Monday 5 April 2021

हत्यारों का कोई मानवाधिकार नहीं होता



छत्तीसगढ़ के  सुकमा - बीजापुर क्षेत्र में बीते शनिवार की रात को नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बल के 22 लोग शहीद हो गए | नक्सलियों ने सुरक्षा बलों की टुकड़ियों को तीन तरफ से घेरकर जोरदार हमला किया जिसमें लगभग 2 दर्जन जानें चली गईं  | वैसे 25 से 30 नक्सलियों के भी मारे जाने की खबर है |  केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह  गत दिवस असम का चुनावी दौरा छोड़कर दिल्ली आये और उच्च स्तरीय बैठक में ये तय किया गया कि नक्सलियों को अब उनके अड्डों में घुसकर मारने का अभियान चलाया  जाएगा |  इस प्रकार की घटनाएँ छत्तीसगढ़ में पहले भी अनेक बार हो चुकी हैं | हर बड़ी वारदात के बाद इसी तरह की बड़ी - बड़ी बातें होती रहीं | एक बार फिर  राजनीतिक इच्छाशक्ति के प्रदर्शन के साथ ही बलि के बकरे तलाशने  का चिर - परिचित कर्मकांड होगा  परन्तु कुछ समय  बाद शहीदों का बलिदान राजनीतिक नफे - नुकसान के हिसाब में उलझकर भुला दिया जावेगा  | ताजा घटना के बारे में  स्पष्ट किया गया है कि सुरक्षा बलों की तरफ से दिए  गये माकूल जवाब के कारण नक्सलियों की भी बड़ी संख्या हताहत हुई | लेकिन उनकी मौत हमारे जवानों की शहादत का मुआवजा नहीं मानी जा सकती | छत्तीसगढ़  वह  राज्य है जिसकी सीमाएं मप्र , झारखण्ड , उड़ीसा , तेलंगाना और महाराष्ट्र से  मिलती हैं | और संयोगवश ये सभी  नक्सल प्रभावित हैं | नक्सल प्रभावित  समूचा इलाका भी वनाच्छादित है जिसमें अधिकतर आदिवासी आबादी है | नक्सलियों को यहाँ की परिस्थितियाँ पूरी तरह से अनुकूल लगती हैं | विकास का अभाव , शिक्षा की कमी और गरीबी के कारण आदिवासी समुदाय का जो शोषण होता रहा उसके आधार पर वे अपना नेटवर्क फ़ैलाने में कामयाब हो गये | यद्यपि  इनके पीछे विदेशी  हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता | नेपाल के पशुपतिनाथ से लेकर आंध्र के तिरुपति तक वे अपना फैलाव कर भी  चुके हैं | फिर भी   घरेलू समर्थन के बिना उनकी जड़ें इतनी गहरी कभी नहीं जम पातीं | ज़ाहिर है राजनीतिक समर्थन के कारण वे  अपने पाँव ज़माने में कामयाब हो सके | शहरों में छद्म  बुद्धिजीवी बनकर बैठे तमाम लोग इनके संरक्षक हैं जिनकी गिरेबान पर हाथ डालते ही मानवाधिकार हनन  का ढोल पीटा जाने लगता है | जिन राज्यों का ऊपर जिक्र किया गया उनमें अनेक नेताओं और राजनीतिक दलों का नक्सलियों से गठजोड़ खुली किताब है | छत्तीसगढ़ में  26 मई 2013 को जिस नक्सली हमले में कांग्रेस के तमाम बड़े नेता मारे गये थे उसके बारे में भी ये कहा जाता है कि वह राजनीतिक षड्यंत्र ही था | उस आरोप की सुई बार - बार वहाँ के एक पूर्व मुख्यमंत्री की तरफ घूमती रही जो हमले के कुछ देर पहले ही घटनास्थल से चले आये थे |  बिहार और झारखण्ड में भी ऐसी ही बातें सुनाई देती रही हैं | ये देखते हुए तो लगता है नक्सलियों  का वैचारिक पक्ष  केवल मुखौटा है और विदेशी मदद तथा घरेलू संरक्षण के कारण ये ऐसा माफिया गिरोह बन गया है जिसका मकसद आपराधिक गतिविधियों में  लिप्त रहने  के साथ ही देश को भीतर से कमजोर करना है | इसकी तुलना मुम्बई के उन माफिया गिरोहों से करना गलत न होगा जो राजनीतिक नेताओं की जेबें गर्म करते हुए  देशविरोधी गतिविधियों का संचालन करते रहे | गौरतलब है कि नक्सलियों का कार्यक्षेत्र मुख्यरूप से   उन्हीं इलाकों में हैं जहाँ खनिज भण्डार है | खदान व्यवसायियों से अवैध वसूली इनकी आय का स्रोत है जिसमें स्थानीय प्रशासन में बैठे कतिपय लोग भी लालच और भयवश सहयोग करते हैं | एक जमाने में चम्बल के बीहड़ों में सक्रिय  डकैत भी ऐसा ही करते थे | सवाल ये है कि ये समस्या को कैसे हल  होगी ? वैसे तो हर बड़ी हिंसक वारदात की निंदा राज्नीतिक बिरादरी द्वारा की जाती है किन्तु नक्सलवादियों के सफाये के लिए सुरक्षा बलों को वैसी छूट अब तक नहीं मिली जैसी कश्मीर घाटी में  सेना को दी गई है | समस्या ये भी है कि बड़ी संख्या में आदिवासी आबादी  इनकी बंधक जैसी  है जिसे ये अपनी ढाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं | विकास के कार्यों में रूकावट डालने की इनकी कोशिशों से साफ़ हो जाता है कि वे आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध नहीं अपितु उनको पिछड़ा बनाये रखने के समर्थक हैं | केंद्र सरकार ने गत दिवस जो संकेत दिए वे कितने दीर्घजीवी और कारगर होंगे ये कह पाना कठिन है क्योंकि पिछले अनुभव निराश करने वाले ही रहे | लेकिन  यदि सभी  राजनीतिक दल  किसी ठोस रणनीति पर एकमत हो सकें तो बड़ी बात नहीं जिस तरह कश्मीर घाटी और उत्तर पूर्व के अनेक राज्यों में आतंकवाद और उग्रवाद की जड़ें कमजोर की जा सकीं ठीक वैसे ही नक्सलवादियों की भी कमर तोडी जा सकती है | ये बात स्वीकार करनी ही होगी कि  हत्यारों का कोई  मानवाधिकार नहीं होता | जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता तब उनको  टेढा  करना ही पड़ता है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

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