Tuesday 21 January 2020

नड्डा : चुनौतियां स्वागत में खड़ी हैं



भारतीय जनता पार्टी ने जगत प्रकाश नड्डा को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। पार्टी को सफलता के शिखर तक पहुंचाने वाले अमित शाह ने उन्हें संगठन का कार्यभार सौंपा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निकटतम सहयोगी और भरोसेमंद होने से यदि श्री शाह चाहते तो पार्टी के संविधान में मनमाफिक बदलाव करते हुए संगठन पर अपना कब्जा बनाये रख सकते थे। पार्टी के भीतर भी ये कहने वाले कम नहीं हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी ने उस पर पूरी तरह कब्जा जमा लिया है। लालकृष्ण आडवाणी और डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठों को किनारे बिठा देने के कारण भी इस जोड़ी को खूब आलोचना झेलनी पड़ी। जब श्री नड्डा को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया तब भी कुछ लोगों का ये कयास था कि पार्टी को श्री शाह ही अपनी उंगलियों पर नचाते रहेंगे। हालांकि राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से श्री नड्डा को श्री शाह से वरिष्ठ कहा जा सकता है क्योंकि जब श्री शाह गुजरात में ही सीमित थे तब श्री नड्डा भाजपा की युवा इकाई भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर देशव्यापी पहिचान अर्जित कर चुके थे। 2014 के पहले जब श्री मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया उसके बाद वे श्री शाह को पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में लाये। 2014 की चुनावी सफलता को जहां श्री मोदी के व्यक्तित्व का जादू माना गया , उतनी ही श्री शाह की कुशल रणनीति की भी प्रशंसा हुई। विशेष तौर पर उप्र और बिहार में भाजपा की अकल्पनीय सफलता के बाद तो श्री शाह चाणक्य कहे जाने लगे। पूर्वोत्तर राज्यों में पार्टी का जो विस्तार उनके कार्यकाल में हुआ वह आश्चर्यजनक था। भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनाकर उन्होंने विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाया। हालांकि 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा को दिल्ली और बिहार में मुंह की खानी पड़ी लेकिन उसके बाद उप्र की बाजी जीतकर श्री शाह ने अपना दबदबा बनाये रखा। उसके बाद गुजरात की फीकी जीत, कर्नाटक में हाथ आई बाजी खिसकने और फिर मप्र, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में मिली हार से मोदी - शाह की जोड़ी की क्षमता पर संदेह के बादल मंडराने लगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में 2004 को दोहराए जाने की बात भी होने लगी लेकिन तमाम आशंकाओं को झुठलाते हुए जब मोदी सरकार पहले से ज्यादा ताकत के साथ लौटी तो श्री मोदी के साथ ही श्री शाह का कद भी आसमान छूने लगा। वे मंत्रीमण्डल के सदस्य बने और गृह जैसा महत्वपूर्ण विभाग उन्हें दिया गया। चंद महीनों के भीतर उन्होंने जो बड़े कारनामे कर दिखाए उनकी वजह से उन्होंने संगठन से निकलकर एक दमदार शासक के रूप में भी अपनी धाक जमा ली। देश की राजनीति में वे प्रधानमंत्री के बाद सबसे ज्यादा चर्चित व्यक्ति बन बैठे। ऐसे समय उनका पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ देना उन पार्टियों के लिए एक संदेश है जहां संगठन पर कुछ व्यक्तियों और परिवार का स्थायी कब्जा है। यदि वामपंथियों को छोड़ दें तो शायद ही कोई पार्टी होगी जहां सत्ता और संगठन के सबसे ताकतवर लोग इस तरह से पद छोड़ते हों। कुछ लोगों का सोचना है कि श्री नड्डा तो दिखावटी रहेंगे तथा आगे भी नियंत्रण श्री शाह का रहेगा। लेकिन ऐसा होता तब मोदी-शाह की जोड़ी श्री नड्डा जैसे अनुभवी और सफल संगठनकर्ता की बजाय किसी ऐसे व्यक्ति की आगे कर देती जो जनधारविहीन हो। उल्लेखनीय है उप्र के चुनाव में बतौर प्रभारी श्री नड्डा ने बहुत ही शानदार काम किया था जिसके बाद से ही उनको भविष्य के नेता के तौर पर देखा जाने लगा। बहरहाल उन जैसे अनुभवी और सुलझे हुए व्यक्ति को पार्टी की कमान सौंपकर भाजपा ने नेतृत्व की निरंतरता को सिद्ध कर दिया जिसका कांग्रेस में घोर अभाव है। देश की सबसे बड़ी पार्टी ने बीते दो दशक में कुल जमा दो अध्यक्ष ही देखे जो माँ - बेटे ही हैं। नेतृत्व के अभाव की सबसे बड़ी बानगी बीती मई में लोकसभा चुनाव की जबरदस्त हार के बाद राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिए जाने के बाद देखने मिली। कई महीनों की मान-मनौव्वल के बाद भी जब श्री गांधी जिम्मेदारी उठाने राजी नहीं हुए तब ले-देकर फिर से सोनिया गांधी को ही पार्टी का अध्यक्ष बनाना पड़ा। उस दृष्टि से भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर लगातार नये नेतृत्व को आगे आने के अवसर दिए। राष्ट्रीय स्तर पर आज भाजपा ही है जिसके पास त्रिस्तरीय नेताओं की कतार है। लेकिन राज्यों में वह भी कांग्रेस संस्कृति पर चलते हुए ऊपर से नेता थोपने की बुराई से ग्रसित है। जिसके कारण उसे राज्यों में या तो असफलता हाथ लग रही है या सफलता अपेक्षानुसार नहीं रही। प्रदेश स्तर पर जो नेता जमे हैं वे दूसरे को बढ़ते नहीं देखना चाहते। बीते एक -डेढ़ वर्ष में इसीलिए पार्टी को अपने प्रभाव वाले अनेक राज्यों की सत्ता गंवानी पड़ गई। श्री नड्डा के सामने राज्यों में भाजपा को मजबूत बनाने की चुनौती है। उनकी छवि बेशक श्री शाह जैसी नहीं है। लेकिन जैसा पहले कहा गया राष्ट्रीय स्तर पर संगठन का कार्य करने का जो लंबा अनुभव है वह उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। पिछली मोदी सरकार में बतौर वरिष्ठ मंत्री काम करने के कारण वे प्रधानमंत्री के भी विश्वासपात्र रहे हैं। और फिर भाजपा के वैचारिक अभिभावक रास्वसंघ से भी श्री नड्डा करीब से जुड़े हुए हैं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि इसकी वजह है। श्री नड्डा की पहली अग्निपरीक्षा तो फरवरी में होने जा रहे दिल्ली विधानसभा चुनाव में होगी। उसके बाद बिहार और बंगाल जैसी बड़ी चुनौतियां उनके सामने आएंगी। उनके पूर्ववर्ती श्री शाह विपक्षी को उसी के घर में घुसकर ललकारने में यकीन करते थे। श्री नड्डा की शैली कुछ अलग है। लेकिन वे कुशल रणनीतिकार हैं इसलिए अपना रास्ता खुद बना सकते हैं। उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे राज्यों में पार्टी के स्थापित नेताओं द्वारा फैलाई गई गुटबाजी और परिवारवाद को किस तरह रोक पाते हैं। केंद्रीय स्तर पर भाजपा ने विभिन्न स्तर पर नई पौध को विकसित किया लेकिन हर हाल में सफलता की हवस में नई भर्ती को जिस तरह जगह दी गई उससे पार्टी के समर्पित कैडर में भारी नाराजगी है। महाराष्ट्र में मिली हार में इसका बड़ा योगदान रहा। श्री नड्डा को भाजपा में आकर मिलने वाले बरसाती नालों को रोकना होगा। केंद्रीय सत्ता की नाक के नीचे दिल्ली में मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा नहीं होना विचारणीय विषय है। ये कहने में भी कोई बुराई नहीं है कि भाजपा में पूरी तरह न सही लेकिन काफी हद तक सत्ता से जुड़ी बुराइयां घर कर चुकी हैं। इस वजह से पार्टी विथ डिफरेंस का उसका दावा भी अहमियत खोता जा रहा है। महबूबा मुफ्ती से गठबंधन ने उसकी वैचारिक पवित्रता को भी बड़ी चोट पहुंचाई थी। अनुच्छेद 370 हटाने के निर्णय ने उस घाव को बहुत कुछ भर दिया लेकिन निशान उतनी आसानी से नहीं मिट सकते। श्री नड्डा के समक्ष एक चुनौती और भी है। केंद्र सरकार के साहसिक निर्णयों से बौखलाए विपक्ष ने जिस तरह की घेराबन्दी कर रखी है उसका मैदानी स्तर पर समुचित उत्तर देने के लिए विशेष रणनीति बनानी होगी। विशेष रूप से समाचार माध्यमों, शैक्षणिक, सांस्कृतिक संस्थानों में जमे वामपंथी विचारधारा के लोगों द्वारा की गई जबरदस्त मोर्चेबन्दी को तोडऩे वाली उसी स्तर की टीम पार्टी यदि तैयार नहीं कर पाई तब उसके बढ़ते कदम रुक सकते हैं। मोदी सरकार के अनेक अच्छे निर्णयों का अपेक्षित प्रचार नहीं हो पाने का कारण यही है कि वामपंथी दुष्प्रचार की समय रहते काट नहीं तलाशी गई। जामिया मिलिया और जेएनयू में जो हुआ वह इसका प्रमाण है। तीन तलाक पर रोक लगाकर मुस्लिम महिलाओं का समर्थन हासिल करने के दावों को झूठा साबित करते हुए मुस्लिम समाज ने सीएए के विरोध में महिलाओं को आगे कर दिया। श्री शाह पर संगठन और सत्ता दोनों का भार था इसलिए वे जिन मोर्चों पर ध्यान नहीं दे सके उनकी तरफ  श्री नड्डा को विशेष प्रयास करने होंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव की जोरदार सफलता ने जहां भाजपा का हौसला बढ़ाया वहीं उसमें आत्ममुग्धता भी उत्पन्न कर दी है जिसकी वजह से उसके सहयोगी सशंकित हो चले हैं। महाराष्ट्र और झारखंड इसके ताजा उदाहरण हैं। दूसरी तरफ विपक्षी दलों को भी ये लगने लगा है कि यदि वे अभी भी शांत रहे तो उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसलिए वे सब मौका मिलते ही दाना पानी लेकर भाजपा पर चढ़ाई करने में जुटे हैं। वर्तमान माहौल इसका गवाह है। ऐसे में श्री नड्डा को भीतरी बुराइयों और बाहरी खतरों से एक साथ निपटना पड़ेगा। वे जमीन से जुड़े माने जाते हैं तथा विनम्र भी हैं। लेकिन उन्हें ये ध्यान रखना होगा कि पहले वाले खिलाड़ी की धमाकेदार बल्लेबाजी के बाद लोग वैसी ही अपेक्षा अगले खिलाड़ी से भी करते हैं। श्री नड्डा की तुलना भी इसीलिये श्री शाह से ही होगी। ये बात उन पर मानसिक बोझ न बन जाए उससे उन्हें बचना होगा। और फिर भारतीय राजनीति के इस स्थापित सत्य से भी उनका साक्षात्कार होता रहेगा कि सत्ता में रहते हुए पार्टी संगठन पृष्ठभूमि में चला जाता है। उस लिहाज से अमित शाह निश्चित रूप से अपवाद थे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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