Thursday 9 January 2020

अब सारी उम्मीदें बजट पर टिकी हैं



नये साल की खुशियाँ खत्म होते ही भारत में नए वित्तीय वर्ष के बजट का इन्तजार शुरू हो जाता है। पहले फरवरी के अंत में पेश होने वाला बजट मोदी सरकार के आने के बाद एक फरवरी को लोकसभा में पेश हो जाता है। इसका लाभ ये हुआ कि 31 मार्च को वित्तीय वर्ष समाप्त होने के पहले ही संसद नए बजट को मंजूरी दे देती है और नये आवंटन भी अप्रैल में ही होने से नए कारोबारी साल का काम समय पर शुरू हो जाया करता है। अतीत में ये शिकायत आम थी कि नए बजट में स्वीकृत की गयी राशि सम्बन्धित विभाग को मई और यहाँ तक कि जून माह तक मिल पाती थी। तब तक मानसून की दस्तक होने से मैदानी विकास कार्य विलम्बित होते थे और बड़ी मात्रा में बजट राशि अनुपयोगी पड़ी रह जाती थी। बीते पांच वर्षों में ये विसंगति दूर हुई है। इस वर्ष भी आम बजट एक फरवरी को पेश होने का ऐलान हो चुका है सरकारी विभागों से इस सम्बन्ध में भेजे गये प्रतिवेदनों के बाद केंद्र सरकार का वित्त विभाग बजट को अंतिम रूप देने में लग जाता है। इस समय वही प्रक्रिया तेजी से चल रही है। लेकिन इस वर्ष बजट का इन्तजार कुछ ख़ास वजहों से ज्यादा हो रहा है। मोदी सरकार के पहले पांच साल आशाएं जगाने वाले रहे। उम्मीदें आसमान छूने लगीं। अच्छे दिन का इन्तजार बेसब्री बढ़ाने लगा। लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं जिसका वायदा किया गया था। बावजूद इसके देश ने प्रधानमन्त्री पर भरोसा दिखाते हुए उन्हें 2019 के चुनाव में पहले से भी ज्यादा बहुमत देकर सत्ता सौंप दी। मतदाताओं को ये भरोसा हो चला था कि भले ही 2014 में किये वायदों को पूरा करने में सरकार सफल नहीं हुई लेकिन उसकी नीति और नीयत साफ़ थी। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि आम जनता ने समृद्धि के साथ देश की सुरक्षा को भी बराबर से महत्व दिया और निजी हितों को राष्ट्रहित की तुलना में तुच्छ समझते हुए एक निर्णायक जनादेश नरेंद्र मोदी को प्रदान करते हुए उनके विरोधियों को बुरी तरह निराश कर दिया। बीते पांच वर्ष में केंद्र सरकार ने जो गलतियाँ कीं उन्हें मतदाता ने ये सोचकर भी नजरअंदाज कर दिया कि जो काम करता है उसी से चूक होती है। उल्लेखनीय है अपनी निजी ईमानदारी और पेशेवर विद्वता के बावजूद डा. मनमोहन सिंह की सरकार फैसले नहीं कर पाने वाली सरकार के रूप में बदनाम होने से जनता की निगाहों में उतर गयी थी। उस लिहाज से श्री मोदी दुस्साहासिक फैसले लेने वाले साबित हुए। हालाँकि उनकी वजह से समाज के हर वर्ग को अकल्पनीय परेशानियां उठानी पडीं। लेकिन उसके बाद भी लोगों को प्रधानमंत्री की नेकनीयती पर भरोसा बना रहा। 2019 का जनादेश पूरी तरह श्री मोदी की निजी साख का परिणाम कहा जाना चाहिए और वह गलत भी नहीं है। लेकिन उसके बाद बीते छह महीनों में राजनीतिक मोर्चे पर ऐतिहासिक कार्य करने की बावजूद मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी। हालत सुधरना तो दूर रहा और भी बिगडऩे की नौबत आ गई। बेरोजगारी के आंकड़े बीते चार दशक के सर्वोच्च स्तर तक जा पहुँचे। बाजार में मांग घटते जाने से उत्पादन में गिरावट आती चली गई । निर्यात में कमी के वजह से व्यापार घाटा भी चिंताजनक स्थिति में आ पहुँचा। अर्थशास्त्र के अंतर्गत जितने भी नकारात्मक मापदंड हो सकते हैं , भारतीय अर्थव्यवस्था के उसी मुकाम पर पहुंचने की बात न केवल राष्ट्रीय वरन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रचारित हो रही है। सरकार के विरोधियों के दावे भले ही नजरअंदाज कर दिए जाएँ किन्तु उसके अपने समर्थक खेमे में भी अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता का माहौल है। हालांकि इसके लिए वर्तमान सरकार को पूरी तरह कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अधिकृत तौर पर ये माना जाता है कि 2011 से ही इसकी शुरुवात हो चुकी थी जो वैश्विक कारणों से आर्थिक मंदी की शक्ल में जमकर बैठ गयी। हालांकि अर्थशास्त्रियों का बड़ा वर्ग नोटबंदी और जीएसटी को इसके लिए जिम्मेदार मानता है। भाजपा को हालिया विधानसभा चनावों में जो असफलता हाथ लगी उसके लिए भी आम तौर पर आर्थिक कारणों को जिम्मेदार माना जा रहा हैं। प्रधानमन्त्री की निजी लोकप्रियता और क्षमता पर भी इसी कारण सवाल उठ रहे हैं। ऐसे में अब आगामी बजट ही वह जरिया है जो अर्थव्यवस्था को लेकर छाई निराशा को दूर कर सकता है। भले ही सरकार और रिजर्व बैंक ने बीते महीनों में कुछ उपाय किये लेकिन उनका जैसा असर अपेक्षित था वैसा नहीं हुआ। जनाकारों का कहना है कि ये उपाय दीर्घकालीन लाभ देंगे। लेकिन मौजूदा स्थिति में ऐसा कुछ किये जाने की जरुरुत है जिससे उद्योग - व्यापार जगत के साथ ही जनता में भी ये भाव पैदा हो कि सरकार आर्थिक समस्याओँ को लेकर न केवल चिंतित है अपितु उनके निराकरण के लिए प्रयासरत भी है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन कितनी राहत दे सकेंगी ये अभी कह पाना सम्भव नहीं है किन्तु यदि ये अवसर भी चला गया तब मोदी सरकार के पास देश में छाई निराशा को दूर करना बेहद कठिन होगा। बेहतर होगा आगामी बजट ज्यादा सैद्धांतिक न होकर थोड़ा व्यवहारिक भी हो क्योंकि अब जनता का धैर्य भी जवाब देने लगा है । मोदी सरकार की राष्ट्रवादी सोच और नीतियाँ पूरी तरह सही हैं लेकिन आज के दौर में आर्थिक नीतियाँ सब पर भारी पड़ जाती हैं। खाली जेब तमाम खुशियों और उपलब्धियों का आनंद छीन लेती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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