Saturday 10 April 2021

दलबदलू से वसूला जाए उपचुनाव का खर्च



भारत में दलबदल कब शुरू हुआ ये शोध का विषय है | लेकिन सत्तर के दशक में यह खुलकर सामने आने लगा | विधायकों के पाला बदलने से अनेक राज्य सरकारें गिरीं | हरियाणा में आयाराम - गयाराम जैसे वाकये हुए जिनमें  सुबह पार्टी छोड़ने  और शाम को वापिस लौट आने जैसी नौटंकियाँ देखने मिलीं | भजनलाल नामक मुख्यमंत्री ने तो पूरी सरकार सहित दलबदल कर डाला | 1985 में संसद ने दलबदल विरोधी कानून पारित किया  जिसके अंतर्गत पार्टी बदलने पर विधायक और सांसद की सदस्यता समाप्त हो जाती है | सदन में पार्टी व्हिप का उल्लंघन भी अयोग्यता का आधार बन गया | लेकिन एक तिहाई विधायक या सांसद यदि सामूहिक रूप से दलबदल करते हैं तो उसे पार्टी में विभाजन मानकर सदस्यता बरकरार रखे जाने का प्रावधान भी उक्त्त कानून में रखा गया | हालाँकि इसके बावजूद भी नये तरीके निकाले जाते रहे | वैसे  दलबदल  सैद्धांतिक अथवा नीतिगत मतभिन्नता के कारण हो तो उसका औचित्य समझा जा सकता है |  अनेक ऐसे उदहारण हैं जहाँ सांसदों और विधायकों ने अपनी पार्टी से मतभेदों के चलते सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया | कुछ को सदन के  अध्यक्ष द्वारा  अयोग्य भी ठहराया गया | थोक में दिए त्यागपत्र स्वीकार करने के  मामलों में अध्यक्ष द्वारा सत्तारूढ़ दल के लाभ  के मद्देनजर  फैसला करने या निर्णय को लंबित रखे  रहने के भी तमाम मामले हैं | बीते कुछ सालों से  छोटे - छोटे  राज्यों में दलबदल का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है | सभी पार्टियां एक - दूसरे पर आरोप लगाया करती हैं किन्तु सबका आचरण  कमोबेश है एक जैसा  | जैसे - जैसे राजनीति में धन का जोर बढ़ा  वैसे - वैसे दलबदल भी पांच सितारा संस्कृति से प्रभावित होने लगा | जो पार्टी दलबदल करवाती है वह विधायकों को सम्बन्धित राज्य की बजाय ऐसे  किसी राज्य में ले जाती है जहां या तो उसकी अपनी सत्ता हो या फिर अनुकूल सरकार | दल बदलने वालों को किसी सितारा होटल या रिसार्ट रूपी ऐशगाह में ठहराया जाता है | दूसरी तरफ  सत्ता और विपक्ष में बैठी पार्टी अपने विधायकों को पाला बदलने से रोकने के लिए भी ये तरीका अपनाती  हैं | पहले - पहले ये अटपटा लगता था किन्तु बीते  कुछ वर्षों से राजनीतिक पर्यटन या रिसार्ट राजनीति की बयार काफी तेजी से बहने लगी है | गत दिवस इसका नया रूप सामने आया जब खबर मिली कि कांग्रेस ने असम में अपने गठबंधन भागीदार  एआईयूडीएफ की टिकिट पर विधानसभा चुनाव लड़े डेढ़ दर्जन उम्मीदवारों को जयपुर भेजने का निर्णय किया  | इसके पीछे ये डर है कि चुनाव जीतकर वे दूसरे खेमे में जा सकते हैं   | इसके बाद ये जानकारी भी मिल रही है कि सम्भवतः कांग्रेस  अपने उम्मीदवारों को भी राजस्थान भेजने वाली है ताकि जीतने के बाद वे  धोखा न दे सकें  | रणनीति के लिहाज से ये स्वाभाविक ही है | लेकिन ये इस बात को भी तो प्रमाणित करता है कि राजनीतिक दलों का अपने उम्मीदवारों  पर किस हद तक अविश्वास  है | चुनाव जीतने के बाद विधायकों को एक जगह बटोरकर रखना तो फिर भी समझ में आता है लेकिन  नतीजे का इंतजार किये बिना ही उन्हें इस तरह कैद में रखने की कोशिश  लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए पर्याप्त है | हो सकता है आने वाले समय में सभी पार्टियां इस तरीके को अपनाने लगें | बीते कुछ समय से चुने हुए विधायकों को सामूहिक त्यागपत्र दिलवाकर उपचुनाव करवाने की तरकीब काम में लाई जा रही है | इसकी वजह से सरकार पर अतिरिक्त आर्थिक  बोझ पड़ने के साथ ही  राजनीतिक अस्थिरता और  प्रशासनिक निष्क्रियता भी देखने मिलती है | मप्र की दमोह  विधानसभा सीट के उपचुनाव के लिए आगामी सप्ताह मतदान होना है | 2018 में जीता कांग्रेस विधायक भाजपा में आ गया और अब भाजपा की टिकिट पर दोबारा जनादेश मांग रहा है |  ऐसे मामलों में ये व्यवस्था की जानी चाहिए कि चुना हुआ जनप्रतिनिधि  कार्यकाल  पूरा करने के पहले दलबदल करे या सदस्यता छोड़े तो उपचुनाव पर होने वाले सरकारी खर्च की भरपाई या तो वह करे या फिर उसे अपनी टिकिट पर उपचुनाव लड़वाने वाली पार्टी | दो जगह से चुनाव जीतने के बाद एक सीट खाली करने वाले से भी उपचुनाव का  खर्च वसूलने का नियम समय की मांग है | वैसे तो लोकतंत्र  स्वस्थ परम्पराओं और नैतिकता की बुनियाद पर टिका होता है लेकिन जब उनकी धज्जियां उड़ाई जाने लगें तब कानून नामक शिकंजा कसना जरूरी हो जाता है | असम से आई खबर को सामान्य मानकर हवा में उड़ा देना ठीक नहीं होगा | यदि राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों की निष्ठा और वफादारी पर इस हद तक अविश्वास है तो उन्हें टिकिट देने की समूची प्रक्रिया ही दोषपूर्ण कही जायेगी | मूल्यों की राजनीति करने वाले तो न जाने कब के  चले गए | लेकिन उनके उत्तराधिकारी जिस बेहयाई से अपना  मूल्य लगाने लगे  हैं उसे देखकर उनकी आत्मा भी रोती होगी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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