Saturday 11 January 2020

इन्टरनेट : सर्वोच्च न्यायालय का संतुलित फैसला



सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 35 ए और 370 हटाये जाने के दौरान की गई प्रतिबंधात्मक व्यवस्थाओं पर अपना निर्णय सुनाते हुए जो भी टिप्पणियाँ कीं वे बेहद महत्वपूर्ण हैं। एक कश्मीरी पत्रकार और कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद द्वारा प्रस्तुत याचिकाओं का निपटारा करते हुए तीन सदस्यों की पीठ ने धारा 144 के तर्कसंगत और वास्तविक आधार पर उपयोग पर बल देते हुए कहा कि बार-बार इसका उपयोग शक्ति का दुरूपयोग है। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य के प्रशासन को ये आदेश दिया कि वह धारा 144 और इन्टरनेट पर लगे प्रतिबंध संबंधी आदेशों को सार्वजनिक करे जिससे उन्हें उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सके। अदालत ने इन्टरनेट पर लगी रोक की एक सप्ताह में समीक्षा करते हुए नियमों का पालन करने की हिदायत भी दी और जरूरी सेवाओं के लिए उसे तत्काल शुरु करने कहा। लेकिन अपने निर्णय में अदालत ने जो टिप्पणियाँ कीं वे अध्ययन और विमर्श का विषय हैं। अदालत ने एक तरफ जहां इन्टरनेट को अभिव्यक्ति और व्यवसाय के लिए अनिवार्य बताया वहीं ये कहने में भी परहेज नहीं किया कि उसका काम स्वतंत्रता के अधिकार और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन कायम रखना है। स्वतंत्रता और सुरक्षा के बीच हमेशा टकराव रहा। ये नहीं कहा जा सकता कि किसकी ज्यादा जरूरत है , दोनों के बीच संतुलन कायम करने की जरूरत है। अदालत का ये कथन ही संदर्भित फैसले की आत्मा है। अदालत ने इन्टरनेट को सम्वैधानिक अधिकार तो माना किन्तु इस आधार पर उसे मौलिक अधिकार की श्रेणी में नहीं रखा क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने उसकी मांग नहीं की थी। धारा 144 के बारे में भी फैसले में ये कहा गया कि वह खतरे की आशंका पर भी लगाई जा सकती है। दोनों मुद्दों पर अदालत ने एक तरफ जहां नागरिकों के अधिकार और कानून के दुरूपयोग को रोकने के प्रति अपनी सतर्कता प्रगट की वहीं दूसरी तरफ ये कहकर कि उसका काम स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन कायम करना है अपने दायित्वबोध का भी परिचय दे दिया। चूंकि याचिका और फैसले का सीधा सम्बन्ध जम्मू - कश्मीर से है इसलिए स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन की बात बेहद प्रासंगिक और साथ ही महत्वपूर्ण हो जाती है। राज्य में अलगाववाद और उसकी आड़ में पनपे आतंकवाद की वजह से कश्मीर घाटी में विशेष रूप से नागरिक अधिकार और स्वतंत्रता मजाक बनकर रह गये थे। इन्टरनेट के उपयोग के जिस संवैधानिक अधिकार को सर्वोच्च न्यायालय ने भी मान्य किया उसका दुरूपयोग जिस तरह से हो रहा था उसके बाद उस पर प्रतिबन्ध लगाया जाना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक जरूरी कदम था। इन्टरनेट के कारण देश विरोधी ताकतों के बीच संपर्क बना रहता था। मोबाइल का उपयोग भी अलगाववादियों ने देश को नुकसान पहुँचाने के लिए किया। ये बात साबित हो चुकी है कि बीते कुछ महीनों में घाटी में आतंकवादी गतिविधियों पर नियन्त्रण लगने में मोबाईल और इन्टरनेट पर लगे प्रतिबन्ध काफी सहायक रहे। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस स्पष्टता के साथ सरकार को उसकी सीमाओं का स्मरण करवाते हुए दायित्वों की जरूरत पर भी बल दिया वह उन लोगों के लिए भी संकेत है जो इस फैसले को सरकार की हार बताते घूम रहे हैं। इन्टरनेट अभिव्यक्ति और व्यावसायिक जरूरतों के लिहाज से एक ऐसी जरूरत बन गई है जिसके अभाव में किसी इंसान की अधिकतर गतिविधियां ठप्प होकर रह जाती हैं। लेकिन उसके साथ भी विज्ञान अभिशाप है या वरदान वाली बहस जुड़ गई है। दुनिया भर को जोडऩे वाली यह तकनीक अपने आप में बेजोड़ हैं। लेकिन कश्मीर घाटी में इसका जिस काम के लिये उपयोग हुआ उससे इसकी नकारात्मकता भी उजागर हो गयी। सरकार से ये अपेक्षा करना कि वह जम्मू - कश्मीर में लगाए गये प्रतिबंधात्मक आदेशों का प्रकाशन करते हुए जनता को उसे चुनौती देने का अधिकार प्रदान करे पूरी तरह सही है लेकिन संदर्भित याचिकाओं पर फैसला देने में जल्दबाजी से बचने की अदालत की नीति ने अपने आप ही ये साबित कर दिया कि इन्टरनेट रोकने का सरकार का निर्णय समय की मांग थी। जैसे कि संकेत मिल रहे हैं उनके मुताबिक घाटी सहित पूरे राज्य में प्रशासनिक ढांचे का पुनर्गठन हो चुका है। खूनी खेल पर भी रोक लगी है। और अलगाववादी ताकतों का हौसला भी कमजोर पड़ रहा है। आम जनता भी अमन की पक्षधर बताई जा रही है। सरकार अपनी तरफ  से ही मोबाइल और इन्टरनेट शुरू करने के इरादे जता चुकी थी। ये सब देखते हुए न्यायालय के फैसले को सही नजरिये से देखना चाहिए। स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन कायम रखने को अपनी जिम्मेदारी बताकर सर्वोच्च न्यायालय ने थोड़े में ही बहुत कुछ कह दिया।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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