Monday 6 January 2020

ईरान में लगी आग से झुलस सकते हैं भारतीय हित



ऐसा लगता है पश्चिम एशिया की किस्मत में शांति से रहना नहीं है। बीते तकरीबन तीन दशक से इस्लाम के प्रभाव वाले इस इलाके में बारूदी धुंआ थमने का नाम ही नहीं ले रहा। सद्दाम हुसैन और कर्नल गद्दाफी जैसे ताकतवर नेताओं को मौत के घाट उतारने के बाद अमेरिका ने सीरिया पर निगाहें जमाईं और आईएसआईएस नामक इस्लामिक आतंकवादी संगठन को नेस्तनाबूत करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। इस संगठन के मुखिया बगदादी को ओसामा बिन लादेन के बाद सबसे खतरनाक मानकर अमेरिका ने जबर्दस्त अभियान चलाया। उसके चलते सीरिया गृहयुद्ध की चपेट में आ गया और लाखों बेगुनाह लोग मारे गए। जान बचाकर लाखों शरणार्थी यूरोप के अनेक देशों में समुद्री मार्ग से जा पहुंचे। हालात यहाँ तक बने कि रूस भी बीच में कूद पड़ा। यहाँ तक लगने लगा कि सीरिया संकट तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन जाएगा। फ्रांस में हुए आतंकी हमले के बाद वह भी जंग में कूदा। वैसे भी सद्दाम के पतन के बाद ईराक में अमेरिका की मौजूदगी बनी हुई है। एक तरह से पश्चिम एशिया में अमेरिका ने वैसे ही हालात पैदा कर दिए जैसे साठ और सत्तर के दशक में वियतनाम में उसने बनाये थे। हालाँकि इस सबके पीछे अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हेकड़ी मानी जा रही है लेकिन सही बात ये है कि उनके पहले के अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने भी पश्चिम एशिया में अपनी दादागिरी कायम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे चंद देशों के अलावा अधिकतर अरबी देश अमेरिका की हिट लिस्ट में ही रहते आये हैं। इसके पीछे दरअसल तेल का खेल बताया जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पश्चिम एशिया के देशों में कच्चे तेल के कारण जो समृद्धि आई उसने इस्लामिक कट्टरता को जन्म दिया। हालांकि इसे खाद-पानी भी अमेरिका ही देता रहा। दूसरी तरफ इजरायल के पुनर्जन्म ने पश्चिम एशिया में एक स्थायी युद्धभूमि तैयार कर दी। ये बात भी सही है कि अन्य विश्व शक्तियाँ अरब जगत में उतना प्रभाव नहीं जमा सकीं। इसके पीछे उनकी अपनी समस्याएं हैं। फिलहाल अमेरिका की प्रभुत्ववादी सोच का ताजा शिकार ईरान हुआ है। बीते सप्ताह उसके एक कमांडर को अमेरिका ने मार गिराया। उस घटना के बाद ईरान भी बेहद आक्रामक हो उठा है और प्रतिक्रियास्वरूप अनेक अमेरिकी ठिकानों पर उसने भी धावा बोला है। उस वजह से पश्चिम एशिया एक बार फिर युद्ध के कगार पर खड़ा हो गया है। ईरान के साथ अमेरिका का झगड़ा काफी लंबे समय से चला आ रहा है। उसके तेल बेचने पर भी प्रतिबन्ध लगा है। अमेरिका चाहता है ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम बंद कर दे। भारत जैसे कई देशों के साथ उसका तेल को लेकर जो अनुबंध था उसे भी अमेरिका ने बाधित कर दिया। एक समय ऐसा ही उसने सद्दाम हुसैन के विरोध में ईराक के साथ किया था। वाशिंगटन का मकसद इस मामले में बेहद साफ है। वह पश्चिम एशिया की तेल संपदा पर अपना आधिपत्य ज़माने के साथ ही अरब देशों को संगठित होकर पश्चिमी जगत के मुकाबले खड़े नहीं होने देना चाहता। इसके पीछे इस्लामिक वर्चस्व को रोकना भी है। जिस अरब देश ने अमेरिकी हितों के अनुरूप नीति निर्धारित की वह तो सुरक्षित रहा लेकिन जिसने भी उसकी मर्जी के विरुद्ध जाने की हिमाकत की उसका हश्र सद्दाम हुसैन और गद्दाफी जैसा हुआ। आतंकवादी सरगना ओसामा और बगदादी ने बचने का बहुत प्रयास किया लेकिन अंतत: अमेरिका ने उन्हें निशाना बना ही लिया। ईरान के साथ उसका ताजा विवाद पूरी दुनिया के लिए चिंता का कारण बन गया है। ईरान ने भी जो जवाबी तेवर दिखाए हैं उनको देखते हुए पश्चिम एशिया की स्थिति विस्फोटक हो गई है। रूस और चीन ने राष्ट्रपति ट्रंप से जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाने की अपील की है। लेकिन ईरान ने अपने कमांडर की हत्या के बदले में जो कार्रवाई की उसके बाद अमेरिका ने अपनी फौजें पश्चिम एशिया में जमा करना शुरू कर दिया है। यदि लड़ाई छिड़ी तो ईरान कितना टिक सकेगा ये कहना कठिन है किन्तु पूरी दुनिया इस बात से भयभीत है कि वह मरता क्या न करता वाली स्थिति में कहीं परमाणु अस्त्रों का उपयोग न कर दे। लेकिन इस सबसे अलग हटकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो ईरान पर आई मुसीबत भारत के लिए भी बहुत भारी पड़ेगी। सस्ते तेल का अनुबंध तो अमेरिकी दबाव में पहले ही खटाई में पड़ गया। ईरान में चाबहार बंदरगाह बनाकर पाकिस्तान और चीन के ग्वादर बंदरगाह का रणनीतिक जवाब देने की भारतीय योजना भी अधर में लटक गयी। इस वजह से भारत को आर्थिक नुकसान तो हो ही रहा है लेकिन उससे भी बड़ी समस्या ईरान में कार्यरत लाखों भारतीय हैं जो युद्ध के हालात में देश लौटने को मजबूर होंगे। अमेरिका द्वारा की गई आक्रामक कार्रवाई की त्वरित प्रतिक्रियास्वरूप कच्चे तेल के दाम बढऩा अवश्यंभावी है जिसका जबर्दस्त दुष्प्रभाव पहले से मंदी की मार झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़े बिना नहीं रहेगा। उल्लेखनीय है भारत अपनी जरूरत का लगभग 85 फीसदी कच्चा तेल आयात करता है। ईरान उसका बड़ा आपूर्तिकर्ता रहा है और उसके साथ हमारे कारोबारी और कूटनीतिक रिश्ते भी बहुत ही आत्मीय रहे हैं। ऐसे में अमेरिका द्वारा उत्पन्न संकट में भारत को बहुत ही संतुलित दृष्टिकोण के साथ आगे बढऩा पड़ रहा है। अमेरिका के साथ भी मोदी सरकार ने काफी अच्छे सम्बन्ध विकसित कर लिए हैं। ये देखते हुए विदेश नीति के लिए भी यह कठिन परीक्षा की घड़ी है। क्योंकि हमारे आर्थिक और कूटनीतिक हितों के साथ ही लाखों भारतीय अप्रवासियों का भविष्य भी इस संकट से प्रभावित होगा। ईरान और अमेरिका दोनों से मधुर रिश्तों के बाद भी भारत इस स्थिति में नहीं है कि वह दोनों के बीच सुलह करवा सके। अमेरिका में इस वर्ष राष्ट्रपति चुनाव होना है। डोनाल्ड ट्रंप दोबारा मैदान में उतरने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे में वे इस संकट में पीछे नहीं हटेंगे। लेकिन नौबत युद्ध की आती है या केवल छुटपुट तनाव बना रहेगा ये कोई नहीं बता सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर को समूचे घटनाक्रम पर पैनी नजर रखनी होगी क्योंकि ईरान में लगी आग से भारतीय हितों के झुलसने का खतरा भी कम नहीं है। इस्लाम के नाम पर होने वाला आतंकवाद नए सिरे से सामने आ जाये तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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