Wednesday 8 January 2020

ईरान : अमेरिका का दांव उलटा पडऩे के आसार



पश्चिम एशिया का संकट और भी गहराता जा रहा है। ईरान तो खैर सीधे मुकाबले में खड़ा हुआ है लेकिन अब ईराक ने भी अमेरिका को आँखें दिखानी शुरू कर दीं। उसकी संसद ने प्रस्ताव पारित करते हुए अपने देश में मौजूद अमेरिकी सैनिकों को देश छोडऩे का आदेश दे दिया। उल्लेखनीय है अमेरिका द्वारा ईरान के फौजी जनरल सुलेमानी की ह्त्या ईराक के बग़दाद हवाई अड्डे पर ही ड्रोन से हवाई हमला कर की गई थी। कुछ दशक पूर्व ईराक और ईरान के बीच बहुत लम्बी जंग चली थी जिसमें लाखों लोग मारे गये। लेकिन मौजूदा हालात में दोनों पड़ोसी देश अमेरिका के विरुद्ध एकजुट हो रहे हैं जो इस अंचल में आया बड़ा बदलाव है। जैसी जानकारी मिली है उसके मुताबिक सऊदी अरब, कुवैत, कतर, ईराक, बहरीन जैसे अनेक खाड़ी देशों में अमेरिका के सैनिक और अस्त्र-शस्त्र मौजूद हैं। वैसे तो दूसरे महायुद्ध के बाद शीतयुद्ध के मद्देनजर अमेरिका ने एक तरह से पूरी दुनिया में अपनी सैन्य उपस्थिति बनाई है। उसके समुद्री बेड़े जगह-जगह तैनात हैं। कई देशों में तो उसके स्थायी सैन्य अड्डे हैं। हालांकि पश्चिम एशिया में सऊदी अरब और इजरायल ही उसके परम समर्थक रहे हैं लेकिन धीरे-धीरे कुछ और देश भी उसकी शरण में आते गए। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि अमेरिका ने अपनी कूटनीति, सैन्य बल और आर्थिक सम्पन्नता से इस्लामिक देशों के बीच भी फूट डालने में कामयाबी हासिल कर ली। बीती सदी के अंत में जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर बलात कब्जा किया तब अमेरिका को इस्लामिक देशों के बीच बतौर संरक्षक बनकर घुसने का अच्छा अवसर मिल गया। स्मरणीय है सद्दाम ने इस्लाम को मानने के बावजूद ईराक को आधुनिक बनाने में काफी योगदान दिया था। जबकि शाह पहलवी के रहते आधुनिकता की राह पर चलने वाला ईरान अयातुल्ला खोमैनी का राज आते ही कट्टरवादी इस्लामिक देश बन बैठा। अमेरिका ने समय रहते अरब जगत में आ रहे वैचारिक बदलाव का फायदा उठाया और छोटे-छोटे अनेक अरबी देशों को कट्टरपंथी पड़ोसियों का भय दिखाकर वहां अपनी सैन्य टुकडिय़ां तैनात कर दीं। जिन अरबी मुल्कों में अभी भी पुराना शाही शासन चला आ रहा है उन्हें भी इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर आ रहे बवंडर में अपनी सत्ता खतरे में नजर आई और वे अमेरिका की छतरी के नीचे आ गए। लेकिन ईरान पर उसका जादू नहीं चल पाया और उसने अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखते हुए अमेरिका के झंडे तले आने से इंकार कर दिया। दरअसल 1979 में जब खोमैनी ने शाह पहलवी की सत्ता लटकर घड़ी की सुइयां उल्टी घुमाते हुए ईरान को कट्टरवादी इस्लामिक देश बना दिया तभी से अमेरिका की नजर में वह खटक रहा था। लेकिन उसे खाड़ी में घुसने का मौका और बहाना नहीं मिल रहा था। कुवैत पर सद्दाम के हमले ने अमेरिका को वहां जमने का रास्ता दे दिया। उसी के बाद से राजशाही से संचालित अनेक अरबी देश वाशिंगटन को अपना रहनुमा मानकर शरणागत हो गये। ये कहना भी प्रासंगिक होगा कि फिलीस्तीन की आजादी के लिए लडऩे वाले यासर अराफात की मौत के बाद तो अरब जगत में अमेरिका से ऊंची आवाज में बात करने वाला कोई व्यक्तित्व बचा ही नहीं। एक दौर था जब सोवियत संघ अमेरिका को पश्चिम एशिया में शह दिया करता था लेकिन उसके विघटन के बाद रूस में वह दमखम नहीं बचा। यद्यपि ब्लादिमीर पुतिन के सत्ता में आने के बाद उसने एक बार फिर अमेरिका को चुनौती देने का साहस दिखाया जिसका प्रमाण सीरिया को दिया गया उसका संरक्षण है किन्तु उसका प्रभावक्षेत्र अमेरिका जैसा व्यापक नहीं हो सका। मौजूदा संकट के पीछे अमेरिका की सोच काफी दूरगामी है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हालात जैसे बन गये हैं उनके बाद अब उसको वहां बने रहना कठिन हो रहा है। ऐसे में उसे पश्चिम एशिया के साथ ही मध्य एशिया पर नजर रखने के लिए कोई जगह चाहिए। लादेन और बगदादी का सफाया करने के बाद अब अरब जगत में इस्लामिक कट्टरवाद का झंडा बुलंद करने वाला ईरान ही बच रहता है। पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो दिखाई देगा कि यासर आराफात, कर्नल गद्दाफी और सद्दाम हुसैन जैसे ताकतवर नेताओं का अभाव अरब जगत में महसूस किया जा सकता है। सऊदी अरब के शाही परिवार में भी फूट के बीज अमेरिका ने बो दिए हैं और बड़ी बात नहीं कुछ सालों के भीतर इस्लाम का यह सबसे प्रमुख देश भी शाही शासन से मुक्त होकर राजनीतिक अनिश्चितता में फंसकर रह जाए। कहने को तो अमेरिका सऊदी अरब का संरक्षक है लेकिन उसे ये पता है कि दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर आतंकवाद को आर्थिक सहायता देने में सऊदी अरब का सबसे अधिक योगदान है। इसके पीछे शाही परिवार का उदेश्य अपनी सत्ता बचाकर रखना है। इस प्रकार पश्चिम एशिया में आज की सूरत में केवल ईरान ही है जो अभी तक अमेरिका के इशारों पर नाचने से इंकार करता रहा। लेकिन ताजा तनाव के बाद अरब जगत एक अदृश्य भय से गुजर रहा है। जिस तरह से अमेरिका ने जनरल सुलेमानी को मारा उससे पश्चिम एशिया के अनेक शासक दहशत में डूब गये हैं। उन्हें ये डर भी सताने लगा है कि अमेरिका की हाँ में हाँ मिलाने के फेर में कहीं उनके देश में भी इस्लामिक आतंकवाद सिर न उठा ले। ये बात सौ फीसदी सही है कि अरब ही नहीं अपितु दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले अधिकांश मुस्लिम अमेरिका को इस्लाम का दुश्मन मानते हैं। और उस दृष्टि से अरब देशों में सत्ता में बैठे हर शासक को दिखावे के लिए ही सही लेकिन अमेरिका का विरोध करना पड़ता है। लेकिन मौजूदा हालातों में अमेरिका के लिए भी शोचनीय स्थिति बन गयी है जिसमें इधर कुआं उधर खाई है। ईराक के साथ ही अन्य अरबी देश सुलेमानी की हत्या के तरीके को पचा नहीं पा रहे हैं। बताया जा रहा है कि फौजी जनरल होने के बावजूद सुलेमानी अरब देशों के बीच एकता की कूटनीतिक पहल कर रहा था जिसमें उसे काफी सफलता भी मिलने लगी थी। इसीलिए अमेरिका ने उसे रास्ते से हटा दिया। लेकिन इसके बाद पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईराक से आई प्रतिक्रियाएं उसे चिंतित कर रही हैं। गत दिवस राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के प्रधानमन्त्री से फोन पर जो लम्बी बात की उसका मुख्य विषय ईरान संकट ही था। हो सकता है भारत और ईरान के नजदीकी रिश्तों को देखते हुए अमेरिका बीच का रास्ता निकालने के लिए श्री मोदी की सेवाएं लेना चाहता हो। अरब जगत में उठे गुस्से के सैलाब से ट्रंप भी सतर्क हो उठे हैं। भारत भी चाहता है कि ये विवाद आगे न बढ़े क्योंकि बीते कुछ दिन में ही पेट्रोल-डीजल के दाम तेजी से बढ़ गए हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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