Monday 20 January 2020

सिब्बल की बात पर ध्यान दे कांग्रेस



कांग्रेस के वरिष्ठ और मुखर नेता कपिल सिब्बल के कानूनी ज्ञान को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती । वे देश के बड़े वकीलों में गिने जाते हैं। गत दिवस उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून पर एक बयान में दो टूक कह दिया कि भले ही राज्य इसका विरोध करें और अपनी विधानसभा में इसके विरुद्ध प्रस्ताव पारित करें लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी वैध ठहराए जाने के बाद उसे लागू करने से इंकार नहीं किया जा सकता। श्री सिब्बल ने यद्यपि कानून के विरुद्ध हो रहे आंदोलन की प्रशंसा की लेकिन उसको लागू किये जाने सम्बन्धी राज्यों की बाध्यता को स्पष्ट करते हुए ये गलतफहमी भी दूर कर दी कि संसद द्वारा मंजूर किसी कानून को राज्य सरकार लागू करने से इंकार कर सकती है । श्री सिब्बल के बयान का उन्हीं की पार्टी के अन्य नेता और प्रख्यात अधिवक्ता सलमान खुर्शीद ने भी समर्थन किया है । यद्यपि दोनों ने अपनी पार्टी की राजनीतिक लाइन पर चलते हुए उक्त कानून के विरोध को जायज भी ठहराया लेकिन इस बात की पुष्टि भी कि राज्य सरकार ये नहीं कह सकती कि संसद द्वारा पारित किसी कानून को अपने राज्य में लागू नहीं करेगी। सर्वोच्च न्यायालय अवश्य उसकी समीक्षा कर उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है लेकिन संसद से पारित होने , राष्ट्रपति द्वारा उसका अनुमोदन किये जाने तथा उसे लागू किये जाने संबंधी अधिसूचना जारी हो जाने के बाद किसी राज्य की सरकार या मुख़्यमंत्री का उसे लागू नहीं करने जैसी बात कहना संविधान और संघीय ढांचे के विरुद्ध है । चूंकि सीएए अब एक विधिवत कानून है इसलिए उसे लागू करना राज्यों की भी संवैधानिक बाध्यता और जिम्मेदारी है । जहां तक बात इसके विरोध की है तो इसके पीछे भी वोटबैंक की ही राजनीति है ये बात किसी से छिपी नहीं रही। देश के जिन हिस्सों में भी सीएए का विरोध चल रहा है उनमें असम सहित कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में ही उसके पीछे दिए जा रहे तर्क औचित्यपूर्ण हैं क्योंकि वहां के लोगों को अपनी भाषायी बहुलता के लिए खतरा महसूस हो रहा है । लेकिन दिल्ली के शाहीन बाग और कुछ विश्वविद्यालयों में हो रहे विरोध के पीछे केवल वे ताकतें हैं जो येन केन प्रकारेण देश में अस्थिरता फैलाकर उसे भीतर से कमजोर करने की रणनीति पर काम कर रही हैं । जो बात श्री सिब्बल ने कही उसका निहितार्थ यही है कि संवैधानिक प्रक्रिया के तहत बनाये कानून का विरोध भी उसी की मर्यादा में रहकर किया जाना चाहिए। लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि खुद श्री सिब्बल की पार्टी और उसके नेताओं ने सीएए को लेकर गलत रास्ता अख्तियार कर लिया। अब यदि पंजाब, राजस्थान, मप्र जैसे कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री इसे लागू नहीं करने की बात कहते हैं तब क्या वह गैर कानूनी और संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं है । विधानसभा में कानून के विरोध का प्रस्ताव पारित करना भी एक तरह से संघीय ढांचे के प्रति असहमति ही हुई। उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देना तो पूरी तरह विधिसम्मत प्रक्रिया है किन्तु जब किसी राज्य की सरकार और उसका मुखिया संसद द्वरा पारित किसी कानून के विरोध में जनता को उकसाने का कार्य करे तब वह अनुचित ही है। श्री सिब्बल की स्पष्ट टिप्पणी और उन्हीं के पार्टी सहयोगी श्री खुर्शीद द्वारा उसका समर्थन किये जाने के बाद कांग्रेस को इस बारे में गम्भीर और जिम्मेदार हो जाना चाहिये । विपक्षी दल सरकार के किसी निर्णय का सैद्धांतिक विरोध करे उसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन उसके कारण यदि अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाए तब उसे अपने तरीके में बदलाव करना चाहिये । जिस तरह शाहीन बाग के धरने को महिमामंडित किया जा रहा है वह भी अव्यवस्था फैलाने का ही हिस्सा है जिसे कांग्रेस पर्दे के पीछे रहकर समर्थन दे रही है । केंद्र सरकार द्वारा लिए गए अन्य निर्णयों के विरोध में मुस्लिम समाज ने वैधानिक तरीके अपनाने की जो समझदारी दिखाई ठीक वैसी ही सीएए को लेकर भी दिखाई जाती तब उस पर सार्थक बहस हो सकती थी लेकिन वामपंथियों ने अपने प्रचार तंत्र के जरिये मुस्लिम समुदाय को भयभीत कर दिया और कांग्रेस भी बिना सोचे-समझे उस षडयंत्र में फंसकर उनके साथ चल पड़ी। ममता बैनर्जी और केरल की वामपंथी सरकार द्वारा संसद द्वारा बनाए गये कानून को लागू नहीं करने जैसी बात कहना उतना अटपटा नहीं लगा क्योंकि उनकी पूरी राजनीति ही टकराव से प्रेरित है लेकिन जब कैप्टेन अमरिन्दर सिंह, कमलनाथ और अशोक गहलोत जैसे अनुभवी मुख्यमंत्री सीएए को लागू करने नहीं जैसी बात कहते हैं तब आश्चर्य होता है। बेहतर हो कांग्रेस अपने शासन वाले राज्यों को इस बात की सलाह दे कि वहां पार्टी भले ही सीएए का राजनीतिक स्तर पर विरोध करे किन्तु सरकार को ऐसी कोई बात कहनी नहीं चाहिए जिससे संवैधानिक संकट खड़ा हो । अनेक संविधान विशेषज्ञ कह चुके हैं कि कानून बन जाने और तत्संबन्धी अधिसूचना जारी होने के बाद किसी भी राज्य सरकार के लिए उसे लागू नहीं किया जाना असम्वैधानिक होगा और उस सूरत में केंद्र को वहां राष्ट्रपति शासन लगाने जैसा अप्रिय निर्णय लेना पड़ सकता है । इस बारे में एक छोटा सा उदाहरण प्रासंगिक होगा। बीते दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जबलपुर में कुछ ऐसे सिंधी परिवारों को भारत की नागरिकता प्रदान की जो बरसों पहले पाकिस्तान से प्रताडि़त होकर मप्र के बालाघाट में रह रहे थे लेकिन वैध नागरिकता नहीं होने से वे तमाम सुविधाओं और अधिकारों से वंचित थे । कमलनाथ सरकार ने उस कदम का कोई विरोध न करते हुए ये साबित कर दिया कि उसके पास वैसा करने का कोई अधिकार नहीं है । कपिल सिब्बल के बयान के बाद उम्मीद की जानी चाहिये कि कांग्रेस इस मामले में जिम्मेदारी का परिचय देते हुए ऐसा कोई कार्य नहीं करेगी जिससे उसकी राज्य सरकारें व्यर्थ के झमेले में फंस जाएं। देश के संघीय संवैधानिक ढांचे की सलामती के लिए विरोध के तौर - तरीकों को भी मर्यादा की रेखा में ही रहना चाहिए।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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