Saturday 25 January 2020

केवल अधिकार नहीं कर्तव्यों की भी सोचें



2019 के लोकसभा चुनाव के उपरान्त एनडीए संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद नरेंद्र मोदी ने संविधान की पुस्तक पर मत्था टेककर इस बात का संकेत दिया कि उनकी प्रतिबद्धता संविधान के प्रति है। दरअसल उनकी सरकार पर विपक्ष ही नहीं वरन  समाज का एक वर्ग विशेष ये आरोप लगाता रहा था कि वह संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ करते हुए  समाज को बांटने का काम कर रही है। असहिष्णुता की आड़ लेकर हर जगह ऐसा वातावरण बना दिया गया जैसे देश में प्रजातंत्र खत्म करते हुए तानाशाही लादी जा रही हो। अभिव्यक्ति की आजादी को खतरे में बताकर भी खूब हल्ला मचा। ये भी कहा जाने लगा कि विभिन्न संस्थानों में एक ही विचारधारा के लोगों को स्थापित किया जा रहा है। शायद यही सब देख कर प्रधानमन्त्री ने दूसरी पारी की शुरुवात में संविधान की पुस्तक पर सिर रखकर आलोचकों को बिना कुछ कहे ही जवाब दे दिया। पहले से ज्यादा बड़ा जनादेश मिलने से उनका आत्मविश्वास भी निश्चित तौर पर बढ़ा जिसका प्रमाण नई लोकसभा के पहले सत्र में ही मिल गया। जिस तरह से जम्मू - कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला मोदी सरकार ने लिया उससे उसके विरोधियों को ये कहने का अवसर एक बार फिर मिल गया कि संविधान के ढांचे को तोडऩे का दुस्साहस किया जा रहा है। जिस तरह से वहां कर्फ्यू लगाकर संचार सुविधाएं अवरुद्ध की गईं उनसे भी सरकार पर तानाशाही के रास्ते पर चलने का आरोप लगा। लेकिन प्रधानमन्त्री इस सबसे बेपरवाह बने रहे और संसद के शीतकालीन सत्र  में सीएए ( नागरिकता संशोधन कानून ) पारित करवाकर अपने आलोचकों को आसमान सिर पर उठाने का एक अवसर और दे दिया। बीते काफी समय से देश भर में उक्त कानून के विरोध में आन्दोलन हो रहे हैं। राजनीतिक दलों के अलावा छात्र संगठन , बुद्धिजीवी, अभिनेता, कलाकार और अन्य वर्गों  से भी सरकार पर संविधान को ताक़ पर रखे जाने के आरोप उछलने लगे। ये भी कहा जा रहा है कि मोदी सरकार धार्मिक आधार पर भेदभाव करते हुए संविधान की समन्वयवादी सोच को दफन करने पर आमादा है। पूरे देश में ये प्रचार किया जा रहा है कि केंद्र सरकार संविधान के आधार को कमजोर करते हुए फासिस्टवादी व्यवस्था को लागू करना चाह रही है। इस सबके बीच एक बात जो देखने मिल रही है वह ये कि पूरा देश मोदी समर्थकों और मोदी विरोधियों में बंटकर रह गया है। विचारधारा महत्वहीन होती जा रही है और सुविधा के समझौतों के आधार पर राजनीतिक गठबन्धन बन रहे हैं। ऐसे माहौल में गणतंत्र दिवस का आगमन देश के बारे में सोचने का सही अवसर  है। संविधान लागू होने की वर्षगांठ का राष्ट्रीय जीवन में बहुत महत्व है क्योंकि लोकशाही की सफलता संविधान के पालन पर ही निर्भर होती है। संसदीय प्रजातंत्र में तो संवैधानिक मर्यादाओं की विशेष अहमियत होती है। लेकिन  कानून के अलावा कतिपय परम्पराएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण  हैं। इन परम्पराओं का पालन प्रजातंत्र की जड़ों को मजबूत करने में बहुत सहायक होता  हैं। उल्लेखनीय है भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। जबकि जिस ब्रिटेन के संविधान से यह प्रेरित और प्रभावित है वह अलिखित है। बावजूद उसके हमारे देश में संविधान के प्रति अपेक्षित गम्भीरता नहीं दिखायी देती। इसकी मुख्य वजह राजनीतिक स्वार्थ  ही हैं  जो राष्ट्रीय हितों पर भी भारी  पडऩे लगे हैं। संसद को प्रजातंत्र का सबसे जीवंत प्रतीक चिन्ह कहा जाता है लेकिन संविधान की शपथ लेकर उसमें बैठने वाले सांसद अपनी शपथ का कितना सम्मान करते हैं ये विचारणीय विषय है। संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देखने वाली जनता को जब ये लगता है कि कानून बनाने वाली संस्था के सदस्य ही नियम  कानूनों के पालन के प्रति  लापरवाह हैं तब वह क्यों उनकी चिंता करे। इसी आधार पर ये कहा जा सकता है कि हमारा गणतंत्र गैर जिम्मेदार व्यवस्था का प्रतीक बनता जा रहा है। देश विरोधी नारे लगाने वाले को रोकने पर अभिव्यक्ति की आजादी के खतरे में पडऩे की बात जिस तरह उछाली जाती है वह बड़े खतरे का संकेत है। संविधान केवल सरकार को मर्यादा में रहने की नसीहत नहीं देता अपितु देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक आचार संहिता का निर्धारण करता है , जिसमें अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों का भी संतुलन बनाए रखने की सीख है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि सही मायनों में संविधान कर्तव्यों को स्पष्ट करने वाला ऐसा दस्तावेज है जिसके प्रति श्रद्धा और समर्पण का भाव एक अनिवार्यता है। देश के मौजूदा वातावरण में जो लोग संविधान को खतरे में बताने का ढोल पीट रहे हैं वे ही उसकी धज्जियां उड़ाने पर आमादा हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग देश के टुकड़े करने की मंशा रखने वालों के  समर्थन के रूप में किया जा रहा है। आजादी के नए अर्थ गढ़े जाने लगे हैं। अनेक राज्यों की चुनी हुई सरकारें संसद द्वारा पारित क़ानून को लागू नहीं किये जाने का ऐलान कर रही हैं। संघीय ढांचे को  छिन्न - भिन्न  करने का षडयंत्र चल रहा है। जनादेश से बनी सत्ता को नकारने का जैसा दुस्साहस बीते कुछ महीनों में देखने मिला उसे केवल राजनीतिक असफलता की खीझ मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सही मायनों में ये जनतंत्र की उस मूल भावना का ही तिरस्कार है जो जनता के निर्णय को सर्वोपरि मानती है। संविधान की इस सालगिरह पर देश के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए ऐसी सोच की जरूरत है जो राजनीतिक नफे-नुकसान की बजाय राष्ट्रीय हितों के अनुकूल हो। कहने को हमारा गणतंत्र सात दशक पुराना हो चुका है लेकिन उसमें परिपक्वता का अभाव साफ़ देखा जा सकता है। चूंकि भारत विविधताओं से भरा देश है इसलिए इसका कोई एक विशिष्ट कारण नहीं है। विविधता में एकता, भारत की विशेषता का नारा चाहे जितना लगाया जाता हो किन्तु उस विविधता को देश की एकता के लिए खतरा बनाने वाली ताकतें खुलकर मैदान में हैं। गणतंत्र दिवस के इस राष्ट्रीय पर्व पर हर जिम्मेदार नागरिक को कुछ समय इस बात पर विचार करने के लिए  भी निकालना चाहिये कि इन ताकतों की कमर किस तरह तोड़ी जाए क्योंकि देश के कमजोर होने पर संविधान भी धीरे-धीरे अपना असर और महत्व खो बैठता है। और ऐसा होना हमारी सार्वभौमिकता को खतरे में डाल सकता है।

गणतंत्र दिवस की अनन्त शुभकामनाएं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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