Monday 13 January 2020

वामपंथ : डूबते को जेएनयू का सहारा



दिल्ली की प्रसिद्ध जेएनयू में बीते दिनों हुआ बलवा कहने को तो शांत हो गया लेकिन उसके कारण वामपंथी हताशा एक बार फिर उजागर हो गयी। 5 जनवरी की शाम वहां कुछ नकाबपोशों द्वारा की गयी मारपीट का देश भर में जबर्दस्त प्रचार हुआ। लेकिन उसके पहले जो कुछ भी हुआ उस बारे में लोगों को ज्यादा नहीं पता। धीरे-धीरे जो जानकारी आई उसके अनुसार नये सेमेस्टर का पंजीयन रोकने के लिए वामपन्थी छात्रों द्वारा सम्बंधित दफ्तर की समूची संचार व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया गया। उन्हें रोकने वाले छात्रों को पीटा भी गया। फीस और छात्रावास शुल्क में वृद्धि के विरोध में चलाये जा रहे आन्दोलन के अंतर्गत वामपंथी जेएनयू में समूची शैक्षणिक गतिविधियों को महज इसलिए ठप्प किये हुए हैं जिससे कि उनकी स्वच्छन्दता पर लगाये जा रहे नियंत्रण प्रभावशील न हो सकें। इसके पीछे शिक्षकों का भी वह समूह है जो वामपंथी विचारधारा में रंगा हुआ है। इनमें तमाम ऐसे लोग हैं जो इसी विवि के छात्र रह चुके हैं। पूरे फसाद की जड़ यही है कि वामपंथी जेएनयू में अपने एकाधिकार को मिल रही चुनौती से भन्नाए हुए हैं। उनकी ये सोच केवल इस संस्थान में ही नहीं बल्कि दिल्ली के जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम विवि, हैदराबाद के उस्मानिया और बंगाल के जादवपुर विवि जैसे उन तमाम शिक्षण संस्थानों में भी साफ दिखाई दे रही है जहां वामपन्थी ताकतों को वैचारिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। ये स्थिति अचानक नहीं बनी। बीते पांच सालों में केंद्र की सत्ता द्वारा वामपंथी और उनकी आड़ में सक्रिय देश विरोधी तत्वों की गतिविधियों पर रोक लगाये जाने के बाद से ही सुनियोजित तरीके से उक्त शिक्षण संस्थानों में अराजकता और अव्यवस्था का माहौल बनाकर उसे युवा असंतोष का नाम देकर भ्रम फैलाया जा रहा है। उनके अलावा भी अन्य विश्वविद्यालयों में छात्र आंदोलित हुए लेकिन उनकी संख्या मु_ी भर रही। कुल मिलाकर वामपन्थी और उनके साथ जुड़े बाकी देशविरोधी मानसिकता वाले छात्र ही इस बवाल के पीछे हैं। इस सन्दर्भ में ये बात बिलकुल सही है कि पूरे घटनाक्रम का उद्देश्य केवल और केवल देश के भीतर अराजक वातावारण का निर्माण करना है। इस बारे में एक टीवी वार्ता के दौरान पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने जेएनयू में हुए ताजा फसाद को लेकर एक तरफ  तो जहां विवि प्रशासन और दिल्ली पुलिस की तीखी आलोचना की वहीं उन्होंने पंजीयन रोके जाने के लिए सर्वर रूम को नुकसान पहुँचाने के लिए वामपंथी छात्रसंघ की भूमिका को भी कठघरे में खड़ा कर दिया। लगे हाथ उन्होंने ये भी कहा कि सत्तर के दशक में वामपंथी शासन के दौरान कोलकाता विवि में भी वामपंथी छात्र संगठनों ने इसी तरह की हिंसक हरकतें कीं जिनके परिणामस्वरूप उस प्रतिष्ठित संस्थान की छवि धीरे-धीरे खऱाब होती चली गई। छात्र आंदोलनों से उत्पन्न हालातों ने अलाहाबाद विवि की भी गरिमा को पहले जैसा नहीं रहने दिया। इस बारे में चौकाने वाली बात ये है कि जेएनयू के वामपंथी छात्र संगठन के साथ अलीगढ़ मुस्लिम विवि के देशविरोधी तत्वों का गठजोड़ होने के बाद उसमें जादवपुर विवि और जामिया मिलिया जैसे अन्य संस्थान भी जुड़ते चले गये। निश्चित रूप से ये आकस्मिक तौर पर नहीं हुआ। इसकी पृष्ठभूमि जेएनयू में 2016 में हुआ वह आन्दोलन है जिसमें भारत तेरे टुकड़े होंगे और कश्मीर की आजादी जैसे नारे खुले आम लगाए गए और वामपंथी संगठन उसके लिये दोषी लोगों के बचाव में आ खड़े हुए। उस दौर में पूरे देश में असहिष्णुता के नाम पर वामपंथी बुद्धिजीवी अवार्ड वापिसी अभियान चला रहे थे। चूंकि उसका निशाना केंद्र की मोदी सरकार थी इसलिए न सिर्फ  कांग्रेस बल्कि शेष गैर भाजपाई दल भी उनके सुर में सुर मिलाने लगे। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव ने वामपंथियों सहित पूरे विपक्ष को नकार दिया। बाकी दल तो कमोबेश इस देश की मिट्टी से जुड़े हुए हैं इसलिए उनके पास अभी भी वापिसी की संभावनाएं हैं लेकिन साम्यवादी विचारधारा आयातित होने की वजह से लगातार तिरस्कृत होती जा रही है। ऊपर से केंद्र सरकार ने कश्मीर संबंधी ऐतिहासिक फैसला कर अलगावादियों के हौसले पस्त कर दिए। बची खुची कसर नागरिकता संशोधन कानून के लागू होने ने पूरी कर दी। जेएनयू की छात्र राजनीति को पूरी तरह वामपंथी रंग तो दशकों पहले दे दिया गया था लेकिन हाल के कुछ सालों में जबसे लाल रंग फीका पडऩे का खतरा बढ़ा तबसे वामपंथी विचारधारा को अपने पाँव उखड़ते नजर आने लगे। कांग्रेस को इस खेल को समझना चाहिए क्योंकि उसका जितना नुकसान भाजपा ने नहीं किया उससे ज्यादा उन वामपंथी सलाहकारों ने कर दिया जो पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा जी तक के समय सत्ता के गलियारों में घुसकर समूची व्यवस्था को अपने मुताबिक मोडऩे में कामयाब होते रहे। शैक्षणिक और बौद्धिक गतिविधियों से जुड़े हर महत्वपूर्ण संस्थान पर छद्म रूप से वामपंथियों ने कब्जा जमा लिया जिसे कांग्रेसी समझ ही नहीं सके। दुर्भाग्य से आज भी वे इस षडयंत्र से अनभिज्ञ हैं। उन्हें ये समझ लेना चाहिए कि वामपंथी राजनीति इस देश के हितों का सौदा करने वाली रही है। और बहुदलीय लोकतंत्र तथा अभिव्यक्ति की आजादी में साम्यवाद का कोई भरोसा नहीं है। मजदूर्रों और किसानों की हमदर्द बनी रहने वाली साम्यवादी पार्टियों की वजह से ही इस देश का किसान पूरी तरह सरकार पर निर्भर होकर अपना हुनर भूल बैठा वहीं श्रमिक आन्दोलन भी दिशाहीन होते-होते बिखराव का शिकार हो गया। अब केवल इस विचारधारा को जेएनयू जैसे कुछ संस्थानों का ही सहारा है। समाचार माध्यमों में बैठे साम्यवादी इसीलिये ऐसे संस्थानों में होने वाली किसी भी घटना को योजनाबद्ध तरीके से राष्ट्रीय स्तर का बना देते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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