Friday 2 April 2021

एक साथ चुनाव से ही दूर होगी नीतिगत अनिश्चितता



नए वित्तीय वर्ष के पहले ही दिन केंद्र सरकार को फजीहत झेलनी पडी | सुबह खबर थी कि अल्पबचत योजनाओं पर ब्याज दर घटा दी गई है | कुछ देर में ही कदम पीछे खींचते   हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण  ने  ऐलान कर  दिया कि ब्याज दरें पूर्ववत रहेंगी और घटाने  वाला आदेश गलती से जारी हो गया था | मध्यमवर्ग ने इससे राहत तो महसूस की लेकिन उसके मन में केंद्र सरकार या वित्तमंत्री के प्रति किसी भी प्रकार के आभार का भाव नहीं आया |  आम धारणा यही बनी कि ये सब पांच राज्यों के चुनावों में मतदाताओं की नाराजगी से बचने के लिए किया गया | उल्लेखनीय है कल ही बंगाल और असम में दूसरे चरण का मतदान भी था | हालाँकि केंद्र सरकार इस बारे में पहले ही संकेत दे चुकी थी | इस बारे में ये बात याद रखनी होगी कि 1991 में डा. मनमोहन सिंह ने जिस उदारीकरण की नीति को लागू किया उसके बाद  लघु बचत पर  ब्याज दर में कटौती का सिलसिला शुरु हुआ | कहा जाता है विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सहित कर्ज देने वाले अन्य संस्थानों ने भारत सरकार पर दबाव डालते हुए लघु बचत योजनाओं में मिलने वाले ब्याज को घटाने कहा | उनका तर्क था कि इस वजह से मध्यम वर्ग अपनी बचत बैंकों में जमा रखता है जबकि ब्याज कम होने से यही पैसा पूंजी बाजार में आयेगा | हालाँकि सरकारें बदलती गईं लेकिन उदारीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था के ग्लैमर से  सभी आकर्षित रहे जिससे कारण छोटी बचत के  परम्परागत भारतीय  संस्कार और संस्कृति को बहुत चोट पहुंची  | जो भाजपा शुरुवात  में इन नीतियों का खुलकर विरोध करती रही वही सत्ता में आने के बाद उन्हें लागू करने में आगे - आगे होती नजर आई | सेवा निवृत्त बुजुर्गों को बैंक में जमा राशि पर मिलने वाला ब्याज  नीचे आते जाने से  उनका जीवनयापन कठिन हो गया | हालाँकि गृह निर्माण और  वाहन खरीदी जैसे ऋण भी सस्ते हुए लेकिन जिस व्यक्ति का गुजारा  जमा राशि पर मिलने वाले ब्याज से होता रहा  वह संकट में है | मोदी सरकार ने आर्थिक क्षेत्र में सुधारवादी अनेक अच्छे कदम उठाये जिनका दूरगामी लाभ देश को मिलेगा लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि वह मध्यमवर्गीय तबके को राहत देने में विफल रही है | इसमें नौकरपेशा के साथ लघु और मध्यम कारोबारी भी है | कोरोना काल में पुरानी बचत ने इस वर्ग के लिए प्राणवायु का काम किया लेकिन बीते एक साल में वह भी खल्लास हो गई | बेहतर होता सरकार इस दिशा में  और प्रोत्साहित करती किन्तु इसके ठीक उलट नया कारोबारी साल शुरू होते ही बचत पर ब्याज दरें घटाने जैसा तुगलकी फरमान जारी कर  दिया गया और फिर दिल्ली से दौलताबाद वाली उक्ति दोहराते हुए वापिसी का आदेश आया | भले ही जैसी वित्तमंत्री ने सफाई दी पहला आदेश गलती से जारी हो गया लेकिन उसे सुधारे जाने में दिखाई गयी तत्परता से सरकार को किसी भी  तरह की वाहवाही नहीं  मिली ,  उलटे वह जगहंसाई का पात्र बनी | इसी तरह बीते कुछ दिनों  से पेट्रोल - डीजल की कीमतों में रोजाना  कुछ पैसों की गिरावट को भी जनता चुनावी मजबूरी मान रही है | ये चर्चा आम है कि सभी पाँच राज्यों में मतदान खत्म होते ही दाम बढ़ने का सिलसिला दोबारा शुरू हो जाएगा | इससे अलग हटकर देखें तो सरकार के स्तर पर भी  नीतिगत निर्णयों को लेने में चुनाव बाधा बन  जाते हैं | इस समय केंद्र   सरकार का पूरा ध्यान  चुनाव वाले राज्यों पर हैं | असम , बंगाल , तमिलनाडु और केरल संबंधी तमाम घोषणाएं हाल के दिनों में की गईं | तमिलनाडु के लोकप्रिय फिल्मी सितारे रजनीकांत को दादा साहेब फाल्के पुरुस्कार दिए जाने की घोषणा इसका प्रमाण है | ये देखते हुए एक देश एक चुनाव की पुरानी व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की बहुत जरूरत है | हमारे देश में चुनावी मौसम कभी खत्म ही नहीं होता | 2 मई को पांच राज्यों के नतीजे आते ही उप्र , उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनाव की हलचल शुरू हो जायेगी | ऐसे में  केंद्र और राज्य दोनों की सरकारों का पूरा ध्यान चुनाव जीतने पर लग जाता है | ये कहना भी गलत नहीं होगा कि इस वजह से विपक्ष भी अपनी दिशा तय कर पाने में असमर्थ रहता है | बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी एक हैं वहीं केरल में आमने - सामने | बीच चुनाव में ममता द्वारा विपक्ष के नेतओं को पत्र लिखकर मदद मांगने से भी ये स्पष्ट हुआ कि देश में  एक साथ चुनाव नहीं होने से सरकार के स्तर पर नीतिगत ठहराव और अनिश्चितता बनी रहती है वहीं विपक्ष में भी  रणनीति को लेकर भटकाव की स्थिति साफ़ नजर आती है | प्रधानमन्त्री एक देश एक चुनाव के बारे में कई बार बोल चुके हैं लेकिन न जाने क्यों बाकी दल इसे लेकर बेहद उदासीन हैं | जबकि देखा जाए तो ऐसा होने पर वे अपने प्रभावक्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे | ये दुर्भाग्य का विषय है कि हमारे देश में राष्ट्रहित के विषयों पर भी दलगत राजनीति होने लगती है | हम अपने लोकतंत्र की परिपक्वता का दावा तो बहुत करते हैं लेकिन राजनीतिक दलों और उसके नेताओं की सोच निहित स्वार्थ और क्षणिक  लाभ से आगे ही नहीं बढ़  पाती | सही बात तो ये है  विपक्ष नरेंद्र मोदी को हटाने के बारे में सतही तौर पर  भले ही एकजुट नजर आता है किन्तु उसके भीतर भी एकता का अभाव है | बंगाल को ही लें तो यदि ममता सत्ता से बाहर होती हैं तो उसका कारण भाजपा के आक्रामक  प्रचार अभियान के साथ ही कांग्रेस और वाम दलों का गठबंधन भी होगा जिसमें ममता समर्थक मुस्लिम मतों में सेंध  लगाने के लिए फुरफुरा शारीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी को भी  शामिल किया गया है | ऐसी विसंगतियां अन्य राज्यों में भी देखी जा सकती हैं | उप्र में सपा ने पहले कांग्रेस और फिर बसपा से गठबंधन किया और अब तीनों अलग हैं | शिवसेना खुलकर कहती आ रही है कि यूपीए की कमान सोनिया गांधी से लेकर शरद पवार को दी जाए | यदि देश में एक साथ चुनाव होने लगें  तो इससे राजनीतिक प्रदूषण तो कम होगा ही आर्थिक मोर्चे पर भी नीतिगत असमंजस  खत्म किया जा सकेगा जिसकी बानगी गत  दिवस दिखाई दी |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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