Friday 10 January 2020

विपक्षी एकता : सर्वमान्य नीति और नेता का अभाव बाधक



विपक्षी एकता की नई कोशिश अभी से सवालिया घेरे में आ गयी है। 13 जनवरी को कांग्रेस द्वारा दिल्ली में आमंत्रित विपक्षी दलों की बैठक में आने से तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने खुले तौर पर इंकार कर दिया। बसपा की तरफ  से मायावती ने भी बैठक में शरीक होने के प्रति अरुचि दिखा दी है। शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत के अनुसार उनकी पार्टी को अभी तक न्यौता ही नहीं मिला। समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को अपने झंडे के तले लाने की कांग्रेसी मुहिम नई नहीं है। विगत लोकसभा चुनाव के पूर्व भी सोनिया जी के बुलाने पर विपक्षी पार्टियों के नेता एक साथ आये और हाथ उठाकर फोटो भी खिंचवाया। देश के अनेक राज्यों में विपक्ष की साझा रैलियाँ भी हुईं। जिनके जरिये ये दिखाने का भरपूर प्रयास हुआ कि भाजपा के विरोध में एक महागठबंधन बन गया है जो नरेंद्र मोदी की वापिसी को रोकने में कामयाब होगा। लेकिन ज्यों-ज्यों चुनाव करीब आते गए एकता का वह राग बेसुरा होने लगा। यद्यपि गठबंधन तो हुए लेकिन राष्ट्रीय की बजाय प्रांतीय स्तर पर। मसलन बंगाल में ममता अकेली लड़ीं। उप्र में सपा-बसपा ने कांग्रेस को किनारे कर दिया। उड़ीसा में बीजू जनता दल ने भी कांग्रेस को तवज्जो नहीं दी। तो हरियाणा में क्षेत्रीय दलों ने अपनी खिचड़ी अलग पकाई। वामपंथी दल भी कहीं साथ तो कहीं अलग रहे। इस प्रकार जितना ढोल पीटा गया उस हिसाब से कुछ भी नहीं हुआ। इसकी एक वजह ये रही कि भले ही कांग्रेस विपक्ष की अकेली पार्टी है जिसे राष्ट्रीय कहा जा सकता है किन्तु भाजपा विरोधी बाकी दल अब उसे पहले जैसा वजन नहीं देना चाहते। इसकी एक बड़ी वजह ये है कि अधिकतर क्षेत्रीय दलों के पास जो वोट बैंक है वह कांग्रेस के खाते से ही निकला हुआ है। ऐसे में वे नहीं चाहेंगे कि वह फिर से मजबूत हो। उप्र में सपा ने तो एक बार कांग्रेस के साथ गठबंधन किया भी था किन्तु बसपा दूर ही रही। पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती ने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया लेकिन चुनाव परिणामों के बाद दोनों की राहें जुदा हो गईं। दरअसल कांग्रेस की मुसीबत ये है कि वह पंजाब और छत्तीसगढ़ के अलावा कहीं भी अपनी दम पर सत्ता में नहीं है। पुडुचेरी में उसकी सरकार है जरूर लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है। राजस्थान और मप्र में उसे बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा है। उसके अलावा जिन और राज्यों में कांग्रेस सरकार का हिस्सा है वहां भी उसकी हैसियत बेहद साधारण है। कर्नाटक में उसने जिस तरह से कटोरे में रखकर सत्ता कुमारस्वामी को सौंपी उससे उसकी कमजोरी साबित हो गई। महाराष्ट्र में जो ताजा राजनीतिक प्रयोग हुआ उसमें भी कांग्रेस का महत्व घटा। पूरी निर्णय प्रक्रिया पर शरद पवार हावी रहे। झारखंड में भी कांग्रेस हेमंत सोरेन के आभामंडल के समक्ष फीकी है। ऐसे में छोटे-छोटे दल भी पूरी तरह से उसका आधिपत्य मंजूर करने में हिचकते हैं। 13 तारीख की प्रस्तावित विपक्षी बैठक से ममता बैनर्जी का किनारा करना ही कांग्रेस के लिए बड़ा धक्का है क्योंकि विपक्ष में वे ही ऐसी एकमात्र ऐसी नेत्री हैं जो अपने दम पर बंगाल जैसे बड़े राज्य की सत्ता पर बनी हुई हैं। जिस वामपंथी किले को इंदिरा गांधी तक नहीं हिला सकीं उसे ममता ने धराशायी कर दिया। इसी तरह मायावती भी कांग्रेस की नाव में सवार होकर दलित वोटों पर अपना एकाधिकार नहीं छोडऩा चाहेंगी। अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में राहुल को अपनी सायकिल पर बिठाया था लेकिन उसकी वजह से सपा को जबरर्दस्त नुकसान हुआ। ऐसे में केवल शरद पवार और थोड़ा-बहुत वामपंथी ही कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाना चाहेंगे। हालांकि लालू की राजद और हेमंत सोरेन की झामुमो जैसी पार्टियां कांग्रेस के साथ चिपकी हुई हैं लेकिन वे राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से महत्वहीन हैं। वामपंथी भी बंगाल में भले कांग्रेस से याराना बनाकर रखें लेकिन केरल में वे अपने प्रभावक्षेत्र में उसे घुसने नहीं देंगे। ये देखते हुए 13 जनवरी की बैठक कितनी कारगर होगी ये देखने वाली बात रहेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर नेतृत्व को लेकर भी अनिश्चितता है। श्रीमती गांधी कार्यकारी अध्यक्ष जरूर हैं लेकिन बीच-बीच में राहुल गांधी को दोबारा कमान सौंपे जाने की चर्चा चलने से विपक्षी दल बिचकने लगते हैं। जहां तक प्रियंका वाड्रा को आगे लाने की बात है तो वे उप्र में ही ज्यादा सक्रिय हैं। चूँकि सोनिया जी का स्वास्थ्य उतना अच्छा नहीं है कि वे देश भर में दौरा करते हुए विपक्षी एकता को पुख्ता आधार दे सकें इसलिए छोटी पार्टियां भी कांग्रेस को अब पहले जैसा महत्व नहीं देतीं। कुल मिलाकर कांग्रेस इस समय संक्रान्तिकाल से गुजर रही है। उसके पास नीति और नेता दोनों को लेकर अनिश्चितता है। शिवसेना को गले लगाकर वह तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की अपनी पहिचान को खतरे में डाल ही चुकी है। सीएए के विरोध के बहाने उसने विपक्ष को एकजुट करने का जो दांव चला है उसकी सफलता संदिग्ध ही है क्योंकि निकट भविष्य में दिल्ली, बिहार और बंगाल के जो विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उनमें वहां के भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दल कांग्रेस को अपने ऊपर हावी नहीं होने देंगे। अरविन्द केजरीवाल, तेजस्वी यादव और ममता बैनर्जी वैसे तो भाजपा के घोर विरोधी हैं लेकिन वे कांग्रेस को भी ताकतवर होते नहीं देखना चाहते। और यही देश की सबसे पुरानी पार्टी की दिक्कत है। दूसरी पीढ़ी के नेतृत्व और गांधी परिवार के विकल्प के अभाव के चलते कांग्रेस को अब छोटी पार्टियां भी भाव नहीं दे रहीं। विपक्षी एकता की कोशिशों का अपना महत्व है लेकिन सर्वमान्य नेता और नीति की गैर मौजूदगी उसमें बाधक बन जाती है। श्रीमती गांधी के अलावा शरद पवार, एच डी देवगौड़ा, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव जैसे नेता अब वृद्धावस्था का शिकार हैं। उनके पीछे कोई भी ऐसा चेहरा नहीं दिखता जो पूरे देश में प्रभाव और पहिचान रखता हो। ऐसे में कांग्रेस की ताजा कोशिश किसी मुकाम पर पहुँचती नहीं लगती। नवीन पटनायक, ममता बैनर्जी, के. चंद्रशेखर राव, जगन मोहन रेड्डी, जैसे क्षेत्रीय छत्रपों के बिना विपक्षी एकता का वैसे भी कोई अर्थ नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment