Friday 31 January 2020

बजट सत्र : हमेशा की तरह हंगामेदार रहेगा



संसदीय प्रणाली में कुछ परम्पराओं का पालन कर्मकांड की तरह से होता है। उन्हीं में से एक है संसद का सत्र शुरू होने से पहले अध्यक्ष द्वारा सर्वदलीय बैठक बुलाकर सत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए सबसे सहयोग का वायदा ले लेना। इस बैठक में सरकार विपक्ष को अपने मुद्दे उठाने का अवसर देने का आश्वासन देती है तो विपक्ष भी सहयोग का वायदा करता है। इसी कर्मकांड के निर्वहन हेतु गत दिवस लोकसभा अध्यक्ष ने सर्वदलीय बैठक बुलाई जिसमें हमेशा की तरह सत्ता और विपक्ष की तरफ  से संसद की गरिमा बनाए रखने की प्रतिबद्धता दोहराई गई। बजट सत्र होने से  इसका विशेष महत्व है। जैसी संसदीय कार्य मंत्री ने जानकारी दी उसके मुताबिक सरकार 45 नए विधेयक इस दौरान पेश करना चाह रही है। नई लोकसभा बनने के बाद बीते दो सत्रों में सत्ता पक्ष ने जिस तरह की तेजी दिखाई वैसा ही इस बार भी उसका इरादा है वहीं विपक्ष ने कल की बैठक में संकेत कर दिया कि सीएए को लेकर जो उथलपुथल देश भर में है उस पर वह सरकार को घेरने का भरपूर प्रयास करेगा। पिछले सत्र में नागरिकता संशोधन विधेयक पारित करवाकर सरकार ने विपक्ष को शिकस्त दे दी थी किन्तु उसके क़ानून बन जाने के बाद पहले पूर्वोत्तर राज्यों और उनके बाद देश के अनेक हिस्सों में जिस तरह का संगठित विरोध सामने आया उससे विपक्ष का हौसला मजबूत हुआ है। खास तौर पर दिल्ली के जामिया विवि और जेएनयू में हुई घटनाएं तथा शाहीन बाग़ में चल रहे मुस्लिम महिलाओं के धरने की प्रतिक्रियास्वरूप पूरे देश में जो आन्दोलन हो रहे हैं उसके कारण विपक्ष के पास आक्रामक होने के पर्याप्त मुद्दे होंगे। और फिर बजट तो वैसे भी अपने आप में सबसे बड़ा मुद्दा है। अर्थव्यवस्था की चिंताजानक स्थिति की वजह से यूँ भी सत्ता पक्ष रक्षात्मक ही रहेगा। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में छात्र संगठन सीएए की आड़ में उग्र बने हुए हैं। मुस्लिम समुदाय ने तो इस कानून के विरोध में आसमान सिर पर उठा रखा है। ऐसी स्थिति में सरकार पर लोक-लुभावन बजट पेश करने का दबाव है जो कि आर्थिक स्थिति के मद्देनजर काफी कठिन कार्य है। सरकार की चिंता का एक और कारण आगामी सप्ताह होने जा रहा दिल्ली विधानसभा का चुनाव भी है। कुछ दिन पहले तक जितने भी अनुमान और आकलन आये उनके अनुसार वहां 2015 की ही तरह अरविन्द केजरीवाल की इकतरफा लहर थी लेकिन ताजा संकेतों के मुताबिक शाहीन बाग़ में चल रहे मुस्लिम महिलाओं के धरने की वजह से दिल्ली में मतों का धु्रवीकरण होने की संभावना भी है जिसके कारण भाजपा को लड़ाई में लौटने की उम्मीद नजर आ रही है। दिल्ली में अगर केजरीवाल सरकार पूर्वानुमानों के मुताबिक अच्छे-खासे बहुमत से लौटी तब बजट सत्र के उत्तरार्ध में विपक्ष के पास हमलावर होने का जबर्दस्त अवसर होगा। ये सब देखते हुए ये आशंका गलत नहीं है कि गत दिवस आयोजित सर्वदलीय बैठक में हुईं अच्छी-अच्छी बातें सत्र शुरू होते ही भुला दी जावेंगी। यूँ भी विपक्ष को गत दिवस जामिया मिलिया विवि में गोली चलने की घटना ने जबर्दस्त हथियार दे दिया है। सीएए को लागू नहीं किये जाने की घोषणा अनेक गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों द्वारा किये जाने की वजह से भी सत्ता और विपक्ष के बीच आक्रमण और प्रत्याक्रमण का खेल चलेगा। जम्मू-कश्मीर की ताजा स्थिति पर भी सरकार के ऊपर जवाबदेही का दबाव रहेगा। चूँकि बिहार और बंगाल में विधानसभा चुनाव का माहौल बनने लगा है इसलिए भी विपक्ष सरकार पर हावी होने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगा। ये भी देखने वाली बात होगी कि बीते दो सत्रों में विपक्षी एकता में सेंध लगाने में सफल हुआ सत्ता पक्ष इस सत्र में भी उस सफलता को दोहरा सकेगा या नहीं? खास तौर पर राज्यसभा में उसके लिए बहुमत का इंतजाम बड़ी समस्या हो सकती है। बावजूद इसके सरकार के पक्ष में भी अनेक बातें हैं। मसलन सीएए के विरोध को लेकर विपक्ष में एक राय नहीं है। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस खुलकर इस मुद्दे पर केंद्र से टकराव ले रही है लेकिन वह कांग्रेस और और वामपन्थी दलों द्वारा किये जा रहे आन्दोलन से भी दूरी बनाये हुए है। इसी तरह शिवसेना भी भले ही कांग्रेस और एनसीपी के साथ महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार चला रही हैं लेकिन वीर सावरकर के विरुद्ध कांग्रेसी नेताओं द्वारा की गयी बयानबाजी और उसके बाद शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत द्वारा पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी के तस्कर सरगना करीम लाला से मिलने आने का खुलासा किये जाने से भी विपक्षी एकता की कमजोरी उजागर हुई है जिसका लाभ सत्ता पक्ष बेशक उठाएगा। खुदा न खास्ता दिल्ली के चुनाव में भाजपा ने विपक्ष के तौर पर भी यदि सम्मानजनक सीटें हासिल कर लीं तब प्रधानमंत्री का हौसला निश्चित रूप से बुलंद होगा। लेकिन ऐसा न हुआ तब विपक्ष सीएए को वापिस लेने के दबाव के अलावा एनपीआर और एनआरसी के बारे में प्रधानमन्त्री से सरकार की नीति स्पष्ट करने का दबाव बनाये बिना नहीं रहेगा। इन विषयों पर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के बयानों में थोड़ा अंतर होने से सरकार को शर्मसार होना पड़ा था। देश के मौजूदा परिदृश्य को देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि ये सत्र भी काफी हंगामेदार रहेगा। यदि निर्मला सीतारमण ने आर्थिक हालातों का हवाला देते हुए बजट में दरियादिली नहीं दिखाई तब सरकार को सदन और बाहर दोनों तरफ  से आलोचनाएं झेलनी पड़ सकती हैं। वैसे बजट अच्छा होने के बाद भी विपक्ष सरकार को बख्श देगा इसकी संभावना शून्य ही हैं क्योंकि वह इस समय अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। मोदी सरकार ने दूसरी पारी प्रारम्भ करते ही जिस ताबड़तोड़ तरीके से अपने घोषणापत्र के आधारभूत वायदों को जमीन पर उतारने का सिलसिला शुरू किया उसकी वजह से विपक्ष में घबराहट भरी सतर्कता है। जहां तक जनता की अपेक्षा है तो वह चाह रही है कि अर्थव्यवस्था के साथ ही अन्य ज्वलंत विषयों पर सार्थक बहस और देशहित में निर्णय हों। यद्यपि इसकी संभावना कम ही है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में जिस कर्तव्यबोध की सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है वह तो न जाने कब का हवा-हवाई हो चुका है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 27 January 2020

पद्म सम्मान का भी सम्मान रखा जाए



गणतंत्र दिवस पर पद्म सम्मानों की जो घोषणा की गई उसमें कुछ नामों को लेकर आलोचना के स्वर फिर सुनाई देने लगे हैं। ये पहला अवसर नहीं है जब पद्म अलंकरण के लिए चयनित कतिपय व्यक्तियों की पात्रता को लेकर सवाल उठे हों। यद्यपि मोदी सरकार ने चयन प्रक्रिया को बेहद पारदर्शी और युक्तियुक्त बनाया जिसके कारण बीते पांच वर्ष में अनेक ऐसी अनजानी शख्सियतें भी पद्म सम्मान से अलंकृत की जा सकीं जिन्होंने साधारण होते हुए भी असाधारण कार्य किये। समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से रचनात्मक कार्य करने वाले तमाम ऐसे लोग इस दौरान सामने आए जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से देश पूरी तरह बेखबर था। पद्म सम्मानों के लिए चयन करने की पुरानी प्रक्रिया में किये बदलाव से उसमें निष्पक्षता भी आई और वह काफी हद तक सरकारी दबाव से मुक्त भी नजर आने लगी। उसके बावजूद भी हालांकि कुछ नामों को लेकर नुक्ताचीनी होती रही किन्तु कुल मिलाकर काफी हद तक पद्म सम्मानों के वितरण से लोग संतुष्ट नजर आए। लेकिन इस वर्ष गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर जब पद्म सम्मानों के लिए चुने गए लोगों की सूची आई तब एक बार फिर कुछ नामों पर प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं आईं। विशेष तौर पर फिल्म जगत से जुड़े कुछ नामों को लेकर सोशल मीडिया पर जनभावनाएं आलोचना और कटाक्षों से भरी हुईं दिखीं। ये भी कहा जाने लगा कि पिछली सरकारों की तरह से ही इस बार भी कुछ लोगों को तुष्टीकरण के लिए पद्म अलंकरण प्रदान किया गया । इनमें पाकिस्तान से आकर भारत की नागरिकता लेने वाले गायक अदनान सामी प्रमुख हैं । अदनान की प्रतिभा को कोई भी नहीं नकार सकता । लेकिन चंद बरस पहले भारत की नागरिकता लेने वाले इस कलाकार का भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐसा कोई योगदान नहीं रहा जिसकी वजह से उसे पद्मश्री दी जाती। यही वजह है कि उनके नाम का ऐलान होते ही आम राय ये सामने आई कि नागरिकता संशोधन कानून में मुस्लिमों को अलग किये जाने के कारण मचे बवाल को ठंडा करने के लिए केंद्र सरकार ने उनका चयन किया । अन्यथा फिल्मी दुनिया में न जाने कितने प्रतिभाशाली संगीतकार हैं जो पद्म सम्मान की कसौटी पर खरे साबित होते हैं । इसके अलावा कुछ और जो नाम हिन्दी फिल्म जगत के चुने गए उनको लेकर भी आलोचना हो रही है । यद्यपि चयनकर्ताओं के पास अपने तर्क और आधार हो सकते हैं किंतु पद्म सम्मान के साथ जुड़ी गरिमा के मद्देनजर वे उसके कतई लायक नहीं कहे जा सकते । कुछ वर्ष पूर्व एक वीडियो यू ट्यूब पर खूब चर्चित हुआ था जिसमें अनेक फिल्मी कलाकारों के बीच हो रही बेहद अश्लील और निम्नस्तरीय बातें सामने आईं । बाद में उन पर उसके लिए मुकदमा भी दर्ज किया गया था । उनमें से दो नाम इस वर्ष पद्मश्री पाने वालों में आने से इन सम्मानों की सार्थकता और उपयोगिता पर नए सिरे से प्रश्न उठ खड़े हुए हैं । पद्म सम्मान नागरिक सम्मान कहे जाते हैं । इनका उद्देश्य समाज में सेवा भाव और रचनात्मकता को विकसित करना है । देश और समाज के लिए विभिन्न क्षेत्रों में अपना नि:स्वार्थ और विशिष्ट योगदान देने वालों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के उद्देश्य से पद्म अलंकरणों की शुरुवात की गई थी। लेकिन शुरुवात से ही इनकी चयन पद्धति में पारदर्शिता का अभाव रहा । यहां तक कि देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न भी उस समय विवाद में फंसा जब कुछ प्रधानमंत्रियों ने खुद ही अपना चयन उस हेतु कर लिया । कालांतर में एमजी . रामचंद्रन जैसे को भारत रत्न दिया गया तब भी ये कहा गया कि उसके पीछे उनके द्वारा स्थापित तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक पार्टी का केंद्र सरकार के लिए समर्थन हासिल करने का उद्देश्य था। धीरे-धीरे इस हेतु राजनीतिक दबाव भी बनाये जाने लगे। क्षेत्रीय दलों ने अपने दिग्गजों के लिए पद्मभूषण, पद्म विभूषण और भारत रत्न तक के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया । इसके अलावा भी इस हेतु लॉबिंग किये जाने की जानकारी आती रही । यहां तक कि जब विश्व विख्यात सितार वादक पं. रविशंकर को भारत रत्न मिला तब पं. जसराज ने सार्वजनिक तौर पर उसका विरोध किया था । अन्य लोगों के चयन को लेकर भी काफी हल्ला मचा । सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिलने की टाइमिंग पर भी प्रश्न उठे। सब देखते हुए ही मोदी सरकार ने पद्म सम्मानों को लेकर सतर्कता बरतते हुए उसे सामान्य जन के लिए सुलभ बनाया । लेकिन लगता है इस बार कुछ ऐसे नाम भी पद्म सम्मान पा गए जिन्हें लेकर सरकार की निर्णय क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं । इस बारे में एक सुझाव ये भी आता रहा है कि पद्म पुरस्कारों के लिए खेल, फिल्म एवं साहित्य सहित अन्य क्षेत्रों के लोगों को शामिल न किया जावे क्योंकि उनके लिए उन क्षेत्रों में अलग से पुरस्कार दिए जाते हैं। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, अर्जुन और राजीव गांधी खेलरत्न, साहित्य अकादमी-ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाते हैं । हालांकि ऐसा होना सम्भव होगा ये लगता नहीं क्योंकि पद्म पुरस्कार एक तरह का राजसी एहसास करवाते हैं । लेकिन ये भी सही है कि एक -दो अनुपयुक्त लोगों को सम्मान मिलने पर बाकी की भी अहमियत घटती है । सरकार किसी की हो किन्तु इस तरह के सम्मान में गुणवत्ता को सर्वोच्च महत्व दिया जाना चाहिए अन्यथा इनका महत्व धीरे - धीरे खत्म हो जाएगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 25 January 2020

केवल अधिकार नहीं कर्तव्यों की भी सोचें



2019 के लोकसभा चुनाव के उपरान्त एनडीए संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद नरेंद्र मोदी ने संविधान की पुस्तक पर मत्था टेककर इस बात का संकेत दिया कि उनकी प्रतिबद्धता संविधान के प्रति है। दरअसल उनकी सरकार पर विपक्ष ही नहीं वरन  समाज का एक वर्ग विशेष ये आरोप लगाता रहा था कि वह संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ करते हुए  समाज को बांटने का काम कर रही है। असहिष्णुता की आड़ लेकर हर जगह ऐसा वातावरण बना दिया गया जैसे देश में प्रजातंत्र खत्म करते हुए तानाशाही लादी जा रही हो। अभिव्यक्ति की आजादी को खतरे में बताकर भी खूब हल्ला मचा। ये भी कहा जाने लगा कि विभिन्न संस्थानों में एक ही विचारधारा के लोगों को स्थापित किया जा रहा है। शायद यही सब देख कर प्रधानमन्त्री ने दूसरी पारी की शुरुवात में संविधान की पुस्तक पर सिर रखकर आलोचकों को बिना कुछ कहे ही जवाब दे दिया। पहले से ज्यादा बड़ा जनादेश मिलने से उनका आत्मविश्वास भी निश्चित तौर पर बढ़ा जिसका प्रमाण नई लोकसभा के पहले सत्र में ही मिल गया। जिस तरह से जम्मू - कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला मोदी सरकार ने लिया उससे उसके विरोधियों को ये कहने का अवसर एक बार फिर मिल गया कि संविधान के ढांचे को तोडऩे का दुस्साहस किया जा रहा है। जिस तरह से वहां कर्फ्यू लगाकर संचार सुविधाएं अवरुद्ध की गईं उनसे भी सरकार पर तानाशाही के रास्ते पर चलने का आरोप लगा। लेकिन प्रधानमन्त्री इस सबसे बेपरवाह बने रहे और संसद के शीतकालीन सत्र  में सीएए ( नागरिकता संशोधन कानून ) पारित करवाकर अपने आलोचकों को आसमान सिर पर उठाने का एक अवसर और दे दिया। बीते काफी समय से देश भर में उक्त कानून के विरोध में आन्दोलन हो रहे हैं। राजनीतिक दलों के अलावा छात्र संगठन , बुद्धिजीवी, अभिनेता, कलाकार और अन्य वर्गों  से भी सरकार पर संविधान को ताक़ पर रखे जाने के आरोप उछलने लगे। ये भी कहा जा रहा है कि मोदी सरकार धार्मिक आधार पर भेदभाव करते हुए संविधान की समन्वयवादी सोच को दफन करने पर आमादा है। पूरे देश में ये प्रचार किया जा रहा है कि केंद्र सरकार संविधान के आधार को कमजोर करते हुए फासिस्टवादी व्यवस्था को लागू करना चाह रही है। इस सबके बीच एक बात जो देखने मिल रही है वह ये कि पूरा देश मोदी समर्थकों और मोदी विरोधियों में बंटकर रह गया है। विचारधारा महत्वहीन होती जा रही है और सुविधा के समझौतों के आधार पर राजनीतिक गठबन्धन बन रहे हैं। ऐसे माहौल में गणतंत्र दिवस का आगमन देश के बारे में सोचने का सही अवसर  है। संविधान लागू होने की वर्षगांठ का राष्ट्रीय जीवन में बहुत महत्व है क्योंकि लोकशाही की सफलता संविधान के पालन पर ही निर्भर होती है। संसदीय प्रजातंत्र में तो संवैधानिक मर्यादाओं की विशेष अहमियत होती है। लेकिन  कानून के अलावा कतिपय परम्पराएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण  हैं। इन परम्पराओं का पालन प्रजातंत्र की जड़ों को मजबूत करने में बहुत सहायक होता  हैं। उल्लेखनीय है भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। जबकि जिस ब्रिटेन के संविधान से यह प्रेरित और प्रभावित है वह अलिखित है। बावजूद उसके हमारे देश में संविधान के प्रति अपेक्षित गम्भीरता नहीं दिखायी देती। इसकी मुख्य वजह राजनीतिक स्वार्थ  ही हैं  जो राष्ट्रीय हितों पर भी भारी  पडऩे लगे हैं। संसद को प्रजातंत्र का सबसे जीवंत प्रतीक चिन्ह कहा जाता है लेकिन संविधान की शपथ लेकर उसमें बैठने वाले सांसद अपनी शपथ का कितना सम्मान करते हैं ये विचारणीय विषय है। संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देखने वाली जनता को जब ये लगता है कि कानून बनाने वाली संस्था के सदस्य ही नियम  कानूनों के पालन के प्रति  लापरवाह हैं तब वह क्यों उनकी चिंता करे। इसी आधार पर ये कहा जा सकता है कि हमारा गणतंत्र गैर जिम्मेदार व्यवस्था का प्रतीक बनता जा रहा है। देश विरोधी नारे लगाने वाले को रोकने पर अभिव्यक्ति की आजादी के खतरे में पडऩे की बात जिस तरह उछाली जाती है वह बड़े खतरे का संकेत है। संविधान केवल सरकार को मर्यादा में रहने की नसीहत नहीं देता अपितु देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक आचार संहिता का निर्धारण करता है , जिसमें अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों का भी संतुलन बनाए रखने की सीख है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि सही मायनों में संविधान कर्तव्यों को स्पष्ट करने वाला ऐसा दस्तावेज है जिसके प्रति श्रद्धा और समर्पण का भाव एक अनिवार्यता है। देश के मौजूदा वातावरण में जो लोग संविधान को खतरे में बताने का ढोल पीट रहे हैं वे ही उसकी धज्जियां उड़ाने पर आमादा हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग देश के टुकड़े करने की मंशा रखने वालों के  समर्थन के रूप में किया जा रहा है। आजादी के नए अर्थ गढ़े जाने लगे हैं। अनेक राज्यों की चुनी हुई सरकारें संसद द्वारा पारित क़ानून को लागू नहीं किये जाने का ऐलान कर रही हैं। संघीय ढांचे को  छिन्न - भिन्न  करने का षडयंत्र चल रहा है। जनादेश से बनी सत्ता को नकारने का जैसा दुस्साहस बीते कुछ महीनों में देखने मिला उसे केवल राजनीतिक असफलता की खीझ मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सही मायनों में ये जनतंत्र की उस मूल भावना का ही तिरस्कार है जो जनता के निर्णय को सर्वोपरि मानती है। संविधान की इस सालगिरह पर देश के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए ऐसी सोच की जरूरत है जो राजनीतिक नफे-नुकसान की बजाय राष्ट्रीय हितों के अनुकूल हो। कहने को हमारा गणतंत्र सात दशक पुराना हो चुका है लेकिन उसमें परिपक्वता का अभाव साफ़ देखा जा सकता है। चूंकि भारत विविधताओं से भरा देश है इसलिए इसका कोई एक विशिष्ट कारण नहीं है। विविधता में एकता, भारत की विशेषता का नारा चाहे जितना लगाया जाता हो किन्तु उस विविधता को देश की एकता के लिए खतरा बनाने वाली ताकतें खुलकर मैदान में हैं। गणतंत्र दिवस के इस राष्ट्रीय पर्व पर हर जिम्मेदार नागरिक को कुछ समय इस बात पर विचार करने के लिए  भी निकालना चाहिये कि इन ताकतों की कमर किस तरह तोड़ी जाए क्योंकि देश के कमजोर होने पर संविधान भी धीरे-धीरे अपना असर और महत्व खो बैठता है। और ऐसा होना हमारी सार्वभौमिकता को खतरे में डाल सकता है।

गणतंत्र दिवस की अनन्त शुभकामनाएं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 24 January 2020

कश्मीर घाटी में अलगाववाद की अंतिम विदाई की तैयारी



जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के निर्णय को असंवैधानिक बताने वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की तरफ से साफ शब्दों में कह दिया गया कि जो हो गया सो हो गया। 370 एक अस्थायी व्यवस्था थी और केंद्र उसे समाप्त करने के फैसले से पीछे नहीं हटेगा। याचिकाकर्ताओं के इस तर्क का केंद्र की तरफ  से जोरदार खंडन किया गया कि इस राज्य का भारत संघ में विलय हुआ ही नहीं था। अटार्नी जनरल ने साफ-साफ कहा कि विलय को लेकर किसी भी तरह का भ्रम गलत है। उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि ऐसा न हुआ होता तब अनुच्छेद 370 लागू ही क्यों होता? बहस में एक मुद्दा इस याचिका को सात सदस्यों वाली पीठ को सौंपने का भी रहा। याचिका का अन्त्तिम परिणाम क्या होगा ये अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन केंद्र द्वारा 370 हटाये जाने के फैसले को वापिस नहीं लिए जाने की जो दृढ़ता अदालत में दिखाई गई वह पूरी तरह सही है। जम्मू कश्मीर के भारत में विलय पर संदेह करने वाली मानसिकता का उजागर होना ये साबित करने के लिए काफी है कि कश्मीर घाटी में अभी भी भारत की प्रभुसत्ता को अस्वीकार करने वाली ताकतें आखिऱी कोशिश कर रही हैं। बीते कुछ महीनों में कश्मीर घाटी के भीतर अलगाववादी और आतंकवादियों शक्तियां काफी कमजोर हुई हैं। हालांकि आलोचकों के अनुसार विपक्षी नेताओं को कैद में रखने और संचार सुविधाओं पर प्रतिबंध की वजह से ही घाटी में ऊपरी तौर पर शांति दिखाई देती है लेकिन भीतर-भीतर सरकार विरोधी भावनाएं उबाल मार रही हैं जो नियंत्रण हटाये जाते ही बाहर आये बिना नहीं रहेंगी। यद्यपि केंद्र सरकार ने सुनियोजित रणनीति के अंतर्गत कफ्र्यू वगैरह में धीरे-धीरे ढील दी और हाल ही में संचार सुविधाएं भी बहाल कर दीं जिसके बाद ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे जनता के स्तर पर किसी भी तरह की नाराजगी या असंतोष का पता चलता। बीच-बीच में कुछ आतंकवादी घटनाएं जरूर होती रहीं लेकिन किसी बड़ी वारदात का नहीं होना इस बात का प्रमाण है कि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाये जाने का निर्णय सही साबित हुआ। केंद्र के रणनीतिकार इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने घाटी में हालात सामान्य बनाने के लिए शानदार काम किया। शुरुवात में लोगों को भड़काने का काफी प्रयास किया गया लेकिन जब आम जनता को लगा कि 370 को हटाने से उनको किसी भी तरह का नुकसान नहीं हुआ और कश्मीर घाटी के भीतर शांति बहाल हो गई तब वह भी बदली हुई व्यवस्था के साथ खुद को समायोजित करने लगी। लद्दाख में तो 370 हटाने का जबर्दस्त स्वागत हुआ क्योंकि वह इलाका कश्मीर घाटी के आधिपत्य में पूरी तरह उपेक्षित और अविकसित रह गया। जम्मू अंचल भी कश्मीर घाटी के वर्चस्व से असंतुष्ट था। हालांकि राज्य के विभाजन के बाद भी जम्मू को कश्मीर घाटी के साथ ही रखा गया है लेकिन राजनीतिक तौर पर घाटी का एकाधिकार खत्म करने के लिए विधानसभा सीटों का परिसीमन करने की योजना के कारण अब घाटी और जम्मू के बीच सियासी संतुलन बने रहने की सम्भावना बन रही है। इस तरह 370 हटाये जाने के फैसले का विरोध केवल घाटी के भीतर ही सिमटकर रह गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 370 हटाने के बाद पेश हुई याचिकाओं पर सुनवाई में जल्दबाजी नहीं किये जाने के भी अनुकूल नतीजे निकले। इस दौरान जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के विकास के लिए विस्तृत योजनायें भी कागज से जमींन पर उतरने लगी हैं। लद्दाख के अलग केंद्र शासित राज्य बन जाने से वहां विकास को लेकर नया उत्साह जागा है। घाटी के भीतर भी आम जन के मन में ये बात भी धीरे-धीरे घर करती जा रही है कि नेशनल कांफे्रंस और पीडीपी के नेताओं ने भारत विरोधी भावनाएं भड़काते हुए अपना घर भरा। 370 हटाये जाने के बाद पहले-पहल लोगों को उकसाने का काम हुआ लेकिन केंद्र सरकार और सुरक्षा बलों की अच्छी तैयारी की वजह से देश विरोधी ताकतें सिर नहीं उठा सकीं। अनुच्छेद 370 हटाना कोई आसान फैसला नहीं था। लेकिन प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने ये साबित कर दिया कि देशहित में कड़े फैसले लेने से डरना नहीं चाहिए। सबसे बड़ी चिंता विश्व जनमत की थी लेकिन भारत सरकार ने इस मोर्चे पर भी बहुत ही अच्छा प्रदर्शन किया। पाकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर पर भारत के कदम का काफी विरोध किया लेकिन सिवाय चीन के उसे और किसी का समर्थन नहीं मिला। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी तरफ से मध्यस्थता की कई स्वयंभू कोशिशें कीं लेकिन भारत ने किसी भी तीसरे पक्ष की भूमिका को अस्वीकार कर दिया। संरासंघ में भी चीन ने पाकिस्तान की वकालत करने का काफी प्रयास किया लेकिन उसे किसी का समर्थन नहीं मिला। इस मामले में सबसे बड़ी बात ये रही कि मुस्लिम देशों में मलेशिया और टर्की जैसे इक्का-दुक्का को छोड़कर और कोई अनुच्छेद 370 को हटाने के विरोध में नहीं खड़ा हुआ। इस सबसे निश्चित रूप से एक तरफ जहां केंद्र सरकार का हौसला बुलंद हुआ वहीं अलगाववादी ताकतें निराश हुईं। उन्हें उम्मीद थी कि पाकिस्तान सहित मुस्लिम देश तथा अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पकिस्तान के सरपरस्त रहे मुल्क भारत सरकार के विरोध में सामने आयेंगे। लेकिन उनकी सोच गलत साबित हो गयी। भारत सरकार ने 370 हटाये जाने के बाद की स्थितियों का जिस कुशलता से सामना किया उसमें सुरक्षा बलों की भूमिका भी अभिनन्दन योग्य है। सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र सरकार का ये कहना उसके दृढ़ इरादे और आत्मविश्वास को दर्शाता है कि 370 हटाये जाने के फैसले से पीछे हटना नामुमकिन है और जम्मू कश्मीर की वर्तमान स्थिति अब एक वास्तविकता है। इस मुद्दे पर सरकार को घेरने वाले विपक्ष को भी जब ये लगा कि कश्मीर घाटी में अब उसके पैर नहीं जम पाएंगे तब वह भी दूसरे मुद्दों में उलझ गया। यहां उल्लेखनीय है कि महबूबा मुफ्ती की पीडीपी में भी विभाजन की स्थिति है। केंद्र की सख्ती का परिणाम ये हुआ कि कश्मीर की आम जनता को ये बात पूरी तरह से समझ में आ चुकी है कि धारा 370 और उसके कारण राज्य को मिला विशेष दर्जा अब पुनर्जीवित नहीं सकेगा। सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले युवा भी समझ चुके हैं कि घाटी में भारत विरोधी गतिविधियां महंगी पड़ेंगी। कुल मिलाकर सर्दियां ख़त्म होने का बाद घाटी सहित पूरे राज्य में विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो जायेगी। मौजूदा स्थिति में ये कहना गलत नहीं होगा कि आगामी चुनाव घाटी से अलगाववाद की विदाई पर अन्तिम मोहर लगा देगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 23 January 2020

सीएए : अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा ही विकल्प



सर्वोच्च न्यायालय ने सीएए ( नागरिकता संशोधन कानून ) पर तत्काल रोक लगाने से इनकार करते हुए केंद्र सरकार को जवाब देने हेतु चार सप्ताह का समय दे दिया। तकरीबन 141 याचिकाओं में इस कानून को रद्द करने के साथ ही ये मांग भी थी कि उसके क्रियान्वयन पर फौरन रोक लगाई जावे। याचिकाकर्ताओं की ओर से उपस्थित वरिष्ठ वकीलों ने तर्क दिया कि उप्र में उक्त कानून के लागू होने वाले दिन ही हजारों लोगों को भारत की नागरिकता का प्रमाणपत्र जारी हो गया। यदि भविष्य में न्यायालय द्वारा कानून को रद्द कर दिया गया तब ऐसे प्रमाणपत्रों का क्या होगा? सवाल और भी उठाये गये। याचिकाओं में केरल जैसे राज्य की सरकार भी है। जिन बड़े वकीलों ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में दलीलें दीं उनमें से अधिकतर राजनीतिक तौर पर भी इस क़ानून का विरोध करते आये हैं। बहरहाल चार सप्ताह का समय देकर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को जहां राहत प्रदान की वहीं कानून का विरोध करने वालों के उत्साह पर पानी फेर दिया जो ये मानकर चल रहे थे कि संविधान की मूल भावनाओं के विरुद्ध होने से सर्वोच्च न्यायालय बिना देर किये उक्त क़ानून को लागू किये जाने पर स्थगन आदेश जारी कर देगा। न्यायालय द्वारा याचिकाकर्ताओं की मांग स्वीकार नहीं किये जाने का एक कारण याचिकाओं की बड़ी संख्या भी है। भले ही अधिकतर में एक जैसे मुद्दे शामिल होंगे लेकिन कुछ याचिकाओं में हटकर बातें भी होंगीं। ऐसे में प्रारम्भिक सुनवाई में ही स्थगन जैसा आदेश पारित करना व्यवहारिक तौर पर भी संभव नहीं था। इतने महत्वपूर्ण कानून के क्रियान्वयन पर अंतरिम रोक लगाने जैसा आदेश जारी करने के पहले प्रतिवादी की बात सुनना भी जरूरी था। यदि याचिकाएं कम संख्या में होतीं तब शायद न्यायालय याचिकाकर्ताओं की कुछ मांगों पर तत्काल कोई आदेश पारित कर भी देता किन्तु याचिकाकर्ताओं में कोई तालमेल नहीं होने से सरकार पर दबाव कम हो गया। ये भी लगता है कि कुछ को छोड़कर शेष याचिकाकर्ता गंभीर नहीं हैं। राम मंदिर मामले में भी ये देखने आया था कि अनेक ऐसे व्यक्ति और संस्थान मामले में कूद पड़े जिनका प्रकरण में पहले कभी अता-पता नहीं था। ऐसे याचिकाकर्ता प्रचार पाने के लिये भी अदालत का सहारा लेते हैं। सीएए मामले में भी ऐसा ही होता दिख रहा है। जहां तक इसके विरोध की बात है तो उसके पीछे कानूनी पक्ष कम और राजनीतिक उद्देश्य कहीं ज्यादा है। याचिकाकर्ता भी ये जानते हैं कि संसद द्वारा भारी बहुमत से पारित कानून के बारे में सर्वोच्च न्यायालय बिना समुचित विचार किये बिना कोई फैसला नहीं ले सकेगा लेकिन अपने विरोध को चर्चा में बनाये रखने के लिए अनेक याचिकाकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय को जरिया बनाने की चाल चली जो फिलहाल तो विफल हो गयी। एक बात और जो प्रतीत हो रही है वह है याचिकाकर्ताओं में आत्मविश्वास की कमी। एक तरफ जहां केंद्र सरकार सीना ठोककर ये कह रही है कि वह किसी भी कीमत पर इस कानून को वापिस नहीं लेगी वहीं दूसरी तरफ कानून के मैदानी विरोध में विविधता नजर नहीं आ रही। इसकी वजह विरोध का मुस्लिम समुदाय तक केन्द्रित हो जाना है। दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके में मुस्लिम महिलाओं द्वारा बीच सड़क पर बैठे रहकर महीने भर से दिया जा रहा धरना देश भर में चर्चित है। कातिपय समाचार माध्यमों में उसकी तुलना 2012 में दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए लोकपाल आन्दोलन से की जा रही है किन्तु ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं कि अन्ना के उस आन्दोलन पर किसी एक सम्प्रदाय का ठप्पा नहीं लगा था। देश भर में सीएए का जो विरोध सड़कों पर हुआ उसमें मुस्लिम समाज की भूमिका ही उभरकर सामने आई है। राजनीतिक स्तर पर चाहे कांग्रेस और वामपंथी हों या ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, सभी ने इस क़ानून के विरोध में कोई बड़ा जनांदोलन खड़ा करने की बजाय मुस्लिम समाज को भड़काकर पूरा बोझ उसी के कंधे पर डाल दिया। देश भर में जहां-जहां सीएए का उग्र विरोध देखने मिला वहां उसका पूरा बीड़ा मुस्लिम समुदाय ने उठाया। दिल्ली जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में भी जो कुछ हुआ उसके पीछे मुस्लिम छात्र ही ज्यादा थे। ऐसी ही स्थिति अलीगढ़ मुस्लिम विवि के बारे में भी कही जा सकती है। कांग्रेस देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी पार्टियों की बैठक सीएए का विरोध करने के लिए बुलवाई थी लेकिन वह विपक्षी फूट का प्रतीक बन गयी। संसद के दोनों सदनों में भी जब उक्त कानून पारित हो रहा था तब भी विपक्ष पूरी तरह बिखरा रहा। जिन पार्टियों की राज्य सरकारों ने उक्त कानून को अपने यहां प्रभावशील नहीं होने देने की बात कही उनमें से भी कुछ ने संसद में या तो उसका समर्थन किया या फिर मतदान के समय अनुपस्थित रहकर सरकार की मदद की। हाल ही में कपिल सिब्बल ने भी खुलकर ये बात स्वीकार की थी कि संसद द्वारा पारित क़ानून को लागू नहीं किये जाने जैसी बात गलत है बशर्ते सर्वोच्च न्यायालय उसे रद्द कर दे। लोकतंत्र में विरोध की अनुमति तो हर किसी को है लेकिन उसकी दिशा सही न हो तो वह असर खो देता है। नागरिकता कानून के बारे में भ्रम का वातावरण बनाकर मुस्लिम समाज को कांग्रेस और वामपंथियों ने बलि का बकरा बना दिया और खुद कोरी बयानबाजी करने लगे। शाहीन बाग़ और देश के दूसरे हिस्सों में हो रहे वैसे ही आन्दोलन ऐसे मोड़ पर आकर फंस गए हैं जहां से आगे बढना कठिन है वहीं कदम पीछे खींचना भी आत्मघाती होगा। सबसे बड़ी बात ये है कि राजनीतिक पार्टियां परदे के पीछे से भले माहिलाओं की पीठ थपथपा रही हैं लेकिन सामने आकर समर्थन करने की हिम्मत उनकी भी नहीं हो रही। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नागरिकता संशोधन क़ानून पर स्थगन नहीं दिए जाने के बाद मुस्लिम समाज को उन राजनीतिक पार्टियों के षडय़ंत्र को समझना चाहिए जो उन्हें अग्रिम मोर्चे पर तैनात कर खुद दायें-बाएं हो गईं। बंगाल में ममता बैनर्जी सबसे ज्यादा इस क़ानून के विरोध में सक्रिय हैं लेकिन कांग्रेस और वामपंथी वहां भी आपनी अलग खिचड़ी पका रहे हैं। इसी तरह शाहीन बाग में बैठी मुस्लिम महिलाओं को धरना स्थल पर जाकर संबल देने की हिम्मत किसी भी विपक्षी पार्टी द्वारा इसलिए नहीं दिखाई जा रही क्योंकि दिल्ली विधानसभा के चुनाव में कहीं हिन्दू मतदाता उनसे छिटक न जाएं। मुस्लिम समाज को ये बात कम से कम अब तो समझ लेनी चाहिए कि वह जाने अनजाने एक बार फिर राजनीति के कुचक्र में फंसकर रह गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को चार सप्ताह आगे बढ़ा दिया है। सरकार का जवाब आने के बाद 141 याचिकार्ताओं के वकील बहस करेंगे। भारतीय न्याय व्यवस्था में ऐसे महत्वपूर्ण मामलों में अदालत भी जल्दबाजी नहीं दिखाती। यदि बहस लम्बी खिंची तब हो सकता है सर्वोच्च न्यायालय का ग्रीष्मावकाश आ जाए। ऐसे में बेहतर होगा सीएए के विरोधी अब संयम से काम लेते हुए न्यायालयीन प्रक्रिया का इन्तजार करें क्योंकि जब मामला देश की सर्वोच्च अदालत के समक्ष लंबित हो तब सड़क पर संघर्ष करने का कोई औचित्य नहीं बच रहता। वैसे भी हफ्ते भर बाद से संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है जिसमें विपक्ष अपनी बात रख सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 22 January 2020

सर्वोच्च न्यायालय की अपील है तो विचारणीय



सर्वोच्च न्यायालय ने एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद से संविधान संशोधन की अपील करते हुए सांसदों या विधायकों की अयोग्यता सम्बन्धी प्रकरणों में विलंब को रोकने के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता वाला एक स्थायी ट्रिब्यूनल या अन्य कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसे वैकल्पिक स्पीकर कहा जा सके। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने तत्सम्बन्धी कोई आदेश नहीं दिया लेकिन उसका संसद से संविधान संशोधन करने की अपीलऔर सुझाव की जो बात कही गई उसके पीछे निहित भावना और पृष्ठभूमि को समझना भी जरूरी है। हुआ यूं कि मणिपुर विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद त्रिशंकु की स्थिति बन गई। तब भाजपा ने कुछ क्षेत्रीय दलों के अलावा कांग्रेस के एक विधायक को तोड़कर मंत्री बना लिया। नियमानुसार उक्त विधायक को अयोग्य किया जाना चाहिए था। लेकिन उस स्थिति में सरकार अस्थिर हो जाती। लिहाजा विधानसभा अध्यक्ष उस प्रकरण को दबाकर बैठ गए। हालाँकि ये पहला प्रकरण नहीं था जिसमें स्पीकर ने अयोग्यता सम्बन्धी निर्णय को ठंडे बस्ते में डालकर सत्ताधारी दल को संजीवनी दे दी। बरसों पहले उप्र में कल्याण सिंह सरकार को बचाने के लिए केशरीनाथ त्रिपाठी ने भी ऐसा ही किया था। गत वर्ष कर्नाटक के कांग्रेस विधायकों के मामले में भी स्पीकर की भूमिका को लेकर विवाद मचा। अतीत में मप्र. में भी एक कांग्रेस विधायक द्वारा पार्टी से त्यागपत्र दिए जाने के बाद उसकी सदस्यता पर आए संकट को तत्कालीन स्पीकर स्व.ईश्वरदास रोहाणी लंबे समय तक टरकाते रहे। दरअसल इस बारे में स्पीकर के अधिकार असीमित होने से उन पर दबाव नहीं डाला जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने भी गत दिवस संसद से इस बारे में संविधान संशोधन का सुझाव ही दिया। लेकिन उसने ये अपेक्षा भी की कि अयोग्यता प्रकरणों का निबटारा अधिकतम तीन महीने के भीतर होना चाहिये। उन्होंने मणिपुर विधानसभा के स्पीकर से भी तीन माह में संदर्भित कांग्रेस विधायक की सदस्यता पर फैसला लेने कहा है। देखने वाली बात ये होगी कि संसद सर्वोच्च न्यायालय की अपील और उसके साथ दिए गए सुझावों पर क्या कदम उठाती है ? और उठाती भी है या नहीं क्योंकि ऐसे अनेक अवसर आए हैं अब संसद और न्यायपालिका के बीच अधिकारों और सर्वोच्चता को लेकर विवाद हुआ। जहां तक बात स्पीकर के अधिकारों की है तो जो भी दल सत्ता में होता है वह उनके दुरुपयोग में लेशमात्र भी शरम नहीं करता। यही नहीं तो आम तौर पर सभी दल ये मानते हैं कि न्यायपालिका को विधायिका के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी नहीं करना चाहिए। हालाँकि संसद या विधानसभा द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय की समीक्षा करने का अधिकार न्यायपालिका को है। विधायिका के पास कानून बनाने का अधिकार तो है किंतु वह भी संविधान द्वारा खींच दी गई लक्ष्मण रेखाओं के अंदर ही होना चाहिए। संसद द्वारा लिए गए अनेक निर्णयों पर सर्वोच्च न्यायालय ने जहां रोक लगाने का साहस किया वहीं संसद ने भी शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने जैसा कार्य किया था। इसी तरह संसद द्वारा न्यायाधीशों के चयन हेतु प्रचलित न्यायिक चयन आयोग का जो गठन किया गया उसे सर्वोच्च न्यायालय ने सिरे से खारिज कर दिया। हालांकि शाहबानो मामले में संसद द्वारा की गई कार्रवाई पर सर्वोच्च न्यायालय ने कोई ऐतराज नहीं जताया। लेकिन संसद में अवश्य न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप पर लगभग सभी दलों के सदस्यों ने काफी विरोध व्यक्त किया। फिर भी एक बात जरूर देखने वाली रही कि सरकार चाहे किसी की ही रही हो उसने सर्वोच्च न्यायालय के साथ सीधे टकराव नहीं किया। कुछ सार्वजनिक कार्यक्रमों में जरूर कानून मंत्री और प्रधान न्यायाधीश के बीच भाषण के जरिये कटाक्षों का आदान -प्रदान हुआ लेकिन फिर भी मर्यादा बनी रही। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक मामलों में अपनी सीमाओं से बाहर निकलकर फैसले किये या सरकार को लताड़ा लेकिन सरकार ने न्यायपालिका के प्रति आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं से परहेज किया। गत दिवस न्यायमूर्ति श्री नरीमन ने यही सोचकर कोई पुख्ता फैसला करने की बजाय संसद से अपील करते हुए सुझाव देते हुए संतुलित रवैया अपनाया। संसद इस पर क्या रुख अपनाती है ये देखने वाली बात होगी। क्योंकि गठबंधन राजनीति के इस दौर कोई भी पार्टी सदन के अध्यक्ष को अधिकारविहीन करना नहीं चाहेगी। सरकार को समर्थन देने के बदले मंत्रीपद की सौदेबाजी के साथ ही अध्यक्ष पद की भी मांग इसीलिए की जाती है। जहां तक बात इस पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा अयोग्यता मामलों में निष्पक्षता और नैतिकता की धज्जियां उड़ाने के आरोप की तो वह पूरी तरह सही है। इसके लिए उदाहरण तलाशने की जरूरत नहीं है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि राज्यपाल और संसद तथा विधानसभा के अध्यक्ष सत्ता पक्ष के हितों का संरक्षण करते हैं। संवैधानिक पद होने के कारण भले ही उनके सम्मान के प्रति सतर्कता बरती जाती है लेकिन इन पदों की गरिमा बीते जमाने की तुलना में गिरी है। मणिपुर, गोवा, कर्नाटक जैसे अनेक मामलों में दलबदल करने वाले सदस्य को अयोग्य ठहराने में पीठासीन अधिकारी द्वारा किया गया विलंब या लिया गया निर्णय किसी भी स्थिति में न्यायोचित नहीं था। किसी सदस्य द्वारा दलबदल करने पर उसे अयोग्य ठहराना बहुत ही सरल होता है। लेकिन अध्यक्ष उसे सत्ता पक्ष या फिर अपने निजी राजनीतिक हितों के लिए टरकाते हैं। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ट्रिब्यूनल या वैसी ही वैकल्पिक व्यवस्था का सुझाव देते हुए संविधान में तदनुसार संशोधन की जो अपील की उस पर विचार करते हुए विधिसम्मत निर्णय लेना समय की मांग है। बेहतर हो इसके लिए सर्वसम्मति बने। प्रजातंत्र में संवैधानिक पदों की निष्पक्षता और गरिमामय आचरण बहुत महत्वपूर्ण होता है। आज देश में सर्वत्र विश्वसनीयता को जो संकट है उसके लिए इन पदों पर बिठाये जाने वाले व्यक्ति और उनका कार्य भी बड़ा कारण है। इसके लिए किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अपने क्षणिक और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए सभी दल नैतिकता और संवैधानिक मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ाने से नहीं चूकते। वैसे इस तरह के आरोप तो न्यायपालिका पर भी लगने लगे हैं ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 21 January 2020

नड्डा : चुनौतियां स्वागत में खड़ी हैं



भारतीय जनता पार्टी ने जगत प्रकाश नड्डा को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। पार्टी को सफलता के शिखर तक पहुंचाने वाले अमित शाह ने उन्हें संगठन का कार्यभार सौंपा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निकटतम सहयोगी और भरोसेमंद होने से यदि श्री शाह चाहते तो पार्टी के संविधान में मनमाफिक बदलाव करते हुए संगठन पर अपना कब्जा बनाये रख सकते थे। पार्टी के भीतर भी ये कहने वाले कम नहीं हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी ने उस पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया है। लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठों को किनारे बिठा देने के कारण भी इस जोड़ी को खूब आलोचना झेलनी पड़ी। जब श्री नड्डा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया तब भी कुछ लोगों का ये कयास था कि पार्टी को श्री शाह ही अपनी उंगलियों पर नचाते रहेंगे। हालांकि राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से श्री नड्डा को श्री शाह से वरिष्ठ कहा जा सकता है क्योंकि जब श्री शाह गुजरात में ही सीमित थे तब श्री नड्डा भाजपा की युवा इकाई भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर देशव्यापी पहिचान अर्जित कर चुके थे। 2014 के पहले जब श्री मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया उसके बाद वे श्री शाह को पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में लाये। 2014 की चुनावी सफलता को जहां श्री मोदी के व्यक्तित्व का जादू माना गया , उतनी ही श्री शाह की कुशल रणनीति की भी प्रशंसा हुई। विशेष तौर पर उप्र और बिहार में भाजपा की अकल्पनीय सफलता के बाद तो श्री शाह चाणक्य कहे जाने लगे। पूर्वोत्तर राज्यों में पार्टी का जो विस्तार उनके कार्यकाल में हुआ वह आश्चर्यजनक था। भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनाकर उन्होंने विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाया। हालांकि 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को दिल्ली और बिहार में मुंह की खानी पड़ी लेकिन उसके बाद उप्र की बाजी जीतकर श्री शाह ने अपना दबदबा बनाये रखा। उसके बाद गुजरात की फीकी जीत, कर्नाटक में हाथ आई बाजी खिसकने और फिर मप्र, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में मिली हार से मोदी - शाह की जोड़ी की क्षमता पर संदेह के बादल मंडराने लगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में 2004 को दोहराए जाने की बात भी होने लगी लेकिन तमाम आशंकाओं को झुठलाते हुए जब मोदी सरकार पहले से ज्यादा ताकत के साथ लौटी तो श्री मोदी के साथ ही श्री शाह का कद भी आसमान छूने लगा। वे मंत्रीमण्डल के सदस्य बने और गृह जैसा महत्वपूर्ण विभाग उन्हें दिया गया। चंद महीनों के भीतर उन्होंने जो बड़े कारनामे कर दिखाए उनकी वजह से उन्होंने संगठन से निकलकर एक दमदार शासक के रूप में भी अपनी धाक जमा ली। देश की राजनीति में वे प्रधानमंत्री के बाद सबसे ज्यादा चर्चित व्यक्ति बन बैठे। ऐसे समय उनका पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ देना उन पार्टियों के लिए एक संदेश है जहां संगठन पर कुछ व्यक्तियों और परिवार का स्थायी कब्जा है। यदि वामपंथियों को छोड़ दें तो शायद ही कोई पार्टी होगी जहां सत्ता और संगठन के सबसे ताकतवर लोग इस तरह से पद छोड़ते हों। कुछ लोगों का सोचना है कि श्री नड्डा तो दिखावटी रहेंगे तथा आगे भी नियंत्रण श्री शाह का रहेगा। लेकिन ऐसा होता तब मोदी-शाह की जोड़ी श्री नड्डा जैसे अनुभवी और सफल संगठनकर्ता की बजाय किसी ऐसे व्यक्ति की आगे कर देती जो जनधारविहीन हो। उल्लेखनीय है उप्र के चुनाव में बतौर प्रभारी श्री नड्डा ने बहुत ही शानदार काम किया था जिसके बाद से ही उनको भविष्य के नेता के तौर पर देखा जाने लगा। बहरहाल उन जैसे अनुभवी और सुलझे हुए व्यक्ति को पार्टी की कमान सौंपकर भाजपा ने नेतृत्व की निरंतरता को सिद्ध कर दिया जिसका कांग्रेस में घोर अभाव है। देश की सबसे बड़ी पार्टी ने बीते दो दशक में कुल जमा दो अध्यक्ष ही देखे जो माँ - बेटे ही हैं। नेतृत्व के अभाव की सबसे बड़ी बानगी बीती मई में लोकसभा चुनाव की जबरदस्त हार के बाद राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिए जाने के बाद देखने मिली। कई महीनों की मान-मनौव्वल के बाद भी जब श्री गांधी जिम्मेदारी उठाने राजी नहीं हुए तब ले-देकर फिर से सोनिया गांधी को ही पार्टी का अध्यक्ष बनाना पड़ा। उस दृष्टि से भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर लगातार नये नेतृत्व को आगे आने के अवसर दिए। राष्ट्रीय स्तर पर आज भाजपा ही है जिसके पास त्रिस्तरीय नेताओं की कतार है। लेकिन राज्यों में वह भी कांग्रेस संस्कृति पर चलते हुए ऊपर से नेता थोपने की बुराई से ग्रसित है। जिसके कारण उसे राज्यों में या तो असफलता हाथ लग रही है या सफलता अपेक्षानुसार नहीं रही। प्रदेश स्तर पर जो नेता जमे हैं वे दूसरे को बढ़ते नहीं देखना चाहते। बीते एक -डेढ़ वर्ष में इसीलिए पार्टी को अपने प्रभाव वाले अनेक राज्यों की सत्ता गंवानी पड़ गई। श्री नड्डा के सामने राज्यों में भाजपा को मजबूत बनाने की चुनौती है। उनकी छवि बेशक श्री शाह जैसी नहीं है। लेकिन जैसा पहले कहा गया राष्ट्रीय स्तर पर संगठन का कार्य करने का जो लंबा अनुभव है वह उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। पिछली मोदी सरकार में बतौर वरिष्ठ मंत्री काम करने के कारण वे प्रधानमंत्री के भी विश्वासपात्र रहे हैं। और फिर भाजपा के वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ से भी श्री नड्डा करीब से जुड़े हुए हैं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि इसकी वजह है। श्री नड्डा की पहली अग्निपरीक्षा तो फरवरी में होने जा रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव में होगी। उसके बाद बिहार और बंगाल जैसी बड़ी चुनौतियां उनके सामने आएंगी। उनके पूर्ववर्ती श्री शाह विपक्षी को उसी के घर में घुसकर ललकारने में यकीन करते थे। श्री नड्डा की शैली कुछ अलग है। लेकिन वे कुशल रणनीतिकार हैं इसलिए अपना रास्ता खुद बना सकते हैं। उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे राज्यों में पार्टी के स्थापित नेताओं द्वारा फैलाई गई गुटबाजी और परिवारवाद को किस तरह रोक पाते हैं। केंद्रीय स्तर पर भाजपा ने विभिन्न स्तर पर नई पौध को विकसित किया लेकिन हर हाल में सफलता की हवस में नई भर्ती को जिस तरह जगह दी गई उससे पार्टी के समर्पित कैडर में भारी नाराजगी है। महाराष्ट्र में मिली हार में इसका बड़ा योगदान रहा। श्री नड्डा को भाजपा में आकर मिलने वाले बरसाती नालों को रोकना होगा। केंद्रीय सत्ता की नाक के नीचे दिल्ली में मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा नहीं होना विचारणीय विषय है। ये कहने में भी कोई बुराई नहीं है कि भाजपा में पूरी तरह न सही लेकिन काफी हद तक सत्ता से जुड़ी बुराइयां घर कर चुकी हैं। इस वजह से पार्टी विथ डिफरेंस का उसका दावा भी अहमियत खोता जा रहा है। महबूबा मुफ्ती से गठबंधन ने उसकी वैचारिक पवित्रता को भी बड़ी चोट पहुंचाई थी। अनुच्छेद 370 हटाने के निर्णय ने उस घाव को बहुत कुछ भर दिया लेकिन निशान उतनी आसानी से नहीं मिट सकते। श्री नड्डा के समक्ष एक चुनौती और भी है। केंद्र सरकार के साहसिक निर्णयों से बौखलाए विपक्ष ने जिस तरह की घेराबन्दी कर रखी है उसका मैदानी स्तर पर समुचित उत्तर देने के लिए विशेष रणनीति बनानी होगी। विशेष रूप से समाचार माध्यमों, शैक्षणिक, सांस्कृतिक संस्थानों में जमे वामपंथी विचारधारा के लोगों द्वारा की गई जबरदस्त मोर्चेबन्दी को तोडऩे वाली उसी स्तर की टीम पार्टी यदि तैयार नहीं कर पाई तब उसके बढ़ते कदम रुक सकते हैं। मोदी सरकार के अनेक अच्छे निर्णयों का अपेक्षित प्रचार नहीं हो पाने का कारण यही है कि वामपंथी दुष्प्रचार की समय रहते काट नहीं तलाशी गई। जामिया मिलिया और जेएनयू में जो हुआ वह इसका प्रमाण है। तीन तलाक पर रोक लगाकर मुस्लिम महिलाओं का समर्थन हासिल करने के दावों को झूठा साबित करते हुए मुस्लिम समाज ने सीएए के विरोध में महिलाओं को आगे कर दिया। श्री शाह पर संगठन और सत्ता दोनों का भार था इसलिए वे जिन मोर्चों पर ध्यान नहीं दे सके उनकी तरफ  श्री नड्डा को विशेष प्रयास करने होंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव की जोरदार सफलता ने जहां भाजपा का हौसला बढ़ाया वहीं उसमें आत्ममुग्धता भी उत्पन्न कर दी है जिसकी वजह से उसके सहयोगी सशंकित हो चले हैं। महाराष्ट्र और झारखंड इसके ताजा उदाहरण हैं। दूसरी तरफ विपक्षी दलों को भी ये लगने लगा है कि यदि वे अभी भी शांत रहे तो उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसलिए वे सब मौका मिलते ही दाना पानी लेकर भाजपा पर चढ़ाई करने में जुटे हैं। वर्तमान माहौल इसका गवाह है। ऐसे में श्री नड्डा को भीतरी बुराइयों और बाहरी खतरों से एक साथ निपटना पड़ेगा। वे जमीन से जुड़े माने जाते हैं तथा विनम्र भी हैं। लेकिन उन्हें ये ध्यान रखना होगा कि पहले वाले खिलाड़ी की धमाकेदार बल्लेबाजी के बाद लोग वैसी ही अपेक्षा अगले खिलाड़ी से भी करते हैं। श्री नड्डा की तुलना भी इसीलिये श्री शाह से ही होगी। ये बात उन पर मानसिक बोझ न बन जाए उससे उन्हें बचना होगा। और फिर भारतीय राजनीति के इस स्थापित सत्य से भी उनका साक्षात्कार होता रहेगा कि सत्ता में रहते हुए पार्टी संगठन पृष्ठभूमि में चला जाता है। उस लिहाज से अमित शाह निश्चित रूप से अपवाद थे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

नड्डा : चुनौतियां स्वागत में खड़ी हैं



भारतीय जनता पार्टी ने जगत प्रकाश नड्डा को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। पार्टी को सफलता के शिखर तक पहुंचाने वाले अमित शाह ने उन्हें संगठन का कार्यभार सौंपा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निकटतम सहयोगी और भरोसेमंद होने से यदि श्री शाह चाहते तो पार्टी के संविधान में मनमाफिक बदलाव करते हुए संगठन पर अपना कब्जा बनाये रख सकते थे। पार्टी के भीतर भी ये कहने वाले कम नहीं हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी ने उस पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया है। लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठों को किनारे बिठा देने के कारण भी इस जोड़ी को खूब आलोचना झेलनी पड़ी। जब श्री नड्डा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया तब भी कुछ लोगों का ये कयास था कि पार्टी को श्री शाह ही अपनी उंगलियों पर नचाते रहेंगे। हालांकि राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से श्री नड्डा को श्री शाह से वरिष्ठ कहा जा सकता है क्योंकि जब श्री शाह गुजरात में ही सीमित थे तब श्री नड्डा भाजपा की युवा इकाई भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर देशव्यापी पहिचान अर्जित कर चुके थे। 2014 के पहले जब श्री मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया उसके बाद वे श्री शाह को पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में लाये। 2014 की चुनावी सफलता को जहां श्री मोदी के व्यक्तित्व का जादू माना गया , उतनी ही श्री शाह की कुशल रणनीति की भी प्रशंसा हुई। विशेष तौर पर उप्र और बिहार में भाजपा की अकल्पनीय सफलता के बाद तो श्री शाह चाणक्य कहे जाने लगे। पूर्वोत्तर राज्यों में पार्टी का जो विस्तार उनके कार्यकाल में हुआ वह आश्चर्यजनक था। भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनाकर उन्होंने विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाया। हालांकि 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को दिल्ली और बिहार में मुंह की खानी पड़ी लेकिन उसके बाद उप्र की बाजी जीतकर श्री शाह ने अपना दबदबा बनाये रखा। उसके बाद गुजरात की फीकी जीत, कर्नाटक में हाथ आई बाजी खिसकने और फिर मप्र, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में मिली हार से मोदी - शाह की जोड़ी की क्षमता पर संदेह के बादल मंडराने लगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में 2004 को दोहराए जाने की बात भी होने लगी लेकिन तमाम आशंकाओं को झुठलाते हुए जब मोदी सरकार पहले से ज्यादा ताकत के साथ लौटी तो श्री मोदी के साथ ही श्री शाह का कद भी आसमान छूने लगा। वे मंत्रीमण्डल के सदस्य बने और गृह जैसा महत्वपूर्ण विभाग उन्हें दिया गया। चंद महीनों के भीतर उन्होंने जो बड़े कारनामे कर दिखाए उनकी वजह से उन्होंने संगठन से निकलकर एक दमदार शासक के रूप में भी अपनी धाक जमा ली। देश की राजनीति में वे प्रधानमंत्री के बाद सबसे ज्यादा चर्चित व्यक्ति बन बैठे। ऐसे समय उनका पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ देना उन पार्टियों के लिए एक संदेश है जहां संगठन पर कुछ व्यक्तियों और परिवार का स्थायी कब्जा है। यदि वामपंथियों को छोड़ दें तो शायद ही कोई पार्टी होगी जहां सत्ता और संगठन के सबसे ताकतवर लोग इस तरह से पद छोड़ते हों। कुछ लोगों का सोचना है कि श्री नड्डा तो दिखावटी रहेंगे तथा आगे भी नियंत्रण श्री शाह का रहेगा। लेकिन ऐसा होता तब मोदी-शाह की जोड़ी श्री नड्डा जैसे अनुभवी और सफल संगठनकर्ता की बजाय किसी ऐसे व्यक्ति की आगे कर देती जो जनधारविहीन हो। उल्लेखनीय है उप्र के चुनाव में बतौर प्रभारी श्री नड्डा ने बहुत ही शानदार काम किया था जिसके बाद से ही उनको भविष्य के नेता के तौर पर देखा जाने लगा। बहरहाल उन जैसे अनुभवी और सुलझे हुए व्यक्ति को पार्टी की कमान सौंपकर भाजपा ने नेतृत्व की निरंतरता को सिद्ध कर दिया जिसका कांग्रेस में घोर अभाव है। देश की सबसे बड़ी पार्टी ने बीते दो दशक में कुल जमा दो अध्यक्ष ही देखे जो माँ - बेटे ही हैं। नेतृत्व के अभाव की सबसे बड़ी बानगी बीती मई में लोकसभा चुनाव की जबरदस्त हार के बाद राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिए जाने के बाद देखने मिली। कई महीनों की मान-मनौव्वल के बाद भी जब श्री गांधी जिम्मेदारी उठाने राजी नहीं हुए तब ले-देकर फिर से सोनिया गांधी को ही पार्टी का अध्यक्ष बनाना पड़ा। उस दृष्टि से भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर लगातार नये नेतृत्व को आगे आने के अवसर दिए। राष्ट्रीय स्तर पर आज भाजपा ही है जिसके पास त्रिस्तरीय नेताओं की कतार है। लेकिन राज्यों में वह भी कांग्रेस संस्कृति पर चलते हुए ऊपर से नेता थोपने की बुराई से ग्रसित है। जिसके कारण उसे राज्यों में या तो असफलता हाथ लग रही है या सफलता अपेक्षानुसार नहीं रही। प्रदेश स्तर पर जो नेता जमे हैं वे दूसरे को बढ़ते नहीं देखना चाहते। बीते एक -डेढ़ वर्ष में इसीलिए पार्टी को अपने प्रभाव वाले अनेक राज्यों की सत्ता गंवानी पड़ गई। श्री नड्डा के सामने राज्यों में भाजपा को मजबूत बनाने की चुनौती है। उनकी छवि बेशक श्री शाह जैसी नहीं है। लेकिन जैसा पहले कहा गया राष्ट्रीय स्तर पर संगठन का कार्य करने का जो लंबा अनुभव है वह उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। पिछली मोदी सरकार में बतौर वरिष्ठ मंत्री काम करने के कारण वे प्रधानमंत्री के भी विश्वासपात्र रहे हैं। और फिर भाजपा के वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ से भी श्री नड्डा करीब से जुड़े हुए हैं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि इसकी वजह है। श्री नड्डा की पहली अग्निपरीक्षा तो फरवरी में होने जा रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव में होगी। उसके बाद बिहार और बंगाल जैसी बड़ी चुनौतियां उनके सामने आएंगी। उनके पूर्ववर्ती श्री शाह विपक्षी को उसी के घर में घुसकर ललकारने में यकीन करते थे। श्री नड्डा की शैली कुछ अलग है। लेकिन वे कुशल रणनीतिकार हैं इसलिए अपना रास्ता खुद बना सकते हैं। उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे राज्यों में पार्टी के स्थापित नेताओं द्वारा फैलाई गई गुटबाजी और परिवारवाद को किस तरह रोक पाते हैं। केंद्रीय स्तर पर भाजपा ने विभिन्न स्तर पर नई पौध को विकसित किया लेकिन हर हाल में सफलता की हवस में नई भर्ती को जिस तरह जगह दी गई उससे पार्टी के समर्पित कैडर में भारी नाराजगी है। महाराष्ट्र में मिली हार में इसका बड़ा योगदान रहा। श्री नड्डा को भाजपा में आकर मिलने वाले बरसाती नालों को रोकना होगा। केंद्रीय सत्ता की नाक के नीचे दिल्ली में मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा नहीं होना विचारणीय विषय है। ये कहने में भी कोई बुराई नहीं है कि भाजपा में पूरी तरह न सही लेकिन काफी हद तक सत्ता से जुड़ी बुराइयां घर कर चुकी हैं। इस वजह से पार्टी विथ डिफरेंस का उसका दावा भी अहमियत खोता जा रहा है। महबूबा मुफ्ती से गठबंधन ने उसकी वैचारिक पवित्रता को भी बड़ी चोट पहुंचाई थी। अनुच्छेद 370 हटाने के निर्णय ने उस घाव को बहुत कुछ भर दिया लेकिन निशान उतनी आसानी से नहीं मिट सकते। श्री नड्डा के समक्ष एक चुनौती और भी है। केंद्र सरकार के साहसिक निर्णयों से बौखलाए विपक्ष ने जिस तरह की घेराबन्दी कर रखी है उसका मैदानी स्तर पर समुचित उत्तर देने के लिए विशेष रणनीति बनानी होगी। विशेष रूप से समाचार माध्यमों, शैक्षणिक, सांस्कृतिक संस्थानों में जमे वामपंथी विचारधारा के लोगों द्वारा की गई जबरदस्त मोर्चेबन्दी को तोडऩे वाली उसी स्तर की टीम पार्टी यदि तैयार नहीं कर पाई तब उसके बढ़ते कदम रुक सकते हैं। मोदी सरकार के अनेक अच्छे निर्णयों का अपेक्षित प्रचार नहीं हो पाने का कारण यही है कि वामपंथी दुष्प्रचार की समय रहते काट नहीं तलाशी गई। जामिया मिलिया और जेएनयू में जो हुआ वह इसका प्रमाण है। तीन तलाक पर रोक लगाकर मुस्लिम महिलाओं का समर्थन हासिल करने के दावों को झूठा साबित करते हुए मुस्लिम समाज ने सीएए के विरोध में महिलाओं को आगे कर दिया। श्री शाह पर संगठन और सत्ता दोनों का भार था इसलिए वे जिन मोर्चों पर ध्यान नहीं दे सके उनकी तरफ  श्री नड्डा को विशेष प्रयास करने होंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव की जोरदार सफलता ने जहां भाजपा का हौसला बढ़ाया वहीं उसमें आत्ममुग्धता भी उत्पन्न कर दी है जिसकी वजह से उसके सहयोगी सशंकित हो चले हैं। महाराष्ट्र और झारखंड इसके ताजा उदाहरण हैं। दूसरी तरफ विपक्षी दलों को भी ये लगने लगा है कि यदि वे अभी भी शांत रहे तो उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसलिए वे सब मौका मिलते ही दाना पानी लेकर भाजपा पर चढ़ाई करने में जुटे हैं। वर्तमान माहौल इसका गवाह है। ऐसे में श्री नड्डा को भीतरी बुराइयों और बाहरी खतरों से एक साथ निपटना पड़ेगा। वे जमीन से जुड़े माने जाते हैं तथा विनम्र भी हैं। लेकिन उन्हें ये ध्यान रखना होगा कि पहले वाले खिलाड़ी की धमाकेदार बल्लेबाजी के बाद लोग वैसी ही अपेक्षा अगले खिलाड़ी से भी करते हैं। श्री नड्डा की तुलना भी इसीलिये श्री शाह से ही होगी। ये बात उन पर मानसिक बोझ न बन जाए उससे उन्हें बचना होगा। और फिर भारतीय राजनीति के इस स्थापित सत्य से भी उनका साक्षात्कार होता रहेगा कि सत्ता में रहते हुए पार्टी संगठन पृष्ठभूमि में चला जाता है। उस लिहाज से अमित शाह निश्चित रूप से अपवाद थे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 20 January 2020

सिब्बल की बात पर ध्यान दे कांग्रेस



कांग्रेस के वरिष्ठ और मुखर नेता कपिल सिब्बल के कानूनी ज्ञान को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती । वे देश के बड़े वकीलों में गिने जाते हैं। गत दिवस उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून पर एक बयान में दो टूक कह दिया कि भले ही राज्य इसका विरोध करें और अपनी विधानसभा में इसके विरुद्ध प्रस्ताव पारित करें लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी वैध ठहराए जाने के बाद उसे लागू करने से इंकार नहीं किया जा सकता। श्री सिब्बल ने यद्यपि कानून के विरुद्ध हो रहे आंदोलन की प्रशंसा की लेकिन उसको लागू किये जाने सम्बन्धी राज्यों की बाध्यता को स्पष्ट करते हुए ये गलतफहमी भी दूर कर दी कि संसद द्वारा मंजूर किसी कानून को राज्य सरकार लागू करने से इंकार कर सकती है । श्री सिब्बल के बयान का उन्हीं की पार्टी के अन्य नेता और प्रख्यात अधिवक्ता सलमान खुर्शीद ने भी समर्थन किया है । यद्यपि दोनों ने अपनी पार्टी की राजनीतिक लाइन पर चलते हुए उक्त कानून के विरोध को जायज भी ठहराया लेकिन इस बात की पुष्टि भी कि राज्य सरकार ये नहीं कह सकती कि संसद द्वारा पारित किसी कानून को अपने राज्य में लागू नहीं करेगी। सर्वोच्च न्यायालय अवश्य उसकी समीक्षा कर उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है लेकिन संसद से पारित होने , राष्ट्रपति द्वारा उसका अनुमोदन किये जाने तथा उसे लागू किये जाने संबंधी अधिसूचना जारी हो जाने के बाद किसी राज्य की सरकार या मुख़्यमंत्री का उसे लागू नहीं करने जैसी बात कहना संविधान और संघीय ढांचे के विरुद्ध है । चूंकि सीएए अब एक विधिवत कानून है इसलिए उसे लागू करना राज्यों की भी संवैधानिक बाध्यता और जिम्मेदारी है । जहां तक बात इसके विरोध की है तो इसके पीछे भी वोटबैंक की ही राजनीति है ये बात किसी से छिपी नहीं रही। देश के जिन हिस्सों में भी सीएए का विरोध चल रहा है उनमें असम सहित कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में ही उसके पीछे दिए जा रहे तर्क औचित्यपूर्ण हैं क्योंकि वहां के लोगों को अपनी भाषायी बहुलता के लिए खतरा महसूस हो रहा है । लेकिन दिल्ली के शाहीन बाग और कुछ विश्वविद्यालयों में हो रहे विरोध के पीछे केवल वे ताकतें हैं जो येन केन प्रकारेण देश में अस्थिरता फैलाकर उसे भीतर से कमजोर करने की रणनीति पर काम कर रही हैं । जो बात श्री सिब्बल ने कही उसका निहितार्थ यही है कि संवैधानिक प्रक्रिया के तहत बनाये कानून का विरोध भी उसी की मर्यादा में रहकर किया जाना चाहिए। लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि खुद श्री सिब्बल की पार्टी और उसके नेताओं ने सीएए को लेकर गलत रास्ता अख्तियार कर लिया। अब यदि पंजाब, राजस्थान, मप्र जैसे कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री इसे लागू नहीं करने की बात कहते हैं तब क्या वह गैर कानूनी और संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं है । विधानसभा में कानून के विरोध का प्रस्ताव पारित करना भी एक तरह से संघीय ढांचे के प्रति असहमति ही हुई। उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देना तो पूरी तरह विधिसम्मत प्रक्रिया है किन्तु जब किसी राज्य की सरकार और उसका मुखिया संसद द्वरा पारित किसी कानून के विरोध में जनता को उकसाने का कार्य करे तब वह अनुचित ही है। श्री सिब्बल की स्पष्ट टिप्पणी और उन्हीं के पार्टी सहयोगी श्री खुर्शीद द्वारा उसका समर्थन किये जाने के बाद कांग्रेस को इस बारे में गम्भीर और जिम्मेदार हो जाना चाहिये । विपक्षी दल सरकार के किसी निर्णय का सैद्धांतिक विरोध करे उसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन उसके कारण यदि अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाए तब उसे अपने तरीके में बदलाव करना चाहिये । जिस तरह शाहीन बाग के धरने को महिमामंडित किया जा रहा है वह भी अव्यवस्था फैलाने का ही हिस्सा है जिसे कांग्रेस पर्दे के पीछे रहकर समर्थन दे रही है । केंद्र सरकार द्वारा लिए गए अन्य निर्णयों के विरोध में मुस्लिम समाज ने वैधानिक तरीके अपनाने की जो समझदारी दिखाई ठीक वैसी ही सीएए को लेकर भी दिखाई जाती तब उस पर सार्थक बहस हो सकती थी लेकिन वामपंथियों ने अपने प्रचार तंत्र के जरिये मुस्लिम समुदाय को भयभीत कर दिया और कांग्रेस भी बिना सोचे-समझे उस षडयंत्र में फंसकर उनके साथ चल पड़ी। ममता बैनर्जी और केरल की वामपंथी सरकार द्वारा संसद द्वारा बनाए गये कानून को लागू नहीं करने जैसी बात कहना उतना अटपटा नहीं लगा क्योंकि उनकी पूरी राजनीति ही टकराव से प्रेरित है लेकिन जब कैप्टेन अमरिन्दर सिंह, कमलनाथ और अशोक गहलोत जैसे अनुभवी मुख्यमंत्री सीएए को लागू करने नहीं जैसी बात कहते हैं तब आश्चर्य होता है। बेहतर हो कांग्रेस अपने शासन वाले राज्यों को इस बात की सलाह दे कि वहां पार्टी भले ही सीएए का राजनीतिक स्तर पर विरोध करे किन्तु सरकार को ऐसी कोई बात कहनी नहीं चाहिए जिससे संवैधानिक संकट खड़ा हो । अनेक संविधान विशेषज्ञ कह चुके हैं कि कानून बन जाने और तत्संबन्धी अधिसूचना जारी होने के बाद किसी भी राज्य सरकार के लिए उसे लागू नहीं किया जाना असम्वैधानिक होगा और उस सूरत में केंद्र को वहां राष्ट्रपति शासन लगाने जैसा अप्रिय निर्णय लेना पड़ सकता है । इस बारे में एक छोटा सा उदाहरण प्रासंगिक होगा। बीते दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जबलपुर में कुछ ऐसे सिंधी परिवारों को भारत की नागरिकता प्रदान की जो बरसों पहले पाकिस्तान से प्रताडि़त होकर मप्र के बालाघाट में रह रहे थे लेकिन वैध नागरिकता नहीं होने से वे तमाम सुविधाओं और अधिकारों से वंचित थे । कमलनाथ सरकार ने उस कदम का कोई विरोध न करते हुए ये साबित कर दिया कि उसके पास वैसा करने का कोई अधिकार नहीं है । कपिल सिब्बल के बयान के बाद उम्मीद की जानी चाहिये कि कांग्रेस इस मामले में जिम्मेदारी का परिचय देते हुए ऐसा कोई कार्य नहीं करेगी जिससे उसकी राज्य सरकारें व्यर्थ के झमेले में फंस जाएं। देश के संघीय संवैधानिक ढांचे की सलामती के लिए विरोध के तौर - तरीकों को भी मर्यादा की रेखा में ही रहना चाहिए।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 17 January 2020

संजय राउत ने बयान पलटा लेकिन बात नहीं



शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत राजनेता होने के अलावा पार्टी के मुखपत्र सामना के संपादक भी हैं। लेकिन उनकी प्रसिद्धि विवादास्पद बयानों और तीखी टिप्पणियों से ही है। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबन्धन टूटने में उनकी बयानबाजी को भी एक कारण माना जाता है। हालाँकि ये कहना गलत नहीं होगा कि संजय महज एक मोहरे हैं जिन्हें आगे बढ़ाकर ठाकरे परिवार अपनी चालें चला करता है। उनके पहले के प्रवक्ता भी सामना के संपादक रहे। इनमें एक संजय निरुपम कांग्रेस में जा घुसे और दूसरे प्रेम शुक्ल भाजपा में। बीते काफी समय से श्री राउत, ठाकरे परिवार के बाद शिवसेना के सबसे मुखर नेता के रूप में सामने आये। वे राज्यसभा सदस्य भी हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा और शिवसेना में मुख्यमंत्री पद को लेकर छिड़ी जंग में उनकी शेरो-शायरी युक्त टिप्पणियाँ सुखिऱ्यों में रहीं। ये कहना भी काफी हद तक सही है कि भाजपा उनके बयानों के सामने निरीह नजर आई। लेकिन उद्दव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने के बाद श्री राउत की बयानबाजी ठंडी पड़ गई। ये माना जाने लगा कि उद्धव के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद शिवसेना ने अपने प्रवक्ता को वाणी पर संयम रखने की हिदायत दे दी। लेकिन हाल ही में कुछ ऐसी राजनीतिक घटनाएँ हुईं जिनके बाद शिवसेना अपनी मौलिक शैली पर लौटती दिख रही है। गत 13 जनवरी को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा आयोजित विपक्षी दलों की बैठक में शिवसेना को आमंत्रण नहीं मिला। उसके पहले वीर सावरकर के विरुद्ध कांग्रेस के कतिपय नेताओं द्वारा छेड़े गये अभियान पर भी शिवसेना कड़ा ऐतराज जता चुकी थी। यही नहीं तो महाराष्ट्र सरकार में कांग्रेस के कुछ मंत्री उद्धव ठाकरे से मिलकर महत्वहीन मंत्रालय मिलने पर नाराजगी भी जता चुके थे। कहते हैं उस दौरान काफी गर्मागर्म वार्तालाप भी हुआ। शिवसेना की मुसीबत ये है कि भले ही मुख्यमंत्री की कुर्सी उसके पास हो लेकिन सत्ता के असली सूत्र एनसीपी प्रमुख शरद पवार के पास ही हैं। लेकिन वह चाहकर भी उनके विरुद्ध कुछ नहीं कह पाती। सावरकर संबंधी बयानबाजी में भी एनसीपी कांग्रेस के साथ नहीं दिखी। ऐसे में शिवसेना ने कांग्रेस को कमजोर गोटी मानकर उस पर निशाना साधने की रणनीति अपनाई और उसी के अंतर्गत दो-तीन दिन पहले ऐसा बयान दे दिया जिससे कांग्रेस पूरी तरह तिलमिला गयी। श्री राउत ने पुणे में एक भाषण के दौरान आज के माफिया सरगनाओं को बौने कद का बताते हुए कह दिया कि हाजी मस्तान के आने पर लोग खड़े हो जाया करते थे। लेकिन उनके इस बयान ने तहलका मचा दिया जिसमें प्रधानमन्त्री रहते हुए इंदिरा गांधी के माफिया डॉन करीम लाला से मिलने आने की बात थी। स्मरणीय है करीम एक ज़माने में मुम्बई में अपराध की दुनिया का बेताज बादशाह हुआ करता था। इस बयान के कारण कारण कांग्रेस सकते में आ गयी। और समय होता तब कांग्रेस ही नहीं बल्कि दीगर लोग भी श्री राउत की बात को राजनीतिक स्टंट बताकर उपेक्षित कर देते लेकिन ऐसे समय जब महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की कुर्सी कांग्रेस की बैसाखी पर टिकी हुई है, उनकी पार्टी के प्रवक्ता द्वारा इतना सनसनीखेज बयान देना साधारण बात नहीं मानी जा सकती। हालाँकि कांग्रेस द्वारा बेहद तीखी प्रतिक्रिया के बाद उन्होंने बयान वापिस ले लिया लेकिन उसका खंडन करने की बजाय ये और जोड़ दिया कि इंदिरा जी करीम लाला के पठान नेता होने के कारण उससे मिलने जाती थीं। लेकिन तब तक सोशल मीडिया सहित दूसरे माध्यमों ने लाला की आपराधिक गतिविधियों का चि_ा खोल दिया। इंदिरा जी के साथ उसके चित्र भी प्रसारित हो गए। सवाल ये है कि संजय ने ये सब जान बूझकर किया या अनजाने में। क्योंकि अब तक उद्धव ठाकरे या अन्य किसी और शिवसेना नेता ने उस बयान के समर्थन या विरोध में कुछ नहीं कहा। कुछ लोगों का ये भी मानना है कि श्री राउत को महाराष्ट्र में शिवसेना की सरकार बनवाने में निभाई गयी महत्वपूर्ण भूमिका के बाद भी खाली हाथ रह जाने का रंज है। और वे विघ्नसंतोषी के तौर पर सामने आकर खुद को स्थापित करने में जुट गये हैं। गौरतलब है उनका नाम संभावित मुख्यमंत्री के तौर पर भी उभरा था। हालाँकि इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि पार्टी प्रवक्ता के मुंह से विवादास्पद बयान दिलवाकर उद्धव ठाकरे कांग्रेस को सन्देश देना चाहते हैं कि वह उनकी उपेक्षा और वीर सावरकर की चरित्र ह्त्या का दुस्साहस करेगी तो उसे उसी शैली में जवाब मिलेगा। सच्चाई जो भी हो लेकिन श्री राउत ने अपना बयान वापिस लेने के बाद भी इंदिरा जी और करीम लाला की मुलाकात का खंडन नहीं किया। उनके ये कह देने से कि वे उससे पठान नेता के रूप में मिलती थीं, पूर्व में दिए बयान में छिपा आरोप नष्ट नहीं होता। अब गेंद कांग्रेस की पारी में है। उसे ये स्पष्ट करना चाहिए कि इन्दिरा जी करीम लाला से किस वजह से मिलती थीं? इंदिरा जी जैसी शक्तिशाली कही जाने वाली नेत्री किसी तस्कर की छवि वाले व्यक्ति से क्यों मिलती थीं ये निश्चित रूप से रहस्यमय है। भले ही श्री राउत ने कांग्रेस की आपत्ति के बाद अपने बयान को वापिस ले लिया किन्तु उनकी संशोधित टिप्पणी में भी पूर्व प्रधानमंत्री पर आक्षेप यथावत है। राजनीति के जानकार शिवसेना प्रवक्ता की बात का विश्लेषण कर रहे हैं। कुछ को लग रहा है कि उद्धव ठाकरे को कांग्रेस के साथ रहना असहज लगने लगा है। दरअसल दोनों एक दूसरे को पचा नहीं पा रहे हैं। बड़ी बात नहीं ठाकरे परिवार कांग्रेस को छेड़कर दोबारा भाजपा के साथ गलबहियां करने की कार्ययोजना में जुट गया हो। कांग्रेस द्वारा सावरकर के विरुद्ध की गई बयानबाजी के बाद विपक्ष की बैठक में शिवसेना को न्यौता नहीं दिया जाना और उसके बाद संजय राउत द्वारा इंदिरा जी का अपराधिक छवि के व्यक्ति से मिलने का खुलासा साधारण बातें नहीं है। इनके पीछे छिपे राजनीतिक मंतव्य भी देर-सवेर सामने आ जायेंगे। फिलहाल तो कांग्रेस को सांप-छछूदर वाली स्थिति से गुजरना पड़ रहा है क्योंकि श्री राउत के दोनों बयानों में एक बात शामिल है कि इंदिरा जी उस करीम लाला से मिलती थीं जिसे अपराध की दुनिया का बड़ा नाम माना जाता था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 16 January 2020

ई कॉमर्स : व्यापारी के साथ ग्राहक की चिंता भी जरूरी



समय के साथ बहुत कुछ बदलता है और व्यापार भी अपवाद नहीं है। तकनीक के विकास ने जो बदलाव किये उनके प्रभावस्वरूप ग्राहक के बाजार जाने की बजाय बाजार ग्राहक तक पहुँचने लगा। ऑनलाइन व्यापार या ई कॉमर्स के नाम से जानी जाने वाली इस प्रणाली ने परम्परागत व्यापार की समूची संस्कृति बदल डाली। इसमें ऐसे अनेक फायदे हैं जिनकी वजह से ग्राहक इसके साथ जुड़ता चला जाता है। अव्वल तो उसे बाजार जाने की झंझट से मुक्ति मिल जाती है और फिरर दाम भी कम देने पड़ते हैं। चीज पसंद नहीं आने पर लौटाने की सुविधा भी है। समय - समय पर निकलने वाले विशेष ऑफर्स के जरिये ग्राहकों को अकल्पनीय रियायतें भी दी जाती हैं। ऑनलाइन कम्पनियां ग्राहकों को संचार माध्यमों से नए उत्पादों के बारे में जानकारी भी उपलब्ध करवा देती हैं। ग्राहक के पास बिना बाजार में भटके ही किसी चीज के प्रतिस्पर्धात्मक दामों की तुलना करते हुए अपनी पसंद चुनने का अवसर भी रहता है। उपभोक्तावाद के विस्तार के साथ ही ऑनलाइन कंपनियों का कारोबार बढ़ता चला गया। पहले इसकी मौजूदगी केवल विकसित देशों में ही थी लेकिन इंटरनेट ने देशों की दूरियां मिटा दीं। नतीजतन आज पूरे विश्व में ई कॉमर्स फैल गया। लेकिन इससे व्यापार के परम्परागत ढांचे को जबर्दस्त नुकसान भी हो रहा है। भारत जैसे देश में जहां करोड़ों छोटे - छोटे व्यापारी अर्थव्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा हैं , ऑनलाइन व्यापार ने उनके अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है। उदारीकरण के आगमन के बाद जब छोटे व्यापार में भी बड़े औद्योगिक घरानों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई तब इसका विरोध हुआ लेकिन बाजारवादी ताकतें सरकार पर हावी होती गईं और खुदरा व्यापार में भी बड़ी देशी कम्पनियां कूद पड़ीं। बात यहीं तक सीमित रहती तब भी ठीक था लेकिन उनके पीछे या यूँ कहें कि उनका साथ लेकर दुनिया की अनेक बड़ी ऑनलाइन कम्पनियां ही नहीं बल्कि रिटेल स्टोर्स की श्रंखला भी भारत में घुस बैठी। पहले इनकी मौजूदगी केवल महानगरों में थी लेकिन धीरे - धीरे मझोले शहरों में भी ये जम गए। बड़ी कम्पनियों के शो रूम के बाद मॉल संस्कृति आई। उसने भी छोटे और मध्यम व्यापारी की कमर तोड़ी। लेकिन सबसे बड़ा धक्का लगा ऑनलाइन व्यापार से। इन दिनों दुनिया की सबसे बड़ी ई कॉमर्स कम्पनी अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस भारत आये हुए हैं। गत दिवस उन्होंने भारत में अपने कारोबार के विस्तार के सम्बन्ध में रिटेल व्यापार से जुड़े औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधियों को संबोधित किया। वे एक उत्प्रेरक की तरह बोले। उनके विरोध में देश भर में व्यापारियों ने प्रदर्शन किये। श्री बेजोस ने अपने संबोधन में अरबों रूपये की निवेश की घोषणा भी कर डाली। भारत के अनेक औद्योगिक घराने उनके साथ व्यावसायिक भागीदारी करने के इच्छुक भी दिखाई दे रहे हैं। अमेजन के मालिक ने भारत में हो रहे विरोध को देखते हुए आने वाले कुछ वर्षों के भीतर मेक इन इण्डिया के अंतर्गत बनने वाले सामान के निर्यात का भी आश्वासन दिया जिसका मूल्य 71 हजार करोड़ होगा। यही नहीं उन्होंने भारत में छोटे और मध्यम कारोबारियों को डिजिटलाइज करने पर भी मोटी रकम खर्च करने की बात कही। लेकिन बात केवल अमेजन तक सीमित रखने से ही ऑनलाइन कारोबार को लेकर हो रही बहस और विरोध की चर्चा पूरी नहीं हो सकेगी। भारत में भी रिलायंस, टाटा, बिरला, बियाणी और अन्य जाने - अनजाने कारोबारियों ने भी रिटेल व्यापार में कदम बढ़ाकर छोटे और मझोले स्तर के व्यापारी को बर्बाद करने का इंतजाम कर दिया है। बीते दशहरा-दीपावली सीजन में जब व्यापार जगत आर्थिक मंदी का रोना रोते हुए ग्राहकों की कमी से परेशान था तब ऑनलाइन कंपनियों की बिक्री लगभग 50 हजार करोड़ के आसपास बताई गयी। एक महंगे मोबाइल फोन की ऑनलाइन बिक्री के महज 36 घंटे के भीतर ही 750 करोड़ के आंकड़े को छू जाना ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि एक अदृश्य बाजार तेजी से सक्रिय रहते हुए अपना दायरा बढ़ाने में जुटा हुआ है। इसके लिए केवल सरकारी नीतियों और बाजारवादी ताकतों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि भारत के त्रिस्तरीय व्यापारिक ढांचे में मुनाफे के बंटवारे की जो प्रणाली प्रचलित है उसमें ग्राहकों की बजाय व्यापार करने वाले के फायदे पर ही ध्यान दिया जाता रहा। ऑनलाइन और रिटेल स्टोर्स ने ग्राहकों के लाभ पर ध्यान केन्द्रित कर बीच की अनेक कडिय़ों को अलग करते हुए उत्पादक और ग्राहक के बीच सीधा सम्बन्ध कायम किया जिसकी वजह से मुनाफे में हिस्सेदार घटे और उपभोक्ता को उम्मीद से ज्यादा फायदा होने लगा। ऑनलाइन कम्पनियों ने अब नई योजना भी बनाई है जिसके तहत वे दुकानदारों के नेटवर्क का उपयोग करते हुए अपना माल ग्राहकों तक पहुँचाने का तरीका लागू करेंगी। रिलायंस जियो और उस जैसी दूसरी कम्पनियां भी इस दिशा में आगे बढ़ रही हैं। अमेजन के मालिक ने भारत के छोटे और मध्यम कारोबार को डिजिटलाइज करने पर करोड़ों खर्च करने की जो बात की है उसके पीछे भी यही सोच है। लेकिन इस सबके बीच सोचने वाली बात ये है कि भारत में आज भी करोड़ों ऐसे छोटे व्यापारी हैं जो तकनीक और व्यापार के आधुनिक तौर तरीकों से अनजान हैं। सुदूर गाँव में बैठे खुदरा व्यापारी को रातों-रात आधुनिकता के सांचे में ढाल देना आसान नहीं होगा। और फिर हर छोटे-मध्यम कारोबारी के साथ कुछ कर्मचारी या उसके परिजन भी जुड़े होते हैं। यदि पूरा का पूरा व्यापार रिटेल स्टोर्स और ऑनलाइन में सिमटकर रह गया तब बेरोजगारी के आंकड़े कहाँ जाकर रुकेंगे ये सोचकर भी डर लगता है। लेकिन इसके लिए परम्परागत शैली के उत्पादकों और व्यापारियों को भी बदले हुए हालातों में ग्राहकों के हितों के प्रति अधिक संवेदनशील होना पड़ेगा। यदि ग्राहक को घर बैठे कोई चीज मिले और वह भी कम दाम पर तो वह व्यापारी के पास क्यों जाएगा? हाल ही के वर्षों में होटलों की बुकिंग और रेस्टारेंट से भोजन घर पहुँचाने का कारोबार जिस तेजी से बढ़ा उसके पीछे भी ग्राहक को मिल रही सुविधा और किफायत की बड़ी भूमिका है। ये बात सही है कि छोटे व्यापारी के लिए इस तरह की प्रतिस्पर्धा करना असम्भव है। इसलिए अब सरकार की भूमिका पर सबकी नजर जाती है। ये कहने में कोई गलती नहीं होगी कि बीते तीन दशक से केंद्र और राज्यों की सरकारों के दिमाग पर जिन आर्थिक सुधारों का भूत सवार है उसमें भारत की जमीनी हकीकत को पूरी तरह से उपेक्षित किया जाता रहा। यदि खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बड़े औद्योगिक घरानों की घुसपैठ को समय रहते रोकते हुए ग्राहकों के लाभ की समुचित व्यवस्था की गयी होती तब अमेजन के मालिक भारत में आकर दरियादिली नहीं दिखा पाते। खैर , अभी भी देर नहीं हुई है। सरकार को चाहिए कि वह व्यापार के चंद हाथों में सीमित हो जाने के सिलसिले को रोकने के लिए कदम उठाये वरना विदेशी कम्पनियों के बढ़ते कदम पहले छोटे और मध्यम व्यापरियों को रौदेंगे और उसके बाद बड़े धनकुबेरों को। इसके पहले कि स्थिति बेकाबू होते हुए अराजकता को जन्म दे, संभल जाना चाहिए क्योंकि नया उपनिवेशवाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कंधों पर बैठकर आ रहा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 14 January 2020

आर्थिक मंदी में भी बढ़ रहा भ्रष्टाचार उद्योग



केन्द्रीय बजट आने के एक पखवाड़े पहले खुदरा महंगाई के जो आंकड़े आये हैं उनकी वजह से मोदी सरकार का मानसिक बोझ बढ़ गया है। आर्थिक मंदी में आम तौर पर मांग कम होने से दाम गिरते हैं। लेकिन बीते कुछ महीनों में रोजमर्रे की चीजों के मूल्यों में वृद्धि के कारण महंगाई बढ़ गई। हालाँकि इसका कारण अधिक वर्षा से खराब हुई सब्जियां एवं अन्य फसलें भी हैं। प्याज तो खैर, हर साल ही हड़कंप मचाता है लेकिन इस साल मानसून लंबा खिंच गया। महाराष्ट्र में इस वजह से गन्ने की पैदावार कम हुई है जिससे आने वाले समय में चीनी के दाम बढऩा तय है। रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में कटौती के बावजूद यदि महंगाई बीते पांच साल के उच्चतम स्तर तक आ गयी तब सरकार के लिए चिन्तन और चिंता दोनों की परिस्थितियाँ बन गई हैं। यद्यपि प्याज के अलावा बाकी हरी सब्जियों के दाम बीते कुछ दिनों में लगातार नीचे आने से हो सकता है बजट पेश होने तक तक महंगाई के आंकड़े कुछ नीचे आ जाएं लेकिन गन्ना और दलहन के साथ ही धान की फसल को अतिवृष्टि से हुए नुकसान से आने वाले दिनों में एक बार फिर खुदरा महंगाई सिरदर्द बन सकती है। सबसे बड़ी बात ये है कि रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में कटौती की संभावनाएं जहां घट रही हैं वहीं नगदी की कमी दूर करने के बारे में उसका लचीला रवैया भी कड़ाई में बदल सकता है। अर्थशास्त्री भी इस बात को लेकर भौचक हैं कि बाजार में नगदी की किल्लत के बावजूद महंगाई बढऩे की स्थिति कैसे बनी। अर्थशास्त्र के स्थापित सिद्धांतों के अनुसार बाजार में मुद्रास्फीति (नगदी के अतिरिक्त चलन) की वजह से मांग बढ़ती है जो महंगाई का कारण बन जाती है। लेकिन भारतीय बाजार बीते दो-तीन साल से मुद्रा संकुचन की समस्या से जूझते आ रहे हैं। नोटबंदी को इसका सबसे प्रमुख कारण माना जाता रहा है। उससे उद्योग व्यापार जगत उबर पाता उसके पहले ही जीएसटी लागू हो जाने से समस्या और जटिल हो गई। वैसे उक्त दोनों कदमों का प्रारम्भिक तौर पर तो स्वागत हुआ लेकिन उनके अमल में जो अनिश्चितता और अव्यवस्था हुई उसकी वजह से परिणाम प्रतिकूल हो गए। वैसे इसका दूसरा पहलू ये भी है कि उक्त दोनों कदमों से काले धन से होने वाला कारोबार ठंडा पड़ गया जिसकी वजह से समानांतर अर्थव्यवस्था सिमटने को आ गई। लेकिन इससे बाजार में मांग घटी जिसका दुष्प्रभाव अंतत: उत्पादन और उसके साथ ही रोजगार गिरने के रूप में सामने आया। केंद्र सरकार की समूची राजनीतिक कामयाबी आर्थिक मोर्चे पर आकर सवालों के घेरे में इसलिए फंसकर रह जाती है क्योंकि इस स्थिति से निकलने की अवधि और तरकीब को लेकर सत्ता पक्ष पूरी तरह खामोश बना हुआ है। प्रधानमंत्री ने बीते दिनों उद्योगपतियों सहित कुछ जानकारों से प्रत्यक्ष बातचीत करते हुए सुझाव मांगे लेकिन वे सब बजट की दिशा तय करने के लिये थे जो अमूमन हर साल होता है। सवाल ये है कि इस स्थिति से देश निकलेगा कैसे? कुछ लोगों का ये भी कहना है कि मोदी सरकार ने बीते पांच वर्षों में रक्षा सौदों में जो बड़ी धनराशि खर्च कर दी उससे भी अर्थव्यवस्था में ठहराव आ गया लेकिन वह ऐसी जरूरत थी जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी बात जो समझ में आती है वह है आर्थिक मोर्चे पर दीर्घकालीन नीतियों के अभाव की। हमारे देश में करों को लेकर कोई ये नहीं बता सकता कि आज जो दरें हैं वे कब तक जारी रहेंगी? पिछले बजट में सोने के आयात पर शुल्क बढ़ाया गया था। इसका मकसद सोने की खरीदी पर खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा है। बीते कुछ महीनों में स्वर्ण आयात घटने की खबरें भी आईं लेकिन दूसरी तरफ  स्वर्ण आभूषणों का निर्यात घटने से इस व्यवसाय को जमकर घाटा हुआ। अब खबर है कि आगामी बजट में सोने के आयात पर शुल्क फिर से कम किया जा रहा है। इसी तरह से आयकर की दरों को लेकर भी अनिश्चितता बनी रहती है। आगामी बजट के पहले की परिस्थितियों में सरकार बेहद दबाव में है लेकिन उसे ऐसे फैसले लेने चाहिए जो ठोस हों और नीतिगत अनिश्चितता से मुक्त रहें। चंद उद्योगपतियों से मिली सलाह के आधार पर बजट बनाने की बजाय आम जनता को ध्यान में रखते हुए यदि आर्थिक नियोजन किया जावे तो उसके परिणाम कहीं बेहतर होंगे। देश में आलीशान कारों की बजाय छोटे दोपहिया वाहनों को सस्ता किया जाना कहीं जरूरी है। रही बात बेरोजगारी की तो सरकार को श्रम कानूनों में सुधार करना चाहिए जिनकी वजह से नौकरियों पर संकट है। न्यूनतम मजदूरी तय करने से श्रमिकों का शोषण रोकने के प्रयास का नकारात्मक प्रभाव भी हुआ। बेहतर हो इस बारे में मांग और पूर्ति के सिद्धान्त्त को भी ध्यान में रखा जावे। ऊंचे वेतनमान के कारण ही अंतत: सरकार भी नई नौकरी निकालने की बजाय संविदा नियुक्तियों और दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों से काम चला रही है। लेकिन निजी क्षेत्र के नियोक्ताओं पर दर्जनों श्रम कानूनों का बोझ लाद दिया गया है। खुदरा मंहगाई की दरों में वृद्धि का हल्ला तो कमजोर पड़ सकता है किन्तु बेरोजगारी दूर करने के लिए सरकार को श्रम कानूनों और सेवा शत्र्तों में लचीलापन लाना होगा। आर्थिक सुधारों के लिहाज से भी ये बेहद जरूरी हैं। रही बात बजट की तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास सीमित विकल्प हैं। राजकोषीय घाटा नियंत्रित करने के लिए सरकारी खर्च कम करना होगा और वैसा करने से विकास कार्य प्रभावित होते हैं। अच्छा तो यही होगा सरकार आर्थिक क्षेत्र में होने वाले भ्रष्टाचार पर लगाम लगाए और इसके लिए आयकर की समाप्ति जैसे किसी क्रांतिकारी कदम की जरूरत है। सरकार माने या न माने लेकिन नोटबंदी इसी दिशा में बढ़ाया गया कदम था। बजट में करों की कमी से ज्यादा जरूरत सरकारी अमले के भ्रष्टाचार को रोकने की है। प्रधानमंत्री भले ही न खाउंगा के अपने दावे को सही साबित करते रहे हों लेकिन न खाने दूंगा वाली बात को वे लागू नहीं करवा पाए। भ्रष्टाचार रूपी दीमक समूची व्यवस्था को चाट रहा है। आगामी बजट में यदि सरकार आर्थिक नीतियों को भ्रष्टाचार से मुक्त करवाने का पुख्ता इंतजाम कर सके तभी निराशा का वर्तमान माहौल दूर हो सकेगा। सत्ता के शीर्ष पर विराजमान महानुभावों को ये बात अच्छी तरह से जान लेनी चाहिए कि आर्थिक मंदी के बाद भी सरकारी अमले के भ्रष्टाचार का कारोबार जमकर फल फूल रहा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 13 January 2020

वामपंथ : डूबते को जेएनयू का सहारा



दिल्ली की प्रसिद्ध जेएनयू में बीते दिनों हुआ बलवा कहने को तो शांत हो गया लेकिन उसके कारण वामपंथी हताशा एक बार फिर उजागर हो गयी। 5 जनवरी की शाम वहां कुछ नकाबपोशों द्वारा की गयी मारपीट का देश भर में जबर्दस्त प्रचार हुआ। लेकिन उसके पहले जो कुछ भी हुआ उस बारे में लोगों को ज्यादा नहीं पता। धीरे-धीरे जो जानकारी आई उसके अनुसार नये सेमेस्टर का पंजीयन रोकने के लिए वामपन्थी छात्रों द्वारा सम्बंधित दफ्तर की समूची संचार व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया गया। उन्हें रोकने वाले छात्रों को पीटा भी गया। फीस और छात्रावास शुल्क में वृद्धि के विरोध में चलाये जा रहे आन्दोलन के अंतर्गत वामपंथी जेएनयू में समूची शैक्षणिक गतिविधियों को महज इसलिए ठप्प किये हुए हैं जिससे कि उनकी स्वच्छन्दता पर लगाये जा रहे नियंत्रण प्रभावशील न हो सकें। इसके पीछे शिक्षकों का भी वह समूह है जो वामपंथी विचारधारा में रंगा हुआ है। इनमें तमाम ऐसे लोग हैं जो इसी विवि के छात्र रह चुके हैं। पूरे फसाद की जड़ यही है कि वामपंथी जेएनयू में अपने एकाधिकार को मिल रही चुनौती से भन्नाए हुए हैं। उनकी ये सोच केवल इस संस्थान में ही नहीं बल्कि दिल्ली के जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम विवि, हैदराबाद के उस्मानिया और बंगाल के जादवपुर विवि जैसे उन तमाम शिक्षण संस्थानों में भी साफ दिखाई दे रही है जहां वामपन्थी ताकतों को वैचारिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। ये स्थिति अचानक नहीं बनी। बीते पांच सालों में केंद्र की सत्ता द्वारा वामपंथी और उनकी आड़ में सक्रिय देश विरोधी तत्वों की गतिविधियों पर रोक लगाये जाने के बाद से ही सुनियोजित तरीके से उक्त शिक्षण संस्थानों में अराजकता और अव्यवस्था का माहौल बनाकर उसे युवा असंतोष का नाम देकर भ्रम फैलाया जा रहा है। उनके अलावा भी अन्य विश्वविद्यालयों में छात्र आंदोलित हुए लेकिन उनकी संख्या मु_ी भर रही। कुल मिलाकर वामपन्थी और उनके साथ जुड़े बाकी देशविरोधी मानसिकता वाले छात्र ही इस बवाल के पीछे हैं। इस सन्दर्भ में ये बात बिलकुल सही है कि पूरे घटनाक्रम का उद्देश्य केवल और केवल देश के भीतर अराजक वातावारण का निर्माण करना है। इस बारे में एक टीवी वार्ता के दौरान पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने जेएनयू में हुए ताजा फसाद को लेकर एक तरफ  तो जहां विवि प्रशासन और दिल्ली पुलिस की तीखी आलोचना की वहीं उन्होंने पंजीयन रोके जाने के लिए सर्वर रूम को नुकसान पहुँचाने के लिए वामपंथी छात्रसंघ की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा कर दिया। लगे हाथ उन्होंने ये भी कहा कि सत्तर के दशक में वामपंथी शासन के दौरान कोलकाता विवि में भी वामपंथी छात्र संगठनों ने इसी तरह की हिंसक हरकतें कीं जिनके परिणामस्वरूप उस प्रतिष्ठित संस्थान की छवि धीरे-धीरे खऱाब होती चली गई। छात्र आंदोलनों से उत्पन्न हालातों ने अलाहाबाद विवि की भी गरिमा को पहले जैसा नहीं रहने दिया। इस बारे में चौकाने वाली बात ये है कि जेएनयू के वामपंथी छात्र संगठन के साथ अलीगढ़ मुस्लिम विवि के देशविरोधी तत्वों का गठजोड़ होने के बाद उसमें जादवपुर विवि और जामिया मिलिया जैसे अन्य संस्थान भी जुड़ते चले गये। निश्चित रूप से ये आकस्मिक तौर पर नहीं हुआ। इसकी पृष्ठभूमि जेएनयू में 2016 में हुआ वह आन्दोलन है जिसमें भारत तेरे टुकड़े होंगे और कश्मीर की आजादी जैसे नारे खुले आम लगाए गए और वामपंथी संगठन उसके लिये दोषी लोगों के बचाव में आ खड़े हुए। उस दौर में पूरे देश में असहिष्णुता के नाम पर वामपंथी बुद्धिजीवी अवार्ड वापिसी अभियान चला रहे थे। चूंकि उसका निशाना केंद्र की मोदी सरकार थी इसलिए न सिर्फ  कांग्रेस बल्कि शेष गैर भाजपाई दल भी उनके सुर में सुर मिलाने लगे। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव ने वामपंथियों सहित पूरे विपक्ष को नकार दिया। बाकी दल तो कमोबेश इस देश की मिट्टी से जुड़े हुए हैं इसलिए उनके पास अभी भी वापिसी की संभावनाएं हैं लेकिन साम्यवादी विचारधारा आयातित होने की वजह से लगातार तिरस्कृत होती जा रही है। ऊपर से केंद्र सरकार ने कश्मीर संबंधी ऐतिहासिक फैसला कर अलगावादियों के हौसले पस्त कर दिए। बची खुची कसर नागरिकता संशोधन कानून के लागू होने ने पूरी कर दी। जेएनयू की छात्र राजनीति को पूरी तरह वामपंथी रंग तो दशकों पहले दे दिया गया था लेकिन हाल के कुछ सालों में जबसे लाल रंग फीका पडऩे का खतरा बढ़ा तबसे वामपंथी विचारधारा को अपने पाँव उखड़ते नजर आने लगे। कांग्रेस को इस खेल को समझना चाहिए क्योंकि उसका जितना नुकसान भाजपा ने नहीं किया उससे ज्यादा उन वामपंथी सलाहकारों ने कर दिया जो पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा जी तक के समय सत्ता के गलियारों में घुसकर समूची व्यवस्था को अपने मुताबिक मोडऩे में कामयाब होते रहे। शैक्षणिक और बौद्धिक गतिविधियों से जुड़े हर महत्वपूर्ण संस्थान पर छद्म रूप से वामपंथियों ने कब्जा जमा लिया जिसे कांग्रेसी समझ ही नहीं सके। दुर्भाग्य से आज भी वे इस षडयंत्र से अनभिज्ञ हैं। उन्हें ये समझ लेना चाहिए कि वामपंथी राजनीति इस देश के हितों का सौदा करने वाली रही है। और बहुदलीय लोकतंत्र तथा अभिव्यक्ति की आजादी में साम्यवाद का कोई भरोसा नहीं है। मजदूर्रों और किसानों की हमदर्द बनी रहने वाली साम्यवादी पार्टियों की वजह से ही इस देश का किसान पूरी तरह सरकार पर निर्भर होकर अपना हुनर भूल बैठा वहीं श्रमिक आन्दोलन भी दिशाहीन होते-होते बिखराव का शिकार हो गया। अब केवल इस विचारधारा को जेएनयू जैसे कुछ संस्थानों का ही सहारा है। समाचार माध्यमों में बैठे साम्यवादी इसीलिये ऐसे संस्थानों में होने वाली किसी भी घटना को योजनाबद्ध तरीके से राष्ट्रीय स्तर का बना देते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 11 January 2020

इन्टरनेट : सर्वोच्च न्यायालय का संतुलित फैसला



सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 35 ए और 370 हटाये जाने के दौरान की गई प्रतिबंधात्मक व्यवस्थाओं पर अपना निर्णय सुनाते हुए जो भी टिप्पणियाँ कीं वे बेहद महत्वपूर्ण हैं। एक कश्मीरी पत्रकार और कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद द्वारा प्रस्तुत याचिकाओं का निपटारा करते हुए तीन सदस्यों की पीठ ने धारा 144 के तर्कसंगत और वास्तविक आधार पर उपयोग पर बल देते हुए कहा कि बार-बार इसका उपयोग शक्ति का दुरूपयोग है। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य के प्रशासन को ये आदेश दिया कि वह धारा 144 और इन्टरनेट पर लगे प्रतिबंध संबंधी आदेशों को सार्वजनिक करे जिससे उन्हें उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सके। अदालत ने इन्टरनेट पर लगी रोक की एक सप्ताह में समीक्षा करते हुए नियमों का पालन करने की हिदायत भी दी और जरूरी सेवाओं के लिए उसे तत्काल शुरु करने कहा। लेकिन अपने निर्णय में अदालत ने जो टिप्पणियाँ कीं वे अध्ययन और विमर्श का विषय हैं। अदालत ने एक तरफ जहां इन्टरनेट को अभिव्यक्ति और व्यवसाय के लिए अनिवार्य बताया वहीं ये कहने में भी परहेज नहीं किया कि उसका काम स्वतंत्रता के अधिकार और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन कायम रखना है। स्वतंत्रता और सुरक्षा के बीच हमेशा टकराव रहा। ये नहीं कहा जा सकता कि किसकी ज्यादा जरूरत है , दोनों के बीच संतुलन कायम करने की जरूरत है। अदालत का ये कथन ही संदर्भित फैसले की आत्मा है। अदालत ने इन्टरनेट को सम्वैधानिक अधिकार तो माना किन्तु इस आधार पर उसे मौलिक अधिकार की श्रेणी में नहीं रखा क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने उसकी मांग नहीं की थी। धारा 144 के बारे में भी फैसले में ये कहा गया कि वह खतरे की आशंका पर भी लगाई जा सकती है। दोनों मुद्दों पर अदालत ने एक तरफ जहां नागरिकों के अधिकार और कानून के दुरूपयोग को रोकने के प्रति अपनी सतर्कता प्रगट की वहीं दूसरी तरफ ये कहकर कि उसका काम स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन कायम करना है अपने दायित्वबोध का भी परिचय दे दिया। चूंकि याचिका और फैसले का सीधा सम्बन्ध जम्मू - कश्मीर से है इसलिए स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन की बात बेहद प्रासंगिक और साथ ही महत्वपूर्ण हो जाती है। राज्य में अलगाववाद और उसकी आड़ में पनपे आतंकवाद की वजह से कश्मीर घाटी में विशेष रूप से नागरिक अधिकार और स्वतंत्रता मजाक बनकर रह गये थे। इन्टरनेट के उपयोग के जिस संवैधानिक अधिकार को सर्वोच्च न्यायालय ने भी मान्य किया उसका दुरूपयोग जिस तरह से हो रहा था उसके बाद उस पर प्रतिबन्ध लगाया जाना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक जरूरी कदम था। इन्टरनेट के कारण देश विरोधी ताकतों के बीच संपर्क बना रहता था। मोबाइल का उपयोग भी अलगाववादियों ने देश को नुकसान पहुँचाने के लिए किया। ये बात साबित हो चुकी है कि बीते कुछ महीनों में घाटी में आतंकवादी गतिविधियों पर नियन्त्रण लगने में मोबाईल और इन्टरनेट पर लगे प्रतिबन्ध काफी सहायक रहे। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस स्पष्टता के साथ सरकार को उसकी सीमाओं का स्मरण करवाते हुए दायित्वों की जरूरत पर भी बल दिया वह उन लोगों के लिए भी संकेत है जो इस फैसले को सरकार की हार बताते घूम रहे हैं। इन्टरनेट अभिव्यक्ति और व्यावसायिक जरूरतों के लिहाज से एक ऐसी जरूरत बन गई है जिसके अभाव में किसी इंसान की अधिकतर गतिविधियां ठप्प होकर रह जाती हैं। लेकिन उसके साथ भी विज्ञान अभिशाप है या वरदान वाली बहस जुड़ गई है। दुनिया भर को जोडऩे वाली यह तकनीक अपने आप में बेजोड़ हैं। लेकिन कश्मीर घाटी में इसका जिस काम के लिये उपयोग हुआ उससे इसकी नकारात्मकता भी उजागर हो गयी। सरकार से ये अपेक्षा करना कि वह जम्मू - कश्मीर में लगाए गये प्रतिबंधात्मक आदेशों का प्रकाशन करते हुए जनता को उसे चुनौती देने का अधिकार प्रदान करे पूरी तरह सही है लेकिन संदर्भित याचिकाओं पर फैसला देने में जल्दबाजी से बचने की अदालत की नीति ने अपने आप ही ये साबित कर दिया कि इन्टरनेट रोकने का सरकार का निर्णय समय की मांग थी। जैसे कि संकेत मिल रहे हैं उनके मुताबिक घाटी सहित पूरे राज्य में प्रशासनिक ढांचे का पुनर्गठन हो चुका है। खूनी खेल पर भी रोक लगी है। और अलगाववादी ताकतों का हौसला भी कमजोर पड़ रहा है। आम जनता भी अमन की पक्षधर बताई जा रही है। सरकार अपनी तरफ  से ही मोबाइल और इन्टरनेट शुरू करने के इरादे जता चुकी थी। ये सब देखते हुए न्यायालय के फैसले को सही नजरिये से देखना चाहिए। स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन कायम रखने को अपनी जिम्मेदारी बताकर सर्वोच्च न्यायालय ने थोड़े में ही बहुत कुछ कह दिया।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 10 January 2020

विपक्षी एकता : सर्वमान्य नीति और नेता का अभाव बाधक



विपक्षी एकता की नई कोशिश अभी से सवालिया घेरे में आ गयी है। 13 जनवरी को कांग्रेस द्वारा दिल्ली में आमंत्रित विपक्षी दलों की बैठक में आने से तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने खुले तौर पर इंकार कर दिया। बसपा की तरफ  से मायावती ने भी बैठक में शरीक होने के प्रति अरुचि दिखा दी है। शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत के अनुसार उनकी पार्टी को अभी तक न्यौता ही नहीं मिला। समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को अपने झंडे के तले लाने की कांग्रेसी मुहिम नई नहीं है। विगत लोकसभा चुनाव के पूर्व भी सोनिया जी के बुलाने पर विपक्षी पार्टियों के नेता एक साथ आये और हाथ उठाकर फोटो भी खिंचवाया। देश के अनेक राज्यों में विपक्ष की साझा रैलियाँ भी हुईं। जिनके जरिये ये दिखाने का भरपूर प्रयास हुआ कि भाजपा के विरोध में एक महागठबंधन बन गया है जो नरेंद्र मोदी की वापिसी को रोकने में कामयाब होगा। लेकिन ज्यों-ज्यों चुनाव करीब आते गए एकता का वह राग बेसुरा होने लगा। यद्यपि गठबंधन तो हुए लेकिन राष्ट्रीय की बजाय प्रांतीय स्तर पर। मसलन बंगाल में ममता अकेली लड़ीं। उप्र में सपा-बसपा ने कांग्रेस को किनारे कर दिया। उड़ीसा में बीजू जनता दल ने भी कांग्रेस को तवज्जो नहीं दी। तो हरियाणा में क्षेत्रीय दलों ने अपनी खिचड़ी अलग पकाई। वामपंथी दल भी कहीं साथ तो कहीं अलग रहे। इस प्रकार जितना ढोल पीटा गया उस हिसाब से कुछ भी नहीं हुआ। इसकी एक वजह ये रही कि भले ही कांग्रेस विपक्ष की अकेली पार्टी है जिसे राष्ट्रीय कहा जा सकता है किन्तु भाजपा विरोधी बाकी दल अब उसे पहले जैसा वजन नहीं देना चाहते। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि अधिकतर क्षेत्रीय दलों के पास जो वोट बैंक है वह कांग्रेस के खाते से ही निकला हुआ है। ऐसे में वे नहीं चाहेंगे कि वह फिर से मजबूत हो। उप्र में सपा ने तो एक बार कांग्रेस के साथ गठबंधन किया भी था किन्तु बसपा दूर ही रही। पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती ने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया लेकिन चुनाव परिणामों के बाद दोनों की राहें जुदा हो गईं। दरअसल कांग्रेस की मुसीबत ये है कि वह पंजाब और छत्तीसगढ़ के अलावा कहीं भी अपनी दम पर सत्ता में नहीं है। पुडुचेरी में उसकी सरकार है जरूर लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है। राजस्थान और मप्र में उसे बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा है। उसके अलावा जिन और राज्यों में कांग्रेस सरकार का हिस्सा है वहां भी उसकी हैसियत बेहद साधारण है। कर्नाटक में उसने जिस तरह से कटोरे में रखकर सत्ता कुमारस्वामी को सौंपी उससे उसकी कमजोरी साबित हो गई। महाराष्ट्र में जो ताजा राजनीतिक प्रयोग हुआ उसमें भी कांग्रेस का महत्व घटा। पूरी निर्णय प्रक्रिया पर शरद पवार हावी रहे। झारखंड में भी कांग्रेस हेमंत सोरेन के आभामंडल के समक्ष फीकी है। ऐसे में छोटे-छोटे दल भी पूरी तरह से उसका आधिपत्य मंजूर करने में हिचकते हैं। 13 तारीख की प्रस्तावित विपक्षी बैठक से ममता बैनर्जी का किनारा करना ही कांग्रेस के लिए बड़ा धक्का है क्योंकि विपक्ष में वे ही ऐसी एकमात्र ऐसी नेत्री हैं जो अपने दम पर बंगाल जैसे बड़े राज्य की सत्ता पर बनी हुई हैं। जिस वामपंथी किले को इंदिरा गांधी तक नहीं हिला सकीं उसे ममता ने धराशायी कर दिया। इसी तरह मायावती भी कांग्रेस की नाव में सवार होकर दलित वोटों पर अपना एकाधिकार नहीं छोडऩा चाहेंगी। अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में राहुल को अपनी सायकिल पर बिठाया था लेकिन उसकी वजह से सपा को जबरर्दस्त नुकसान हुआ। ऐसे में केवल शरद पवार और थोड़ा-बहुत वामपंथी ही कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाना चाहेंगे। हालांकि लालू की राजद और हेमंत सोरेन की झामुमो जैसी पार्टियां कांग्रेस के साथ चिपकी हुई हैं लेकिन वे राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से महत्वहीन हैं। वामपंथी भी बंगाल में भले कांग्रेस से याराना बनाकर रखें लेकिन केरल में वे अपने प्रभावक्षेत्र में उसे घुसने नहीं देंगे। ये देखते हुए 13 जनवरी की बैठक कितनी कारगर होगी ये देखने वाली बात रहेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर नेतृत्व को लेकर भी अनिश्चितता है। श्रीमती गांधी कार्यकारी अध्यक्ष जरूर हैं लेकिन बीच-बीच में राहुल गांधी को दोबारा कमान सौंपे जाने की चर्चा चलने से विपक्षी दल बिचकने लगते हैं। जहां तक प्रियंका वाड्रा को आगे लाने की बात है तो वे उप्र में ही ज्यादा सक्रिय हैं। चूँकि सोनिया जी का स्वास्थ्य उतना अच्छा नहीं है कि वे देश भर में दौरा करते हुए विपक्षी एकता को पुख्ता आधार दे सकें इसलिए छोटी पार्टियां भी कांग्रेस को अब पहले जैसा महत्व नहीं देतीं। कुल मिलाकर कांग्रेस इस समय संक्रान्तिकाल से गुजर रही है। उसके पास नीति और नेता दोनों को लेकर अनिश्चितता है। शिवसेना को गले लगाकर वह तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की अपनी पहिचान को खतरे में डाल ही चुकी है। सीएए के विरोध के बहाने उसने विपक्ष को एकजुट करने का जो दांव चला है उसकी सफलता संदिग्ध ही है क्योंकि निकट भविष्य में दिल्ली, बिहार और बंगाल के जो विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उनमें वहां के भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल कांग्रेस को अपने ऊपर हावी नहीं होने देंगे। अरविन्द केजरीवाल, तेजस्वी यादव और ममता बैनर्जी वैसे तो भाजपा के घोर विरोधी हैं लेकिन वे कांग्रेस को भी ताकतवर होते नहीं देखना चाहते। और यही देश की सबसे पुरानी पार्टी की दिक्कत है। दूसरी पीढ़ी के नेतृत्व और गांधी परिवार के विकल्प के अभाव के चलते कांग्रेस को अब छोटी पार्टियां भी भाव नहीं दे रहीं। विपक्षी एकता की कोशिशों का अपना महत्व है लेकिन सर्वमान्य नेता और नीति की गैर मौजूदगी उसमें बाधक बन जाती है। श्रीमती गांधी के अलावा शरद पवार, एच डी देवगौड़ा, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव जैसे नेता अब वृद्धावस्था का शिकार हैं। उनके पीछे कोई भी ऐसा चेहरा नहीं दिखता जो पूरे देश में प्रभाव और पहिचान रखता हो। ऐसे में कांग्रेस की ताजा कोशिश किसी मुकाम पर पहुँचती नहीं लगती। नवीन पटनायक, ममता बैनर्जी, के. चंद्रशेखर राव, जगन मोहन रेड्डी, जैसे क्षेत्रीय छत्रपों के बिना विपक्षी एकता का वैसे भी कोई अर्थ नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 9 January 2020

अब सारी उम्मीदें बजट पर टिकी हैं



नये साल की खुशियाँ खत्म होते ही भारत में नए वित्तीय वर्ष के बजट का इन्तजार शुरू हो जाता है। पहले फरवरी के अंत में पेश होने वाला बजट मोदी सरकार के आने के बाद एक फरवरी को लोकसभा में पेश हो जाता है। इसका लाभ ये हुआ कि 31 मार्च को वित्तीय वर्ष समाप्त होने के पहले ही संसद नए बजट को मंजूरी दे देती है और नये आवंटन भी अप्रैल में ही होने से नए कारोबारी साल का काम समय पर शुरू हो जाया करता है। अतीत में ये शिकायत आम थी कि नए बजट में स्वीकृत की गयी राशि सम्बन्धित विभाग को मई और यहाँ तक कि जून माह तक मिल पाती थी। तब तक मानसून की दस्तक होने से मैदानी विकास कार्य विलम्बित होते थे और बड़ी मात्रा में बजट राशि अनुपयोगी पड़ी रह जाती थी। बीते पांच वर्षों में ये विसंगति दूर हुई है। इस वर्ष भी आम बजट एक फरवरी को पेश होने का ऐलान हो चुका है सरकारी विभागों से इस सम्बन्ध में भेजे गये प्रतिवेदनों के बाद केंद्र सरकार का वित्त विभाग बजट को अंतिम रूप देने में लग जाता है। इस समय वही प्रक्रिया तेजी से चल रही है। लेकिन इस वर्ष बजट का इन्तजार कुछ ख़ास वजहों से ज्यादा हो रहा है। मोदी सरकार के पहले पांच साल आशाएं जगाने वाले रहे। उम्मीदें आसमान छूने लगीं। अच्छे दिन का इन्तजार बेसब्री बढ़ाने लगा। लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं जिसका वायदा किया गया था। बावजूद इसके देश ने प्रधानमन्त्री पर भरोसा दिखाते हुए उन्हें 2019 के चुनाव में पहले से भी ज्यादा बहुमत देकर सत्ता सौंप दी। मतदाताओं को ये भरोसा हो चला था कि भले ही 2014 में किये वायदों को पूरा करने में सरकार सफल नहीं हुई लेकिन उसकी नीति और नीयत साफ़ थी। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि आम जनता ने समृद्धि के साथ देश की सुरक्षा को भी बराबर से महत्व दिया और निजी हितों को राष्ट्रहित की तुलना में तुच्छ समझते हुए एक निर्णायक जनादेश नरेंद्र मोदी को प्रदान करते हुए उनके विरोधियों को बुरी तरह निराश कर दिया। बीते पांच वर्ष में केंद्र सरकार ने जो गलतियाँ कीं उन्हें मतदाता ने ये सोचकर भी नजरअंदाज कर दिया कि जो काम करता है उसी से चूक होती है। उल्लेखनीय है अपनी निजी ईमानदारी और पेशेवर विद्वता के बावजूद डा. मनमोहन सिंह की सरकार फैसले नहीं कर पाने वाली सरकार के रूप में बदनाम होने से जनता की निगाहों में उतर गयी थी। उस लिहाज से श्री मोदी दुस्साहासिक फैसले लेने वाले साबित हुए। हालाँकि उनकी वजह से समाज के हर वर्ग को अकल्पनीय परेशानियां उठानी पडीं। लेकिन उसके बाद भी लोगों को प्रधानमंत्री की नेकनीयती पर भरोसा बना रहा। 2019 का जनादेश पूरी तरह श्री मोदी की निजी साख का परिणाम कहा जाना चाहिए और वह गलत भी नहीं है। लेकिन उसके बाद बीते छह महीनों में राजनीतिक मोर्चे पर ऐतिहासिक कार्य करने की बावजूद मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी। हालत सुधरना तो दूर रहा और भी बिगडऩे की नौबत आ गई। बेरोजगारी के आंकड़े बीते चार दशक के सर्वोच्च स्तर तक जा पहुँचे। बाजार में मांग घटते जाने से उत्पादन में गिरावट आती चली गई । निर्यात में कमी के वजह से व्यापार घाटा भी चिंताजनक स्थिति में आ पहुँचा। अर्थशास्त्र के अंतर्गत जितने भी नकारात्मक मापदंड हो सकते हैं , भारतीय अर्थव्यवस्था के उसी मुकाम पर पहुंचने की बात न केवल राष्ट्रीय वरन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रचारित हो रही है। सरकार के विरोधियों के दावे भले ही नजरअंदाज कर दिए जाएँ किन्तु उसके अपने समर्थक खेमे में भी अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता का माहौल है। हालांकि इसके लिए वर्तमान सरकार को पूरी तरह कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अधिकृत तौर पर ये माना जाता है कि 2011 से ही इसकी शुरुवात हो चुकी थी जो वैश्विक कारणों से आर्थिक मंदी की शक्ल में जमकर बैठ गयी। हालांकि अर्थशास्त्रियों का बड़ा वर्ग नोटबंदी और जीएसटी को इसके लिए जिम्मेदार मानता है। भाजपा को हालिया विधानसभा चनावों में जो असफलता हाथ लगी उसके लिए भी आम तौर पर आर्थिक कारणों को जिम्मेदार माना जा रहा हैं। प्रधानमन्त्री की निजी लोकप्रियता और क्षमता पर भी इसी कारण सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में अब आगामी बजट ही वह जरिया है जो अर्थव्यवस्था को लेकर छाई निराशा को दूर कर सकता है। भले ही सरकार और रिजर्व बैंक ने बीते महीनों में कुछ उपाय किये लेकिन उनका जैसा असर अपेक्षित था वैसा नहीं हुआ। जनाकारों का कहना है कि ये उपाय दीर्घकालीन लाभ देंगे। लेकिन मौजूदा स्थिति में ऐसा कुछ किये जाने की जरुरुत है जिससे उद्योग - व्यापार जगत के साथ ही जनता में भी ये भाव पैदा हो कि सरकार आर्थिक समस्याओँ को लेकर न केवल चिंतित है अपितु उनके निराकरण के लिए प्रयासरत भी है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन कितनी राहत दे सकेंगी ये अभी कह पाना सम्भव नहीं है किन्तु यदि ये अवसर भी चला गया तब मोदी सरकार के पास देश में छाई निराशा को दूर करना बेहद कठिन होगा। बेहतर होगा आगामी बजट ज्यादा सैद्धांतिक न होकर थोड़ा व्यवहारिक भी हो क्योंकि अब जनता का धैर्य भी जवाब देने लगा है । मोदी सरकार की राष्ट्रवादी सोच और नीतियाँ पूरी तरह सही हैं लेकिन आज के दौर में आर्थिक नीतियाँ सब पर भारी पड़ जाती हैं। खाली जेब तमाम खुशियों और उपलब्धियों का आनंद छीन लेती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 8 January 2020

ईरान : अमेरिका का दांव उलटा पडऩे के आसार



पश्चिम एशिया का संकट और भी गहराता जा रहा है। ईरान तो खैर सीधे मुकाबले में खड़ा हुआ है लेकिन अब ईराक ने भी अमेरिका को आँखें दिखानी शुरू कर दीं। उसकी संसद ने प्रस्ताव पारित करते हुए अपने देश में मौजूद अमेरिकी सैनिकों को देश छोडऩे का आदेश दे दिया। उल्लेखनीय है अमेरिका द्वारा ईरान के फौजी जनरल सुलेमानी की ह्त्या ईराक के बग़दाद हवाई अड्डे पर ही ड्रोन से हवाई हमला कर की गई थी। कुछ दशक पूर्व ईराक और ईरान के बीच बहुत लम्बी जंग चली थी जिसमें लाखों लोग मारे गये। लेकिन मौजूदा हालात में दोनों पड़ोसी देश अमेरिका के विरुद्ध एकजुट हो रहे हैं जो इस अंचल में आया बड़ा बदलाव है। जैसी जानकारी मिली है उसके मुताबिक सऊदी अरब, कुवैत, कतर, ईराक, बहरीन जैसे अनेक खाड़ी देशों में अमेरिका के सैनिक और अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। वैसे तो दूसरे महायुद्ध के बाद शीतयुद्ध के मद्देनजर अमेरिका ने एक तरह से पूरी दुनिया में अपनी सैन्य उपस्थिति बनाई है। उसके समुद्री बेड़े जगह-जगह तैनात हैं। कई देशों में तो उसके स्थायी सैन्य अड्डे हैं। हालांकि पश्चिम एशिया में सऊदी अरब और इजरायल ही उसके परम समर्थक रहे हैं लेकिन धीरे-धीरे कुछ और देश भी उसकी शरण में आते गए। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि अमेरिका ने अपनी कूटनीति, सैन्य बल और आर्थिक सम्पन्नता से इस्लामिक देशों के बीच भी फूट डालने में कामयाबी हासिल कर ली। बीती सदी के अंत में जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर बलात कब्जा किया तब अमेरिका को इस्लामिक देशों के बीच बतौर संरक्षक बनकर घुसने का अच्छा अवसर मिल गया। स्मरणीय है सद्दाम ने इस्लाम को मानने के बावजूद ईराक को आधुनिक बनाने में काफी योगदान दिया था। जबकि शाह पहलवी के रहते आधुनिकता की राह पर चलने वाला ईरान अयातुल्ला खोमैनी का राज आते ही कट्टरवादी इस्लामिक देश बन बैठा। अमेरिका ने समय रहते अरब जगत में आ रहे वैचारिक बदलाव का फायदा उठाया और छोटे-छोटे अनेक अरबी देशों को कट्टरपंथी पड़ोसियों का भय दिखाकर वहां अपनी सैन्य टुकडिय़ां तैनात कर दीं। जिन अरबी मुल्कों में अभी भी पुराना शाही शासन चला आ रहा है उन्हें भी इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर आ रहे बवंडर में अपनी सत्ता खतरे में नजर आई और वे अमेरिका की छतरी के नीचे आ गए। लेकिन ईरान पर उसका जादू नहीं चल पाया और उसने अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखते हुए अमेरिका के झंडे तले आने से इंकार कर दिया। दरअसल 1979 में जब खोमैनी ने शाह पहलवी की सत्ता लटकर घड़ी की सुइयां उल्टी घुमाते हुए ईरान को कट्टरवादी इस्लामिक देश बना दिया तभी से अमेरिका की नजर में वह खटक रहा था। लेकिन उसे खाड़ी में घुसने का मौका और बहाना नहीं मिल रहा था। कुवैत पर सद्दाम के हमले ने अमेरिका को वहां जमने का रास्ता दे दिया। उसी के बाद से राजशाही से संचालित अनेक अरबी देश वाशिंगटन को अपना रहनुमा मानकर शरणागत हो गये। ये कहना भी प्रासंगिक होगा कि फिलीस्तीन की आजादी के लिए लडऩे वाले यासर अराफात की मौत के बाद तो अरब जगत में अमेरिका से ऊंची आवाज में बात करने वाला कोई व्यक्तित्व बचा ही नहीं। एक दौर था जब सोवियत संघ अमेरिका को पश्चिम एशिया में शह दिया करता था लेकिन उसके विघटन के बाद रूस में वह दमखम नहीं बचा। यद्यपि ब्लादिमीर पुतिन के सत्ता में आने के बाद उसने एक बार फिर अमेरिका को चुनौती देने का साहस दिखाया जिसका प्रमाण सीरिया को दिया गया उसका संरक्षण है किन्तु उसका प्रभावक्षेत्र अमेरिका जैसा व्यापक नहीं हो सका। मौजूदा संकट के पीछे अमेरिका की सोच काफी दूरगामी है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हालात जैसे बन गये हैं उनके बाद अब उसको वहां बने रहना कठिन हो रहा है। ऐसे में उसे पश्चिम एशिया के साथ ही मध्य एशिया पर नजर रखने के लिए कोई जगह चाहिए। लादेन और बगदादी का सफाया करने के बाद अब अरब जगत में इस्लामिक कट्टरवाद का झंडा बुलंद करने वाला ईरान ही बच रहता है। पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो दिखाई देगा कि यासर आराफात, कर्नल गद्दाफी और सद्दाम हुसैन जैसे ताकतवर नेताओं का अभाव अरब जगत में महसूस किया जा सकता है। सऊदी अरब के शाही परिवार में भी फूट के बीज अमेरिका ने बो दिए हैं और बड़ी बात नहीं कुछ सालों के भीतर इस्लाम का यह सबसे प्रमुख देश भी शाही शासन से मुक्त होकर राजनीतिक अनिश्चितता में फंसकर रह जाए। कहने को तो अमेरिका सऊदी अरब का संरक्षक है लेकिन उसे ये पता है कि दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर आतंकवाद को आर्थिक सहायता देने में सऊदी अरब का सबसे अधिक योगदान है। इसके पीछे शाही परिवार का उदेश्य अपनी सत्ता बचाकर रखना है। इस प्रकार पश्चिम एशिया में आज की सूरत में केवल ईरान ही है जो अभी तक अमेरिका के इशारों पर नाचने से इंकार करता रहा। लेकिन ताजा तनाव के बाद अरब जगत एक अदृश्य भय से गुजर रहा है। जिस तरह से अमेरिका ने जनरल सुलेमानी को मारा उससे पश्चिम एशिया के अनेक शासक दहशत में डूब गये हैं। उन्हें ये डर भी सताने लगा है कि अमेरिका की हाँ में हाँ मिलाने के फेर में कहीं उनके देश में भी इस्लामिक आतंकवाद सिर न उठा ले। ये बात सौ फीसदी सही है कि अरब ही नहीं अपितु दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले अधिकांश मुस्लिम अमेरिका को इस्लाम का दुश्मन मानते हैं। और उस दृष्टि से अरब देशों में सत्ता में बैठे हर शासक को दिखावे के लिए ही सही लेकिन अमेरिका का विरोध करना पड़ता है। लेकिन मौजूदा हालातों में अमेरिका के लिए भी शोचनीय स्थिति बन गयी है जिसमें इधर कुआं उधर खाई है। ईराक के साथ ही अन्य अरबी देश सुलेमानी की हत्या के तरीके को पचा नहीं पा रहे हैं। बताया जा रहा है कि फौजी जनरल होने के बावजूद सुलेमानी अरब देशों के बीच एकता की कूटनीतिक पहल कर रहा था जिसमें उसे काफी सफलता भी मिलने लगी थी। इसीलिए अमेरिका ने उसे रास्ते से हटा दिया। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईराक से आई प्रतिक्रियाएं उसे चिंतित कर रही हैं। गत दिवस राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के प्रधानमन्त्री से फोन पर जो लम्बी बात की उसका मुख्य विषय ईरान संकट ही था। हो सकता है भारत और ईरान के नजदीकी रिश्तों को देखते हुए अमेरिका बीच का रास्ता निकालने के लिए श्री मोदी की सेवाएं लेना चाहता हो। अरब जगत में उठे गुस्से के सैलाब से ट्रंप भी सतर्क हो उठे हैं। भारत भी चाहता है कि ये विवाद आगे न बढ़े क्योंकि बीते कुछ दिन में ही पेट्रोल-डीजल के दाम तेजी से बढ़ गए हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 7 January 2020

जेएनयू : विवाद की जड़ जानना भी जरूरी



दिल्ली के जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विवि)) परिसर में बीते रविवार की शाम कुछ नकाबपोशों ने घुसकर जो मारपीट की उसके दृश्य टीवी चैनलों के जरिये पूरे देश ने देखे। मारपीट करने वाले कौन थे ये अभी तक पता नहीं चल पाया है लेकिन घटना के तुरंत बाद ही ये आरोप लगाया जाने लगा कि नकाबपोश अभाविप (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) के थे जिसे भाजपा समर्थित छात्र इकाई माना जाता है। चूंकि जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष भी हमले में घायल हो गईं इसलिए वामपंथी लॉबी के प्रचार को और बल मिल गया। पूरी घटना विवि. परिसरों के भीतर छात्रों के गुटों में होने वाले सामान्य झगड़े तक ही सीमित रहती लेकिन प्रो. योगेन्द्र यादव ने जेएनयू पहुंचकर परिसर में घुसने की कोशिश की किन्तु पुलिस ने उन्हें रोक लिया। इस दौरान उनके साथ धक्कामुक्की भी हुई जिसके बाद उन्होंने पूरी तरह पेशेवर राजनेता की तरह वामपंथी धारा के अनुरूप बयान देना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे सीताराम येचुरी, डी. राजा और ऐसे ही अन्य नेता भी जेएनयू पहुंच गये। घायल छात्रों को देखने कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा अस्पताल जा पहुंची। राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल के ट्वीट भी आने लगे। जो कुछ भी हुआ वह दर्दनाक और शर्मनाक कहा जाएगा। जेएनयू देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में माना जाता है। लेकिन बीते काफी समय से इसकी चर्चा नकारात्मक कारणों से होने लगी है। इसकी वजह वहां वामपंथी एकाधिकार के लिए उत्पन्न खतरा ही है। एक समय था जब इस संस्थान में छात्र और शिक्षकों में वामपंथी रुझान वाले ही ज्यादा थे। दूसरी विचारधारा के लोगों की हालत दांतों के बीच में जीभ जैसी थी। लेकिन कुछ साल पहले से जब वहां अभाविप ने भी छात्र राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना शुरू की तबसे वामपंथी कुनबे के पेट में दर्द शुरू हो गया। गौरतलब ये है कि कहने को तो कांग्रेस की छात्र इकाई एएसयूआई भी जेएनयू में सक्रिय है लेकिन उसका होना न होना एक जैसा है। अभाविप का जनाधार बढऩे के पूर्व जेएनयू में विभिन्न वामपंथी गुट ही आपस में टकराते रहते थे। कुछ साल पहले जब वहां छात्रसंघ चुनाव में अभाविप का पदाधिकारी जीत गया तब वामपंथी गुटों को अपने वर्चस्व के लिए खतरा महसूस हुआ और उसके बाद के चुनावों में वे एकजुट होकर मैदान में उतरे। योगेन्द्र यादव जिस आम आदमी पार्टी के संस्थापक रहे उसकी छात्र इकाई ने भी जेएनयू में हाथ आजमाया लेकिन निराशा हाथ लगी। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि छात्रसंघ राजनीति में अभाविप अकेली ही संयुक्त वामपन्थी ताकत की प्रतिद्वंदी है। अभाविप का प्रभाव बढ़ते जाने का असर ये हुआ कि जेएनयू परिसर और छात्रावासों में होने वाली आपत्तिजनक गतिविधियों की जानकारी बाहर आने लगी। बेहद मामूली फीस होने के कारण यहां पढऩे वाले छात्रों का खर्च बहुत कम है। इसलिये वे लम्बे समय तक किसी न किसी बहाने छात्रावासों में पड़े रहते हैं। कई छात्र तो 40-45 साल के होने पर भी शोध की आड़ में वहां जमे हुए हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने जब शिक्षण और छात्रावास शुल्क में वृद्धि की तो छात्रों ने आन्दोलन शुरू कर दिया। अभाविप ने भी उसमें समर्थन दिया। सरकार ने काफी कुछ रियायत दे दी और आगे विचार का आश्वासन भी दिया जिसके बाद अभाविप तो आन्दोलन से अलग हो गयी लेकिन वामपंथी छात्र संगठन अड़े हुए हैं। मौजूदा विवाद के पीछे भी यही आन्दोलन है। नए सेमेस्टर हेतु छात्रों के पंजीयन की अंतिम तिथि घोषित हो चुकी थी। अधिकतर छात्र उस हेतु प्रयासरत थे किन्तु वामपंथी छात्रसंघ पंजीयन को बाधित कर परीक्षा को रोके रखना चाहते थे। रविवार 5 जनवरी को पंजीयन की आखिऱी तिथि थी। एक दिन पहले से छात्रसंघ पदाधिकारी पंजीयन करवाने आये छात्रों को रोकने का काम कर रहे थे जिस कारण छुटपुट तनाव था जो कि जेएनयू के लिए सामान्य बात है। लेकिन जब उन्हें लगा कि बहुमत उनके विरुद्ध जा रहा है तब उन्होंने पंजीयन कार्यालय की संचार व्यवस्था तहस नहस कर डाली। इसका विरोध करने वाले छात्रों को भी वामपंथियों ने धमकाया और कुछ के साथ हाथापाई किये जाने की भी खबर है। ऐसे छात्रों में अनेक ऐसे भी थे जिनका किसी राजनीतिक विचारधारा से सम्बन्ध नहीं है और वे केवल पढऩे के लिए जेएनयू में आये हैं। छात्रसंघ चुनाव में वामपंथी उम्मीदवारों को वोट देने वाले सभी छात्र उनके वैचारिक अनुयायी हैं ये मान लेना गलत है। ऐसे अनेक छात्र पंजीयन रोके जाने का विरोध कर रहे थे। नकाबपोश कौन थे, वे परिसर में कैसे घुसे, पुलिस की क्या भूमिका रही ये सब जांच का विषय हैं। हिंसा करने वाले और उसे संरक्षण देने वाले किसी भी व्यक्ति या विचारधारा का समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन जेएनयू या किसी अन्य शिक्षा संस्थान में एक ही विचारधारा का पोषण किया जाना कहां तक उचित है? जेएनयू में वैचारिक स्वतंत्रता और जागरूकता अच्छी बात है लेकिन उसके नाम पर केवल साम्यवादी विचारधारा थोपने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती। किसी विवि. में कश्मीर की आजादी और देश के टुकड़े-टुकड़े होने जैसे नारे लगाने वालों पर शिकंजा कसा जाना किस तरह से अनुचित है, ये बड़ा सवाल है। बीते रविवार जो हुआ उसके लिये यदि अभाविप जिम्मेदार है तो बेशक उसके विरुद्ध कानून सम्मत कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन विवि की परीक्षा को बाधित करने वाले छात्रसंघ के नेताओं का कृत्य भी तो अपराध की श्रेणी में आता है। प्रौढ़ावस्था में प्रविष्ट होने के बाद भी जेएनयू में जमे बैठे अंकलनुमा छात्रों का लक्ष्य क्या है ये तो वे ही जानें किन्तु अधिकतर छात्र ऐसे हैं जो समय पर परीक्षा पास करने के बाद अपनी राह चुनना चाहते हैं। ऐसे में परीक्षा रोकने से ऐसे छात्रों का जो नुकसान होता है उसके बारे में क्या योगेन्द्र यादव और सीताराम येचुरी कभी सोचते हैं? डी. राजा की तो बेटी भी जेएनयू की छात्रा है। गत दिवस इस संस्थान के पूर्व छात्र रहे विदेश मंत्री एस.जयशंकर ने कहा भी कि वे जिस जेएनयू में पढ़े उसमें टुकड़े-टुकड़े गैंग नहीं होती थी। जयशंकर भारतीय विदेश सेवा के बेहतरीन अधिकारी माने जाते हैं। जब उन्हें मोदी सरकार में विदेश सचिव बनाया गया तब विपक्ष ने भी उनके चयन की तारीफ़  की थी। दोबारा सत्ता में आने पर नरेंद्र मोदी ने उन्हें विदेश मंत्री बना दिया। उन पर आज तक किसी विचारधारा का ठप्पा नहीं लगा। ऐसे में उनकी ताजा टिप्पणी का संज्ञान लिया जाना जरूरी है। जेएनयू का ताजा बवाल दरअसल किसी तात्कालिक घटना का नतीजा न होकर वामपंथी प्रभुत्व को मिल रही कड़ी चुनौती का परिणाम है। परिसर में सीसी कैमरे लगाने, महिला छात्रवासों में पुरुष छात्रों का बेरोकटोक प्रवेश और देर रात तक स्वछंदता के माहौल पर रोक जैसे क़दमों को अभिव्यक्ति की आजादी पर आघात मानकर प्रलाप करने वाले लोग दरअसल कुंठाग्रस्त हैं। कन्हैयाकुमार को रातों-रात राष्ट्रीय नेता बनाने की कार्ययोजना फ्लॉप हो चुकी है। गुजरात में हार्दिक पटेल का आकर्षण भी ढलान पर है। बंगाल का वामपन्थी किला मलबे में तब्दील हो चुका है। त्रिपुरा में भी साम्यवादी सत्ता पतन का शिकार हो गयी। केरल में ही उसका बचा खुचा आधार है जिसे जबरदस्त चुनौती मिलने लगी है। ऐसे में दुष्प्रचार ही एकमात्र सहारा बच रहा है, वामपंथियों के पास। रही बात बाकी पार्टियों और नेताओं की तो उनकी नीतिगत पहिचान नष्ट होने से वे भी अंधे विरोध की राह पर चल पड़ते हैं। जेएनयू में हुई मारपीट के विरोध में आसमान सिर पर उठाने वालों को इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि विवि के सैकड़ों छात्रों को परीक्षा देने रोकने का षडयंत्र रचने वाले क्या असामाजिक तत्व नहीं हैं और उन्हें संरक्षण देना किस तरह की सियासत है? जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विवि के छात्रों का बिना देर किया जेएनयू जा पहुंचना महज संयोग नहीं हो सकता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 6 January 2020

ईरान में लगी आग से झुलस सकते हैं भारतीय हित



ऐसा लगता है पश्चिम एशिया की किस्मत में शांति से रहना नहीं है। बीते तकरीबन तीन दशक से इस्लाम के प्रभाव वाले इस इलाके में बारूदी धुंआ थमने का नाम ही नहीं ले रहा। सद्दाम हुसैन और कर्नल गद्दाफी जैसे ताकतवर नेताओं को मौत के घाट उतारने के बाद अमेरिका ने सीरिया पर निगाहें जमाईं और आईएसआईएस नामक इस्लामिक आतंकवादी संगठन को नेस्तनाबूत करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। इस संगठन के मुखिया बगदादी को ओसामा बिन लादेन के बाद सबसे खतरनाक मानकर अमेरिका ने जबर्दस्त अभियान चलाया। उसके चलते सीरिया गृहयुद्ध की चपेट में आ गया और लाखों बेगुनाह लोग मारे गए। जान बचाकर लाखों शरणार्थी यूरोप के अनेक देशों में समुद्री मार्ग से जा पहुंचे। हालात यहाँ तक बने कि रूस भी बीच में कूद पड़ा। यहाँ तक लगने लगा कि सीरिया संकट तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन जाएगा। फ्रांस में हुए आतंकी हमले के बाद वह भी जंग में कूदा। वैसे भी सद्दाम के पतन के बाद ईराक में अमेरिका की मौजूदगी बनी हुई है। एक तरह से पश्चिम एशिया में अमेरिका ने वैसे ही हालात पैदा कर दिए जैसे साठ और सत्तर के दशक में वियतनाम में उसने बनाये थे। हालाँकि इस सबके पीछे अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हेकड़ी मानी जा रही है लेकिन सही बात ये है कि उनके पहले के अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने भी पश्चिम एशिया में अपनी दादागिरी कायम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे चंद देशों के अलावा अधिकतर अरबी देश अमेरिका की हिट लिस्ट में ही रहते आये हैं। इसके पीछे दरअसल तेल का खेल बताया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पश्चिम एशिया के देशों में कच्चे तेल के कारण जो समृद्धि आई उसने इस्लामिक कट्टरता को जन्म दिया। हालांकि इसे खाद-पानी भी अमेरिका ही देता रहा। दूसरी तरफ इजरायल के पुनर्जन्म ने पश्चिम एशिया में एक स्थायी युद्धभूमि तैयार कर दी। ये बात भी सही है कि अन्य विश्व शक्तियाँ अरब जगत में उतना प्रभाव नहीं जमा सकीं। इसके पीछे उनकी अपनी समस्याएं हैं। फिलहाल अमेरिका की प्रभुत्ववादी सोच का ताजा शिकार ईरान हुआ है। बीते सप्ताह उसके एक कमांडर को अमेरिका ने मार गिराया। उस घटना के बाद ईरान भी बेहद आक्रामक हो उठा है और प्रतिक्रियास्वरूप अनेक अमेरिकी ठिकानों पर उसने भी धावा बोला है। उस वजह से पश्चिम एशिया एक बार फिर युद्ध के कगार पर खड़ा हो गया है। ईरान के साथ अमेरिका का झगड़ा काफी लंबे समय से चला आ रहा है। उसके तेल बेचने पर भी प्रतिबन्ध लगा है। अमेरिका चाहता है ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम बंद कर दे। भारत जैसे कई देशों के साथ उसका तेल को लेकर जो अनुबंध था उसे भी अमेरिका ने बाधित कर दिया। एक समय ऐसा ही उसने सद्दाम हुसैन के विरोध में ईराक के साथ किया था। वाशिंगटन का मकसद इस मामले में बेहद साफ है। वह पश्चिम एशिया की तेल संपदा पर अपना आधिपत्य ज़माने के साथ ही अरब देशों को संगठित होकर पश्चिमी जगत के मुकाबले खड़े नहीं होने देना चाहता। इसके पीछे इस्लामिक वर्चस्व को रोकना भी है। जिस अरब देश ने अमेरिकी हितों के अनुरूप नीति निर्धारित की वह तो सुरक्षित रहा लेकिन जिसने भी उसकी मर्जी के विरुद्ध जाने की हिमाकत की उसका हश्र सद्दाम हुसैन और गद्दाफी जैसा हुआ। आतंकवादी सरगना ओसामा और बगदादी ने बचने का बहुत प्रयास किया लेकिन अंतत: अमेरिका ने उन्हें निशाना बना ही लिया। ईरान के साथ उसका ताजा विवाद पूरी दुनिया के लिए चिंता का कारण बन गया है। ईरान ने भी जो जवाबी तेवर दिखाए हैं उनको देखते हुए पश्चिम एशिया की स्थिति विस्फोटक हो गई है। रूस और चीन ने राष्ट्रपति ट्रंप से जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाने की अपील की है। लेकिन ईरान ने अपने कमांडर की हत्या के बदले में जो कार्रवाई की उसके बाद अमेरिका ने अपनी फौजें पश्चिम एशिया में जमा करना शुरू कर दिया है। यदि लड़ाई छिड़ी तो ईरान कितना टिक सकेगा ये कहना कठिन है किन्तु पूरी दुनिया इस बात से भयभीत है कि वह मरता क्या न करता वाली स्थिति में कहीं परमाणु अस्त्रों का उपयोग न कर दे। लेकिन इस सबसे अलग हटकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो ईरान पर आई मुसीबत भारत के लिए भी बहुत भारी पड़ेगी। सस्ते तेल का अनुबंध तो अमेरिकी दबाव में पहले ही खटाई में पड़ गया। ईरान में चाबहार बंदरगाह बनाकर पाकिस्तान और चीन के ग्वादर बंदरगाह का रणनीतिक जवाब देने की भारतीय योजना भी अधर में लटक गयी। इस वजह से भारत को आर्थिक नुकसान तो हो ही रहा है लेकिन उससे भी बड़ी समस्या ईरान में कार्यरत लाखों भारतीय हैं जो युद्ध के हालात में देश लौटने को मजबूर होंगे। अमेरिका द्वारा की गई आक्रामक कार्रवाई की त्वरित प्रतिक्रियास्वरूप कच्चे तेल के दाम बढऩा अवश्यंभावी है जिसका जबर्दस्त दुष्प्रभाव पहले से मंदी की मार झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़े बिना नहीं रहेगा। उल्लेखनीय है भारत अपनी जरूरत का लगभग 85 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है। ईरान उसका बड़ा आपूर्तिकर्ता रहा है और उसके साथ हमारे कारोबारी और कूटनीतिक रिश्ते भी बहुत ही आत्मीय रहे हैं। ऐसे में अमेरिका द्वारा उत्पन्न संकट में भारत को बहुत ही संतुलित दृष्टिकोण के साथ आगे बढऩा पड़ रहा है। अमेरिका के साथ भी मोदी सरकार ने काफी अच्छे सम्बन्ध विकसित कर लिए हैं। ये देखते हुए विदेश नीति के लिए भी यह कठिन परीक्षा की घड़ी है। क्योंकि हमारे आर्थिक और कूटनीतिक हितों के साथ ही लाखों भारतीय अप्रवासियों का भविष्य भी इस संकट से प्रभावित होगा। ईरान और अमेरिका दोनों से मधुर रिश्तों के बाद भी भारत इस स्थिति में नहीं है कि वह दोनों के बीच सुलह करवा सके। अमेरिका में इस वर्ष राष्ट्रपति चुनाव होना है। डोनाल्ड ट्रंप दोबारा मैदान में उतरने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे में वे इस संकट में पीछे नहीं हटेंगे। लेकिन नौबत युद्ध की आती है या केवल छुटपुट तनाव बना रहेगा ये कोई नहीं बता सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर को समूचे घटनाक्रम पर पैनी नजर रखनी होगी क्योंकि ईरान में लगी आग से भारतीय हितों के झुलसने का खतरा भी कम नहीं है। इस्लाम के नाम पर होने वाला आतंकवाद नए सिरे से सामने आ जाये तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी