Thursday 15 April 2021

चिकित्सा क्रांति सबसे बड़ी राष्ट्रीय आवश्यकता


 
आग लगने पर कुआ खोदने वाली कहावत तो सभी ने सुनी होगी  लेकिन कुआ होने के बाद घर में रखी बाल्टी और उसमें बांधी जाने वाली रस्सी समय पर न मिले तो उसका लाभ ही क्या ? कोरोना के पहले हमले के समय देश भर में वेंटीलेटर की किल्लत महसूस किये जाने के बाद केंद्र और राज्य सरकारों ने बड़े पैमाने पर उनकी खरीद की | विदेशों  से आयात भी आसानी से संभव नहीं था | ऐसे में भारत में  उनका उत्पादन  प्राथमिकता के आधार पर शुरू  हुआ  और ये दावा भी सुनाई देने लगा कि  इस क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल हो गई  है | कुछ समय बाद कोरोना के  ढलान पर आते ही  वेंटीलेटर की मारामारी खत्म सी हो गई | लेकिन बीते दो सप्ताह में ही  लाखों मरीजों को वेंटीलेटर की आवश्यकता हुई तो पता चला कि पिछले साल आई मुसीबत से थोड़ी  सी राहत क्या मिली गाड़ी फिर पुराने ढर्रे पर लौट गयी | उल्लेखनीय है गत वर्ष देश में लागभग 4 लाख  वेंटीलेटर बनाये गये जबकि पहले ये संख्या 4 हजार से भी  कम थी | केंद्र सरकार ने भी 50 हजार वेंटीलेटर  का ऑर्डर दिया | लेकिन जो जानकारी निकलकर आई है उसके अनुसार उत्पादन होने के बाद भी  बहुत  बड़ी संख्या में वे अभी कम्पनी के पास ही पड़े हैं | उससे भी बड़ी बात ये हुई कि पंजाब सहित अनेक राज्यों को मिले वेंटीलेटर अभी तक डिब्बों में ही   बंद हैं | इसके पीछे एक कारण उनको संचालित करने वाले प्रशिक्षित कर्मियों की  कमी है | सवाल ये है कि जब ये बात प्रामाणिक तौर  पर  सबको पता थी कि कोरोना खत्म नहीं हुआ है और हमें इसके  साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए तब वेंटीलेटर की पर्याप्त संख्या के साथ ही उनको संचालित करने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षित क्यों नहीं किया गया ?  सरकारी अस्पतालों में गत वर्ष आपूर्ति किये गये वेंटीलेटरों की पैकिंग तक नहीं खोला जाना अपराधिक  उदासीनता नहीं तो और क्या है ? ये माना कि भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में इस तरह की महामारी से निपटने के लिए पर्याप्त आपदा प्रबंधन नहीं था लेकिन गत वर्ष मिले अनुभवों से सबक लेकर जरुरी व्यवस्थाएं करने की बजाय निश्चिंतता की चादर ओढकर सो जाने  की परम्परा का जो निर्वहन किया गया वह बेहद  महंगा पड़ा  | सवाल केवल वेंटीलेटर का नहीं है | कोरोना मरीजों के इलाज में लगने वाली आक्सीजन की कमी गत वर्ष भी देखने मिली थी किन्तु बीते एक वर्ष में न तो सरकारी और न ही निजी क्षेत्र के चिकित्सा प्रबंधन ने इस बारे में कोई कार्ययोजना बनाई जिससे  आपातकालीन व्यवस्था हो सके | इससे बड़ी पीड़ादायक बात क्या हो सकती है कि किसी मरीज के परिजन को कहा जाए कि वह आक्सीजन का इन्तजाम खुद करे | कल को ये भी सुनने मिल सकता है कि अपना वेंटीलेटर भी लेकर आओ | कोरोना के पहले हमले के समय प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा आपदा में अवसर तलाशने और आत्मनिर्भर भारत का जो मन्त्र दिया था उस दिशा में  बिलकुल काम नहीं हुआ ये कहना तो गलत होगा लेकिन  जैसे ही कोरोना का प्रकोप कम होने लगा हमारा समूचा तन्त्र और उसे संचालित करने वाले लापरवाह हो गये | सरकारी के साथ ही निजी क्षेत्र भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है | बीते एक साल में निजी अस्पतालों  को जो छप्पर फाड़ कमाई हुई है यदि उसका उपयोग वे अपनी क्षमता और सुविधाओं में वृद्धि के लिए करते तब स्थिति बेहतर होती | ये बात भी देखने लायक है कि गत वर्ष जहां निजी क्षेत्र के गिने - चुने अस्पाताल ही कोरोना मरीजों का इलाज कर रहे थे वहीं इस वर्ष अधिकतर में कोरोना मरीजों को धड़ल्ले से भर्ती किया जा रहा है | मरीजों की  मजबूरी ये है कि उनके सामने विकल्प ही नहीं होता जिसकी वजह से वे सुविधाहीन अस्पतालों में भर्ती होकर दुर्दशा झेलने बाध्य हैं | कहने का आशय ये कि बीते एक साल में कोरोना से लड़ने के मामले में टीके का घरेलू उत्पादन जहां हमारी बड़ी कामयाबी रही परन्तु  दूसरी तरफ इतनी बड़ी  आबादी के इलाज के लिए समुचित व्यवस्था और संसाधन जुटाने में हम विफल रहे | प्रबन्धन का मूल सिद्धांत है गलतियों से सीखना लेकिन इस मन्त्र की उपेक्षा करना हमारा स्वभाव बन गया है | और तो और गलतियों को दोहराने में हम जरा  भी  हिचकते या शर्माते नहीं हैं | 1962 के चीनी हमले के बाद से भारत ने सीमा पर सुरक्षा के लिए जरूरी ढांचा खड़ा करने की तरफ ध्यान दिया | उसके अच्छे परिणाम भी आये | कोरोना संकट के मद्देनजर   देश में चिकित्सा क्रांति की महती आवशयकता महसूस की जाने लगी है | यदि आपदा में अवसर तलाशने के प्रति हम वाकई  ईमानदार है तो फिर बिना देर लगाये इस दिशा में काम शुरू करना होगा | परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने दावा किया है कि तीन - चार साल में भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग यूरोप की टक्कर के बन जायेंगे | ऐसी ही योजना चिकित्सा को लेकर भी बननी चाहिए | भारत में चिकित्सा पर्यटन काफी तेजी से विकसित होने  लगा था | अपेक्षाकृत  सस्ता और अच्छा इलाज यहाँ होने से विदेशी काफी बड़ी संख्या में आने लगे थे किन्तु कोरोना के बाद इस बात का खुलासा हो गया कि हम अपनी आबादी तक को समुचित चिकित्सा नहीं दे पा रहे | कोरोना ने ये सिखा दिया है कि हमारी आर्थिक और  सामरिक मजबूती तब तक किसी काम की नहीं है जब तक हम एक स्वस्थ देश के रूप में नहीं खड़े हो जाते |

 

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