Wednesday 22 January 2020

सर्वोच्च न्यायालय की अपील है तो विचारणीय



सर्वोच्च न्यायालय ने एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर संसद से संविधान संशोधन की अपील करते हुए सांसदों या विधायकों की अयोग्यता सम्बन्धी प्रकरणों में विलंब को रोकने के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता वाला एक स्थायी ट्रिब्यूनल या अन्य कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसे वैकल्पिक स्पीकर कहा जा सके। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने तत्सम्बन्धी कोई आदेश नहीं दिया लेकिन उसका संसद से संविधान संशोधन करने की अपीलऔर सुझाव की जो बात कही गई उसके पीछे निहित भावना और पृष्ठभूमि को समझना भी जरूरी है। हुआ यूं कि मणिपुर विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद त्रिशंकु की स्थिति बन गई। तब भाजपा ने कुछ क्षेत्रीय दलों के अलावा कांग्रेस के एक विधायक को तोड़कर मंत्री बना लिया। नियमानुसार उक्त विधायक को अयोग्य किया जाना चाहिए था। लेकिन उस स्थिति में सरकार अस्थिर हो जाती। लिहाजा विधानसभा अध्यक्ष उस प्रकरण को दबाकर बैठ गए। हालाँकि ये पहला प्रकरण नहीं था जिसमें स्पीकर ने अयोग्यता सम्बन्धी निर्णय को ठंडे बस्ते में डालकर सत्ताधारी दल को संजीवनी दे दी। बरसों पहले उप्र में कल्याण सिंह सरकार को बचाने के लिए केशरीनाथ त्रिपाठी ने भी ऐसा ही किया था। गत वर्ष कर्नाटक के कांग्रेस विधायकों के मामले में भी स्पीकर की भूमिका को लेकर विवाद मचा। अतीत में मप्र. में भी एक कांग्रेस विधायक द्वारा पार्टी से त्यागपत्र दिए जाने के बाद उसकी सदस्यता पर आए संकट को तत्कालीन स्पीकर स्व.ईश्वरदास रोहाणी लंबे समय तक टरकाते रहे। दरअसल इस बारे में स्पीकर के अधिकार असीमित होने से उन पर दबाव नहीं डाला जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने भी गत दिवस संसद से इस बारे में संविधान संशोधन का सुझाव ही दिया। लेकिन उसने ये अपेक्षा भी की कि अयोग्यता प्रकरणों का निबटारा अधिकतम तीन महीने के भीतर होना चाहिये। उन्होंने मणिपुर विधानसभा के स्पीकर से भी तीन माह में संदर्भित कांग्रेस विधायक की सदस्यता पर फैसला लेने कहा है। देखने वाली बात ये होगी कि संसद सर्वोच्च न्यायालय की अपील और उसके साथ दिए गए सुझावों पर क्या कदम उठाती है ? और उठाती भी है या नहीं क्योंकि ऐसे अनेक अवसर आए हैं अब संसद और न्यायपालिका के बीच अधिकारों और सर्वोच्चता को लेकर विवाद हुआ। जहां तक बात स्पीकर के अधिकारों की है तो जो भी दल सत्ता में होता है वह उनके दुरुपयोग में लेशमात्र भी शरम नहीं करता। यही नहीं तो आम तौर पर सभी दल ये मानते हैं कि न्यायपालिका को विधायिका के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी नहीं करना चाहिए। हालाँकि संसद या विधानसभा द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय की समीक्षा करने का अधिकार न्यायपालिका को है। विधायिका के पास कानून बनाने का अधिकार तो है किंतु वह भी संविधान द्वारा खींच दी गई लक्ष्मण रेखाओं के अंदर ही होना चाहिए। संसद द्वारा लिए गए अनेक निर्णयों पर सर्वोच्च न्यायालय ने जहां रोक लगाने का साहस किया वहीं संसद ने भी शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने जैसा कार्य किया था। इसी तरह संसद द्वारा न्यायाधीशों के चयन हेतु प्रचलित न्यायिक चयन आयोग का जो गठन किया गया उसे सर्वोच्च न्यायालय ने सिरे से खारिज कर दिया। हालांकि शाहबानो मामले में संसद द्वारा की गई कार्रवाई पर सर्वोच्च न्यायालय ने कोई ऐतराज नहीं जताया। लेकिन संसद में अवश्य न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप पर लगभग सभी दलों के सदस्यों ने काफी विरोध व्यक्त किया। फिर भी एक बात जरूर देखने वाली रही कि सरकार चाहे किसी की ही रही हो उसने सर्वोच्च न्यायालय के साथ सीधे टकराव नहीं किया। कुछ सार्वजनिक कार्यक्रमों में जरूर कानून मंत्री और प्रधान न्यायाधीश के बीच भाषण के जरिये कटाक्षों का आदान -प्रदान हुआ लेकिन फिर भी मर्यादा बनी रही। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक मामलों में अपनी सीमाओं से बाहर निकलकर फैसले किये या सरकार को लताड़ा लेकिन सरकार ने न्यायपालिका के प्रति आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं से परहेज किया। गत दिवस न्यायमूर्ति श्री नरीमन ने यही सोचकर कोई पुख्ता फैसला करने की बजाय संसद से अपील करते हुए सुझाव देते हुए संतुलित रवैया अपनाया। संसद इस पर क्या रुख अपनाती है ये देखने वाली बात होगी। क्योंकि गठबंधन राजनीति के इस दौर कोई भी पार्टी सदन के अध्यक्ष को अधिकारविहीन करना नहीं चाहेगी। सरकार को समर्थन देने के बदले मंत्रीपद की सौदेबाजी के साथ ही अध्यक्ष पद की भी मांग इसीलिए की जाती है। जहां तक बात इस पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा अयोग्यता मामलों में निष्पक्षता और नैतिकता की धज्जियां उड़ाने के आरोप की तो वह पूरी तरह सही है। इसके लिए उदाहरण तलाशने की जरूरत नहीं है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि राज्यपाल और संसद तथा विधानसभा के अध्यक्ष सत्ता पक्ष के हितों का संरक्षण करते हैं। संवैधानिक पद होने के कारण भले ही उनके सम्मान के प्रति सतर्कता बरती जाती है लेकिन इन पदों की गरिमा बीते जमाने की तुलना में गिरी है। मणिपुर, गोवा, कर्नाटक जैसे अनेक मामलों में दलबदल करने वाले सदस्य को अयोग्य ठहराने में पीठासीन अधिकारी द्वारा किया गया विलंब या लिया गया निर्णय किसी भी स्थिति में न्यायोचित नहीं था। किसी सदस्य द्वारा दलबदल करने पर उसे अयोग्य ठहराना बहुत ही सरल होता है। लेकिन अध्यक्ष उसे सत्ता पक्ष या फिर अपने निजी राजनीतिक हितों के लिए टरकाते हैं। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ट्रिब्यूनल या वैसी ही वैकल्पिक व्यवस्था का सुझाव देते हुए संविधान में तदनुसार संशोधन की जो अपील की उस पर विचार करते हुए विधिसम्मत निर्णय लेना समय की मांग है। बेहतर हो इसके लिए सर्वसम्मति बने। प्रजातंत्र में संवैधानिक पदों की निष्पक्षता और गरिमामय आचरण बहुत महत्वपूर्ण होता है। आज देश में सर्वत्र विश्वसनीयता को जो संकट है उसके लिए इन पदों पर बिठाये जाने वाले व्यक्ति और उनका कार्य भी बड़ा कारण है। इसके लिए किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अपने क्षणिक और निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए सभी दल नैतिकता और संवैधानिक मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ाने से नहीं चूकते। वैसे इस तरह के आरोप तो न्यायपालिका पर भी लगने लगे हैं ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment