बड़ी रैलियाँ और   रोड शो जैसे  आयोजनों की बजाय ऐसे तरीके अपनाएँ जाने चाहिए जिनमें खर्च कम हो और जनता को असुविधा भी न हो | सूचना तकनीक के जरिये राजनीतिक दल प्रत्येक मतदाता तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं | उसके अलावा घर - घर संपर्क का परम्परागत तरीका भी प्रभावशाली होता है | चुनाव आयोग ने जिस   तरह से मतदाता पर्चियां घर - घर पहुँचाने की  व्यवस्था कर मतदान प्रतिशत बढ़ाने में योगदान दिया उसी तरह उसे सभी प्रत्याशियों की प्रचार सामग्री निर्धारित प्रारूप में मतदाताओं तक पहुंचाने की व्यवस्था करनी चाहिए | ब्रिटेन सहित अनेक देशों में चुनाव प्रचार सामग्री डाक से निःशुल्क भेजने की सुविधा भी है | यद्यपि हमारे देश की विशाल आबादी को देखते हुए विकसित देशों के तौर - तरीके जस के तस अपना लेना शायद संभव न हो सके लेकिन भारतीय  हालातों के अनुरूप चुनाव प्रचार को नया स्वरूप देना समय की मांग है , जो देशहित में भी है | ये बात सभी मानते हैं कि चुनाव आचार  संहिता को लागू करवाने में स्व. टी.एन शेषन की भूमिका अविस्मरणीय है जिन्होंने  प्रचलित नियम कानूनों का सहारा लेकर चुनाव सुधारों की दिशा में साहसिक कदम उठाये | उनके हटने के बाद भी चुनाव आयोग हर चुनाव में कुछ न कुछ सुधार करता आ रहा है लेकिन अब समय आ गया है जब चुनावों को भीड़तंत्र और मेला संस्कृति  से मुक्त करते हुए ऐसे उपाय किये जाएँ जो समाज के उस तबके को भी लोकतान्त्रिक  प्रक्रिया के प्रति आकर्षित कर सकें जो अपने अनुभव और पेशेवर दक्षता के बावजूद प्रचार की वर्तमान शैली के कारण चुनाव लड़ने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता | चिकित्सा जगत के साथ ही  वैज्ञानिक भी ये समझाने में जुटे हैं कि हमें कोरोना जैसी समस्या के साथ रहने की आदत डालनी होगी | ऐसे में चुनाव प्रक्रिया को तदनुसार बदलने की बात प्रासंगिक भी है और आवश्यक भी | आगामी 2 मई को पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ जायेंगे | उसके बाद बेहतर हो चुनाव आयोग सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस दिशा में पहल करे | आगामी वर्ष उप्र , उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव होंगे और उनके बाद गुजरात के भी | उसके पहले ऐसा कुछ किया जाना चाहिए जिससे लगे कि हमारा लोकतन्त्र वाकई परिपक्व हो रहा है | वरना जिस  तरह महामारी के दौर में हरिद्वार कुम्भ के आयोजन पर धर्म को मानने वाले श्रद्धालु ही उंगली उठा रहे हैं ठीक वही स्थिति चुनावों को लेकर भी हो जायेगी | जनतंत्र की रक्षा के लिए जन का सुरक्षित रहना प्राथमिक आवश्यकता है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 16 April 2021

सजा के अलावा इंसानियत के दुश्मनों का सामाजिक तिरस्कार भी होना चाहिये



ऐसे समय जब समूची मानवता पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं तब देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पैसे की हवस में डूबकर लोगों की मजबूरी का फायदा उठाने में लेश मात्र भी संकोच नहीं कर रहे | कुछ दिन पहले ही जबलपुर के एक दवा विक्रेता के कुछ कर्मचारी रेमडेसिविर नामक इंजेक्शन की कालाबाजारी करते हुए पकड़ लिए गए | हालाँकि इस अपराध में दुकान के मालिक को इस सफाई के आधार पर छोड़ दिया गया कि नौकरों की करतूत से उसका कोई सम्बन्ध नहीं  था | इसी तरह गत दिवस इंदौर का  एक चिकित्सक भी गिरफ्त में आया जो हिमाचल में नकली रेमडेसिविर बनाने का धंधा कर रहा था | आज ही जबलपुर में ही  दवा कम्पनी के एक  विक्रय प्रतिनिधि को उक्त इंजेक्शन निर्धारित से कई गुना ज्यादा दाम पर  बेचने के आरोप में पकड़े जाने का समाचार भी मिला  | नागपुर में भी गत दिवस एक चिकित्सक इसी तरह की गतिविधि में लिप्त पाए जाने पर पुलिस के  हत्थे चढ़ गया | इसके अलावा निजी क्षेत्र के अनेक  अस्पतालों से भी ऐसे ही  समाचार मिल रहे हैं | उनके द्वारा  कोरोना के मरीज को भर्ती करने से पहले ही भारी - भरकम राशि जमा करने का दबाव बनाया जाता है | जिन लोगों के पास नगदी रहित स्वास्थ्य बीमा है उन्हें  भी  अग्रिम भुगतान करने बाध्य किया जा रहा है | कुछ मामले तो ऐसे भी सुनने में आये जिनमें केंद्र सरकार के कर्मचारियों को मिलने वाली सीजीएचएस सुविधा  के पात्रों से भी नगद राशि वसूली गई | आक्सीजन की कालाबाजारी किये जाने  की जानकारी भी आ रही है | कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि ऐसे समय जब इंसानियत का फर्ज निभाने के लिए हर किसी को आगे आना चाहिये तब कुछ लोग मजबूरी का लाभ उठाकर आपदा में अवसर तलाशने के आह्वान का उलटा मतलब निकालने में लगे हुए हैं | ऐसे लोग हालाँकि हर मौके पर अपनी निम्नस्तरीय सोच का परिचय देने से नहीं  चूकते लेकिन अचरज तब होता है जब समाज इनके इस व्यवहार के लिए इन्हें आसानी से क्षमा कर  देता है | सवाल ये है कि ऐसे लोगों के कुकृत्यों के प्रति उपेक्षा का भाव आखिर कब तक चलेगा | मानवता पर आया ये विश्वव्यापी संकट एक तरह से हमारे चरित्र की परीक्षा भी है | हद दर्जे की लापरवाही का जो प्रदर्शन हमारे दिग्गज नेताओं से लेकर आम जनता तक ने किया उसकी वजह से ही कोरोना की दूसरी लहर कहर बरपाने पर आमादा हैं | जिस संक्रमण को दम तोड़ता मान लिया गया था वह दोगुनी ताकत से आ धमका है | बीते एक साल के अनुभवों के आधार पर होना तो ये चाहिए था कि पूरा समाज एकजुट होकर जिम्मेदारी से इस विपदा का सामना करता किन्तु ऐसे समय जब चारों तरफ से मृत्यु की पदचाप सुनाई दे रही है तब भी कुछ लोग इंसानियत को  त्यागकर सिर्फ और सिर्फ पैसा बटोरने में लगे हुए हैं | ऐसे लोगों को कानून तो जो सजा देगा वह अपनी जगह होगी ही किन्तु समाज को भी ऐसे लोगों को ये एहसास करवाना चाहिए कि इंसानों के बीच रहना है तो इंसानियत का पालन भी करना पड़ेगा | दशकों पहले की सामाजिक व्यवस्था की याद करें तो किसी  व्यक्ति द्वारा इंसानी  मर्यादाएं तोड़कर किये गये कदाचरण के लिए समाज की ओर से जो जो दंड दिया जाता था उसमें सामाजिक बहिष्कार सबसे प्रमुख  था |   दुर्भाग्य से आज के दौर में चूँकि नैतिकता और आदर्श केवल किताबों और प्रवचनों तक सीमित रह गये हैं इसलिए सामाजिक संरचना का तानाबाना भी धन की चकाचौंध से प्रभावित होने लगा है | यही वजह है कि अनुचित और अपराधिक तरीकों से धन -संपदा अर्जित करने वालों को भी सम्मान मिल जाता है | कोरोना काल में ज्यादातर   निजी अस्पतालों द्वारा जिस तरह से मानवीयता को दरकिनार रखते हुए पैसा बटोरने का अभियान चलाया गया उसकी निंदा तो सभी करते हैं लेकिन उन अस्पतालों के मालिक बने बैठे गैर चिकित्सकीय लोग अपनी सम्पन्नता के बल पर शासन , प्रशासन  और समाज में अपनी वजनदारी बरकारार रखे हुए हैं | यही वजह है कि गलत काम करने वाले बजाय  तिरस्कृत किये जाने के पुरस्कृत हो रहे हैं | जिन लोगों के अपराधिक कार्यों का उल्लेख प्रारम्भ में किया गया उन्हें यदि समाज  का भय होता तब  गलत काम करने में उनके पाँव ठिठकते भी , लेकिन उनको ये विश्वास है कि भले ही अदालत उन्हें दो - चार साल के लिए जेल भेज दे किन्तु बाहर  आने के बाद समाज  उन्हें पूर्ववत स्वीकार कर ही लेगा | उस दृष्टि से विकृत मानसिकता वाले जो भी लोग आपदा के इस दौर में इंसानियत के साथ हैवानियत से पेश आ रहे हैं समाज को उनका तिरस्कार करना चाहिए | वरना मानवीयता के दुश्मनों का हौसला और बुलंद होता जायेगा | 
- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 15 April 2021

चिकित्सा क्रांति सबसे बड़ी राष्ट्रीय आवश्यकता


 
आग लगने पर कुआ खोदने वाली कहावत तो सभी ने सुनी होगी  लेकिन कुआ होने के बाद घर में रखी बाल्टी और उसमें बांधी जाने वाली रस्सी समय पर न मिले तो उसका लाभ ही क्या ? कोरोना के पहले हमले के समय देश भर में वेंटीलेटर की किल्लत महसूस किये जाने के बाद केंद्र और राज्य सरकारों ने बड़े पैमाने पर उनकी खरीद की | विदेशों  से आयात भी आसानी से संभव नहीं था | ऐसे में भारत में  उनका उत्पादन  प्राथमिकता के आधार पर शुरू  हुआ  और ये दावा भी सुनाई देने लगा कि  इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल हो गई  है | कुछ समय बाद कोरोना के  ढलान पर आते ही  वेंटीलेटर की मारामारी खत्म सी हो गई | लेकिन बीते दो सप्ताह में ही  लाखों मरीजों को वेंटीलेटर की आवश्यकता हुई तो पता चला कि पिछले साल आई मुसीबत से थोड़ी  सी राहत क्या मिली गाड़ी फिर पुराने ढर्रे पर लौट गयी | उल्लेखनीय है गत वर्ष देश में लागभग 4 लाख  वेंटीलेटर बनाये गये जबकि पहले ये संख्या 4 हजार से भी  कम थी | केंद्र सरकार ने भी 50 हजार वेंटीलेटर  का ऑर्डर दिया | लेकिन जो जानकारी निकलकर आई है उसके अनुसार उत्पादन होने के बाद भी  बहुत  बड़ी संख्या में वे अभी कम्पनी के पास ही पड़े हैं | उससे भी बड़ी बात ये हुई कि पंजाब सहित अनेक राज्यों को मिले वेंटीलेटर अभी तक डिब्बों में ही   बंद हैं | इसके पीछे एक कारण उनको संचालित करने वाले प्रशिक्षित कर्मियों की  कमी है | सवाल ये है कि जब ये बात प्रामाणिक तौर  पर  सबको पता थी कि कोरोना खत्म नहीं हुआ है और हमें इसके  साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए तब वेंटीलेटर की पर्याप्त संख्या के साथ ही उनको संचालित करने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षित क्यों नहीं किया गया ?  सरकारी अस्पतालों में गत वर्ष आपूर्ति किये गये वेंटीलेटरों की पैकिंग तक नहीं खोला जाना अपराधिक  उदासीनता नहीं तो और क्या है ? ये माना कि भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में इस तरह की महामारी से निपटने के लिए पर्याप्त आपदा प्रबंधन नहीं था लेकिन गत वर्ष मिले अनुभवों से सबक लेकर जरुरी व्यवस्थाएं करने की बजाय निश्चिंतता की चादर ओढकर सो जाने  की परम्परा का जो निर्वहन किया गया वह बेहद  महंगा पड़ा  | सवाल केवल वेंटीलेटर का नहीं है | कोरोना मरीजों के इलाज में लगने वाली आक्सीजन की कमी गत वर्ष भी देखने मिली थी किन्तु बीते एक वर्ष में न तो सरकारी और न ही निजी क्षेत्र के चिकित्सा प्रबंधन ने इस बारे में कोई कार्ययोजना बनाई जिससे  आपातकालीन व्यवस्था हो सके | इससे बड़ी पीड़ादायक बात क्या हो सकती है कि किसी मरीज के परिजन को कहा जाए कि वह आक्सीजन का इन्तजाम खुद करे | कल को ये भी सुनने मिल सकता है कि अपना वेंटीलेटर भी लेकर आओ | कोरोना के पहले हमले के समय प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा आपदा में अवसर तलाशने और आत्मनिर्भर भारत का जो मन्त्र दिया था उस दिशा में  बिलकुल काम नहीं हुआ ये कहना तो गलत होगा लेकिन  जैसे ही कोरोना का प्रकोप कम होने लगा हमारा समूचा तन्त्र और उसे संचालित करने वाले लापरवाह हो गये | सरकारी के साथ ही निजी क्षेत्र भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है | बीते एक साल में निजी अस्पतालों  को जो छप्पर फाड़ कमाई हुई है यदि उसका उपयोग वे अपनी क्षमता और सुविधाओं में वृद्धि के लिए करते तब स्थिति बेहतर होती | ये बात भी देखने लायक है कि गत वर्ष जहां निजी क्षेत्र के गिने - चुने अस्पाताल ही कोरोना मरीजों का इलाज कर रहे थे वहीं इस वर्ष अधिकतर में कोरोना मरीजों को धड़ल्ले से भर्ती किया जा रहा है | मरीजों की  मजबूरी ये है कि उनके सामने विकल्प ही नहीं होता जिसकी वजह से वे सुविधाहीन अस्पतालों में भर्ती होकर दुर्दशा झेलने बाध्य हैं | कहने का आशय ये कि बीते एक साल में कोरोना से लड़ने के मामले में टीके का घरेलू उत्पादन जहां हमारी बड़ी कामयाबी रही परन्तु  दूसरी तरफ इतनी बड़ी  आबादी के इलाज के लिए समुचित व्यवस्था और संसाधन जुटाने में हम विफल रहे | प्रबन्धन का मूल सिद्धांत है गलतियों से सीखना लेकिन इस मन्त्र की उपेक्षा करना हमारा स्वभाव बन गया है | और तो और गलतियों को दोहराने में हम जरा  भी  हिचकते या शर्माते नहीं हैं | 1962 के चीनी हमले के बाद से भारत ने सीमा पर सुरक्षा के लिए जरूरी ढांचा खड़ा करने की तरफ ध्यान दिया | उसके अच्छे परिणाम भी आये | कोरोना संकट के मद्देनजर   देश में चिकित्सा क्रांति की महती आवशयकता महसूस की जाने लगी है | यदि आपदा में अवसर तलाशने के प्रति हम वाकई  ईमानदार है तो फिर बिना देर लगाये इस दिशा में काम शुरू करना होगा | परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने दावा किया है कि तीन - चार साल में भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग यूरोप की टक्कर के बन जायेंगे | ऐसी ही योजना चिकित्सा को लेकर भी बननी चाहिए | भारत में चिकित्सा पर्यटन काफी तेजी से विकसित होने  लगा था | अपेक्षाकृत  सस्ता और अच्छा इलाज यहाँ होने से विदेशी काफी बड़ी संख्या में आने लगे थे किन्तु कोरोना के बाद इस बात का खुलासा हो गया कि हम अपनी आबादी तक को समुचित चिकित्सा नहीं दे पा रहे | कोरोना ने ये सिखा दिया है कि हमारी आर्थिक और  सामरिक मजबूती तब तक किसी काम की नहीं है जब तक हम एक स्वस्थ देश के रूप में नहीं खड़े हो जाते |

 

Wednesday 14 April 2021

सरकार कितना भी छिपाए किन्तु अस्पताल और श्मशान सच उगल देते हैं



कोरोना के कहर ने मौतों का आंकड़ा भी बढ़ा दिया है | गत वर्ष की तुलना में चूँकि संक्रमण अधिक घातक है इसलिए मरीज को  संभलने का समय नहीं मिलता | जाँच रिपोर्ट आने में होने वाले विलम्ब से भी असमंजस की स्थिति बनी रहती है जिसकी वजह से देश भर में हजारों कोरोना संक्रमितों को इलाज ही नहीं मिल पाया और वे मौत के गाल में समा गये |  गाँव , कस्बों या छोटे जिलों को छोड़ भी दें लेकिन मुम्बई - दिल्ली जैसे  महानगरों तक में चिकित्सा प्रबंधन पूरी तरह गड़बड़ा गया है | ये कहना गलत नहीं होगा कि कोरोना के दूसरे हमले की भयावहता का पूर्वानुमान लगाने में सरकार और सम्बन्धित लोग चूक गये | जैसे ही टीका बाजार में आया तैसे ही ये मानकर चला जाने लगा कि कोरोना पर विजय हासिल कर ली गई लेकिन इस दौरान इस तथ्य की अनदेखी की गई कि संक्रामक बीमारी का विषाणु सदैव गुरिल्ला शैली में हमला करते हुए बड़ी से बड़ी  फौज को भी चकमा दे जाता है | लेकिन इस सबसे अलग देश भर में इस बात की चर्चा है कि सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की संक्रमण और मौतों की संख्या को छिपा रही है |  ऐसा क्यों किया जाता है इसके बारे में तरह - तरह की चर्चाएँ हैं | अव्वल तो कहा जा सकता है कि  शासन और प्रशासन अपनी नाकामी छुपाने की गरज से ऐसा करते हैं और दूसरी वजह ये कि मौत के बढ़ते आंकड़े से जनता भयभीत होकर कहीं  आपा न खो बैठे | नेता और नौकरशाहों की  सोच वैसे भी कुछ अलग हटकर बन जाती है जिसके वशीभूत वे अपनी सफलता को तो बढ़ा - चढ़ाकर प्रचारित करते हैं लेकिन जब बात विफल होने की  होती है तब तरह - तरह के प्रपंच रचकर सच्चाई पर पर्दा डालने का दुष्चक्र रचा जाता है | कोरोना के पहले भी ऐसा होता रहा है | लेकिन इस बीमारी के बारे में कुछ भी छिपाना इसके विरुद्ध हो रही लड़ाई को कमजोर करने का कारण बन रहा है | मसलन पिछली लहर की समाप्ति का दावा  जिस जोरशोर से किया गया उसने आम जनता के मन में निश्चिंतता का भाव भर दिया | यदि उस समय से ही खतरे की घंटी बजाई जाती तो हो सकता है मौजूदा स्थिति जन्म ही न लेती | सूचना क्रांति के इस दौर में किसी तथ्य अथवा  जानकारी का छिपाना संभव नहीं  रह गया है | और फिर ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि  सरकार द्वारा सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश किये जाने से सोशल मीडिया सहित अन्य माध्यमों पर प्रसारित होने वाली अनधिकृत और अतिरेक से भरी  खबरों पर विश्वास करने आम जनता बाध्य हो जाती है | बेहतर  हो आंकड़ों की ये बाजीगरी बंद कर वास्तविकता से जनसाधारण को अवगत कराया जावे | रही बात संक्रमण  और मौतों की बढ़ती जा रही संख्या से भय का माहौल बनने की तो नेता - नौकरशाह गठजोड़ को ये  जान लेना चाहिए कि कोरोना संबंधी कोई  भी जानकारी छिपाने या उसमें कांट - छाँट किये जाने से ज्यादा नुकसान हो रहा है | सरकार की विश्वसनीयता इसी में है कि वह पारदर्शिता को पूरी तरह अपनाये | और फिर कोरोना के मामले और मौतें छिपाने से किसी भी  तरह का लाभ होता हो , ऐसा भी नहीं है | तत्संबंधी किसी भी जानकारी को जस का तस सार्वजनिक करने से आम जनता के मन में भी खतरे को गम्भीरता से लेने का भाव पैदा होगा | सरकार और स्थानीय प्रशासन सहित सरकारी अस्पतालों का अमला इस विषम परिस्थिति में जो कर रहा है उसके लिए उनकी तारीफ़ की जानी चाहिए क्योंकि उनके भी अपने परिवार हैं | अनेक स्वास्थ्यकर्मी यहाँ तक कि अनुभवी चिकित्सक तक इस दौरान संक्रमित होकर चल बसे | ये देखते हुए जरूरी है कि नए संक्रमण के साथ  ही कोरोना से होने वाली मौतों की वास्तविक जानकारी दी जावे | आंकड़ों में  हेराफेरी करने के बाद भी शासन और प्रशासन हालात को छिपाने में नाकामयाब साबित हुए | उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि अस्पतालों में बिस्तरों की कमी के अलावा  श्मशान भूमि और कब्रिस्तान से आ रहे आंकड़ों से सच्चाई सामने आ ही रही है तो फिर उस पर पर्दा डालने का औचित्य ही क्या ? 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 13 April 2021

अब भी नहीं माने तो अगली बारी कर्फ्यू की है



कोरोना का दूसरा चरण कितना खतरनाक है ये किसी को बताने की  जरूरत नहीं है | संक्रमण  के राष्ट्रीय आंकड़ों के साथ ही अब तो स्थानीय स्तर पर सामने आ रही संख्या भी  भयग्रस्त करने के लिये पर्याप्त है | रात्रिकालीन कर्फ्यू के बाद अब  देश के अनेक शहरों में तो लॉक डाउन  लग  चुका है और जैसे  हालात हैं उनको देखते हुए बड़ी बात नहीं गत वर्ष की तरह से ही लम्बी देशबंदी करनी पड़ जावे | देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई  सहित अनेक बड़े शहरों से प्रवासी श्रमिकों  के लौटने का सिलसिला शुरू हो चुका है | हालाँकि केंद्र  और राज्यों की सरकारें उद्योग - व्यवसाय को बंद करने से बच रही हैं लेकिन  संक्रमण पर लगाम नहीं लग सकी तो बड़ी बात नहीं आगामी कुछ महीने तक  पूरे देश में लॉक डाउन लगाना पड़े | किसी व्यक्ति द्वारा  सोशल मीडिया पर प्रसारित ये टिप्पणी काफी अर्थपूर्ण है कि अभी तो अस्पतालों में बिस्तर कम पड़े हैं लेकिन यही हाल रहा तो श्मसान और कब्रिस्तान में भी जगह कम पड़ जायेगी | बात है भी सही क्योंकि जान है तो जहान है से शुरू होकर बात जब जान भी और जहान भी तक आ पहुंची  तब लॉक डाउन को धीरे धीरे इस विश्वास के साथ शिथिल किया गया था कि कोरोना से बचाव के प्रति आम जनता में काफी जागरूकता आ गई है | लेकिन ये कहना कहीं से भी गलत नहीं है कि ज्योंही लॉक डाउन हटा त्योंही ऐसा लगने लगा मानो कुछ हुआ ही नहीं था | सरकार के साथ जिम्मेदार तबके ने हमेशा ये अपील की कि मास्क और शारीरिक दूरी जैसी सावधानियां लम्बे समय तक हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा बनकर रहेंगी | संक्रमण के पूरी तरह से खत्म नहीं होने की बात भी किसी से छिपी नहीं थी | लेकिन ज़माने भर के प्रचार और समझाइश के बाद भी आम जनता ने अव्वल दर्जे की लापरवाही दिखाई जिसके कारण  कोरोना को दोबारा  पैर  पसारने की जगह और छूट मिल गई | गत वर्ष तो इस समय तक वह सामान्य गति से बढ़ रहा था और चरमोत्कर्ष तक पहुंचने में उसे छह महीने लग गये थे किन्तु इस वर्ष  छह सपताह भी नहीं हुए और देश भर में डेढ़ लाख से भी ज्यादा संक्रमित रोज निकलने की स्थिति आ गयी , जो बड़ी चिंता का कारण है | हालाँकि कुछ चिकित्सा विशेषज्ञ मान रहे हैं कि जितनी तेजी से संक्रमण फैला उससे ये भी लगता है कि वह जल्दी  ही ढलान पर भी आ सकता है किन्तु इसके लिए भी मई के अंतिम सप्ताह तक प्रतीक्षा करने कहा जा रहा है | और वर्तमान स्थिति को देखते हुए तब तक प्रतिदिन ढाई लाख से भी ज्यादा नए मरीज निकलने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता | ऐसे में ये अनिवार्य हो गया है कि कोरोना अनुशासन का कड़ाई से पालन किया जावे | जिन - जिन स्थानों पर लॉक डाउन लगाया गया है वहां दैनिक उपयोग की चीजें खरीदने के लिए दिए जाने वाले समय में जिस तरह की अफरातफरी देखने मिल रही है उसे देखकर ये लगता है कि लोग अपनी जान के प्रति पूरी तरह से निष्फिक्र  हैं | वास्तविकता ये है  कि चिकित्सा प्रबंध पूरी तरह से पंगु हो चले हैं और अस्पतालों में पैर रखने की जगह तक नहीं है | अचानक आई इस विपदा के कारण ऑक्सीजन और जीवनरक्षक इंजेक्शन की आपूर्ति भी फ़िलहाल गड़बड़ा गई है | ऐसी स्थिति में जनता को ये सोचना चाहिए कि जो भी पाबंदियां लगाई  जा रही हैं उनका उद्देश्य उसी की प्राण रक्षा करना है | लॉक  डाउन के दौरान दी जाने वाली छूट का उपयोग अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति के लिए ही करें तभी  वह सार्थक है | दंगे फसाद के समय लगाए जाने वाले कर्फ्यू के दौरान जब इस तरह की ढील दी जाती है तब भी बाजारों में हुजूम उमड़ता है लेकिन कोरोना काल में भीड़ का हिस्सा  बनना संक्रमण को अपने घर आने का न्यौता देना है | जैसे समाचार आ रहे हैं वे चिंता पैदा करने वाले हैं | ये कहना गलत न होगा कि यदि जनता ने लॉक डाउन के दौरान मिलने वाली  छूट को स्वछंदता का लायसेंस समझ लिया तब फिर  बात उससे आगे बढ़कर कर्फ्यू तक जा पहुंचेगी और वह स्थिति ज्यादा असुविधाजनक होगी | इस समय अनुशासन सबसे  जरूरी चीज है | हर व्यक्ति को अपनी और अपनों की  जान बचाने के लिए जिम्मेदार बनना पड़ेगा | एक संक्रमित व्यक्ति अपने पूरे परिवार को ही नहीं बल्कि  सम्पर्क में आने वाले न जाने कितने लोगों की जान खतरे में डाल सकता है | जिन लोगों ने टीका लगवा लिया  वे निःसंदेह दायित्वबोध के प्रति सजग है लेकिन उनसे भी अपेक्षा है कि वे निडर दिखने  का दुस्साहस न करें | आने वाले कुछ सप्ताह बेहद महत्वपूर्ण हैं जिनमें हमारा आचरण और अनुशासन ही हमारी रक्षा करेगा | कोरोना की दूसरी लहर अभी कितनी ऊंची और जायेगी ये तो बड़े से बड़े वैज्ञानिक और ज्योतिषी तक नहीं बता पा रहे | लेकिन सावधान रहकर उसके प्रकोप से बचा जा सकता है ये सर्वविदित है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 12 April 2021

जो हमारे हाथ में है उतना तो कम से कम करें



गत वर्ष जब इन्हीं  दिनों कोरोना अपने शुरुवाती दौर में था तब देश में जांच की समुचित व्यवस्था नहीं होने से मरीजों के आंकड़े भी धीमी गति से बढ़ रहे थे | धीरे - धीरे निजी क्षेत्र को भी जांच का जिम्मा सौंप दिया गया | इसी तरह इलाज हेतु भी अस्पताल गिने चुने होने से परेशानी हुई | लेकिन समय बीतने के साथ ही निजी अस्पतालों में भी कोरोना का इलाज शुरू हो गया | और फिर ऐसा लगने लगा कि उस  पर हमने काबू पा लिया है | नए संक्रमण घटते - घटते दहाई के भीतर सिमटने लगे | देश में बने टीके के कारण आम जनता का आत्मविश्वास भी बढ़ा | लेकिन उसके अति आत्मविश्वास में बदल जाने से लौटती  हुई मुसीबत के कदम वापिस घूम पड़े और जब तक हम कुछ समझ और संभल पाते उसने हमें चारों तरफ से घेर लिया | एक तरफ तो टीकाकरण चल रहा है दूसरी  तरफ संक्रमण दोगुनी और चौगुनी ताकत से हमला करने पर आमादा है | ज़ाहिर है इसकी आशंका तो थी लेकिन जिस तरह कोरोना के पहले चरण का  भारत ने सामना किया उसे देखते हुए सभी को ये भरोसा था कि उसके पलटवार को आसानी से झेल लिया जावेगा किन्तु ये आशावाद खोखला साबित हो गया | बीते कुछ दिनों से ऐसा लगने लगा है कि स्थिति नियन्त्रण से बाहर होने जा रही है | चिकित्सा को लेकर किये जा रहे तमाम इंतजाम दम तोड़ने लगे हैं | जीवन रक्षक इंजेक्शन और ऑक्सीजन की कमी ने  लोगों में घबराहट पैदा कर दी है | ये आरोप भी खुले आम लग रहे हैं कि शासन - प्रशासन नए संक्रमण के साथ ही मरीजों और मौतों की संख्या छिपा रहे हैं  | अस्पतालों में बिस्तर कम पड़ने से लाखों लोगों को मजबूरन घरों में रहकर इलाज करने बाध्य किया जा रहा है |  जब तक किसी को वेंटीलेटर और आक्सीजन की जरूरत न हो तब तक तो घर पर इलाज संभव भी है किन्तु उनकी आवश्यकता होते ही अस्पताल में भर्ती होना अनिवार्य बन जाता है | ये दुखद है कि सैकड़ों मरीज अस्पताल के बाहर ही जान गँवा बैठे क्योंकि वहां बिस्तर उपलब्ध नहीं थे | ऑक्सीजन के अलावा गंभीर मरीजों को लगने वाले इंजेक्शन की आपूर्ति भी गड़बड़ा गई है | कुल मिलाकर स्थिति चिंताजनक है और कोई भी दावे के साथ ये बता पाने में असमर्थ है कि हालत सामान्य होने में कितना समय लगेगा | ये बात तो अच्छी है कि बीमारी के समानांतर टीकाकरण भी चल रहा है और लोगों में उसके प्रति व्याप्त प्रारंभिक हिचक भी खत्म हो गई है | लेकिन इस सबसे अलग  बात है  हमारी अपनी सोच | क्योंकि कोरोना का जो नया  रूप आया है उसके फैलने के पीछे हमारी अपनी लापरवाही बड़ी वजह  है | ये कहना कहीं से भी  गलत न होगा कि संक्रमण की  पहली लहर की वापिसी का एहसास होते ही जिस तरह की लापरवाही देखने मिली उसका ये परिणाम होना ही  था | बीते कुछ दिनों से जो आंकड़े आ रहे हैं उनकी वजह से भय का माहौल तो है लेकिन अब भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो स्थिति की  गम्भीरता को समझने से दूर भाग रहे हैं | चिकित्सा विज्ञान भी  कोरोना के इस नए रूप को  लेकर भ्रमित है | संक्रमण की तीव्रता मरीज और चिकित्सक दोनों को सम्भलने का अवसर नहीं देती | जो टीका लगाया जा रहा है वह भी कोविड - 19 पर तो कारगर था किन्तु उसके नए रूप पर उसका कितना असर होगा इस पर विमर्श हो रहा है | लेकिन एक बात जो वैश्विक स्तर पर स्वीकार कर ली गयी है वह है बचाव के परम्परागत तरीकों की सफलता | पूरी दुनिया के चिकित्सा विशेषज्ञ एक स्वर से कह रहे हैं कि मास्क और सैनीटाईजर का उपयोग , शारीरिक दूरी , भीड़भाड़ में जाने से परहेज और हाथ धोते रहने जैसे उपाय कोरोना और उस जैसे अन्य संक्रमणों से 90 फीसदी बचाव करने में सक्षम है | लेकिन देश में कहीं भी चले जाएँ बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनके लिए उक्त सभी उपाय फालतू की चीजें हैं | कोरोना का दूसरा हमला यदि शुरुवात में ही तेज हो गया तो उसके पीछे ऐसे ही लोग हैं जिनको न अपनी चिंता है और न  अपने परिवार की | मौजूदा हालातों में सरकार और चिकित्सा जगत जो कर रहे हैं उनमें ढेर सारी खामियां हैं जिनकी आलोचना करने बैठें तो समय कम पड़ जाएगा | लेकिन ऐसे समय में जनता का अनुशासित होना सबसे ज्यादा  जरूरी  है | जिन देशों के लोगों  ने कोरोना से जुड़े अनुशासन का पालन किया वहां हालात काबू में बने रहे | दूसरी ओर अनेक विकसित देशों में लोगों को अपने यहाँ की चिकित्सा सुविधा पर बड़ा घमंड था | इसलिए वे  बेहद लापरवाह रहे जिसकी वजह से वहां मौत का तांडव हुआ | उल्लेखनीय है उनमें से अनेक  देशों की आबादी भारत के कुछ प्रदेशों से भी कम है | उस दृष्टि से हमारे लिए ये समय बहुत ही  नाजुक है | संक्रमण की तीव्रता पहले से ज्यादा बताई जा रही है , उसका सटीक इलाज भी विचाराधीन है , वर्तमान में लग रहे टीके की प्रभावशीलता पर भी वैज्ञानिक  बहस जारी है | ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि हर व्यक्ति इस विषम परिस्थिति में  बजाय भयभीत होने या व्यवस्था को कोसते रहने के अपनी प्राण रक्षा के लिए जो वह खुद कर  सकता है , उतना तो करे ही | याद रहे किसी की मौत सरकार के लिए महज आँकड़ा है | यदि आप उस आँकड़े में शामिल नहीं होना चाहते तो सामान्य तौर पर सुझाए गए उपायों को अपनाएँ | लॉक डाउन लगे या न लगे लेकिन ये मानकर चलना चाहिए कि कोरोना नामक मुसीबत से छुटकारा पाने में अभी समय लगेगा और तब तक छोटी से भी लापरवाही बड़े नुकसान का कारण बन सकती है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 10 April 2021

दलबदलू से वसूला जाए उपचुनाव का खर्च



भारत में दलबदल कब शुरू हुआ ये शोध का विषय है | लेकिन सत्तर के दशक में यह खुलकर सामने आने लगा | विधायकों के पाला बदलने से अनेक राज्य सरकारें गिरीं | हरियाणा में आयाराम - गयाराम जैसे वाकये हुए जिनमें  सुबह पार्टी छोड़ने  और शाम को वापिस लौट आने जैसी नौटंकियाँ देखने मिलीं | भजनलाल नामक मुख्यमंत्री ने तो पूरी सरकार सहित दलबदल कर डाला | 1985 में संसद ने दलबदल विरोधी कानून पारित किया  जिसके अंतर्गत पार्टी बदलने पर विधायक और सांसद की सदस्यता समाप्त हो जाती है | सदन में पार्टी व्हिप का उल्लंघन भी अयोग्यता का आधार बन गया | लेकिन एक तिहाई विधायक या सांसद यदि सामूहिक रूप से दलबदल करते हैं तो उसे पार्टी में विभाजन मानकर सदस्यता बरकरार रखे जाने का प्रावधान भी उक्त्त कानून में रखा गया | हालाँकि इसके बावजूद भी नये तरीके निकाले जाते रहे | वैसे  दलबदल  सैद्धांतिक अथवा नीतिगत मतभिन्नता के कारण हो तो उसका औचित्य समझा जा सकता है |  अनेक ऐसे उदहारण हैं जहाँ सांसदों और विधायकों ने अपनी पार्टी से मतभेदों के चलते सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया | कुछ को सदन के  अध्यक्ष द्वारा  अयोग्य भी ठहराया गया | थोक में दिए त्यागपत्र स्वीकार करने के  मामलों में अध्यक्ष द्वारा सत्तारूढ़ दल के लाभ  के मद्देनजर  फैसला करने या निर्णय को लंबित रखे  रहने के भी तमाम मामले हैं | बीते कुछ सालों से  छोटे - छोटे  राज्यों में दलबदल का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है | सभी पार्टियां एक - दूसरे पर आरोप लगाया करती हैं किन्तु सबका आचरण  कमोबेश है एक जैसा  | जैसे - जैसे राजनीति में धन का जोर बढ़ा  वैसे - वैसे दलबदल भी पांच सितारा संस्कृति से प्रभावित होने लगा | जो पार्टी दलबदल करवाती है वह विधायकों को सम्बन्धित राज्य की बजाय ऐसे  किसी राज्य में ले जाती है जहां या तो उसकी अपनी सत्ता हो या फिर अनुकूल सरकार | दल बदलने वालों को किसी सितारा होटल या रिसार्ट रूपी ऐशगाह में ठहराया जाता है | दूसरी तरफ  सत्ता और विपक्ष में बैठी पार्टी अपने विधायकों को पाला बदलने से रोकने के लिए भी ये तरीका अपनाती  हैं | पहले - पहले ये अटपटा लगता था किन्तु बीते  कुछ वर्षों से राजनीतिक पर्यटन या रिसार्ट राजनीति की बयार काफी तेजी से बहने लगी है | गत दिवस इसका नया रूप सामने आया जब खबर मिली कि कांग्रेस ने असम में अपने गठबंधन भागीदार  एआईयूडीएफ की टिकिट पर विधानसभा चुनाव लड़े डेढ़ दर्जन उम्मीदवारों को जयपुर भेजने का निर्णय किया  | इसके पीछे ये डर है कि चुनाव जीतकर वे दूसरे खेमे में जा सकते हैं   | इसके बाद ये जानकारी भी मिल रही है कि सम्भवतः कांग्रेस  अपने उम्मीदवारों को भी राजस्थान भेजने वाली है ताकि जीतने के बाद वे  धोखा न दे सकें  | रणनीति के लिहाज से ये स्वाभाविक ही है | लेकिन ये इस बात को भी तो प्रमाणित करता है कि राजनीतिक दलों का अपने उम्मीदवारों  पर किस हद तक अविश्वास  है | चुनाव जीतने के बाद विधायकों को एक जगह बटोरकर रखना तो फिर भी समझ में आता है लेकिन  नतीजे का इंतजार किये बिना ही उन्हें इस तरह कैद में रखने की कोशिश  लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त है | हो सकता है आने वाले समय में सभी पार्टियां इस तरीके को अपनाने लगें | बीते कुछ समय से चुने हुए विधायकों को सामूहिक त्यागपत्र दिलवाकर उपचुनाव करवाने की तरकीब काम में लाई जा रही है | इसकी वजह से सरकार पर अतिरिक्त आर्थिक  बोझ पड़ने के साथ ही  राजनीतिक अस्थिरता और  प्रशासनिक निष्क्रियता भी देखने मिलती है | मप्र की दमोह  विधानसभा सीट के उपचुनाव के लिए आगामी सप्ताह मतदान होना है | 2018 में जीता कांग्रेस विधायक भाजपा में आ गया और अब भाजपा की टिकिट पर दोबारा जनादेश मांग रहा है |  ऐसे मामलों में ये व्यवस्था की जानी चाहिए कि चुना हुआ जनप्रतिनिधि  कार्यकाल  पूरा करने के पहले दलबदल करे या सदस्यता छोड़े तो उपचुनाव पर होने वाले सरकारी खर्च की भरपाई या तो वह करे या फिर उसे अपनी टिकिट पर उपचुनाव लड़वाने वाली पार्टी | दो जगह से चुनाव जीतने के बाद एक सीट खाली करने वाले से भी उपचुनाव का  खर्च वसूलने का नियम समय की मांग है | वैसे तो लोकतंत्र  स्वस्थ परम्पराओं और नैतिकता की बुनियाद पर टिका होता है लेकिन जब उनकी धज्जियां उड़ाई जाने लगें तब कानून नामक शिकंजा कसना जरूरी हो जाता है | असम से आई खबर को सामान्य मानकर हवा में उड़ा देना ठीक नहीं होगा | यदि राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों की निष्ठा और वफादारी पर इस हद तक अविश्वास है तो उन्हें टिकिट देने की समूची प्रक्रिया ही दोषपूर्ण कही जायेगी | मूल्यों की राजनीति करने वाले तो न जाने कब के  चले गए | लेकिन उनके उत्तराधिकारी जिस बेहयाई से अपना  मूल्य लगाने लगे  हैं उसे देखकर उनकी आत्मा भी रोती होगी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 9 April 2021

जब मध्यस्थ पहुंच सकते हैं तो सुरक्षा बल क्यों नहीं



सीआरपीएफ (केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल) के कोबरा कमांडों राकेश्वर सिंह के नक्सली कब्जे से सुरक्षित लौटने से सभी ने राहत की साँस ली | पिछले दिनों बस्तर के बीजापुर में हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बल के 22 जवान मारे गये थे | उसी दौरान घायल अवस्था में  राकेश्वर नक्सलियों के कब्जे में आ गये | उन्हें छुड़ाने के प्रयास शुरू हुए तो नक्सलियों ने कुछ मध्यस्थों के जरिये बात करने कहा | इस पर  एक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ पत्रकारों की कोशिशों के बाद कमांडो  रिहा कर दिया गया | लेकिन जैसी  जानकारी मिली है उसके बदले  नक्सलियों से जुड़े होने के कारण गिरफ्तार किये गये  एक ग्रामीण को वापिस करना पड़ा | चूँकि  सीआरपीएफ का एक कमांडो सुरक्षित आ गया इसलिए इसे फायदे का सौदा कहना गलत न होगा | लेकिन एक बार फिर ये साबित हो गया  कि नक्सलियों की  एक समानांतर सरकार चलती है | उनके प्रभावक्षेत्र में  रहने वाले ग्रामीण आदिवासी ही नहीं अपितु व्यापारी , सरकारी  कर्मचारी - अधिकारी सहित राजनीतिक लोग भी उन्हीं की दयादृष्टि पर निर्भर रहते हैं | संदर्भित मामले  में जैसे ही राकेश्वर के बंधक होने  की जानकारी आई त्योंही उक्त  गांधीवादी कार्यकर्ता को उनसे संपर्क  करने कहा गया |  बाद में कुछ स्थानीय पत्रकार जोड़े गए जिनके जरिये कमांडों और एक ग्रामीण का आदान - प्रदान हो सका | जान बची तो लाखों पाये की तर्ज पर राकेश्वर की रिहाई राहत देने वाली है परन्तु इस  दौरान एक बात देखने में आई कि नक्सली भले ही घने जंगलों में छिपे रहते हों लेकिन समाज के कुछ लोगों का उनसे सम्पर्क रहता है | उनके असर वाले ग्रामीण और वनों में रहने वाले आदिवासी भी उनके साथ मेल  जोल रखते हैं | भले ही वे नक्सली विचारधारा से अवगत या सहमत न हों लेकिन चाहे - अनचाहे उन्हें उनसे तालमेल बनाकर चलना होता है | इसी तरह उन पर सुरक्षा बलों का भी दबाव पड़ता है | यही स्थिति एक जमाने में मप्र के चम्बल इलाके की थी जहाँ डाकू समस्या के कारण  ग्रमीण जनता को डकैत और पुलिस नामक दो पाटों के बीच पिसना पड़ता था | सवाल ये है कि जब  नक्सलियों तक कुछ सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार पहुंच सकते हैं तब सुरक्षा बल उनका पता लगाकर कार्रवाई करने में सफल क्यों नहीं हो पाते ? एक जमाने में कर्नाटक और तमिलनाडु में आतंक का पर्याय बने चन्दन तस्कर और हाथियों के हत्यारे वीरप्पन भी कई दशकों तक समस्या   बने रहे | उनको पकड़ने हेतु  करोड़ों खर्च किये गए | तमाम पुलिस अधिकारी उसकी नृशंसता के शिकार हुए | अनेक नेताओं और अभिनेताओं का उसने अपहरण कर फिरौती वसूली | सुरक्षा बल उसे पकड़ने में सफल नहीं हो पाते थे लेकिन तमिलनाडु के एक पत्रकार ने वीरप्पन के ठिकाने पर पहुंचकर उनका वीडियो साक्षात्कार लिया जो काफी चर्चित हुआ | उस समय भी ये सवाल उठा था कि एक पत्रकार जब उस दुर्दांत अपराधी के पास पहुँचने में सफल हो गया तो फिर सुरक्षा बल  क्यों नाकामयाब रहे ? ऐसे लोगों पर  ये दबाव क्यों नहीं   बनाया जाता कि वे उनका पता ठिकाना शासन - प्रशासन को दें | राकेश्वर की रिहाई को लेकर आई जानकारी के अनुसार उसे लौटाने के फैसले का उपस्थित ग्रामीण जन विरोध कर रहे थे | इसका अर्थ ये हुआ कि नक्सलियों के असर वाले इलाकों में आम जनता का पुलिस और प्रशासन के बजाय नक्सलियों से ज्यादा जीवंत सम्पर्क है | दरअसल  ये अदिवासी ही नक्सलियों के सूचना तंत्र का आधार भी  हैं और उनकी  ढाल भी  | यदि इन्हें  उनसे दूर  किया जा सके  तो इस आतंक को  खत्म करना आसान हो जायेगा किन्तु  ले - देकर फिर वही सवाल उठ खड़ा होता है कि नक्सली जिन गैर शासकीय लोगों को मध्यस्थ मनाकर  सरकार से सौदेबाजी करते हैं वे उनकी पतासाजी करने में सुरक्षा बलों की मदद क्यों नहीं करते ? कहा जा सकता  है कि ऐसा करने पर उनकी जान को खतरा होगा क्योंकि मुखबिरी करने वालों को नक्सली बड़ी ही बेदर्दी से मौत के घाट उतारते हैं | लेकिन किसी अपराधी व्यक्ति अथवा संगठन से सम्पर्क होने के बावजूद शासन - प्रशासन को  उसके बारे में सूचना नहीं देना भी तो अपराध की श्रेणी में आता है | ये मुद्दा वीरप्पन का वीडियो बनाने वाले पत्रकार को लेकर भी उठा था | बस्तर में नक्सलियों से सीधे सम्पर्क रखने वाले लोगों की  जानकारी समय - समय पर आती रही है किन्तु उनकी मदद लेकर नक्सली ठिकानों पर दबिश क्यों नहीं दी जाती ये रहस्यमय है | छत्तीसगढ़ की राजनीति पर  नक्सली  प्रभाव सर्वविदित है | चुनाव के दौरान अनेक प्रत्याशी उनका समर्थन हासिल करने में भी  संकोच नहीं करते | ये देखते हुए जिन मध्यस्थों ने यह कार्य करवाया उनसे तो पूछा जाना चाहिए कि नक्सलियों तक पहुँचने का तरीका क्या है ? यदि अंत भला तो सब भला की तर्ज पर खुशी मनाई जाती रही  तो  जवानों की शहादत का ये सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा | नक्सलियों की कमर तोड़ने के लिए निर्णायक अभियान जरूरी  है क्योंकि  घर के भीतर बैठा दुश्मन ज्यादा खतरनाक होता है |  

- रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 8 April 2021

राष्ट्रीय आपात्काल घोषित कर एक साल के लिए सभी चुनाव रोके जाएँ



कोरोना का दूसरा हमला पहले से ज्यादा शक्तिशाली है | गत वर्ष जब प्रधानमन्त्री ने अचानक देशव्यापी  लॉक डाउन की घोषणा की तब उसके तरीके और औचित्य को लेकर ढेर सारे सवाल उठे |  लेकिन इस साल बीते एक महीने में जिस तरह से संक्रमण ने सुरसा जैसा  मुंह फैलाया उसके बावजूद लॉक डाउन लगाने  के फैसले  को प्रदेश और स्थानीय प्रशासन के जिम्मे छोड़ने पर केंन्द्र सरकार से पूछा जा रहा है कि जब संक्रमितों का दैनिक आंकड़ा 1 लाख  25 हजार से भी ज्यादा हो चुका है जिसमें आगे भी वृद्धि की पूरी सम्भावना है तब भी वह इस बारे  में उदासीन क्यों  है ? जाहिर है पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन नहीं लगाने का कारण  हो सकते हैं किन्तु जब असम , पुडुचेरी , तमिलनाडु  और केरल में प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है तब बंगाल  छोडकर बाकी राज्यों के बारे में तो  फैसला लिया ही  जा सकता है | वैसे जिस वजह से केंद्र सरकार देश भर में लॉक  डाउन लगाने से पीछे हट रही है वह है अर्थव्यवस्था | गत वर्ष अनेक महीनों तक अधिकांश  उद्योग - व्यापार बंद पड़े रहने से अर्थव्यवस्था के  चिंताजनक स्थिति में आने से  विकास दर नकारात्मक दिशा में बढ़ गई | दिवाली के समय  लॉक डाउन हटने पर आर्थिक गतिविधियों ने दोबारा गति पकड़ी जिसका असर जीएसटी संग्रह में लगातार हुई वृद्धि के रूप में सामने आया | लेकिन फरवरी के बीच से ही कोरोना ने  वापिसी का संकेत  दे दिया | शुरू में लग रहा था कि महाराष्ट्र सहित  कुछ राज्यों में ही उसका असर  रहेगा लेकिन देखते  - देखते पूरा देश उसकी गिरफ्त में आ गया | इस बार उसकी गति बहुत तेज होने से चिकित्सा प्रबंध कम पड़ने लगे हैं | कहीं वेंटीलेटर की कमी है तो कहीं ऑक्सीजन की | अस्पतालों में बिस्तरों का अभाव होने से मरीजों को घर पर रहकर इलाज करने की सलाह  दी जा रही है | गम्भीर मरीजों को लगाये जाने वाले रेमडेसिवर इंजेक्शन की उपलब्धता भी पर्याप्त नहीं है | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि जिस तरह सरकार  कोरोना की वापिसी   को लेकर निश्चिन्त हो चली  थी उसी तरह चिकित्सा जगत भी उसके पलटवार को लेकर बेफिक्र सा था | आम जनता की लापरवाही तो हमारे राष्ट्रीय चरित्र को दर्शाती ही  है | ऐसे में कोरोना को भी तेजी से पांव फैलाने का अवसर मिल गया | दरअसल जैसे ही टीकाकरण शुरू हुआ वैसे ही आम जनता में  ये अवधारणा प्रबल हो उठी कि उनके पास कोरोना से बचाव का रक्षा कवच आ गया है | लेकिन अभी तक जितने लोगों को टीके लगे हैं उस गति से तो ये काम पूरा होने में लंबा समय लगेगा | ऐसे में जो सामान्य तरीके हैं वे ही बचाव में सहायक होंगे जिनकी उपेक्षा करने का दुष्परिणाम देश भोग रहा है | टीका लगने के बाद भी अनेक लोगों को लापरवाही महंगी पड़ी है | लेकिन जनता को कसूरवार ठहराने मात्र से काम नहीं चलेगा क्योंकि राजनीति भी  उसे लापरवाह बनाने में सहायक है | मसलन राजनीतिक जलसों में कोरोना शिष्टाचार की जिस बेहयाई और दबंगी से धज्जियाँ उडाई जाती हैं वह भी संक्रमण के फैलाव की बड़ी वजह है | चुनाव वाले राज्यों में तो लगता ही नहीं कि कोरोना का कोई डर है | दिल्ली उच्च न्यायालय पूछ रहा है कि प्रचार करने वाले नेता मास्क क्यों नहीं  लगा रहे ? राजनीति का आलम ये है कि प्रधानमन्त्री द्वारा कोरोना  पर विचार करने बुलाई गई आभासी बैठक में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी हिस्सा नहीं लेंगीं | पहले भी ऐसा हो चुका है | हाल ही में पंजाब सहित कुछ राज्यों में राजनीतिक जलसों पर भी रोक लगाई गयी है | 2 मई को पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद आगामी वर्ष के मुकाबलों के लिए मैदान सजने लगेगा | राजनीतिक दलों के अपने स्वार्थ हैं | लेकिन मौजूदा हालात में लोगों की जान के साथ अर्व्यथवस्था को  बचाना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए | इसके लिए ज़रूरी है राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर कम से कम एक साल तक के लिए सभी प्रकार के चुनाव पर रोक लगे | इससे सरकार के संसाधन तो बचेंगे ही उद्योग - व्यापार जगत पर राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे का दबाव भी कम होगा | सबसे बड़ा लाभ  केंद्र और राज्यों के बीच बेहतर समन्वय कायम हो सकेगा |  दुर्भाग्य से हमारे देश में राजनेता चाहे सत्ता में बैठे हों या विपक्ष में , उनकी  नजर सदैव अगले चुनाव पर ही  रहती है | जिन राज्यों में  चुनाव हो रहे हैं या होने वाले हैं वहां के सभी नेता कोरोना को भूलकर वोट बटोरने की तरकीबें तलाशने में जुटे हैं और इस दौरान कोरोना संबंधी सावधानियों को  रद्दी की टोकरी में फेंक  दिया जा रहा है  | इस समस्या का हल केवल यही  है कि एक वर्ष तक देश को चुनाव के संक्रमण से मुक्त रखा जावे | लोकसभा के चुनाव तो अभी दूर हैं लेकिन  जिन राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल इस दौरान खत्म हो रहे हों वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया जावे | हालाँकि राजनीति के दुकानदारों को इसमें लोकतन्त्र के लिये खतरा  नजर आने लगेगा लेकिन चुनावों के दौरान जिस तरह की लापरवाही देखने मिलती है वह महामारी का कारण बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये | जनता की सुरक्षा को खतरे में डालकर करवाए जाने वाले चुनाव सत्ता की वासना मात्र हैं | जितना पैसा चुनावों में बर्बाद  किया जाता है उसका आधा भी कोरोना से बचाव पर खर्च किया जावे तो इस मुसीबत से जल्द छुटकारा मिलने के साथ ही  हजारों लोगों की ज़िन्दगी बच सकती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 7 April 2021

बाअदब - बामुलाहिजा होशियार , मुख्तार की सवारी आ रही है


मुख्तार अंसारी की पारिवारिक पृष्ठभूमि यूँ  तो बहुत ही समृद्ध है | दादा आजादी के पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्य्क्ष रहे | पिता साम्यवादी थे जिन्हें स्वच्छ छवि के चलते नगर पालिका के लिए निर्विरोध चुना गया | चाचा हामिद अंसारी विदेश सेवा में रहने के बाद उपराष्ट्रपति  बने | नाना उस्मान खान फ़ौज में ब्रिगेडियर बने जिनकी सेवाओं के लिए उन्हें महावीर चक्र दिया गया |  भाई अफजल अंसारी उप्र की गाजीपुर सीट से लोकसभा सदस्य हैं और  बेटा निशानेबाजी की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले चुका है | इन्हीं सबके कारण उप्र के मऊ इलाके में अंसारी परिवार का बड़ा नाम और् प्रतिष्ठा रही लेकिन मुख़्तार इससे अलग अपराधों की दुनिया में अपनी जगह बनाने में लग गया और देखते - देखते उसके विरुद्ध ह्त्या , अपहरण , फिरौती जैसे  दर्जनों मामले कायम हो गये | बीते लगभग दो साल से किसी मामले में वह पंजाब की रोपड़ जेल में बंद था | उप्र पुलिस उसे वहां से लाने की  कोशिश कर  रही थी जिसमें पंजाब सरकार अज्ञात कारणों से अड़ंगे लगाने में जुटी रही | अंततः अदालती आदेश के तहत उसे उप्र लाने की अनुमति मिली जिसके बाद गत दिवस उप्र पुलिस भारी तामझाम के साथ उसे रोपड़ जेल से लेकर बांदा के लिए रवाना हुई | मुख्तार बीमार हैं इसलिए एम्बुलेंस में लाया गया | आगे पीछे वज्र वाहन चल रहे थे | लगभग 150 पुलिस वाले काफिले के साथ रहे | कुछ महीने पहले कानपुर के कुख्यात अपराधी विकास दुबे का उज्जैन से कानपुर ले जाते समय  वाहन पलट जाने पर भागने की वजह से  एनकाउंटर कर दिया गया | उस घटना को लेकर उप्र की पुलिस अभी भी संदेह के घेरे  में है |  मुख्तार और उनके परिवार ने पंजाब से उप्र लाये जाने का विरोध करने के लिए विकास की मौत को ही आधार बनाया | यहाँ तक कि सोशल मीडिया पर मुख़्तार के साथ भी  विकास दुबे जैसे  काण्ड की  पुनरावृत्ति का शिगूफा छोड़ा जाता रहा | और इसी के चलते रोपड़ से बांदा  जेल तक के तकरीबन 800 किमी तक के रास्ते पर मुख्तार के काफिले के साथ टीवी चैनलों के संवाददाताओं के वाहन मय कैमरों के चलते रहे | काफिला पंजाब से निकलकर हरियाणा में घुस गया , फलां वाहन में मुख्तार बैठा है , गाड़ियां 120 की गति से दौड़ रही हैं , रास्ते में काफिला कहीं रोका नहीं जाएगा , अब वह आगरा एक्सप्रेस हाइवे पर आ गया है जैसे समाचार लगातार सुनाये और दिखाये जाते रहे   | बीच - बीच में मुख़्तार के भाई का बयान भी सुनाया गया  जिसमें उसने कहा कि उसके भाई को कुछ हुआ तो उसे शहादत माना जायेगा और इसके बाद तानाशाही का अंत हो जाएगा | मुख्तार की पत्नी द्वारा उसकी सलामती को लेकर व्यक्त की जा रही चिन्ताओं से भी देश और दुनिया को अवगत कराने की होड़ टीवी चैनलों में लगी रही | ऐसा लग रहा था किसी   बड़ी हस्ती का काफिला एक जगह से दूसरी को जा रहा है | लोकतंत्र में अभिव्यक्ति , मानवाधिकार और पारदर्शिता का महत्वपूर्ण स्थान है | आरोप लगने मात्र से किसी को तब तक  सजा नहीं दी जा सकती जब तक वे प्रमाणित न हो  जाएँ | मुख्तार भी दर्जनों मामलों में  आरोपी है जिनका फ़ैसला होना है | सवाल ये है कि बरसों से चले रहे इन मामलों में फैसला क्यों नहीं हो पाता | न्याय प्रक्रिया निचली अदालत से सर्वोच्च न्यायालय तक चलती है जिसका लाभ लेकर संपन्न और प्रभावशाली अपराधी बचे  रहते हैं | मुख्तार का आर्थिक साम्राज्य और राजनीतिक प्रभाव सर्वविदित है |  अल्पसंख्यक होने के कारण उसे अतिरिक्त फायदा मिलता रहा , ये कहना गलत न होगा | उसका अपने  इलाके में  अल्पसंख्यक   समुदाय के मतदाताओं पर भी  खासा प्रभाव और दबाव है जिसके कारण  पिछली राज्यं सरकारें उसके प्रति नरम बनी रहीं | योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद अपराधी सरगनाओं पर कानून का शिकंजा कसने की जो कवायद शुरू हुई उसी के तहत मुख्तार भी  घेरे  में है | उसे पंजाब से  वापिस लाने के लिए कितनी उठापटक करनी पड़ी ये किसी से छिपा नहीं है | उसके अपराधों की सूची इतनी लम्बी है कि मौजूदा गति से चल्र रही न्याय प्रक्रिया  के अंजाम तक पहुचने में बरसों  लग जायेंगे | ऐसे व्यक्ति के प्रति टीवी चैनलों का विशेष अनुराग समाचार  माध्यमों द्वारा  प्राथमिकता के  चयन  पर बड़ा सवाल है | मुख्तार के काफिले का मार्ग सुरक्षा कारणों से सार्वजनिक नहीं किया  गया था | लेकिन टीवी कैमरे  हर स्थान का नाम बताते हुए ये भी कहते जा रहे थे कि अगला स्थान  कौन सा आयेगा | मुख्तार का रोपड़ से बाँदा जेल  लाया जाना निश्चित तौर पर समाचार है लेकिन टीवी  प्रसारण ने उसे एक ईवेंट बना दिया | गनीमत है कोई चैनल वाला  उसकी एम्बुलेंस में बैठने का जुगाड़  नहीं कर  सका वरना  मुख़्तार अंसारी के कथित क्रांतिकारी विचार सुनने मिलते जिनमें तानाशाही के विरुद्ध निर्णायक जंग का आह्वान होता | बीते कुछ समय से टीवी चैनलों के पास दर्शकों को दिखाने के लिए गुणवत्तायुक्त सामग्री का अभाव होने से वे ऊलजलूल चीजें  दिखाकर समय व्यतीत किया करते हैं | मुख्तार अन्सारी जैसे लोग समाज के लिए खतरा हैं | उनका खुली हवा में रहना जनसुरक्षा के लिहाज से ठीक नहीं है | बेहतर होगा माननीय न्यापालिका इनको दण्डित करने में तत्परता बरते जिससे इनका अनुसरण करने के इच्छुक लोगों में भी भय व्याप्त हो सके | संसद और विधानसभाओं में ऐसे लोगों की उपस्थिति लोकतंत्र के लिए किसी कलंक से कम नहीं है | समाचार माध्यमों को  चाहिए कि वे ऐसे लोगों को बिना वजह महत्व देने से परहेज करें | 



Tuesday 6 April 2021

गुजरात और बंगाल दोनों हैं तो इसी देश में



बंगाल की  मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी अपने गुस्से के लिए मशहूर हैं | विधानसभा  चुनाव के पहले  उनकी पार्टी तृणमूल के ढेर सारे नेताओं का भाजपा में चला जाना उनके गुस्से को  बढ़ाने  वाला रहा | लेकिन उनकी नाराजगी इस बात पर ज्यादा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने बंगाल में भाजपा के प्रचार की बागडोर संभाल रखी है | हालाँकि राज्य से भाजपा के 18 लोकसभा सदस्य  हैं लेकिन वहाँ पार्टी के पास एक  दमदार नेता नहीं है जिसे ममता की टक्कर का कहा जा सके | इसीलिये उसने अपना मुख्यमंत्री  उम्मीदवार घोषित नहीं किया | बीते कुछ सालों से भाजपा ने मप्र सरकार  के पूर्व मंत्री कैलाश  विजयवर्गीय को बंगाल में तैनात कर रखा है जिन्होंने बड़ी ही कुशलता से भाजपा को  मुकाबले में ला खड़ा किया | ममता ने इसी मुद्दे पर अपने चुनाव अभियान को केन्द्रित रखते हुए बंगाल की बेटी का नारा गुंजा दिया | तीसरे दौर के मतदान के एक दिन पहले उन्होंने तीखे शब्दों में कहा कि बंगाल पर गुजरात के लोगों ( मोदी - शाह ) को राज नहीं  करने देंगे | चुनाव परिणाम तो  मतदाता तय करेंगे किन्तु प्रांतवाद की ये धारणा  राष्ट्रीय एकता के लिए नुकसानदेह है | 1956 में भाषावार प्रान्तों की रचना  कितनी घातक साबित हुई ये किसी से छिपा नहीं है | दशकों बीत जाने के बाद भी भावनात्मक मुद्दे आग भड़काते हैं | उस दृष्टि से ममता ने कई नया काम नहीं किया | महाराष्ट्र में तो इस तरह की बातें अक्सर सुनाई देती रही हैं | सवाल ये है कि क्या बंगाल सिर्फ बंगालियों का है ? इसी तरह क्या केवल मराठी भाषी महाराष्ट्र और तमिल बोलने वाले तमिलनाडु में रह सकते हैं ? सुश्री बैनर्जी की अपनी पार्टी के तमाम प्रवक्ता गैर बंगाली हैं | चुनाव जीतने के लिए जिन प्रशांत किशोर की सेवायें उनके द्वारा ली जा रही हैं वे भी बाहरी हैं | कुछ समय पहले तक तृणमूल के वरिष्ठ राज्यसभा सदस्य रहे दिनेश त्रिवेदी तो गुजराती मूल के ही हैं | बंगाल सहित पूरे पूर्वोत्तर में मारवाड़ी व्यवसायी पीढ़ियों से रह रहे हैं और इस अंचल के  औद्योगिक विकास में उनकी महती भूमिका रही है | बिरला परिवार का तो मुख्यालय ही एक तरह से कोलकाता हुआ करता था | जहां तक राजनीति की बात है तो देश आजाद होने के बाद बंगाली मूल की सुचेता कृपलानी देश के सबसे बड़े राज्य उप्र की मुख्यमंत्री रहीं वहीं अलाहाबाद से जुड़े कश्मीरी पंडित परिवार के डा. कैलाशनाथ काटजू मप्र के मुख्यमंत्री बनाये गये थे | राज्यसभा में तो दूसरे राज्यों के नेताओं का चुना जाना सामान्य बात है | दस साल तक देश के प्रधानमन्त्री रहे डा. मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा में आते रहे हैं | कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद महाराष्ट्र से लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं | तमिलनाडु में अम्मा के नाम से मशहूर रहीं स्व. जयललिता स्वयं कर्नाटक की थीं जबकि अभिनेता से नेता बने रजनीकांत मूल रूप  से मराठी भाषी हैं | और भी अनेक उदहारण हैं जिनमें एक राज्य के किसी नेता  ने  अन्य राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान  बनाया हो | बंगाल में भले ही  गुजराती मूल के लोग कम रहते हों लेकिन उप्र और बिहार से लाखों लोग वहां रोजगार के लिए आये और वहीं के होकर रह गये | बाहरी  व्यक्ति को लेकर स्थानीय भावनाएं दरअसल रोजगार के  अवसर छिन जाने की आशंका से उग्र होती हैं | लेकिन जिस संदर्भ में सुश्री बैनर्जी ने बंगाल पर किसी  गुजराती द्वारा राज नहीं किये जाने की बात कही और उससे उनका मानसिक तनाव  ही व्यक्त हुआ है | कुछ दिन पहले ही उनकी पार्टी की एक सांसद ने चुनौती भरे अंदाज में कहा था कि दीदी अगला चुनाव बनारस से नरेंद्र मोदी के विरुद्ध लड़ेंगी | अपने राज्य में केवल बंगालियों का वर्चस्व चाहने वाली नेत्री के  किसी  और राज्य से लड़ने की बात किस मुंह से कही जा रही है ये बड़ा सवाल है |  समाजवादी आन्दोलन से जुड़े स्व. जॉर्ज फर्नांडीज और शरद यादव अपने मूल राज्य से निकलकर बिहार में जाकर स्थापित हो गये | ये भारतीय राजनीति के संघीय स्वरूप को व्यक्त करता है | बंगाल की दार्जिलिंग सीट से भाजपा के स्व.जसवंत सिंह और एस.एस  अहलुवालिया लोकसभा के लिए चुने जाते रहे जबकि दोनों दूसरे राज्यों के थे | स्व. इंदिरा गांधी ने कर्नाटक की चिकमंगलूर और अविभाजित आन्ध्र की मेडक लोकसभा  सीट से चुनाव जीता वहीं सोनिया गांधी कर्नाटक की वेल्लारी से सांसद रह चुकी हैं | उनके पुत्र राहुल गांधी  वर्तमान लोकसभा में केरल की  वायनाड सीट के सांसद हैं | 2014 में जब श्री मोदी उप्र की वाराणसी सीट से लड़ने गए तब तक उनका उस शहर या राज्य से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था | वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात की गांधी नगर सीट का लम्बे समय तक लोकसभा में प्रातिनिधित्व किया था | पूर्व विदेश मंत्री स्व. सुषमा स्वराज मप्र की विदिशा सीट से चुनी जाती रहीं जबकि वे थीं हरियाणा की | भारतीय राजनीति में ऐसी तमाम नजीरें भरी पडी हैं | 2018 में मप्र के मुख्यमंत्री बने कमलनाथ 1980 में इंदिरा जी के कृपा से  लोकसभा चुनाव लड़ने भेजे गये | उनका मप्र से  तब कोई जुडाव नहीं था | आज भी वे बाहरी ही कहे जाते हैं | 1971 में तत्कालीन  राष्ट्रपति स्व. वी.वी गिरि के साहेबजादे शंकर  गिरी कांग्रेस  टिकिट पर मप्र की दमोह सीट से लोकसभा पहुंचे  थे | ऐसे में बंगाल में किसी बाहरी का राज नहीं  होने देने जैसा बयान स्वस्थ मानसिकता का परिचायक नहीं कहा जा सकता | भविष्य में यदि श्री मोदी बंगाल आकर चुनाव लड़ें तब भी  क्या इसी तरह का बयान तृणमूल नेत्री देंगी ? भारत में लोकतंत्र के मजबूती के लिए भाषा और प्रान्त जैसी संकुचित भावनाएं त्यागनी होंगी | चुनाव आते - जाते रहेंगे लेकिन देश की एकता अक्षुण्ण रहनी चाहिए | बंगाल को अलग - थलग रखने की राजनीति ने वहां विकास प्रक्रिया को कितना पीछे धकेल दिया ये सर्वविदित है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 5 April 2021

हत्यारों का कोई मानवाधिकार नहीं होता



छत्तीसगढ़ के  सुकमा - बीजापुर क्षेत्र में बीते शनिवार की रात को नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बल के 22 लोग शहीद हो गए | नक्सलियों ने सुरक्षा बलों की टुकड़ियों को तीन तरफ से घेरकर जोरदार हमला किया जिसमें लगभग 2 दर्जन जानें चली गईं  | वैसे 25 से 30 नक्सलियों के भी मारे जाने की खबर है |  केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह  गत दिवस असम का चुनावी दौरा छोड़कर दिल्ली आये और उच्च स्तरीय बैठक में ये तय किया गया कि नक्सलियों को अब उनके अड्डों में घुसकर मारने का अभियान चलाया  जाएगा |  इस प्रकार की घटनाएँ छत्तीसगढ़ में पहले भी अनेक बार हो चुकी हैं | हर बड़ी वारदात के बाद इसी तरह की बड़ी - बड़ी बातें होती रहीं | एक बार फिर  राजनीतिक इच्छाशक्ति के प्रदर्शन के साथ ही बलि के बकरे तलाशने  का चिर - परिचित कर्मकांड होगा  परन्तु कुछ समय  बाद शहीदों का बलिदान राजनीतिक नफे - नुकसान के हिसाब में उलझकर भुला दिया जावेगा  | ताजा घटना के बारे में  स्पष्ट किया गया है कि सुरक्षा बलों की तरफ से दिए  गये माकूल जवाब के कारण नक्सलियों की भी बड़ी संख्या हताहत हुई | लेकिन उनकी मौत हमारे जवानों की शहादत का मुआवजा नहीं मानी जा सकती | छत्तीसगढ़  वह  राज्य है जिसकी सीमाएं मप्र , झारखण्ड , उड़ीसा , तेलंगाना और महाराष्ट्र से  मिलती हैं | और संयोगवश ये सभी  नक्सल प्रभावित हैं | नक्सल प्रभावित  समूचा इलाका भी वनाच्छादित है जिसमें अधिकतर आदिवासी आबादी है | नक्सलियों को यहाँ की परिस्थितियाँ पूरी तरह से अनुकूल लगती हैं | विकास का अभाव , शिक्षा की कमी और गरीबी के कारण आदिवासी समुदाय का जो शोषण होता रहा उसके आधार पर वे अपना नेटवर्क फ़ैलाने में कामयाब हो गये | यद्यपि  इनके पीछे विदेशी  हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता | नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर आंध्र के तिरुपति तक वे अपना फैलाव कर भी  चुके हैं | फिर भी   घरेलू समर्थन के बिना उनकी जड़ें इतनी गहरी कभी नहीं जम पातीं | ज़ाहिर है राजनीतिक समर्थन के कारण वे  अपने पाँव ज़माने में कामयाब हो सके | शहरों में छद्म  बुद्धिजीवी बनकर बैठे तमाम लोग इनके संरक्षक हैं जिनकी गिरेबान पर हाथ डालते ही मानवाधिकार हनन  का ढोल पीटा जाने लगता है | जिन राज्यों का ऊपर जिक्र किया गया उनमें अनेक नेताओं और राजनीतिक दलों का नक्सलियों से गठजोड़ खुली किताब है | छत्तीसगढ़ में  26 मई 2013 को जिस नक्सली हमले में कांग्रेस के तमाम बड़े नेता मारे गये थे उसके बारे में भी ये कहा जाता है कि वह राजनीतिक षड्यंत्र ही था | उस आरोप की सुई बार - बार वहाँ के एक पूर्व मुख्यमंत्री की तरफ घूमती रही जो हमले के कुछ देर पहले ही घटनास्थल से चले आये थे |  बिहार और झारखण्ड में भी ऐसी ही बातें सुनाई देती रही हैं | ये देखते हुए तो लगता है नक्सलियों  का वैचारिक पक्ष  केवल मुखौटा है और विदेशी मदद तथा घरेलू संरक्षण के कारण ये ऐसा माफिया गिरोह बन गया है जिसका मकसद आपराधिक गतिविधियों में  लिप्त रहने  के साथ ही देश को भीतर से कमजोर करना है | इसकी तुलना मुम्बई के उन माफिया गिरोहों से करना गलत न होगा जो राजनीतिक नेताओं की जेबें गर्म करते हुए  देशविरोधी गतिविधियों का संचालन करते रहे | गौरतलब है कि नक्सलियों का कार्यक्षेत्र मुख्यरूप से   उन्हीं इलाकों में हैं जहाँ खनिज भण्डार है | खदान व्यवसायियों से अवैध वसूली इनकी आय का स्रोत है जिसमें स्थानीय प्रशासन में बैठे कतिपय लोग भी लालच और भयवश सहयोग करते हैं | एक जमाने में चम्बल के बीहड़ों में सक्रिय  डकैत भी ऐसा ही करते थे | सवाल ये है कि ये समस्या को कैसे हल  होगी ? वैसे तो हर बड़ी हिंसक वारदात की निंदा राज्नीतिक बिरादरी द्वारा की जाती है किन्तु नक्सलवादियों के सफाये के लिए सुरक्षा बलों को वैसी छूट अब तक नहीं मिली जैसी कश्मीर घाटी में  सेना को दी गई है | समस्या ये भी है कि बड़ी संख्या में आदिवासी आबादी  इनकी बंधक जैसी  है जिसे ये अपनी ढाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं | विकास के कार्यों में रूकावट डालने की इनकी कोशिशों से साफ़ हो जाता है कि वे आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध नहीं अपितु उनको पिछड़ा बनाये रखने के समर्थक हैं | केंद्र सरकार ने गत दिवस जो संकेत दिए वे कितने दीर्घजीवी और कारगर होंगे ये कह पाना कठिन है क्योंकि पिछले अनुभव निराश करने वाले ही रहे | लेकिन  यदि सभी  राजनीतिक दल  किसी ठोस रणनीति पर एकमत हो सकें तो बड़ी बात नहीं जिस तरह कश्मीर घाटी और उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों में आतंकवाद और उग्रवाद की जड़ें कमजोर की जा सकीं ठीक वैसे ही नक्सलवादियों की भी कमर तोडी जा सकती है | ये बात स्वीकार करनी ही होगी कि  हत्यारों का कोई  मानवाधिकार नहीं होता | जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता तब उनको  टेढा  करना ही पड़ता है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 3 April 2021

छोटी - छोटी सावधनियाँ भी कारागर हो सकती हैं बशर्ते



कोरोना की दूसरी लहर हमारी सामूहिक लापरवाही का परिणाम है | गत वर्ष जब उसका आगमन हुआ तब वह पूरी तरह से अप्रत्याशित था | लेकिन पुनरागमन के समय हमें उसके चाल - चलन की पूरी जानकारी है | इसलिए ये कहना गलत होगा कि इस हमले के लिए हम तैयार न थे | पूरी दुनिया में कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर का हल्ला मचने के बावजूद भारत में पूरी तरह बेफिक्री का आलम था | लोग मान बैठे थे कि किसी बुरे सपने  की तरह से ही कोरोना भी बीत चुका है , लेकिन वह खुशफहमी घातक  साबित हुई और गत वर्ष जो चरमोत्कर्ष छह महीने बाद आया था वह दूसरी लहर में महीने भर के भीतर आने को है | दिल्ली स्थित एम्स के निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने स्पष्ट कर दिया है कि इस बार कोरोना अप्रैल के मध्य से लेकर मई की  समाप्ति तक सर्वोच्च स्तर पर रहेगा और उसके बाद ही उसमें गिरावट के आसार हैं | इसकी पुष्टि करने के लिए नए संक्रमण के दैनिक आंकड़े पर्याप्त हैं | सरकारी जानकारी के अनुसार एक दो दिन के भीतर एक लाख से ज्यादा नए कोरोना संक्रमित सामने आने लगेंगे | बीते एक सप्ताह का औसत भी तकरीबन 61 हजार प्रतिदिन का रहा है | हालांकि  टीकाकरण का काम भी तेजी से चल रहा है परन्तु   शोचनीय मुद्दा  ये है कि जनता का एक वर्ग उसके प्रति उदासीन  है | इसके पीछे एक कारण तो अशिक्षा है लेकिन दूसरी और सबसे बड़ी वजह है पढ़े - लिखे लोगों के एक वर्ग में कोरोना को लेकर लापरवाह रवैया | ये कहना भी गलत  नहीं है कि इसी तबके के कारण संक्रमण जाते - जाते फिर लौट आया है | ताजा  आंकड़ों के मुताबिक 7 करोड़ लोगों को ही अब तक टीका लगाया जा सका है | ऐसे में जब तक 60  फीसदी जनता टीका नहीं लगवा लेती तब तक कोरोना से बचने के लिए मास्क और सैनीटाइजर के उपयोग के साथ ही हाथ धोते रहने और छह से सात फीट की शारीरिक दूरी  नितांत आवश्यक है | लेकिन विडंबना ये है कि अधिकतर लोग इन सावधानियों के प्रति हद दर्जे की लापरवाही दिखा रहे हैं | कहावत है कि दूध का जल हुआ छाछ भी फूंक  फूंककर पीता है लेकिन हमारे  देश में इसका मजाक बनाया जा रहा है | सबसे बड़ी बात ये है कि राजनीतिक जलसों पर किसी भी प्रकार की बंदिश नहीं है जिससे  सामुदायिक संक्रमण का खतरा बना हुआ है | पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के अभियान में कोरोना संबंधी निर्देशों   की जिस तरह से धज्जियां उड़ रही हैं उसकी वजह से आम जनता के मन में  भी उसको लेकर बेफिक्री बढ़ रही है | रैलियों  और  रोड शो में बिना मास्क लगाये  उमड़ने वाला जनसैलाब शारीरिक दूरी को भी  पूरी तरह से नजरअंदाज कर  देता है | विरोधाभास ये है कि भीड़ एकत्र करने वाले नेता ही आम जनता को कोरोना से लड़ने के लिए सावधानियाँ बरतने का उपदेश देते फिरते हैं | ये सब देखते हुए कोरोना के विरुद्ध जारी लड़ाई आगे पाट पीछे सपाट का उदाहरण पेश कर रही है | केवल ये मानकर निश्चिन्त हो जाना निरी मूर्खता है  कि वैक्सीन नामक रक्षा कवच  पूरी तरह बचा लेगा क्योंकि टीके की दोनों खुराक लगने के बाद भी संक्रमित होने के मामले आ रहे हैं | इस बारे में  प्रख्यात चिकित्सा विशेषज्ञ डा. नरेश त्रेहन का ये कहना आँखें खोल देना वाला है कि कोरोना कब तक रहेगा इसके बारे में कोई पुख्ता अनुमान नहीं लगाया जा सकता | उनका सुझाव है कि इस संक्रमण से बचाव हेतु छोटी - छोटी सावधानियां और सतर्कता कारगर हो सकते हैं , बशर्ते  उनका पालन ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ किया जावे  | बेहतर तो यही होगा कि हर नागरिक इस महामारी के फैलाव को रोकने के लिए अपने दायित्व को समझे | हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना का संक्रमण  शारीरिक और आर्थिक दृष्टि से तो हमें  नुकसान पहुंचाता ही है लेकिन उसका दुष्प्रभाव हमारे परिवार के अलावा सम्पर्क में आने वाले किसी भी व्यक्ति पर पड़ सकता है | लॉक डाउन के पीछे भी उद्देश्य यही है कि किसी भी तरह से लोगों को एक दूसरे से दूर रखा  जा सके किन्तु इस उपाय को भी लम्बे समय तक आजमाया जाना अर्थव्यवस्था की सेहत को पूरी तरह  बर्बाद कर देगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 2 April 2021

एक साथ चुनाव से ही दूर होगी नीतिगत अनिश्चितता



नए वित्तीय वर्ष के पहले ही दिन केंद्र सरकार को फजीहत झेलनी पडी | सुबह खबर थी कि अल्पबचत योजनाओं पर ब्याज दर घटा दी गई है | कुछ देर में ही कदम पीछे खींचते   हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण  ने  ऐलान कर  दिया कि ब्याज दरें पूर्ववत रहेंगी और घटाने  वाला आदेश गलती से जारी हो गया था | मध्यमवर्ग ने इससे राहत तो महसूस की लेकिन उसके मन में केंद्र सरकार या वित्तमंत्री के प्रति किसी भी प्रकार के आभार का भाव नहीं आया |  आम धारणा यही बनी कि ये सब पांच राज्यों के चुनावों में मतदाताओं की नाराजगी से बचने के लिए किया गया | उल्लेखनीय है कल ही बंगाल और असम में दूसरे चरण का मतदान भी था | हालाँकि केंद्र सरकार इस बारे में पहले ही संकेत दे चुकी थी | इस बारे में ये बात याद रखनी होगी कि 1991 में डा. मनमोहन सिंह ने जिस उदारीकरण की नीति को लागू किया उसके बाद  लघु बचत पर  ब्याज दर में कटौती का सिलसिला शुरु हुआ | कहा जाता है विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सहित कर्ज देने वाले अन्य संस्थानों ने भारत सरकार पर दबाव डालते हुए लघु बचत योजनाओं में मिलने वाले ब्याज को घटाने कहा | उनका तर्क था कि इस वजह से मध्यम वर्ग अपनी बचत बैंकों में जमा रखता है जबकि ब्याज कम होने से यही पैसा पूंजी बाजार में आयेगा | हालाँकि सरकारें बदलती गईं लेकिन उदारीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था के ग्लैमर से  सभी आकर्षित रहे जिससे कारण छोटी बचत के  परम्परागत भारतीय  संस्कार और संस्कृति को बहुत चोट पहुंची  | जो भाजपा शुरुवात  में इन नीतियों का खुलकर विरोध करती रही वही सत्ता में आने के बाद उन्हें लागू करने में आगे - आगे होती नजर आई | सेवा निवृत्त बुजुर्गों को बैंक में जमा राशि पर मिलने वाला ब्याज  नीचे आते जाने से  उनका जीवनयापन कठिन हो गया | हालाँकि गृह निर्माण और  वाहन खरीदी जैसे ऋण भी सस्ते हुए लेकिन जिस व्यक्ति का गुजारा  जमा राशि पर मिलने वाले ब्याज से होता रहा  वह संकट में है | मोदी सरकार ने आर्थिक क्षेत्र में सुधारवादी अनेक अच्छे कदम उठाये जिनका दूरगामी लाभ देश को मिलेगा लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि वह मध्यमवर्गीय तबके को राहत देने में विफल रही है | इसमें नौकरपेशा के साथ लघु और मध्यम कारोबारी भी है | कोरोना काल में पुरानी बचत ने इस वर्ग के लिए प्राणवायु का काम किया लेकिन बीते एक साल में वह भी खल्लास हो गई | बेहतर होता सरकार इस दिशा में  और प्रोत्साहित करती किन्तु इसके ठीक उलट नया कारोबारी साल शुरू होते ही बचत पर ब्याज दरें घटाने जैसा तुगलकी फरमान जारी कर  दिया गया और फिर दिल्ली से दौलताबाद वाली उक्ति दोहराते हुए वापिसी का आदेश आया | भले ही जैसी वित्तमंत्री ने सफाई दी पहला आदेश गलती से जारी हो गया लेकिन उसे सुधारे जाने में दिखाई गयी तत्परता से सरकार को किसी भी  तरह की वाहवाही नहीं  मिली ,  उलटे वह जगहंसाई का पात्र बनी | इसी तरह बीते कुछ दिनों  से पेट्रोल - डीजल की कीमतों में रोजाना  कुछ पैसों की गिरावट को भी जनता चुनावी मजबूरी मान रही है | ये चर्चा आम है कि सभी पाँच राज्यों में मतदान खत्म होते ही दाम बढ़ने का सिलसिला दोबारा शुरू हो जाएगा | इससे अलग हटकर देखें तो सरकार के स्तर पर भी  नीतिगत निर्णयों को लेने में चुनाव बाधा बन  जाते हैं | इस समय केंद्र   सरकार का पूरा ध्यान  चुनाव वाले राज्यों पर हैं | असम , बंगाल , तमिलनाडु और केरल संबंधी तमाम घोषणाएं हाल के दिनों में की गईं | तमिलनाडु के लोकप्रिय फिल्मी सितारे रजनीकांत को दादा साहेब फाल्के पुरुस्कार दिए जाने की घोषणा इसका प्रमाण है | ये देखते हुए एक देश एक चुनाव की पुरानी व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की बहुत जरूरत है | हमारे देश में चुनावी मौसम कभी खत्म ही नहीं होता | 2 मई को पांच राज्यों के नतीजे आते ही उप्र , उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनाव की हलचल शुरू हो जायेगी | ऐसे में  केंद्र और राज्य दोनों की सरकारों का पूरा ध्यान चुनाव जीतने पर लग जाता है | ये कहना भी गलत नहीं होगा कि इस वजह से विपक्ष भी अपनी दिशा तय कर पाने में असमर्थ रहता है | बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी एक हैं वहीं केरल में आमने - सामने | बीच चुनाव में ममता द्वारा विपक्ष के नेतओं को पत्र लिखकर मदद मांगने से भी ये स्पष्ट हुआ कि देश में  एक साथ चुनाव नहीं होने से सरकार के स्तर पर नीतिगत ठहराव और अनिश्चितता बनी रहती है वहीं विपक्ष में भी  रणनीति को लेकर भटकाव की स्थिति साफ़ नजर आती है | प्रधानमन्त्री एक देश एक चुनाव के बारे में कई बार बोल चुके हैं लेकिन न जाने क्यों बाकी दल इसे लेकर बेहद उदासीन हैं | जबकि देखा जाए तो ऐसा होने पर वे अपने प्रभावक्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे | ये दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे देश में राष्ट्रहित के विषयों पर भी दलगत राजनीति होने लगती है | हम अपने लोकतंत्र की परिपक्वता का दावा तो बहुत करते हैं लेकिन राजनीतिक दलों और उसके नेताओं की सोच निहित स्वार्थ और क्षणिक  लाभ से आगे ही नहीं बढ़  पाती | सही बात तो ये है  विपक्ष नरेंद्र मोदी को हटाने के बारे में सतही तौर पर  भले ही एकजुट नजर आता है किन्तु उसके भीतर भी एकता का अभाव है | बंगाल को ही लें तो यदि ममता सत्ता से बाहर होती हैं तो उसका कारण भाजपा के आक्रामक  प्रचार अभियान के साथ ही कांग्रेस और वाम दलों का गठबंधन भी होगा जिसमें ममता समर्थक मुस्लिम मतों में सेंध  लगाने के लिए फुरफुरा शारीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी को भी  शामिल किया गया है | ऐसी विसंगतियां अन्य राज्यों में भी देखी जा सकती हैं | उप्र में सपा ने पहले कांग्रेस और फिर बसपा से गठबंधन किया और अब तीनों अलग हैं | शिवसेना खुलकर कहती आ रही है कि यूपीए की कमान सोनिया गांधी से लेकर शरद पवार को दी जाए | यदि देश में एक साथ चुनाव होने लगें  तो इससे राजनीतिक प्रदूषण तो कम होगा ही आर्थिक मोर्चे पर भी नीतिगत असमंजस  खत्म किया जा सकेगा जिसकी बानगी गत  दिवस दिखाई दी |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 1 April 2021

ममता की चिट्ठी में छिपे हैं भविष्य के संकेत



राजनीति में समय का चयन बेहद महत्वपूर्ण होता है |  इस दृष्टि से बंगाल  की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी द्वारा राज्य विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण के मतदान के पहले देश भर के विपक्षी नेताओं को चिट्ठी भेजकर भाजपा के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष  की अपील किये जाने का सांकेतिक महत्त्व है | सुश्री बैनर्जी ने इस पत्र के जरिये ये जताने की कोशिश की है कि वे भाजपा के विरुद्ध समूचे विपक्ष को एकजुट करने के लिए सक्रिय होंगी | राजनीति के जानकार ये मान  रहे हैं कि चुनाव बाद के  परिदृश्य को अपने  अनुरूप  ढालने के लिए उन्होंने ये रणनीतिक कदम उठाया है | वरना जो कांग्रेस बंगाल में तृणमूल सरकार को हटाने के लिए वाम दलों और अब्बास सिद्दीकी के सेकुलर फ्रंट के साथ मिलकर मैदान में हैं उसकी सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी को भी उक्त पत्र भेजने का कोई औचित्य नहीं था | यद्यपि ममता ने शरद पवार , उद्धव ठाकरे , अरविन्द केजरीवाल , स्टालिन , जगनमोहन रेड्डी , केसी रेड्डी , तेजस्वी यादव , अखिलेश यादव , फारुख अब्दुल्ला , महबूबा मुफ्ती , नवीन पटनायक और हेमंत सोरेन को तो पत्र  लिखा लेकिन वामदलों में उन्होंने सीपीआई और सीपीएम की उपेक्षा करते  हुए भाकपा ( माले ) के नेता नेता दीपांकर भट्टाचार्य को पत्र भेजा जिससे ये स्पष्ट हो गया कि उनके मन में वाममोर्चे के शासन में हुए दुर्व्यवहार की कसक अभी भी  है | लेकिन जिस कांग्रेस को सीपीएम की बी टीम निरूपित करते हुए  छोड़कर उन्होंने तृणमूल बनाई उसकी कार्यकारी  अध्यक्ष श्रीमती गांधी उनकी सूची में पहले क्रमांक पर क्यों हैं  इसके पीछे की राजनीति भी अब बाहर  आ रही है | उल्लेखनीय है कि बंगाल में कांग्रेस ने वाम दलों के साथ चुनावी गठबंधन तो  किया है लेकिन गांधी परिवार का कोई भी सदस्य वहां प्रचार करने नहीं आ रहा | राहुल और प्रियंका दोनों असम में तो सक्रिय हैं किन्तु बंगाल से दूरी बनाये हुए हैं | इसके पीछे चुनाव बाद की व्यूह रचना है जिसमें त्रिशंकु विधानसभा उबरने की सूरत में भाजपा को रोकने के लिए ममता की ताजपोशी करवाना है | वाम दलों में दीपांकर भट्टाचार्य चूँकि मुख्य धारा के साम्यवादी आन्दोलन से नहीं जुड़े हैं इसलिए उनको खुश करने का प्रयास किया गया | दूसरी बात ये भी है कि खुदा न खास्ता अगर ममता की पार्टी सत्ता से बाहर हो जाती है और बाहरी समर्थन से भी सरकार बनाना नामुमकिन हो जाता है तब वे अपने लिए राष्ट्रीय राजनीति में जगह तलाशेंगी | इस चुनाव के बाद यूँ भी बंगाल में  लोकसभा और राज्य सभा के कुछ उपचुनाव होंगे जिनके जरिये वे दिल्ली की सियासत में दोबारा प्रवेश करने का सोच सकती हैं | ये बात बिलकुल सही है कि कांग्रेस के झंडे तले अब छोटे दल अपने को सुरक्षित नहीं समझते | सोनिया जी  अस्वस्थता  के कारण विपक्ष की एकता के लिए जरूरी मेहनत करने में असमर्थ हैं वहीं राहुल से अपनी पार्टी ही नहीं संभल रही | शरद पवार , शरद यादव , मुलायम सिंह , लालू यादव आदि सभी आयु और स्वास्थ्य के कारण राष्ट्रीय राजनीति की धुरी बनने में अक्षम हैं वहीं उनके उत्तराधिकारी  कसौटी पर  खरे नहीं उतर सके | ऐसे में ममता बनर्जी विपक्षी राजनीति के नेता की खाली  जगह को भरने की इच्छा रख रही हैं तो गलत नहीं है | बंगाल की मुख्यमंत्री रहने के बाद भी वे केंद्र सरकार से टकराने का कोई अवसर नहीं छोड़तीं | राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहिचान भी है | सबसे बड़ी बात उनकी आक्रामकता है जो विपक्षी नेता का सबसे बड़ा गुण है | विधानसभा चुनाव के दो दिन पहले विपक्ष के तमाम नेताओं को भाजपा के विरुद्ध एकजुट होने के लिए लिखित निवेदन भेजना उनकी चुनावी रणनीति के लिहाज से भी एक दांव हो सकता है जिसके जरिये वे  ये आगाह करना चाहती हैं कि भाजपा को हराने के लिए विपक्षी मतों का बंटवारा रोकना होगा | चूँकि बंगाल में तृणमूल ही भाजपा को रोकने में सक्षम है इसलिए विपक्षी मतों का ध्रुवीकरण नितान्त जरूरी है | उनके पत्र पर  विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया और जवाब आने वाले दिनों में सामने आ जायेंगे किन्तु एक लड़ाई के बीच  अगली की तैयारी करने को साधारण कदम नहीं माना जा सकता | बंगाल का ये चुनाव काफी कशमकश भरा है जिसमें पहली बार भाजपा ने खुद को बतौर विकल्प पेश करने का जो दुस्साहस किया था वह इस हद तो सफल हो गया है कि  लगभग सभी विश्लेषक ये मान  रहे हैं कि तृणमूल और भाजपा के बीच ही टक्कर है तथा कांग्रेस , वामदलों और आईएसएफ़ का गठबंधन वोटकटवा की भूमिका में है | नंदीग्राम में शुबेन्दु अधिकारी को चुनौती देने उतरीं ममता का वहां लगातार पांच दिन तक डेरा डाले रहना ये तो दर्शाता ही है कि लड़ाई को वे खुद आसान नहीं मान रहीं | ऐसे में विपक्षी नेताओं को लिखित उनका पत्र बंगाल के मतदाताओं के भावनात्मक दोहन का भी प्रयास है | खास तौर पर उस वर्ग को वे अपने पाले में खींचना चाह रही हैं जो लोकसभा चुनाव में वामदलों से नाराज होकर भाजपा की तरफ झुक गया था   |  ममता का ये पत्र उनकी दूरगामी रणनीति  है लेकिन विपक्षी एकता की इस मुहिम से सीपीआई और सीपीएम को बाहर रखने से वह कितनी सफल होगी ये बड़ा सवाल है क्योंकि केरल से मिल रहे संकेतों के अनुसार वाममोर्चा वहां सत्ता में लौट रहा है और उसे सुश्री बैनर्जी का नेतृत्व कतई मंजूर नहीं होगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी