Thursday 23 January 2020

सीएए : अदालत के निर्णय की प्रतीक्षा ही विकल्प



सर्वोच्च न्यायालय ने सीएए ( नागरिकता संशोधन कानून ) पर तत्काल रोक लगाने से इनकार करते हुए केंद्र सरकार को जवाब देने हेतु चार सप्ताह का समय दे दिया। तकरीबन 141 याचिकाओं में इस कानून को रद्द करने के साथ ही ये मांग भी थी कि उसके क्रियान्वयन पर फौरन रोक लगाई जावे। याचिकाकर्ताओं की ओर से उपस्थित वरिष्ठ वकीलों ने तर्क दिया कि उप्र में उक्त कानून के लागू होने वाले दिन ही हजारों लोगों को भारत की नागरिकता का प्रमाणपत्र जारी हो गया। यदि भविष्य में न्यायालय द्वारा कानून को रद्द कर दिया गया तब ऐसे प्रमाणपत्रों का क्या होगा? सवाल और भी उठाये गये। याचिकाओं में केरल जैसे राज्य की सरकार भी है। जिन बड़े वकीलों ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में दलीलें दीं उनमें से अधिकतर राजनीतिक तौर पर भी इस क़ानून का विरोध करते आये हैं। बहरहाल चार सप्ताह का समय देकर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को जहां राहत प्रदान की वहीं कानून का विरोध करने वालों के उत्साह पर पानी फेर दिया जो ये मानकर चल रहे थे कि संविधान की मूल भावनाओं के विरुद्ध होने से सर्वोच्च न्यायालय बिना देर किये उक्त क़ानून को लागू किये जाने पर स्थगन आदेश जारी कर देगा। न्यायालय द्वारा याचिकाकर्ताओं की मांग स्वीकार नहीं किये जाने का एक कारण याचिकाओं की बड़ी संख्या भी है। भले ही अधिकतर में एक जैसे मुद्दे शामिल होंगे लेकिन कुछ याचिकाओं में हटकर बातें भी होंगीं। ऐसे में प्रारम्भिक सुनवाई में ही स्थगन जैसा आदेश पारित करना व्यवहारिक तौर पर भी संभव नहीं था। इतने महत्वपूर्ण कानून के क्रियान्वयन पर अंतरिम रोक लगाने जैसा आदेश जारी करने के पहले प्रतिवादी की बात सुनना भी जरूरी था। यदि याचिकाएं कम संख्या में होतीं तब शायद न्यायालय याचिकाकर्ताओं की कुछ मांगों पर तत्काल कोई आदेश पारित कर भी देता किन्तु याचिकाकर्ताओं में कोई तालमेल नहीं होने से सरकार पर दबाव कम हो गया। ये भी लगता है कि कुछ को छोड़कर शेष याचिकाकर्ता गंभीर नहीं हैं। राम मंदिर मामले में भी ये देखने आया था कि अनेक ऐसे व्यक्ति और संस्थान मामले में कूद पड़े जिनका प्रकरण में पहले कभी अता-पता नहीं था। ऐसे याचिकाकर्ता प्रचार पाने के लिये भी अदालत का सहारा लेते हैं। सीएए मामले में भी ऐसा ही होता दिख रहा है। जहां तक इसके विरोध की बात है तो उसके पीछे कानूनी पक्ष कम और राजनीतिक उद्देश्य कहीं ज्यादा है। याचिकाकर्ता भी ये जानते हैं कि संसद द्वारा भारी बहुमत से पारित कानून के बारे में सर्वोच्च न्यायालय बिना समुचित विचार किये बिना कोई फैसला नहीं ले सकेगा लेकिन अपने विरोध को चर्चा में बनाये रखने के लिए अनेक याचिकाकर्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय को जरिया बनाने की चाल चली जो फिलहाल तो विफल हो गयी। एक बात और जो प्रतीत हो रही है वह है याचिकाकर्ताओं में आत्मविश्वास की कमी। एक तरफ जहां केंद्र सरकार सीना ठोककर ये कह रही है कि वह किसी भी कीमत पर इस कानून को वापिस नहीं लेगी वहीं दूसरी तरफ कानून के मैदानी विरोध में विविधता नजर नहीं आ रही। इसकी वजह विरोध का मुस्लिम समुदाय तक केन्द्रित हो जाना है। दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके में मुस्लिम महिलाओं द्वारा बीच सड़क पर बैठे रहकर महीने भर से दिया जा रहा धरना देश भर में चर्चित है। कातिपय समाचार माध्यमों में उसकी तुलना 2012 में दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए लोकपाल आन्दोलन से की जा रही है किन्तु ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं कि अन्ना के उस आन्दोलन पर किसी एक सम्प्रदाय का ठप्पा नहीं लगा था। देश भर में सीएए का जो विरोध सड़कों पर हुआ उसमें मुस्लिम समाज की भूमिका ही उभरकर सामने आई है। राजनीतिक स्तर पर चाहे कांग्रेस और वामपंथी हों या ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, सभी ने इस क़ानून के विरोध में कोई बड़ा जनांदोलन खड़ा करने की बजाय मुस्लिम समाज को भड़काकर पूरा बोझ उसी के कंधे पर डाल दिया। देश भर में जहां-जहां सीएए का उग्र विरोध देखने मिला वहां उसका पूरा बीड़ा मुस्लिम समुदाय ने उठाया। दिल्ली जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में भी जो कुछ हुआ उसके पीछे मुस्लिम छात्र ही ज्यादा थे। ऐसी ही स्थिति अलीगढ़ मुस्लिम विवि के बारे में भी कही जा सकती है। कांग्रेस देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है। उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी पार्टियों की बैठक सीएए का विरोध करने के लिए बुलवाई थी लेकिन वह विपक्षी फूट का प्रतीक बन गयी। संसद के दोनों सदनों में भी जब उक्त कानून पारित हो रहा था तब भी विपक्ष पूरी तरह बिखरा रहा। जिन पार्टियों की राज्य सरकारों ने उक्त कानून को अपने यहां प्रभावशील नहीं होने देने की बात कही उनमें से भी कुछ ने संसद में या तो उसका समर्थन किया या फिर मतदान के समय अनुपस्थित रहकर सरकार की मदद की। हाल ही में कपिल सिब्बल ने भी खुलकर ये बात स्वीकार की थी कि संसद द्वारा पारित क़ानून को लागू नहीं किये जाने जैसी बात गलत है बशर्ते सर्वोच्च न्यायालय उसे रद्द कर दे। लोकतंत्र में विरोध की अनुमति तो हर किसी को है लेकिन उसकी दिशा सही न हो तो वह असर खो देता है। नागरिकता कानून के बारे में भ्रम का वातावरण बनाकर मुस्लिम समाज को कांग्रेस और वामपंथियों ने बलि का बकरा बना दिया और खुद कोरी बयानबाजी करने लगे। शाहीन बाग़ और देश के दूसरे हिस्सों में हो रहे वैसे ही आन्दोलन ऐसे मोड़ पर आकर फंस गए हैं जहां से आगे बढना कठिन है वहीं कदम पीछे खींचना भी आत्मघाती होगा। सबसे बड़ी बात ये है कि राजनीतिक पार्टियां परदे के पीछे से भले माहिलाओं की पीठ थपथपा रही हैं लेकिन सामने आकर समर्थन करने की हिम्मत उनकी भी नहीं हो रही। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नागरिकता संशोधन क़ानून पर स्थगन नहीं दिए जाने के बाद मुस्लिम समाज को उन राजनीतिक पार्टियों के षडय़ंत्र को समझना चाहिए जो उन्हें अग्रिम मोर्चे पर तैनात कर खुद दायें-बाएं हो गईं। बंगाल में ममता बैनर्जी सबसे ज्यादा इस क़ानून के विरोध में सक्रिय हैं लेकिन कांग्रेस और वामपंथी वहां भी आपनी अलग खिचड़ी पका रहे हैं। इसी तरह शाहीन बाग में बैठी मुस्लिम महिलाओं को धरना स्थल पर जाकर संबल देने की हिम्मत किसी भी विपक्षी पार्टी द्वारा इसलिए नहीं दिखाई जा रही क्योंकि दिल्ली विधानसभा के चुनाव में कहीं हिन्दू मतदाता उनसे छिटक न जाएं। मुस्लिम समाज को ये बात कम से कम अब तो समझ लेनी चाहिए कि वह जाने अनजाने एक बार फिर राजनीति के कुचक्र में फंसकर रह गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को चार सप्ताह आगे बढ़ा दिया है। सरकार का जवाब आने के बाद 141 याचिकार्ताओं के वकील बहस करेंगे। भारतीय न्याय व्यवस्था में ऐसे महत्वपूर्ण मामलों में अदालत भी जल्दबाजी नहीं दिखाती। यदि बहस लम्बी खिंची तब हो सकता है सर्वोच्च न्यायालय का ग्रीष्मावकाश आ जाए। ऐसे में बेहतर होगा सीएए के विरोधी अब संयम से काम लेते हुए न्यायालयीन प्रक्रिया का इन्तजार करें क्योंकि जब मामला देश की सर्वोच्च अदालत के समक्ष लंबित हो तब सड़क पर संघर्ष करने का कोई औचित्य नहीं बच रहता। वैसे भी हफ्ते भर बाद से संसद का बजट सत्र शुरू हो रहा है जिसमें विपक्ष अपनी बात रख सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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