Friday 9 April 2021

जब मध्यस्थ पहुंच सकते हैं तो सुरक्षा बल क्यों नहीं



सीआरपीएफ (केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल) के कोबरा कमांडों राकेश्वर सिंह के नक्सली कब्जे से सुरक्षित लौटने से सभी ने राहत की साँस ली | पिछले दिनों बस्तर के बीजापुर में हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बल के 22 जवान मारे गये थे | उसी दौरान घायल अवस्था में  राकेश्वर नक्सलियों के कब्जे में आ गये | उन्हें छुड़ाने के प्रयास शुरू हुए तो नक्सलियों ने कुछ मध्यस्थों के जरिये बात करने कहा | इस पर  एक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ पत्रकारों की कोशिशों के बाद कमांडो  रिहा कर दिया गया | लेकिन जैसी  जानकारी मिली है उसके बदले  नक्सलियों से जुड़े होने के कारण गिरफ्तार किये गये  एक ग्रामीण को वापिस करना पड़ा | चूँकि  सीआरपीएफ का एक कमांडो सुरक्षित आ गया इसलिए इसे फायदे का सौदा कहना गलत न होगा | लेकिन एक बार फिर ये साबित हो गया  कि नक्सलियों की  एक समानांतर सरकार चलती है | उनके प्रभावक्षेत्र में  रहने वाले ग्रामीण आदिवासी ही नहीं अपितु व्यापारी , सरकारी  कर्मचारी - अधिकारी सहित राजनीतिक लोग भी उन्हीं की दयादृष्टि पर निर्भर रहते हैं | संदर्भित मामले  में जैसे ही राकेश्वर के बंधक होने  की जानकारी आई त्योंही उक्त  गांधीवादी कार्यकर्ता को उनसे संपर्क  करने कहा गया |  बाद में कुछ स्थानीय पत्रकार जोड़े गए जिनके जरिये कमांडों और एक ग्रामीण का आदान - प्रदान हो सका | जान बची तो लाखों पाये की तर्ज पर राकेश्वर की रिहाई राहत देने वाली है परन्तु इस  दौरान एक बात देखने में आई कि नक्सली भले ही घने जंगलों में छिपे रहते हों लेकिन समाज के कुछ लोगों का उनसे सम्पर्क रहता है | उनके असर वाले ग्रामीण और वनों में रहने वाले आदिवासी भी उनके साथ मेल  जोल रखते हैं | भले ही वे नक्सली विचारधारा से अवगत या सहमत न हों लेकिन चाहे - अनचाहे उन्हें उनसे तालमेल बनाकर चलना होता है | इसी तरह उन पर सुरक्षा बलों का भी दबाव पड़ता है | यही स्थिति एक जमाने में मप्र के चम्बल इलाके की थी जहाँ डाकू समस्या के कारण  ग्रमीण जनता को डकैत और पुलिस नामक दो पाटों के बीच पिसना पड़ता था | सवाल ये है कि जब  नक्सलियों तक कुछ सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार पहुंच सकते हैं तब सुरक्षा बल उनका पता लगाकर कार्रवाई करने में सफल क्यों नहीं हो पाते ? एक जमाने में कर्नाटक और तमिलनाडु में आतंक का पर्याय बने चन्दन तस्कर और हाथियों के हत्यारे वीरप्पन भी कई दशकों तक समस्या   बने रहे | उनको पकड़ने हेतु  करोड़ों खर्च किये गए | तमाम पुलिस अधिकारी उसकी नृशंसता के शिकार हुए | अनेक नेताओं और अभिनेताओं का उसने अपहरण कर फिरौती वसूली | सुरक्षा बल उसे पकड़ने में सफल नहीं हो पाते थे लेकिन तमिलनाडु के एक पत्रकार ने वीरप्पन के ठिकाने पर पहुंचकर उनका वीडियो साक्षात्कार लिया जो काफी चर्चित हुआ | उस समय भी ये सवाल उठा था कि एक पत्रकार जब उस दुर्दांत अपराधी के पास पहुँचने में सफल हो गया तो फिर सुरक्षा बल  क्यों नाकामयाब रहे ? ऐसे लोगों पर  ये दबाव क्यों नहीं   बनाया जाता कि वे उनका पता ठिकाना शासन - प्रशासन को दें | राकेश्वर की रिहाई को लेकर आई जानकारी के अनुसार उसे लौटाने के फैसले का उपस्थित ग्रामीण जन विरोध कर रहे थे | इसका अर्थ ये हुआ कि नक्सलियों के असर वाले इलाकों में आम जनता का पुलिस और प्रशासन के बजाय नक्सलियों से ज्यादा जीवंत सम्पर्क है | दरअसल  ये अदिवासी ही नक्सलियों के सूचना तंत्र का आधार भी  हैं और उनकी  ढाल भी  | यदि इन्हें  उनसे दूर  किया जा सके  तो इस आतंक को  खत्म करना आसान हो जायेगा किन्तु  ले - देकर फिर वही सवाल उठ खड़ा होता है कि नक्सली जिन गैर शासकीय लोगों को मध्यस्थ मनाकर  सरकार से सौदेबाजी करते हैं वे उनकी पतासाजी करने में सुरक्षा बलों की मदद क्यों नहीं करते ? कहा जा सकता  है कि ऐसा करने पर उनकी जान को खतरा होगा क्योंकि मुखबिरी करने वालों को नक्सली बड़ी ही बेदर्दी से मौत के घाट उतारते हैं | लेकिन किसी अपराधी व्यक्ति अथवा संगठन से सम्पर्क होने के बावजूद शासन - प्रशासन को  उसके बारे में सूचना नहीं देना भी तो अपराध की श्रेणी में आता है | ये मुद्दा वीरप्पन का वीडियो बनाने वाले पत्रकार को लेकर भी उठा था | बस्तर में नक्सलियों से सीधे सम्पर्क रखने वाले लोगों की  जानकारी समय - समय पर आती रही है किन्तु उनकी मदद लेकर नक्सली ठिकानों पर दबिश क्यों नहीं दी जाती ये रहस्यमय है | छत्तीसगढ़ की राजनीति पर  नक्सली  प्रभाव सर्वविदित है | चुनाव के दौरान अनेक प्रत्याशी उनका समर्थन हासिल करने में भी  संकोच नहीं करते | ये देखते हुए जिन मध्यस्थों ने यह कार्य करवाया उनसे तो पूछा जाना चाहिए कि नक्सलियों तक पहुँचने का तरीका क्या है ? यदि अंत भला तो सब भला की तर्ज पर खुशी मनाई जाती रही  तो  जवानों की शहादत का ये सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा | नक्सलियों की कमर तोड़ने के लिए निर्णायक अभियान जरूरी  है क्योंकि  घर के भीतर बैठा दुश्मन ज्यादा खतरनाक होता है |  

- रवीन्द्र वाजपेयी



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