Tuesday 30 April 2024

भाजपा : पार्टी की छवि दो - चार सीटों से ज्यादा कीमती है

कसभा चुनाव के दो चरण पूरे होते - होते कर्नाटक की राजनीति में बड़ा तूफा़न आ गया। जनता दल (से.) के सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा के पौत्र प्रज्ज्वल रेवन्ना पर  महिलाओं का यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगते ही काँग्रेस सहित समूचा विपक्ष आक्रामक हो उठा ।  प्रज्ज्वल के पिता रेवन्ना भी विधायक हैं। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री कुमार स्वामी उनके चाचा हैं। प्रज्ज्वल इस चुनाव में हासन से उम्मीदवार हैं जिन्हें भाजपा का समर्थन प्राप्त है। यौन उत्पीड़न का खुलासा होते ही वे जर्मनी भाग गए। मामले ने जोर पकड़ा  तब कुमार स्वामी ने भतीजे को पार्टी से निलम्बित कर दिया। भाजपा ने हालांकि इस मामले से खुद को पूरी तरह पृथक कर लिया है किंतु  जनता दल (से.) से गठबंधन होने से छींटे उसके दामन पर भी पड़ रहे हैं। उल्लेखनीय है  पार्टी के ही कुछ नेताओं द्वारा प्रज्ज्वल को समर्थन देने का विरोध प्रदेश और केंद्रीय नेतृत्व से किया था। बात श्री देवगौड़ा तक पहुंची तो उन्होंने भाजपा को  पोते को जिताने का आश्वासन देकर विरोध शांत करवा दिया। यद्यपि जिन अश्लील वीडियो में प्रज्ज्वल के काले कारनामे  हैं वे वर्षों पुराने बताये जाते हैं। पहले जब ये उजागर हुए तब अदालत ने मीडिया को उन्हें जारी करने से रोक दिया था। लेकिन इस बार उनके विरुद्ध प्रकरण दर्ज करते हुए राज्य सरकार ने विशेष जाँच दल गठित कर दिया है। देवगौड़ा परिवार इसे राजनीतिक षडयंत्र बताने के बावजूद  जाँच में सहयोग का  आश्वासन देते हुए दोषी पाए जाने पर यथोचित दंड दिये जाने की बात कह रहा है।  देश के वर्तमान राजनीतिक वातावरण में इस तरह के दांव - पेच आये दिन देखने  -- सुनने मिलते हैं। चूंकि सभी पार्टियां इस तरह के आरोपों से घिरती रहती हैं इसलिए कुछ दिनों की सनसनी के बाद मामला टांय - टांय फुस्स होकर रह जाता है। म.प्र में कई साल से सीडी कांड चर्चा में है। भाजपा और काँग्रेस दोनों एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करते रहे। काँग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने तो सीडी उनके पास होने का दावा भी किया किंतु सत्ता में रहते हुए वे उस मामले पर पड़ा पर्दा नहीं उठा सके। चूँकि शक के दायरे में कुछ वरिष्ट नौकरशाह भी हैं लिहाजा जांच अंजाम तक शायद ही पहुँच सके। कर्नाटक कांड में काँग्रेस का हमलावर होना स्वाभाविक है । चुनाव के बीच भाजपा और उसके सहयोगी को घेरने का अवसर भला वह हाथ से क्यों जाने देगी? उसकी जगह भाजपा होती तब वह भी यही तेवर दिखाती।  रोचक बात ये है कि जिस महिला ने यौन शोषण का आरोप लगाया उसने प्रज्ज्वल और उनके पिता दोनों को घेरा है। ये भी स्मरणीय है 2018 में कुमार स्वामी काँग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने थे।  प्रज्ज्वल द्वारा बनाये कुछ कथित वीडियो यदि उस समय के निकले तब काँग्रेस क्या जवाब देगी ये भी बड़ा सवाल है। लेकिन मौजूदा समय में चूंकि जनता दल (से.) भाजपा का सहयोगी है इसलिए आरोपों के तीर उसे भी झेलने पड़ेंगे। भाजपा इस मामले में सीधे तो शामिल नहीं है किंतु उसके अपने नेता द्वारा प्रज्ज्वल की करतूतें उजागर कर दिये जाने के बावजूद उसकी उम्मीदवारी को सहन कर लेना पार्टी के उच्च नेतृत्व की गलती है। उसे श्री देवगौड़ा से दो टूक कहना चाहिए था कि उनके पोते पर जो आरोप हैं उनकी वजह से उसकी छवि पर भी आंच आयेगी । लिहाजा वे हासन सीट से किसी और को लड़ाये। यदि वे ना - नुकूर करते तब बड़ी पार्टी होने के नाते उसे गठबंधन तोड़ने का दबाव बनाना था। लेकिन विधानसभा चुनाव  में बुरी तरह हारने के बाद भाजपा कर्नाटक को लेकर ज्यादा ही भयभीत हो गई और उसने आनन-फ़ानन में जनता दल (से.) से गठबंधन कर लिया जबकि कुमार स्वामी उसे पहले भी धोख़ा दे चुके थे। हालांकि इस तरह के समझौते उसने देश भर में किये जिससे उसके अपने घर में नाराजगी तो है ही पार्टी विथ डिफरेंस के दावे के कारण उसके समर्थक बने वर्ग में भी निराशा है। वर्तमान चुनाव में भाजपा विरोधी विश्लेषक भी मान बैठे हैं कि अंततः आयेंगे तो मोदी ही। ऐसे में पार्टी को चाहिए वह उस छवि को सुरक्षित रखे जिसके दम पर वह शून्य से शिखर तक पहुंची है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों की आलोचना करने वाले भी उन पर व्यक्तिगत आरोप नहीं लगा पाते। 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गाँधी द्वारा चौकीदार चोर है का  हल्ला मचाकर श्री मोदी को घेरने का जो अभियान चलाया गया उसे जनता ने पूरी तरह से नकार दिया था। लेकिन उनकी छवि के साथ ही  आवश्यक है कि पार्टी का चेहरा और  दामन भी साफ हो। प्रज्ज्वल कांड में  भाजपा को खुलकर अपनी नीति स्पष्ट करनी चाहिए। यदि उसे जनता दल (से.) से गठबंधन तोड़ना भी पड़े तो संकोच न करे क्योंकि पार्टी की छवि दो - चार सीटों के फायदे से ज्यादा कीमती है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 29 April 2024

दिल्ली काँग्रेस में दंगल से गठबंधन की दरारें नजर आने लगीं


दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने गत दिवस अपने पद से त्यागपत्र देकर सनसनी मचा दी। उनके पहले पूर्व मंत्री राजकुमार चौहान पार्टी को  अलविदा कह चुके हैं। दोनों की नाराजगी आम आदमी पार्टी से चुनावी गठबंधन के अलावा उदित राज और कन्हैया कुमार को टिकिट दिये जाने पर है। उल्लेखनीय है कि 2019 में काँग्रेस  दिल्ली की सातों सीटों पर दूसरे स्थान पर थी किंतु आम आदमी पार्टी ने इस बार उसको तीन सीटें ही दीं। इस गठजोड़ का दिल्ली के साथ ही पंजाब के कांग्रेसी नेता शुरू से विरोध करते आ रहे थे। दिल्ली के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन भी अपनी असहमति जताते रह गए। लेकिन जिस काँग्रेस ने सबसे पहले केजरीवाल सरकार की शराब नीति में भ्रष्टाचार की शिकायत की थी वही उनके सामने नत मस्तक हो गई। पंजाब में तो आम आदमी पार्टी ने काँग्रेस को एक भी सीट नहीं दी जबकि दिल्ली में उसने 4 सीटों पर दावा ठोककर काँग्रेस को शर्मिंदगी झेलने बाध्य कर दिया। श्री माकन तो राज्यसभा सदस्य बनाये जाने के बाद से सार्वजनिक तौर पर  बोलने से कतरा रहे हैं लेकिन श्री लवली और श्री चौहान के त्यागपत्र से स्पष्ट हो गया कि  असंतोष का ज्वालामुखी धधक रहा है।  त्यागपत्र में श्री लवली ने शराब नीति घोटाले में दिल्ली के मुख्यमंत्री सहित अनेक बड़े नेताओं के जेल जाने का मुद्दा उठाते हुए कहा कि आम आदमी पार्टी से निकटता आत्मघाती है। हालांकि काँग्रेस  इस मोड़ पर गठबंधन  तोड़ने का साहस शायद ही दिखा सकेगी किंतु इसके कारण दिल्ली में उसको  नुकसान झेलना पड़ रहा है । पार्टी नेताओं का गुस्सा इस बात पर है कि अरविंद केजरीवाल ने राजनीति की शुरुआत काँग्रेस और उसके नेताओं को भ्रष्ट प्रचारित करने से ही की थी। पूर्व मुख्यमंत्री स्व.शीला दीक्षित उनका मुख्य निशाना रहीं। लेकिन त्रिशंकु विधानसभा बनी तब कांग्रेस ने ही आम आदमी पार्टी की सरकार को समर्थन देकर श्री केजरीवाल की ताजपोशी करवाई । हालांकि वह गठजोड़ ज्यादा नहीं चला। उसके बाद यमुना में बहुत पानी बह चुका है। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के बाद पंजाब में भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। लेकिन इंडिया गठबंधन बनने पर दोनों में नजदीकियां बढ़ने लगीं। यही वजह है कि जिस काँग्रेस ने शराब घोटाले में मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी का स्वागत किया वही अब श्री केजरीवाल की गिरफ्तारी का विरोध कर रही है। इस दोहरे रवैये से दिल्ली के साथ ही पंजाब के कांग्रेसजन असमंजस में हैं। दरअसल भाजपा के अंध विरोध में आम आदमी पार्टी के साथ गलबहियाँ करने की नीति के कारण कांग्रेस अपनी जड़ों में मठा डालने की मूर्खता कर रही है। पूर्व सांसद संदीप दीक्षित भी बेहद नाराज हैं। जैसी खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक उदित राज टिकिट मिलने से पहले तक काँग्रेस का उपहास कर रहे थे। इसी तरह कन्हैया अपने पोस्टरों में काँग्रेस नेताओं के बजाय श्री केजरीवाल का फोटो और उनकी सरकार के काम प्रचारित कर रहे हैं।  राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते दिल्ली की हर घटना का राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञान लिया जाता है। इसीलिए श्री लवली के इस्तीफे और उसमें उठाये गए मुद्दों का असर दिल्ली के साथ ही पंजाब और अन्य पड़ोसी राज्यों पर पड़ना तय है। आम आदमी पार्टी भले ही इसे काँग्रेस का आंतरिक मामला कहकर टिप्पणी से बच रही हो किंतु श्री लवली  के इस्तीफे से यह  आशंका मजबूत हो रही है कि काँग्रेस और आम आदमी पार्टी के वोट एक दूसरे को नहीं मिलेंगे।  हालांकि  उन्होंने काँग्रेस में बने रहने की बात कही है किंतु जिस आसानी से उनका इस्तीफा मंजूर किया गया उसके बाद वे हाशिये पर जा सकते हैं। और उस स्थिति में   समर्थकों सहित पार्टी छोड़ दें तो आश्चर्य नहीं होगा,। इस उथल - पुथल  से  इंडिया गठबंधन की दरारें सामने आ गई है। भले ही श्री लवली राष्ट्रीय स्तर के नेता न हों किंतु आला नेतृत्व की अपने नेताओं के साथ संवादहीनता पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। बीते कुछ सालों के भीतर जितने भी नेताओं ने पार्टी छोड़ी उनमें से ज्यादातर की शिकायत यही रही कि ऊपर बैठे नेता उनकी सुनते नहीं है। जिन नेताओं को प्रदेश का प्रभार दिया जाता है वे भी  प्रादेशिक नेतृत्व को ठेंगे पर रखते हैं। दिल्ली में हुए बवाल में भी प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया  को जिम्मेदार बताया जा रहा है। आलाकमान की नाक के नीचे समय रहते जब स्थिति को नहीं संभाला जा सका तब बाकी जगहों पर क्या होता होगा ये अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 April 2024

आगामी चरणों में भी मत प्रतिशत कमोबेश ऐसा ही रह सकता है


लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण में भी मतदान का प्रतिशत कम रहने से राजनीतिक दल तो परेशान हैं ही चुनाव विश्लेषक और सर्वेक्षण करने वाली पेशेवर एजेंसियां भी भौचक हैं। यद्यपि त्रिपुरा, मणिपुर, असम, छत्तीसगढ़, प. बंगाल, असम और जम्मू कश्मीर में 70 फीसदी से अधिक मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया । इनके  अलावा केरल, कर्नाटक और राजस्थान में 60 प्रतिशत से ज्यादा मत पड़े किंतु म.प्र , उ.प्र, महाराष्ट्र और बिहार 60 प्रतिशत का आंकड़ा भी न छू सके।  सभी राज्यों की स्थिति और समीकरण एक जैसे नहीं होने से मतदान का प्रतिशत अलग - अलग होना स्वाभाविक है। चुनाव मैदान में उतरीं तमाम पार्टियाँ घटते मतदान में भी अपने लिए उम्मीद की किरणें तलाशने में जुटी हैं। भाजपा को लगता है उसके प्रतिबद्ध मतदाताओं ने घरों से निकलकर उसकी जीत को पुख्ता कर दिया। इसके विपरीत विपक्ष यह प्रचार करने में जुटा है कि मत प्रतिशत गिरने के पीछे मोदी सरकार से मतदाताओं का मोह भंग हो जाना ही एकमात्र कारण है। लेकिन ये भी देखने वाली बात  है कि विपक्ष द्वारा शासित राज्यों में भी मतदान के प्रति रुचि कम हुई है। तो क्या कम मतदान के लिए राज्य सरकार के प्रति गुस्से को भी  वजह माना जा सकता है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और पार्टी के एक अन्य नेता शशि थरूर के निर्वाचन क्षेत्र क्रमशः वायनाड और तिरुवनंतपुरम में भी 2019 की तुलना में मत प्रतिशत अच्छा खासा गिरा। संयोग से वहाँ कांग्रेस के अलावा वामपंथी और भाजपा भी मैदान में हैं। राज्य में सरकार वाम मोर्चे की है वहीं केंद्र में भाजपा काबिज है। ऐसे में केरल में मत प्रतिशत कम होने को किसके प्रति नाराजगी मानी जाए ये यक्ष प्रश्न है। श्री गाँधी और श्री थरूर के विरोधी प्रत्याशियों के अनुसार ये उन दोनों सांसदों के प्रति मतदाताओं की नाराजगी भी हो सकती है। वैसे  राजनीतिक दलों के नजरिये से देखें तो कम मतदान उनके विरोधी के लिए नुकसानदेह है। विपक्ष इसमें अपना फ़ायदा देख रहा है वहीं सत्ता में बैठी पार्टी की नजर में केवल उसी के समर्थक मत देने निकले । 2019  की तुलना में मत प्रतिशत के कम होने के लिए यदि गर्मी को कारण मानें तो पिछले दो - तीन लोकसभा चुनाव इसी मौसम में हुए थे। इसी तरह शादियों को बहाना बनाएं तो अखबारों में दूल्हा - दुल्हन तक के चित्र मतदान करते देखे जा सकते हैं। म.प्र में  रीवा सीट पर मत प्रतिशत सबसे कम होने के पीछे बड़ी संख्या में बच्चों के मुंडन होना बताया जा रहा है।  दूसरे चरण के साथ लंबे समय के लिए हिन्दू विवाहों का मुहूर्त भी रुक गया है, ऐसे में उत्तर भारत में अगले चरणों में मतदान का प्रतिशत बढ़ना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तब अनुमानों के घोड़ों को दिशा देना और कठिन हो जायेगा। बहरहाल एक बात तो तय है कि विपक्ष मतदाताओं में उत्साह जगाने में विफल है। इसका कारण ये है कि वह अपनी नीति और नेता स्पष्ट नहीं कर पाया। हालांकि भाजपा भी किसी बड़े मुद्दे को उठाने में सफल नहीं हो सकी किंतु कुछ बातें उसके पक्ष में जाती हैं। पहली तो प्रधानमंत्री के चेहरे को लेकर एनडीए में कोई अनिश्चितता नहीं है। दूसरी वह  अपने नीतिगत मुद्दों को खुलकर व्यक्त कर रही है। जबकि विपक्ष इस मामले में  ढुलमुल नजर आता है। ममता बैनर्जी और केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन जिस तरह कांग्रेस पर हमले कर रहे हैं उससे विपक्षी एकता पर अंगुलियाँ उठ रही हैं।  भाजपा का संगठन और चुनाव लड़ने की पेशेवर शैली उसकी बड़ी ताकत है। लेकिन सबसे बड़ी बात जिसके आधार पर मोदी सरकार की वापसी तय मानी जा रही है वह है उसके द्वारा विपक्ष पर बना दिया गया मनोवैज्ञानिक दबाव। उसी के कारण कांग्रेस के प्रतिबद्ध मतदाताओं तक में निराशा देखने मिल रही है। भाजपा बीते दोनों चुनावों में स्पष्ट बहुमत लाने में सफल रही जबकि कांग्रेस तो 50 सीटों के करीब आ गई। ऐसे में उससे ऊंची छलांग की उम्मीद  नहीं दिखाई दे रही। इंडिया गठबंधन भी ये प्रदर्शित नहीं कर सका कि उसका झंडाबरदार कौन है? आगामी चरणों में हो सकता है मत प्रतिशत थोड़ा बढ़ जाए। लेकिन वह 2019 के स्तर को नहीं छू सकेगा क्योंकि विपक्ष की मिसाइलें निशाने से भटक रही हैं। वास्तविकता यह है कि भारत का चुनाव अब चेहरे पर केंद्रित होने लगा है और विपक्ष इस मामले में शुरू से ही कमजोर साबित हो रहा है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 26 April 2024

तो अखिलेश सीटों के लिए राहुल के सामने गिड़गिड़ाते


उ.प्र की रायबरेली और अमेठी लोकसभा सीटें गाँधी परिवार के गढ़ के तौर पर प्रसिद्ध रही हैं। हालांकि 2019 में राहुल गाँधी अमेठी में हार गए थे। पराजय की आशंका के चलते वे केरल की वायनाड सीट से भी लड़े और जीत हासिल की।  इस बार अब तक अमेठी से उनके लड़ने का कोई संकेत नहीं मिला था। रायबरेली से उनकी माँ सोनिया गाँधी सांसद रहीं किंतु अब वे राज्यसभा में आ गईं। लिहाजा उनकी सीट पर उम्मीदवारी भी अनिश्चित बनी रही। अखिलेश यादव ने कांग्रेस को राज्य की जो 17 सीटें समझौते में  दी उनमें उक्त दोनों सीटें भी हैं। पहले भी सपा और बसपा इन सीटों पर प्रत्याशी खड़ा नहीं करती थीं । आज वायनाड में मतदान हो रहा है। कांग्रेस से जुड़े सूत्रों के अनुसार इसके बाद अमेठी और रायबरेली से कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर राहुल और प्रियंका को उतारा जा सकता है। अब तक ये निर्णय इसलिए रुका रहा ताकि वायनाड में गलत संदेश न जाए। ये चर्चा भी सुनने में आती रही कि राहुल  , अमेठी से लड़ने के प्रति उदासीन हैं। हारने के बाद वे महज 2 बार उस क्षेत्र में गए। इधर प्रियंका का नाम रायबरेली से उछलता रहा है किंतु विधानसभा चुनाव में उ.प्र की प्रभारी के तौर पर उनका प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा। रायबरेली का गढ़ भी ढह गया। हाल के वर्षों में गाँधी परिवार के अनेक पुराने वफादार पाला बदलकर यहाँ - वहाँ चले गए। स्वास्थ्य अच्छा न होने से सोनिया जी का भी संपर्क अपने निर्वाचन क्षेत्र में कम होता चला गया। इसी कारण भाजपा ये दावा करने लगी थी कि इस बार उक्त दोनों सीटें वह जीत लेगी। उसी के बाद कांग्रेस में यह मंथन शुरू हुआ कि इन सीटों पर गाँधी परिवार के सदस्य को ही उतारा जाए। अब विचार इस बात पर चल रहा है कि भाई कहाँ से लड़े और बहिन कहाँ से ? वैसे ये किसी  भी  राजनीतिक दल का निजी मामला है कि किस सीट से वह किसे लड़ाए। उस दृष्टि से गाँधी परिवार का कोई सदस्य यदि रायबरेली और अमेठी से लड़ाया जाता है तो इसमें अटपटा कुछ भी नहीं किंतु एक बात अवश्य खटकने वाली है कि लंबे समय से उक्त सीटों पर काबिज रहने के बाद भी गाँधी परिवार ने काँग्रेस के किसी भी कार्यकर्ता को इतना सक्षम नहीं बनने दिया जो इस सीट को बचाकर रख सके। रायबरेली से सोनिया जी का न लड़ना काफी पहले से तय था किंतु आज तक पार्टी ये तय न कर सकी कि उनका विकल्प कौन होगा? अमेठी से  हारने के बाद राहुल ने एक तरह से मुँह ही फेर लिया। यदि वे वहाँ नहीं लौटना चाहते थे तब भी काँग्रेस को किसी नये उम्मीदवार को तैयार करना था। लेकिन उस बारे में कोई प्रयास नहीं हुआ। और अब उनके वहां  से लड़ने की चर्चा महज इसलिए जोर पकड़ रही है कि और कोई जीत हासिल नहीं कर सकेगा। हालांकि ये स्थिति केवल रायबरेली और अमेठी की नहीं अपितु देश भर में दर्जनों सीटों की है जो कुछ नेताओं और उनके परिवार की निजी जागीर बन चुकी हैं। प्रजातंत्र के लिहाज से ये बेहद चिंतनीय और राजनीतिक दलों के प्रभाव में विचारधारा के महत्वहीन होने का प्रमाण है। कुछ सीटें  दिग्गज नेताओं के नाम मानो लिख दी गई हैं। उनके अलावा दूसरा कोई उनका परिजन ही हो सकता है। उ.प्र में काँग्रेस जिस दयनीय स्थिति में है उसके लिए गाँधी परिवार ही जिम्मेदार है क्योंकि सोनिया जी और राहुल तो सपा और बसपा का समर्थन लेकर अपनी नैया पार लगाते रहे किंतु बाकी प्रत्याशियों को डूबने छोड़ दिया जाता था। 2019 में राहुल भले ही अमेठी से हार गए किंतु उन्हें वहाँ सम्पर्क बनाये रखते हुए नया नेतृत्व तैयार करना था। उल्लेखनीय है 2014 में स्मृति ईरानी इस सीट के लिए अपरिचित चेहरा थीं। कड़े संघर्ष में हारने के बाद वे अगले पाँच वर्ष तक वहाँ आती - जाती रहीं और अंततः राहुल को हराकर ही दम ली। लेकिन श्री गाँधी ने अमेठी से दूरी बना ली। जबकि होना यह चाहिए था कि वे उसके साथ ही उ.प्र की बाकी सीटों पर पार्टी को ताकतवर बनाने के लिए परिश्रम करते। लेकिन वे यात्राओं में अपनी शक्ति और समय लगाते रहे। नतीजा ये हुआ कि 80 सीटों वाले देश के सबसे बड़े राज्य में उनकी पार्टी को एक क्षेत्रीय दल द्वारा खींची गई सीमा रेखा में सिमटना पड़ा। रायबरेली और अमेठी में काँग्रेस का प्रत्याशी कौन होगा ये वायनाड में मतदान के बाद तय करना तो रणनीति का हिस्सा हो सकता है किंतु ये मान लेना कि वहाँ से एक  परिवार ही जीत सकेगा पार्टी की वैचारिक विपन्नता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। कहते हैं दिल्ली की सत्ता का रास्ता उ.प्र होकर जाता है। इसीलिए नरेंद्र मोदी ने गुजरात से आकर वाराणसी को अपना क्षेत्र बनाया। राहुल ने भी यदि बीते पाँच वर्ष उ.प्र में मेहनत की होती तब गठबंधन में काँग्रेस का हाथ ऊंचा होता और अखिलेश यादव उनसे सीटों के लिए गिड़गिड़ाते। 


-  रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 25 April 2024

2024 के चुनाव में 1971 वाले फार्मूले काम नहीं आएंगे

काँग्रेस नेता राहुल गाँधी देश में संपत्ति का सर्वे करवाकर उसके समान वितरण का मुद्दा उठाते फिर रहे हैं। शायद उनको अपनी स्व.दादी इंदिरा गाँधी याद आ गईं जिन्होंने 1971 का लोकसभा चुनाव गरीबी हटाओ के नारे पर जीत लिया था। हालांकि उसके पहले वे बैंक राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स समाप्त करने जैसे कदम उठा चुकी थीं। कांग्रेस में विभाजन के बाद श्रीमती गाँधी ने सोवियत  संघ से निकटता बढ़ाई और खुद को समाजवादी विचारधारा से जोड़कर पेश किया। इसीलिए उनको वामपंथी पार्टियों और विचारकों का समर्थन भी मिला। ऐसा लगता है संपत्ति का राष्ट्रीय सर्वे करवाने का शिगूफा छोड़कर श्री गाँधी उन उद्योगपतियों को घेरना चाह रहे हैं जिनकी  वे आये दिन आलोचना करते हैं। उनकी इस बात पर बहस चल ही रही थी कि उनके सलाहकार और कांग्रेस के ओवरसीज विभाग के प्रमुख सैम पित्रोदा ने विरासत में मिलने वाली संपत्ति को लेकर बयान दे डाला  कि अमेरिका में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति का 55 फीसदी सरकार के पास चला जाता है जबकि महज 45 फीसदी उत्तराधिकारियों को मिलता है। जबकि भारत में पूरे हिस्से पर वारिसों का अधिकार होता है। राहुल की बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने गरीबों के हाथ में पैसा देने की वकालत भी की। उनका बयान से मानो भाजपा को मुँह मांगी मुराद मिल गई। उसने श्री पित्रोदा के बहाने काँग्रेस को घेरना शुरू कर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी  कांग्रेस को लोगों की दौलत छीनने वाली पार्टी बता दिया। और कोई समय होता तब शायद कांग्रेस जवाब देने में इतनी तत्परता न दिखाती किंतु लोकसभा चुनाव  जारी रहने की वजह से उसे बचाव के लिए आगे आना पड़ा। पार्टी  प्रवक्ता जयराम रमेश ने श्री पित्रोदा के बयान को उनकी निजी राय बताते हुए उससे पल्ला झाड़ लिया। उल्लेखनीय है सैम को भारत में संचार क्रांति का जनक माना जाता है। स्व राजीव गाँधी के शासनकाल में उनकी सलाह और मार्गदर्शन में ही मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट  जैसी चीजें शुरू हुईं थीं। पेशेवर  दक्षता के लिहाज से श्री पित्रोदा निश्चित तौर पर योग्य  हैं किंतु काँग्रेस से सीधे जुड़ जाने की वजह से अब उनकी छवि बदल चुकी है। हालिया सालों में  राहुल के विदेशी दौरों की व्यवस्था उन्हीं के द्वारा की जाती रही है। ऐसे में विरासत में मिली संपत्ति का बड़ा हिस्सा सरकार को मिलने जैसे बयान से कांग्रेस पूरी तरह खुद को अलग कैसे कर सकती है जबकि उसके न्याय पत्र ( घोषणा पत्र) में संपत्ति का राष्ट्रीय सर्वे करवाने का वायदा है। इसका अप्रत्यक्ष तौर पर अभिप्राय यही लगाया जा रहा है कि आर्थिक  विषमता दूर करने संपत्ति का समान बंटवारा किया जावेगा। इस प्रकार  पार्टी का घोषणापत्र और श्री पित्रोदा का बयान एक दूसरे के पूरक हैं। ये दोनों ही बातें काँग्रेस और उसके   नीति निर्धारकों की अपरिपक्वता का प्रमाण हैं। पता नहीं संपत्ति का सर्वे करवाने जैसा वायदा किसके सुझाव पर पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में शामिल किया। बची - खुची कसर पूरी कर दी अमेरिका में बैठे श्री पित्रोदा ने विरासत सम्बन्धी बयान देकर। जिस प्रकार सनातन और राम मन्दिर के मुद्दे पर कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली वैसी ही गलती इस मामले में होती दिखाई दे रही है।  श्री गाँधी को ये जानना और समझना चाहिए कि ये 2024 है जिसमें 1971 वाले फार्मूलों से चुनाव नहीं जीता जा सकता। और फिर संपत्ति के समान बंटवारे की कल्पना तो साम्यवाद के सबसे बड़े गढ़ सोवियत संघ और चीन तक में साकार न हो सकी। सोवियत संघ तो साम्यवादी विचारधारा के बोझ में ही बिखर गया वहीं चीन ने भी माओ के बनाये लौह आवरण को ध्वस्त कर निजी पूंजी और संपत्ति के मॉडल को मान्यता दे दी। ऐसा लगता है श्री गाँधी अपनी ही पार्टी की सरकार द्वारा लाए गए आर्थिक सुधारों की गाड़ी को पीछे धकेलना चाहते हैं जब सब कुछ सरकार के नियंत्रण में रहने के कारण कोटा, परमिट और लाइसेंस राज चल रहा था। उस व्यवस्था को उनके पिता ने बदला और फिर  डाॅ. मनमोहन सिंह ने मुक्त अर्थव्यवस्था का शुभारंभ करते हुए नई आर्थिक नीतियों का सृजन किया। उन दोनों के कार्यों का श्रेय लेना कांग्रेस कभी नहीं भूलती किंतु  आश्चर्य की बात है कि राहुल उसके विपरीत दिशा में चलने की कोशिश कर रहे हैं। उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि संपत्ति के समान वितरण की बजाय लोगों की उद्यमशीलता बढ़ाकर विषमता दूर करना ज्यादा कारगर होगा। चुनाव जीतने की लालसा में वर्ग संघर्ष  की परिस्थिति उत्पन्न करना  समाज के लिए घातक है, जिससे राजनीतिक नेता भी नहीं बच सकेंगे । 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 24 April 2024

चिकित्सकों के अनैतिक आचरण पर अपना रुख स्पष्ट करे मेडिकल एसोसियेशन


योग गुरु बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि के विरुद्ध आई .एम.ए (इंडियन मेडिकल एसोसियेशन ) द्वारा दायर याचिका की सुनवाई के दौरान दो न्यायाधीशों की पीठ ने बाबा और उनके सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को खूब लताड़ लगाईं।  इस प्रकरण में जिस तरह की टिप्पणियां पीठासीन न्यायाधीशों द्वारा की गईं उन्हें  लेकर ये चर्चा होने लगी कि यह याचिका आयुर्वेद नामक भारतीय चिकित्सा पद्धति को दबाने के लिए अंग्रेजी दवा कंपनियों द्वारा रचे गए कुचक्र का हिस्सा है। स्मरणीय है बाबा रामदेव ने पहले योग को घर - घर पहुंचाया और फिर पतंजलि  की स्थापना कर आयुर्वेद दवाओं का उत्पादन तो प्रारंभ किया ही अपितु वैद्यों की सेवाएँ उपलब्ध कराने का प्रबंध भी किया। सौंदर्य प्रसाधन के साथ ही दैनिक जीवन में उपयोग आने वाली दर्जनों चीजें भी पतंजलि द्वारा बनाई जाती हैं। परिणाम स्वरूप   बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की बिक्री में गिरावट आने लगी। बाबा द्वारा विभिन्न बीमारियों के इलाज में एलोपैथी नामक चिकित्सा पद्धति की अक्षमता को भी उजागर किया गया। संदर्भित याचिका उसी की प्रतिक्रियास्वरूप पेश की गई थी। अब तक तो पीठ द्वारा बाबा और आचार्य बालकृष्ण की ही खिंचाई होती रही। लेकिन गत दिवस उसके द्वारा आई.एम.ए को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा गया कि जब आप एक अंगुली दूसरे पर उठाते हैं तब चार आपकी तरफ भी उठती हैं। इसके बाद अदालत ने चिकित्सकों द्वारा महंगी और अनावश्यक दवाइयाँ लिखने का जिक्र करते हुए कहा कि चिकित्सकों के सबसे बड़े संगठन को अपना घर ठीक करने के साथ ही चिकित्सकों के अनैतिक आचरण के बारे में भी अपना रवैया स्पष्ट करना चाहिए। लगे हाथ पीठ ने उपभोक्ता कंपनियों द्वारा दिये जा रहे भ्रामक विज्ञापनों पर भी चाबुक चलाया और उस बारे में केंद्र सरकार से भी जवाब तलब किया। जिसके बाद बेबी फूड और मसाले बनाने वाली कंपनियों के लपेटे में आने के आसार बढ़ गए हैं। लेकिन अदालत द्वारा चिकित्सकों को लेकर आई.एम.ए को जो डाँट पिलाई उसके बाद एलोपैथी चिकित्सा पद्धति से इलाज कर रहे  लाखों चिकित्सक सवालों के घेरे में आ गए हैं जिनके बारे में न्यायालय ने अनैतिक आचरण जैसे शब्द का उपयोग किया। पतंजलि द्वारा एलोपैथी के बारे में कही गई आलोचनात्मक बातों पर न्यायालय का सख्त रुख पूर्णतः उचित है क्योंकि बिना प्रामाणिकता के किसी  पर आक्षेप उचित नहीं है। एलोपैथी एक आधुनिक चिकित्सा पद्धति है जिसने पूरे विश्व में अपना प्रभाव स्थापित किया है। लगातार शोध के साथ ही शल्य क्रिया के क्षेत्र में उसकी उपलब्धियां प्रशंसनीय हैं। उसकी दवाओं के दुष्परिणाम भी हैं लेकिन तत्काल आराम के कारण उसकी स्वीकार्यता बढ़ती गई। लेकिन यह चिकित्सा पद्धति धीरे -  धीरे बाजारवादी ताकतों के शिकंजे में फंसकर रह गई । परिणामस्वरूप सेवा की बजाय चिकित्सा के पेशे ने व्यापार का रूप ले लिया। हालांकि आज भी इस क्षेत्र में अनेक ऐसे लोग हैं जिनमें पीड़ित मानवता की निःस्वार्थ सेवा करने का भाव विद्यमान है किंतु चिकित्सा जगत से जुड़े ज्यादातर लोगों में धन कमाने की हवस चरमोत्कर्ष पर है। महँगी और अनावश्यक दवाएं लिखकर दवा कंपनियों से अनुचित लाभ लेने का धंधा किसी से छिपा नहीं है। निजी अस्पतालों में होने वाली लूटमार तो निर्दयता की हद छूने लगी है। चिकित्सकों और अस्पताल संचालकों का अपना पक्ष हो सकता है किंतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई नसीहत के बाद भी आई.एम.ए यदि मौन रहता है तब वह अनैतिक आचरण की स्वीकारोक्ति होगी। महँगी और गैर जरूरी दवाएं लिखने की न्यालायीन टिप्पणी पर भी एसोसियेशन का उत्तर प्रतीक्षित रहेगा। नियमों के अनुसार चिकित्सक को किसी ब्रांड की बजाय जेनरिक दवा लिखनी चाहिए किंतु ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है। निजी प्रैक्टिस करने वाले अधिकतर चिकित्सकों ने दवाखाने के बगल में दवाई की दूकान खुलवा रखी है । उनकी लिखी दवाएँ आम तौर पर इनमें ही उपलब्ध होती हैं। निजी अस्पतालों के तो प्रांगण में ही दवा प्रतिष्ठान हैं जिनमें मुँह मांगे दाम वसूले जाते हैं। पैथालाजी, एक्सरे, सोनोग्राफी, स्केनिंग, एम.आर.आई आदि पर कमीशन का खेल खुले आम चलता है। अपने शहर से बाहर के किसी बड़े अस्पताल मरीज भेजने पर  सौजन्य राशि मिलने की चर्चा भी आम है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन्हीं विकृतियों पर रोक लगाने की अपेक्षा की गई है। देखना ये है कि एसोसियेशन अपना घर ठीक करने के लिए क्या करता है? वैसे भी उसे ये तो पता ही होगा कि चिकित्सा सेवाओं का व्यवसायीकरण हो जाने से अब चिकित्सकों की प्रतिष्ठा में भी भारी गिरावट आई है जिसके लिए वह खुद भी काफी हद तक जिम्मेदार है। आखिर उसके पदाधिकारी भी तो चिकित्सक ही होते हैं। 

Monday 22 April 2024

ताकि करदाता को ईमानदार होने का अफसोस न हो


लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान समाप्त होने के बाद बीते वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष कर संग्रह के जो अधिकृत  आंकड़े जारी हुए वे बेहद  उत्साहवर्धक हैं। सरकार द्वारा जो लक्ष्य बजट में निर्धारित किया गया था उससे कहीं ज्यादा कर जमा होना वित्तीय नीतियों की सफलता के साथ ही अर्थव्यवस्था का पूरी तरह रफ्तार पकड़ने का प्रमाण है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के प्रत्यक्ष कर संग्रह के  आंकड़े दर्शाते हैं कि शुद्ध संग्रह 19.58 लाख करोड़ रुपये का रहा, जो कि पिछले वित्तीय वर्ष 2022-23 के 16.64 लाख करोड़ रुपये के शुद्ध संग्रह की तुलना में 17.70 प्रतिशत अधिक है। इस बारे में सबसे संतोषजनक बात ये है कि कर संग्रह न केवल कार्पोरेट सेक्टर में बढ़ा अपितु व्यक्तिगत आयकर दाताओं ने भी आयकर रूपी सहयोग देने में सरकारी अनुमान को ध्वस्त कर दिया। वैसे तो सरकार के पास विभिन्न स्रोतों से राजस्व आता है किंतु प्रत्यक्ष कर की मद से आने वाले कर से कंपनियों और निजी  आयकर दाताओं का ब्यौरा देश के सामने आ जाता है। इसीलिए जब बजट आता है तब सबसे अधिक ध्यान आयकर पर लगा रहता है जो कि उच्च और मध्यम आय वर्ग को सीधे प्रभावित करता है। लंबे समय से इसकी दरें अपरिवर्तित हैं। हालांकि सरकार छोटे करदाताओं, विशेष रूप से महिलाओं और वरिष्ट नागरिकों को कर बचाने के कुछ विकल्प देती है जिनमें बचत योजनाएं प्रमुख हैं । लेकिन  उसकी ये मेहरबानी लोगों को रास नहीं आती क्योंकि महंगाई के बढ़ते जाने से बचत की गुंजाइश कम होती जा रही है। और फिर मध्यम और उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों की जीवनशैली में आ रहे  बदलाव ने भी खर्च बढ़ा दिये हैं। बच्चों की शिक्षा पर व्यय लगातार बढ़ रहा है। इसी तरह परिवहन खर्च में भी वृद्धि होती जा रही है। इन सबके चलते ये अपेक्षा की जाती है कि आयकर की छूट सीमा में अच्छी खासी वृद्धि की जाए। ऐसा होने पर करदाता की जेब में ज्यादा पैसा आने से अंततः वह बाजार में ही जायेगा जिससे सरकार को अप्रत्यक्ष कर जीएसटी के तौर पर मिलेगा। यही स्थिति जीएसटी की ऊँची दरों को लेकर है जिनकी वजह से महंगाई भी बढ़ती है और कर चोरी की प्रवृत्ति भी। हालांकि आधारभूत संरचना के लिए बड़े पैमाने पर धन की आवश्यकता सरकार को होती है और मौजूदा केंद्र सरकार ने इस दिशा में अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया भी है । कोरोना काल में जनता को मिलने वाली तमाम छूटें जब वापस ली गईं तब तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए लोगों ने सरकार के उस कदम को बिना संकोच स्वीकार कर लिया। ये भी मानना होगा कि केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान उससे निपटने के जो इंतजाम किये उनके लिए  अतिरिक्त धन की जरूरत थी। कोरोना के विदा हो जाने के बाद भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर आने में समय लगा किंतु बीते एक - डेढ़ साल में जिस तरह की उपलब्धियां देखने मिलीं उनके परिप्रेक्ष्य में जनता को कोरोना काल में वापस ली गई सुविधाएं और छूट लौटाई जानी चाहिए। इस वर्ष लोकसभा चुनाव होने के कारण केंद्र सरकार पूर्ण बजट पेश नहीं कर सकी। इस कारण प्रत्यक्ष कर ढांचे में भी बदलाव नहीं किये जा सके किंतु ये आश्चर्य की बात है कि किसी भी राजनीतिक दल द्वारा अपने चुनाव घोषणापत्र में आयकर और जीएसटी में राहत संबंधी वायदा नहीं किया गया । ध्यान देने योग्य बात ये है कि मध्यमवर्ग में भी आयकर के दायरे में आने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। देश का बड़ा उपभोक्ता बाजार इस वर्ग के कारण ही मजबूत स्थिति में है जिसका प्रमाण हर माह होने वाली जीएसटी वसूली है। ये देखते हुए लोकसभा चुनाव के बाद जो पूर्ण बजट आयेगा उसमें प्रत्यक्ष कर ढांचे को आर्थिक सुधारों के मद्देनजर इस तरह बनाया जाए जिससे आयकर दाता को कर देने में संतोष का अनुभव हो। दुनिया की सबसे तेज बढ़ती  अर्थव्यवस्था होने के साथ ही अब भारत का लक्ष्य तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का है। लेकिन इस खुशी में जनता को शामिल होने का अवसर तभी मिलेगा जब उसके कंधों का बोझ कम हो। हालांकि आयकर विभाग की कार्यप्रणाली में काफी सुधार हुआ है और रिफंड भी जल्द आने लगे हैं किंतु  उसकी दरों में कमी समय की मांग है। चुनाव के बीच में आये आंकड़े निश्चित ही सरकार के कुशल अर्थ प्रबंधन का परिणाम हैं लेकिन आयकर दाताओं को भी उनके योगदान  हेतु आभारस्वरूप कुछ न कुछ ऐसा मिलना चाहिए ताकि उन्हें अपने ईमानदार होने का अफसोस न हो। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 21 April 2024

कम मतदान से अंतिम परिणाम का अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी : विपक्ष से नाउम्मीदी भी कारण हो सकता है


पहले चरण में  मतदान का प्रतिशत कम होने के बाद  पूरे देश में इसके असर की चर्चा चल पड़ी है। प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय स्तर के भाजपा नेता तक दावा कर रहे हैं कि अब की 400 पार का दावा सही साबित होगा। वहीं विपक्ष इसके उलट इस बात को उछाल रहा है कि मत प्रतिशत में गिरावट का अर्थ नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटना है। जिन सीटों पर वे प्रचार के लिए गए वहाँ भी मतदान केंद्रों में भीड़ नहीं दिखी। सबसे ज्यादा आश्चर्य उ.प्र , म. प्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और बिहार में मत प्रतिशत  कम होने पर व्यक्त किया जा रहा है क्योंकि इनमें भाजपा अथवा एनडीए का राज है।

      यद्यपि अब तक माना जाता रहा है कि मत प्रतिशत में वृद्धि से सत्ता परिवर्तन का रास्ता खुलता है जबकि कम मतदान यथास्थिति बनाये रखने का इशारा है। लेकिन बीते कुछ सालों में उक्त अवधारणा  कई जगह गलत साबित हुई है। 2023 के विधानसभा चुनाव में म.प्र में 2018 की अपेक्षा मत प्रतिशत बढ़ने पर ये उम्मीद लगाई जा रही थी कि  भाजपा सत्ता से बाहर हो जायेगी। इसी तरह छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मतदान कम होने से वही सरकार जारी रहने का कयास लगाया गया था। लेकिन तीनों जगह हुआ उल्टा। इसी आधार पर चुनाव विश्लेषक मान रहे हैं कि पहले चरण में कम मतदान होने से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी ।

      कुछ लोगों का मानना है कि मतदाताओं की उदासीनता का कारण विपक्ष की नीति और नेता स्पष्ट न होना है। उसके समर्थकों को ये भरोसा हो चला है कि चूंकि उसे सत्ता मिलने वाली है नहीं, लिहाजा धूप में चलकर क्यों जाया जाए? 2009 में भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को आगे रखकर लोकसभा चुनाव लड़ा किंतु वे अटल जी जैसा आकर्षण उत्पन्न न कर सके । इसलिए पार्टी के सांसदों की संख्या कम हुई वहीं कांग्रेस 200 पर जा पहुंची। इस आधार पर 19 तारीख को मतदान का प्रतिशत गिरने से विपक्ष को भी चिंतित होना चाहिए  क्योंकि  प. बंगाल और तमिलनाडु में भी 2019 की तुलना में कम मतदान हुआ।

    तेज गर्मी और शादियाँ तो अप्रैल,मई में हर साल पड़ती है। अगले चरणों में तो तापमान और बढ़ेगा। ऐसे में मतदान का आंकड़ा और भी नीचे चला जाए तो अचंभा नहीं होगा। जहाँ तक बात नफे - नुकसान के आकलन की है तो अब तक एग्जिट पोल की जानकारी सभी दलों को उनके द्वारा नियुक्त सर्वे एजेन्सी के जरिये मिल गई होगी। मतदान खत्म होते ही हर सीट पर सैकड़ों मतदाताओं के पास ये जानने के लिए फोन आये कि उन्होंने अपना मत किसे दिया। हालांकि चुनाव आयोग की बंदिश के कारण उनका खुलासा संभव नहीं है लेकिन पार्टियां अगले चरणों के लिए अपनी  रणनीति और मैदानी तैयारी उसी के मुताबिक करेंगी।

       भाजपा इस मामले में ज्यादा सक्रिय है इसलिए  उसने एग्जिट पोल से मिले संकेतों का विश्लेषण करने के बाद अपनी चुनावी मशीनरी को अगले चरण के लिए मुस्तैद कर दिया होगा। लेकिन काँग्रेस चूंकि इस बारे में बहुत ढीली - ढाली है इसलिए उससे खास उम्मीद नहीं है। जिस इंडिया गठबंधन के बलबूते वह सत्ता में आने के ख्वाब देख रही है उसमें अभी तक वह कसावट नहीं नजर आई जो सत्ता बदलने के लिए जरूरी होती है। दिल्ली में कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी का पूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने जिस प्रकार से विरोध किया वह इसका उदाहरण है।

     कुल मिलाकर पहले चरण के कम मतदान से अंतिम परिणाम के बारे में अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी। मतदाताओं की संख्या बढ़ जाने से  प्रतिशत कम होने के बाद भी अनेक सीटों पर कुल मतों की संख्या 2019 जैसी ही या उससे कुछ कम होने पर किसी उलटफेर की उम्मीद कम हो सकती है। लेकिन जहाँ हार जीत का अंतर हजारों में था वहाँ जरूर नतीजा चौंकाने वाला होगा।

     वैसे भाजपा या एनडीए शासित प्रदेशों में  विपक्ष  में  आक्रामकता का अभाव भी कम मतदान का कारण माना जा रहा है। इसीलिए वह भाजपा के नुकसान के दावे के बावजूद अपनी जीत के प्रति  आश्वस्त नजर नहीं आ रहा।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 20 April 2024

मत प्रतिशत गिरना लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत


गत दिवस देश की 102 लोकसभा सीटों के लिए मतदान हुआ। 21 राज्यों में पहले चरण के लिए औसत 62 प्रतिशत मतदाताओं ने ही मताधिकार का उपयोग किया। प. बंगाल , तमिलनाडु, असम, पुडुचेरी , मेघालय और त्रिपुरा में 70 फीसदी से अधिक मत पड़े जबकि राजनीतिक चर्चाओं में सबसे ज्यादा रहने वाले बिहार में महज 48.50 प्रतिशत मतदाताओं ने अपना सांसद चुनने में रुचि ली। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और म. प्र जैसे जिन राज्यों में कुछ माह पहले हुए विधानसभा चुनावों में 75 प्रतिशत के लगभग मतदान हुआ था वहाँ भी गत दिवस मतदान में उल्लेखनीय कमी आई। देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाले उ. प्र में 58.49  फीसदी मतदाताओं ने ही लोकतंत्र के महायज्ञ में अपनी हिस्सेदारी दिखाई। 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में मतदान के घटने से राजनीतिक विश्लेषक भौचक हैं। बीते अनेक महीनों से सत्ता और विपक्ष में बैठे नेता जनता के बीच जाकर अपना पक्ष रख रहे थे। समाचार माध्यमों में भी चुनावी चर्चा को जरूरत  से ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है। टीवी और यू ट्यूब चैनल पर तो राजनीतिक बहस के सिवाय और कुछ होता ही नहीं। इसके बाद भी यदि मतदान औसतन 75 फीसदी भी न पहुंचे तो इसका सीधा अर्थ यही निकलेगा कि मतदाता राजनीति के अतिरेक से ऊबने लगा है। यद्यपि असम,  त्रिपुरा, तमिलनाडु और प. बंगाल में 70 फीसदी से अधिक मतदान ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि इन राज्यों में राजनीतिक जागरूकता बिहार, उ. प्र, म.प्र और राजस्थान जैसे  राज्यों में कहीं ज्यादा है।  वहीं इसका दूसरा पहलू ये भी है जहाँ कम या ज्यादा मतदान हुआ वहाँ का सामाजिक ढांचा किस प्रकार का है ? उदाहरण के लिए मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अधिक मतदान ऐलनिया भाजपा के विरुद्ध जाता है। लेकिन हिन्दू बहुल क्षेत्रों के  मतदाता पूरी तरह भाजपा को मत देंगे ये कह पाना कठिन है। बावजूद इसके कि भाजपा हिन्दू समुदाय का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में करने में काफी हद तक सफल रही है। इसी तरह जातीय समीकरण बिठाने में भी उसने काफी महारत  हासिल की है। भाजपा के  साथ मध्यम वर्ग परम्परागत जुड़ा रहा है जो पूरी तरह खुश नहीं होने के बाद भी उसकी राष्ट्रवादी नीतियों से प्रभावित होकर उसके पक्ष में खड़ा रहता है। बीते 10 वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कद राष्ट्रीय राजनीति में इतना बड़ा हो चुका है कि कोई अन्य नेता उनके आस - पास भी नजर नहीं आता। इस वजह से भाजपा को लगभग 5 प्रतिशत मत उस तबके के मिलने लगे हैं जो नीतियों के बजाय करिश्माई नेतृत्व से ज्यादा प्रभावित होता है।  बुद्धिजीवी, विशेष रूप से पेशेवर वर्ग में श्री मोदी की छवि बड़े निर्णय लेने वाले राजनेता की बन जाने से वह उनका प्रशंसक बन बैठा है। इन सबसे अलग गरीब जनता के मन में उनकी मुफ्त अनाज और मकान योजना का गहरा असर है। हालांकि प. बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र , दिल्ली, पंजाब और कर्नाटक की गैर भाजपाई राज्य सरकारें भी ऐसे ही तमाम जन कल्याणकारी कार्यक्रम चला रही हैं किंतु  देश के बड़े भूभाग पर भाजपा का राज होने से मोदी की गारंटी का शोर अपेक्षाकृत ज्यादा नजर आता  है। वैसे तो  सभी पार्टियां कम मतदान को अपने पक्ष में बताने का प्रयास कर रही हैं किंतु सभी के लिए विचारणीय प्रश्न ये है कि शिक्षा और सूचनातंत्र का इतना प्रसार होने के बावजूद मतदान कम क्यों होता है ? चुनाव आयोग  प्रतिशत बढ़ाने के लिए खूब प्रयास करता है। मतपर्चियाँ भी घर - घर पहुंचाने की व्यवस्था की गई है। लेकिन गत दिवस कुछ राज्यों को छोड़ बाकी में 2019 के लोकसभा और 2023 के विधानसभा चुनाव से कम मतदान होना राजनीतिक पार्टियों के लिए चिंता और चिंतन का कारण होना चाहिए। हालांकि परिणाम के बाद ही ये स्पष्ट हो सकेगा कि कम मतदान से किसे फ़ायदा या नुकसान हुआ किंतु लोकतंत्र के लिए जिस तरह से मजबूत विपक्ष आवश्यक है उसी तरह मतदाताओं की जागरूकता भी। उस दृष्टि से गत दिवस जहाँ - जहाँ मतदान 70 फीसदी से कम हुआ वहाँ  मतदाताओं का मतदान  से दूरी बनाये रखना अध्ययन का विषय है।   इसका कारण पिछले वायदे पूरे न होना भी हो सकता है। समाज में एक वर्ग उन लोगों का भी है जो ये मान बैठे हैं कि सत्ता बदलने पर भी व्यवस्था में सुधार नहीं होता । ये निराशा किसको नुकसान पहुंचाएगी ये तात्कालिक तौर पर तो  कहना संभव नहीं है किंतु कालांतर में लोकतंत्र के लिए घातक साबित होगी ये निश्चित है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 19 April 2024

चाहो या न चाहो इस चुनाव में मुद्दा तो मोदी ही है


लोकसभा चुनाव का पहला चरण आज से शुरू हो गया। 21 राज्यों की 102 सीटों पर मतदान सुबह से चल रहा है। अगले 6 चरण के मतदान के बाद   परिणाम 4 जून को घोषित होंगे। वैसे तो भाजपा और काँग्रेस राष्ट्रीय दल के तौर पर स्वाभाविक  प्रतिद्वंदी माने जा रहे हैं। लेकिन अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी ज्यादा प्रभावशाली है। इनमें से अधिकतर  भाजपा - कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन  में शामिल हैं किंतु बीजद और वाय.एस.आर काँग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियां एकला चलो की नीति का पालन कर रही हैं। ममता बैनर्जी का मामला अलग किस्म का है जिनकी पार्टी तृणमूल काँग्रेस वैसे तो इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन का हिस्सा है किंतु प. बंगाल में उन्होंने किसी के साथ भी सीटों का बंटवारा नहीं किया। इस बहुदलीय चुनाव में वैसे तो अनेक नेताओं के चेहरे मतदाताओं को प्रभावित करने वाले हैं किंतु जिस एक व्यक्ति पर पूरा विमर्श केंद्रित हो गया है वह हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। स्मरणीय है  1971 का लोकसभा चुनाव भी स्व. इंदिरा गाँधी के व्यक्तित्व पर टिक जाने से वे ही चर्चा के केंद्र में थीं। लोग उनकी आलोचना भी करते थे और प्रशंसा भी, परन्तु  उपेक्षा करना संभव नहीं था। उस चुनाव में उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। बैंक राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स समाप्त करने जैसे फैसलों से उनकी छवि गरीब हितचिंतक की बन गई थी। विपक्ष उसके आगे असहाय हो गया। उसके इंदिरा हटाओ नारे के उत्तर में इंदिरा जी ने पलटवार करते हुए कहा कि वे कहती हैं गरीबी हटाओ और विपक्ष कहता है इंदिरा हटाओ। उनकी बात का जादुई असर हुआ और उन्हें  350 से ज्यादा सीटें मिलीं।  हालांकि तब विपक्ष के बिखरे होने का लाभ श्रीमती गाँधी को मिला था। कमोबेश इस चुनाव में भी वैसी ही स्थिति है और पूरा माहौल मोदी समर्थन या  विरोध का रूप ले चुका है। अंतर इतना है कि इस बार सत्ता और विपक्ष दोनों गठबंधन बनाकर मैदान में उतरे हैं। वैसे गठबंधन राजनीति अब नई चीज नहीं रही लेकिन श्री मोदी ने 2014 के चुनाव से ही अपने व्यक्तित्व को केंद्र बिंदु में रखने की जो रणनीति बनाई थी उसका लाभ उन्हें मिला। 2019 में भी वे अपनी शख्सियत को प्रतिद्वंदी की तुलना में बड़ा साबित करने में कामयाब रहे। लेकिन 2024 का लोकसभा चुनाव  मोदी की गारंटी पर आकर सिमट गया है। विपक्ष के पास कहने को तो छोटे - बड़े नेताओं की लम्बी सूची है किंतु व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों मामलों में प्रधानमंत्री भारी पड़ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि विपक्ष के पास मुद्दे नहीं हैं लेकिन जिस तरह 1971 में विरोधी पार्टियों ने इंदिरा हटाओ की मुहिम छेड़ने की भूल की वही आज का विपक्ष कर बैठा। उसकी सभी तोपें श्री मोदी को निशाना बना रही हैं और यही वे चाहते भी थे। चूंकि राहुल गाँधी सहित शेष विपक्षी नेता लोकप्रियता में बहुत पीछे हैं। इसीलिए अभी तक जितने भी सर्वेक्षण आये उनमें श्री मोदी की वापसी सुनिश्चित बताई गई है।  हालांकि मोटे तौर पर श्री गाँधी को प्रधानमंत्री का प्रतिद्वंदी माना जाता है किंतु न तो विपक्षी गठबंधन के किसी घटक दल और न ही कांग्रेस ने उन्हें प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित किया। इस वजह से मोदी विरुद्ध कौन ये प्रश्न अनुत्तरित बना हुआ है।  उधर ममता ने चूंकि अपने राज्य में एक भी सीट सहयोगी दलों को नहीं दी लिहाजा उनकी महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है। लेकिन एनडीए में  श्री मोदी को लेकर सर्वसम्मति है इसलिए इस मुद्दे पर विपक्ष कमजोर साबित हो रहा है। चुनाव के अगले चरणों में कोई बड़ा उलटफेर न हुआ तब प्रधानमंत्री की बढ़त बनी रहेगी। दरअसल काँग्रेस और राहुल दोनों को इस बात से भी नुकसान हो रहा है कि उ.प्र, बिहार, प. बंगाल और तमिलनाडु की कुल 207 सीटों में से उसे केवल 35 सीटों पर लड़ने मिल रहा है। जबकि एनडीए में भाजपा ने सीटों के बंटवारे में आंध्र प्रदेश छोड़  अपना हाथ ऊपर रखा है। इस तरह इस चुनाव में मोदी ही मुद्दा बन गए हैं और  अन्य बातें पृष्ठभूमि में चली गईं। देखने वाली बात ये होगी कि क्या वे 1971 में इंदिरा जी जैसी सफलता दोहरा सकेंगे ? 370 सीटों का लक्ष्य भी शायद उन्होंने उसी से प्रेरित होकर तय किया गया होगा। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 18 April 2024

बंगाल की खाड़ी के बाद अरब सागर में डूबने के कगार पर वामपंथी विचारधारा


लोकसभा चुनाव के लिए मतदान का क्रम कल से प्रारंभ होने जा रहा है। सभी पार्टियां अपने - अपने दावे कर रही हैं। भाजपा 400  पार की  बात कह रही है वहीं राहुल गाँधी ने भाजपा के 150 तक सिमटने की भविष्यवाणी की है। क्षेत्रीय दल भी अपने प्रभावक्षेत्र में करिश्मा दिखाने का दम भर रहे हैं। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस की अगुआई में बने  इंडिया गठबंधन में मुख्य मुकाबला माना जा रहा है। यद्यपि प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, पंजाब में आम आदमी पार्टी और केरल में वामपंथी पार्टियों ने गठबंधन के बावजूद कांग्रेस को एक भी सीट नहीं दी।  केरल में तो वायनाड सीट पर  प्रधानमंत्री का चेहरा माने जा रहे राहुल गाँधी के विरुद्ध सीपीआई महासचिव डी. राजा की पत्नी लड़ रही हैं। इंडिया गठजोड़ में वामपंथी दल भी हैं जिनका प. बंगाल में  कांग्रेस से गठबंधन भी है किंतु केरल में काँग्रेस अकेले मैदान में है। 2019 में उसने राज्य की 20 में से 19 सीटें जीतकर वाम दलों को जोरदार झटका दिया था। हालांकि 2021 के विधानसभा चुनाव में  वाम मोर्चा सरकार की वापसी ने हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन की परिपाटी बदल दी। चौंकाने वाली बात ये रही कि उसी समय प. बंगाल विधानसभा चुनाव भी हुए जिसमें ममता बैनर्जी के विरुद्ध कांग्रेस और वामपंथी मिलकर लड़े थे। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विरुद्ध लड़ने में भी दोनों की जुगलबंदी देखने मिलती रही। गत वर्ष जब इंडिया नामक गठबंधन बना और उसमें तृणमूल कांग्रेस भी  वाम दलों के साथ शामिल हुई तब उम्मीद बंधी थी कि प. बंगाल और केरल में  सीटों का बंटवारा हो जायेगा। लेकिन सुश्री बैनर्जी  कांग्रेस की 6 सीटों की मांग पर 2 सीटें देने राजी हुईं। कांग्रेस को वह बात  नागवार लगी जिससे प. बंगाल में  गठबंधन में लगी गाँठ नहीं खुल सकी। वहाँ कभी वाम पंथ का मजबूत किला हुआ करता था किंतु अब उसका खंडहर तक नजर नहीं आता। बंगाल की खाड़ी में डूबने के बाद वामपंथियों के लिए अरब सागर के तट पर बसे केरल में ही पाँव रखने की गुंजाइश बची है। इसीलिये उसके नेता सोचते थे कि पूरे देश में कांग्रेस को समर्थन देने के एवज में उसकी ओर से केरल में तो कम से कम उसके लिए सीटें छोड़ी जाएंगी। लेकिन कांग्रेस की मजबूरी ये है कि पंजाब हाथ से निकलने के बाद अब केरल ही  वह राज्य है जहाँ लोकसभा चुनाव में उसका  जलवा कायम रहा। अब तक जितने भी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण आये उनमें केरल में ही   कांग्रेस का दबदबा रहने की उम्मीद जिंदा है। हालांकि भाजपा भी  जोर मार रही है किंतु उसको बड़े खिलाड़ी के तौर पर स्वीकार नहीं किया जा रहा। ऐसे में कांग्रेस और वामपंथियों में  सीटों का बंटवारा हुआ होता तब भाजपा पर ध्यान ही नहीं जाता। लेकिन पूरे देश में साथ  नजर आ रहे इन दोनों दलों के बीच केरल में जमकर तलवारें खिंची हुई हैं । मुख्यमंत्री विजयन लगातार कांग्रेस पर हमले कर रहे हैं। राहुल  के वायनाड से लड़ने के विरोध में उनके अलावा श्री राजा के बयान भी आ रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस भी राज्य की वामपंथी सरकार को भ्रष्टाचार में लिप्त बताकर उस पर हमलावर है। ऐसे में  2019 जैसे नतीजे आये तब वामपंथियों की नैया अरब सागर में  डूबना तय है। बिहार में महागठबंधन ने वामदलों को कुछ सीटें जरूर दी हैं लेकिन वहाँ वे लालू यादव की दया पर निर्भर हैं। प. बंगाल और केरल ही वे राज्य रहे हैं जहाँ वामपंथी   हावी थे। ज्योति बसु के निधन के बाद ही कोलकाता में तो लालझण्डे का उतरना शुरू हो गया था किंतु केरल में वामपंथी विचारधारा सत्ता पर काबिज होने में सक्षम बनी रही। लेकिन संसद में वामपंथी दलों के सदस्यों की घटती संख्या इस बात का प्रमाण है कि भारत में भी यह आयातित विचारधारा अंतिम साँसे गिन रही है। कुछ साल पहले तक इस बात की  कल्पना नहीं की जा सकती थी कि प. बंगाल एक भी वामपंथी विधायक न हो।  इसीलिए वामपंथी चाह रहे थे कि कम से कम केरल में तो कांग्रेस उनके साथ  तालमेल बिठाती। लेकिन ऐसा नहीं होने के कारण अपने आखिरी दुर्ग को ढहते देखना वामपंथियों की नियति बन रही है जिसके लिए वे स्वयं उत्तरदायी हैं क्योंकि भाजपा के अंध विरोध में उन्होंने कांग्रेस का साथ देकर अपनी वैचारिक पहचान नष्ट कर ली। भारत में  पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के जनक डा. मनमोहन सिंह की सरकार को टेका लगाने की स्व. हरिकिशन लाल सुरजीत की रणनीति आत्मघाती साबित हुई। लेकिन उसके बाद भी वामपंथी काँग्रेस के पुछल्ले बने रहे। ममता बैनर्जी किसी जमाने में कांग्रेस को वामपंथियों की बी टीम कहा करती थीं। उसी वजह से प. बंगाल में कांग्रेस का सितारा डूब गया। लेकिन उसके बाद वामपंथी, कांग्रेस की बी टीम जैसे बन गए जिसका नतीजा पहले प.बंगाल और अब केरल उनके हाथ से खिसकने के तौर पर देखने मिल रहा है। बताने की जरूरत नहीं है कि त्रिपुरा जैसा अभेद्य वामपंथी किला पहले ही भाजपा के कब्जे में आ चुका है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 17 April 2024

ईवीएम पर संदेह के बावजूद विपक्ष द्वारा जीत का दावा विरोधाभासी

म से चुनाव करवाने के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में गत दिवस हुई बहस आगे भी जारी रहेगी। वोटिंग  मशीन में बटन दबाने के बाद जो पर्ची निकलती है वह इस बात की पुष्टि करती है कि मतदाता द्वारा जिस प्रत्याशी को मत दिया गया वही उस पर्ची में अंकित हुआ। लेकिन ईवीएम का विरोध करने वालों को संदेह है कि ऐसा होता नहीं है। अर्थात बटन जिस चिन्ह का दबाया जाता है पर्ची भले उसकी नजर आये किंतु मत भाजपा को जाता है। इसलिए पर्चियाँ भी गिनी जानी चाहिए । कुछ लोगों का कहना है कि मतदान की प्रामाणिकता बनाए रखने के लिए पुरानी मतपत्र व्यवस्था पर वापस लौटना ही एकमात्र उपाय है। इसके पक्ष में अनेक देशों का उदाहरण भी अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया गया जहाँ आज भी मतपत्र से मतदान होता है। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता द्वारा जर्मनी का उल्लेख किये जाने पर न्यायाधीश ने पूछ लिया कि वहाँ की आबादी कितनी है ? साथ ही ये भी बताया कि उनके गृहराज्य प. बंगाल की जनसंख्या जर्मनी से अधिक है। चुनाव आयोग द्वारा दिये आंकड़े के अनुसार भारत में 97 करोड़ मतदाता हैं। यदि मतपत्र से चुनाव करवाए जाएं तो मतगणना में 12 दिन लगेंगे। इस बारे में चुनाव आयोग अनेक अवसरों पर स्पष्टीकरण दे चुका है। पिछले चुनाव के बाद ईवीएम  में गड़बड़ी बताने वालों को उसने  अपना आरोप साबित करने के लिए आमंत्रित किया किंतु तब विपक्षी दल या ईवीएम विरोधी संगठन उदासीन रहे। चुनाव जीतने वाले किसी भी विपक्षी प्रत्याशी और उनकी पार्टी ने कभी ईवीएम पर सवाल उठाया हो ये भी सुनने में नहीं आया। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ईवीएम के सबसे बड़े विरोधी हैं किंतु विधानसभा चुनाव में उनके पुत्र की जीत होने पर वे इसे जनता की जीत बताते रहे। सबसे चौंकाने वाली बात है कांग्रेस के न्याय पत्र (घोषणा पत्र) में ईवीएम से चुनाव न करवाने का वायदा गायब  है। इससे स्पष्ट है कि उसका विरोध महज राजनीतिक स्टंट है। अन्य विपक्षी पार्टियां भी हारने पर तो ईवीएम पर ठीकरा फोडती हैं किंतु विजय हासिल होने पर वे उसे दोष देना भूल जाती हैं। जहाँ तक बात चुनावों में  निष्पक्षता की है तो उसकी जरूरत और अहमियत दोनों से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। ईवीएम को भी चुनाव सुधार का हिस्सा मानकर ही लागू किया गया था। इसके उपयोग के बाद मतदान का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है जो एक सकारात्मक उपलब्धि है। बीते 25 साल से ईवीएम के जरिये चुनाव करवाए जाते रहे। 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में इसी से कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में आया। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सत्ता भी ईवीएम से ही निकली। हिमाचल, बिहार,  म.प्र, छत्तीसगढ़ , राजस्थान, प. बंगाल, तमिलनाडु, केरल , कर्नाटक झारखंड और तेलंगाना में भी बीते सालों में गैर भाजपाई  पार्टियां सत्ता हासिल करने में सफल रहीं किंतु किसी ने ईवीएम के विरुद्ध एक शब्द तक नहीं कहा। चुनाव आयोग और सरकार का साफ कहना है कि ईवीएम में यदि छेड़छाड़ साबित की जाए तो उसमें सुधार किया जा सकता है।लेकिन महज शिगूफा छोड़ते रहने से सिवाय भ्रम फैलने के और कुछ नहीं होता। कांग्रेस इसीलिए ईवीएम मुक्त चुनाव का वायदा करने से पीछे हट गई । लेकिन एक तरफ तो  राहुल गाँधी से लेकर अन्य जो  नेता ईवीएम पर आशंका व्यक्त कर रहे हैं वही दूसरी ओर भाजपा को बहुमत नहीं मिलने का दावा करने से भी बाज नहीं आ आ रहे। इस विरोधाभासी रवैये के कारण ही ये कहा जाने लगा है कि विपक्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में अपनी हार का अनुमान लगाने के बाद अभी से बहाने तलाशने में जुट गया है। ये सवाल भी उठने लगा है कि यदि परिणाम इच्छानुसार न आये तो विपक्ष के जीते हुए उम्मीदवार क्या त्यागपत्र दे देंगे? और भी अनेक सवाल हैं । ऐसा लगता है नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाये जाने के दावों के साथ ही ईवीएम में गड़बड़ी करने का आरोप लगाना अपनी असफलता छिपाने के लिए बलि के बकरे ढूढ़ने जैसा है। 2 दिन बाद जबकि मतदान का पहला चरण संपन्न होने वाला हो तब ऐसे विवाद उठाना विघ्नसंतोषी मानसिकता का प्रमाण नहीं तो और क्या है ? 


- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 16 April 2024

ईरान - इसराइल विवाद में मुस्लिम राष्ट्रों की फूट भारत के लिए शुभ संकेत

जराइल और हमास के बीच कई महीनों से जारी युद्ध की समाप्ति की कोई संभावना नजर नहीं आने से पूरी दुनिया चिंतित है। गाज़ा पट्टी नामक फिलिस्तीनी इलाके में इजराइली हमलों का कहर जारी है। सर्वत्र बर्बादी का मंजर है। संरासंघ युद्ध रुकवाने में पूरी तरह विफल रहा है। इजराइल इस हद तक आक्रामक है कि  अमेरिका तक की बात नहीं सुन रहा। हालांकि इस देश को जन्म लेते ही युद्ध से जूझना पड़ा इसलिये इसके नागरिक उससे डरते नहीं। लेकिन अब तक जितने भी युद्ध हुए वे कुछ दिन ही चले जबकि यह जंग रुकने का नाम नहीं ले रही। हालांकि इसके पीछे पश्चिमी देशों की भूमिका भी है जो अरब जगत में में शांति कायम नहीं होने देते। लेकिन गत 1 अप्रैल को सीरिया स्थित ईरानी दूतावास पर हुए हमले में 13 लोगों के मारे जाने का दोष ईरान सरकार ने इजराइल पर मढ़ दिया। हालांकि उसने इसका खंडन किया किंतु हमास का साथ दे रहे ईरान ने गुस्से में  सैकड़ों ड्रोन मिसाइलें इजराइल पर दाग दीं । लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से  पड़ोसी देशों में तैनात  अमेरिकी वायु सेना के दस्तों की मदद से एक - दो को छोड़कर सभी मिसाइलों को हवा में ही नष्ट कर दिया गया । उसके बाद  इजराइल ने पलटवार की धमकी देकर एक नये मोर्चे पर जंग छेड़ने का ऐलान कर दिया जिससे पूरी दुनिया तनाव में आ गई। इसी बीच ईरान के एक इस्लामिक संगठन द्वारा इसराइल के जलपोत का अपहरण कर लिया गया जिस पर भारत के भी 22 लोग सवार थे जिसके बाद तनाव और बढ़ा।उधर इसराइल सरकार की  आपात्कालीन बैठक में ईरान से बदला लेने का निर्णय होने से वैश्विक स्तर पर हलचल मचने लगी। अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देशों के साथ ईरान के रिश्ते शत्रुतापूर्ण हैं। उस पर आर्थिक प्रतिबंधों का जबरदस्त घेरा है। रोचक बात ये है कि इसराइल के विरुद्ध हमलावर होने पर ईरान को सऊदी अरब और जार्डन  तक का समर्थन नहीं मिला। जिन अमेरिकी वायु दस्तों की सहायता से ईरानी मिसाइलों को नष्ट किया गया वे उक्त दोनों देशों के अलावा कुवैत, सं अरब अमीरात और कतर में तैनात हैं। ईरान ने पहली बार इसराइल पर सीधा हमला किया था। उसके पास परमाणु बम होने के आरोप में ही अमेरिका उसकी घेराबंदी करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता।यहां तक कि उससे कच्चा तेल नहीं खरीदने के लिए भी दूसरे देशों पर दबाव बनाता है। इसकी वजह से ये आशंका प्रबल होने लगी कि इसराइल और ईरान के बीच  जंग की शुरुआत हुई तो पूरा अरब जगत उसमें उलझ जाएगा। लेकिन लगभग आधा दर्जन प्रमुख मुस्लिम देशों द्वारा ईरानी हमलों से बचाव में इसराइल का साथ देने से समीकरण उलट गए जिससे ईरान भी थोड़ा ठंडा पड़ा। अमेरिका में चूंकि इस साल राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं इसलिए राष्ट्रपति बाइडेन भी ज्यादा उलझने से बचना चाह रहे हैं। उल्लेखनीय है यूक्रेन - रूस युद्ध में अमेरिका और उसके मित्र देश यूक्रेन को आर्थिक और सामरिक मदद देते आ रहे हैं। वरना रूस उस पर कब्जा जमा चुका होता। इसराइल और हमास के बीच हो रही लड़ाई का अप्रत्यक्ष भार भी अमेरिका पर पड़ रहा है। हालांकि फंसा ईरान भी है किंतु उसके इस्लामिक शासक अंध अमेरिकी विरोध के कारण इसराइल का अस्तित्व मिटाने की डींगें हाँका करते हैं। दूसरी तरफ सऊदी अरब, सं अरब अमीरात , मिस्र, जार्डन जैसे प्रमुख देश इसराइल से कारोबारी रिश्ते कायम करने लगे हैं। हालांकि रूस अभी भी सीरिया और ईरान के सिर पर हाथ रखे हुए है किंतु इसराइल पर हमले के बाद मुस्लिम देशों से अपेक्षित समर्थन न मिलने से ईरान का हौसला कमजोर हुआ है और वह भी सम्मानजनक तरीके से इस संकट से निकलना चाह रहा है। लेकिन बात इतने से ही समाप्त नहीं हो जाती क्योंकि इसराइल भले ही अभी चुप होकर बैठ जाए लेकिन ईरान द्वारा किये गए हमले का जवाब वह मौका पाते ही देगा ये सभी मानते हैं। उसके लिए सबसे उत्साहवर्धक है मुस्लिम देशों का दो फाड़ हो जाना। 1949 में अस्तित्व में आते ही उस पर जिन देशों ने हमला कर दिया उनके साथ उसकी दुश्मनी लंबी चली किंतु 20 वीं सदी खत्म होते - होते पश्चिमी एशिया के अनेक मुस्लिम देश समझ गये कि इसराइल एक वास्तविकता है जिसे चाहे- अनचाहे स्वीकार करना ही पड़ेगा। लिहाजा हालात बदलने लगे , वरना अब तक इसराइल पर चौतरफा आक्रमण होने लगते। मौजूदा स्थिति भारत के लिए भी चिंता का कारण है क्योंकि इसराइल के अलावा अनेक अरब देशों में हमारे नागरिक कार्यरत हैं। ईरान के कब्जे में जो जलपोत है उस पर भी भारतीय दल था। ऐसे में भारत के लिए भी कूटनीतिक संतुलन बनाये रखना जरूरी है क्योंकि इसराइल जहाँ हमारा भरोसेमंद सहयोगी है वहीं ईरान से मिलने वाले सस्ते कच्चे तेल के कारण हमारी अर्थव्यवस्था को बहुत सहारा मिला। हालांकि  इसराइल को लेकर इस्लामिक देशों की एकता जिस तरह खंडित हो रही है वह भारत के लिए अच्छा संकेत है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 15 April 2024

प्रधानमंत्री की छवि पर केंद्रित है भाजपा का संकल्प पत्र

लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने अपना संकल्प पत्र  मोदी की गारंटी नामक आवरण में लपेटकर जारी कर दिया। चुनावी वायदों  की पैकिंग बहुत ही आकर्षक होती है । और भाजपा के संकल्प पत्र में भी उसका भरपूर ध्यान रखा गया है।  एक फर्क अवश्य है कि कांग्रेस चूंकि 10 साल से सत्ता से बाहर है इसलिए उसके वायदों के पूरा होने पर मतदाताओं के मन में शंका हो सकती है। वहीं नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर जनता का भरोसा काफी हद तक जीता इसीलिए 2019 में उन्हें पहले से अधिक जनादेश प्राप्त हुआ।  यद्यपि एक वर्ग मानता है कि उसके पीछे पुलवामा हादसा रहा । उस लिहाज से यह चुनाव सही मायने में उनकी अग्नि परीक्षा है। दूसरे कार्यकाल में उन्होंने जम्मू कश्मीर से  धारा 370 हटवाने का वह कारनामा कर दिखाया जिसकी हिम्मत उनके पूर्व किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं दिखाई। राम मंदिर मुद्दे का हल  वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय के खाते में गया परंतु  लेकिन एक निश्चित समय सीमा के भीतर भव्य मंंदिर  निर्माण के साथ ही अयोध्या को एक सुविकसित स्वरूप प्रदान करते हुए प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन को वैश्विक स्तर पर प्रचारित करने का जो कार्य मोदी सरकार ने किया वह हर दृष्टि से अभूतपूर्व  था। हालांकि उसका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिलना ही था किंतु कांग्रेस सहित विपक्ष के अन्य दलों की अदूरदर्शी सोच के कारण उसमें और वृद्धि हो गई। गत दिवस पेश किये संकल्प पत्र में भाजपा ने समान नागरिक संहिता लागू करने और एक देश एक चुनाव प्रणाली से ज्यादा जोर उन मुद्दों पर दिया जो जनता को सीधे लाभान्वित करते हैं। मसलन 70 साल से ऊपर के सभी बुजुर्गों को 5 लाख तक के मुफ्त और  बिना भुगतान किये (कैश लैस) इलाज की सुविधा  , गरीबों को 3 करोड़ आवास, ग्रामीण क्षेत्रों में 50 हजार तक कर्ज की व्यवस्था, मुद्रा लोन की सीमा 20 लाख, घरों की छत पर सोलर प्लांट लगाकर मुफ्त बिजली , पाइप लाइन से रसोई गैस घर - घर पहुंचाकर उसकी लागत कम करने जैसे वायदे हैं। मुफ्त अनाज और किसान कल्याण निधि के अलावा अन्य जो भी जन कल्याणकारी कार्यक्रम चल रहे हैं उनको जारी रखने का संकल्प भी दोहराया गया है।  वायदे निभाने के मामले में भाजपा का रिकार्ड तुलनात्मक दृष्टि से बेहतर है इसलिए मोदी की गारंटी हाल के चुनावों में मतदाताओं को आकर्षित करने में सफल रही। विगत 10 सालों में मोदी सरकार ने  बड़े निर्णय लेकर उन्हें कार्य रूप में परिवर्तित किया लिहाजा उससे पूरी तरह संतुष्ट नहीं रहने वाले  मतदाता भी ये मानते हैं कि प्रधानमंत्री में निर्णय क्षमता तो है। उनकी सभी नीतियाँ और निर्णय सफल हुए हों ये कहना तो सही नहीं होगा किंतु  उनके पूर्ववर्ती डा. मनमोहन सिंह की सरकार असफलता के डर से  फैसले करने से बचती रही इसलिए इस सरकार की छवि उस मामले में बहुत बेहतर बन गई। डा. सिंह के विपरीत  श्री मोदी की सत्ता और पार्टी संगठन दोनों पर अच्छी पकड़ है। इसीलिए संकल्प पत्र से भी मोदी की गारंटी नाम जुड़ा हुआ है। लेकिन कुछ मूलभूत मुद्दे हैं जिन पर आगे  प्रधानमंत्री को तेजी से ध्यान देना होगा। सभी शिक्षित युवाओं को सरकारी नौकरी देना तो किसी के लिए संभव नहीं है किंतु रोजगार के वैकल्पिक स्रोत उत्पन्न करते हुए बेरोजगारी दूर करने युद्धस्तरीय प्रयास समय की मांग है। इसी तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य के विवाद का सार्थक हल तलाशना भी तीसरी पारी में बड़ी चुनौती होगी।  भाजपा को मध्यमवर्गीय लोगों का समर्थन प्रारंभ से मिलता आया है। लेकिन इस वर्ग के नौकरपेशा और व्यापारी दोनों में नाराजगी है, जिसे दूर नहीं किया गया तो कालांतर में उसको नुकसान झेलना पड़ सकता है। हालांकि संकट की स्थितियों में समुचित निर्णय लेने के लिए मोदी सरकार ने जनता के मन में जगह बनाई है किंतु मणिपुर जैसे मामलों में प्रभावशाली कदम नहीं उठाने के लिए उसे आलोचना भी झेलनी पड़ी है। धारा 370 हटने के बाद जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव करवाने जैसी चुनौतियाँ तीसरे कार्यकाल में श्री मोदी का इंतजार कर रही हैं। विदेश नीति और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में प्रधानमंत्री ने निश्चित रूप से असर छोड़ा है। अधो संरचना के कार्य भी जनता की पसंद का विषय हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध वैसे तो इस सरकार ने बहुत ही दबंगी दिखाई है किंतु उसे इस आरोप से बाहर निकलना होगा कि ईडी और सीबीआई की समूची सक्रियता केवल भ्रष्ट विपक्षी नेताओं तक सीमित है और भाजपा में आते ही उनके दामन उजले हो जाते हैं। कुल मिलाकर मोदी सरकार का अब तक का कार्यकाल उस दृष्टि से सफल कहा जा सकता है कि उसने विकास के पहिये को थमने नहीं दिया। कोरोना संकट के बाद अर्थव्यवस्था का तेजी से दौड़ना बड़ी सफलता है। जिससे देश का आत्मविश्वास बढ़ा है। और इसीलिए इस संकल्प पत्र के जारी होने के पहले से ही प्रधानमंत्री ने तीसरी पारी के शुरुआती 100 दिन की कार्य योजना तैयार होने की चर्चा छेड़ दी। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 13 April 2024

दिल्ली राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ रही


दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तिहाड़ जेल में हैं। उनकी रिहाई सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत उनकी याचिका पर होने वाले फैसले पर निर्भर करेगी जिसमें उन्होंने ईडी द्वारा उनको गिरफ्तार किये जाने की कारवाई को ही चुनौती दी है। इस मामले में पहले से गिरफ्तार अन्य नेताओं की जमानत  अर्जियाँ जिस तरह निरस्त होती आ रही हैं उसके कारण श्री केजरीवाल की जल्द रिहाई को लेकर कानून के जानकार आश्वस्त नहीं हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा उनकी गिरफ्तारी को विधि सम्मत बताते हुए जिस प्रकार की कड़ी टिप्पणियां की गईं यदि सर्वोच्च न्यायालय भी उनसे सहमत हो गया तब तो उनको भी पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया की तरह लंबे समय तक तिहाड़ जेल में रहना पड़ सकता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ये है कि जेल जाने के बाद भी उपमुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देने की ज़िद पर अड़े श्री केजरीवाल को यदि सर्वोच्व न्यायालय ने भी तत्काल रिहा करने से इंकार कर दिया तब दिल्ली सरकार का कामकाज कैसे चलेगा ? हालांकि उन्हें पद से हटाये जाने की अर्जियाँ न्यायालय ने स्वीकार नहीं  कीं क्योंकि संविधान इस बारे में मौन है किंतु जो जानकारी आ रही है उसके अनुसार मुख्यमंत्री द्वारा जेल में बैठकर सरकार चलाने का फैसला भले ही संविधान के लिहाज से गलत न हो किंतु व्यवहारिक दृष्टि से वह ज्यादा समय तक कारगर साबित नहीं हो सकता। जेल जाने के बाद वे अपनी पत्नी के जरिये निर्देश जारी कर रहे थे जिनकी कोई वैधानिक स्थिति नहीं है। उनकी अनुपस्थिति में चूंकि कैबिनेट मीटिंग  नहीं हो पा रही इसलिए नीतिगत फैसले नहीं हो पा रहे। इसके अलावा बड़ी संख्या में फाइलों के ढेर लगते चले जा रहे हैं। इसी सबके कारण ये अटकलें लगना शुरू हो गई हैं कि दिल्ली में राष्ट्रपति शासन की परिस्थितियाँ बन रही हैं। गत दिवस सरकार की मंत्री आतिशी मार्लेना ने पत्रकार वार्ता में खुलकर आरोप लगाया कि उपराज्यपाल केजरीवाल सरकार को अपदस्थ करने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन ये आम आदमी पार्टी की कार्यशैली है जिसमें वह किसी भी विपरीत परिस्थिति का पूर्वानुमान लगाकर पहले से अपने लिए सहानुभूति अर्जित करने का खेल खेलती है। खुद केजरीवाल अपनी गिरफ्तारी का शिगूफा लंबे समय से छोड़ रहे थे। इस बारे में विचारणीय बात ये है कि  मुख्यमंत्री सहित पूरी पार्टी ईडी की संभावित कारवाई से अवगत थी। जो दिग्गज वकील आज जमानत के लिए खड़े हैं उनसे भी सलाह ली गई होगी। ईडी द्वारा भेजे गए 9 समन  श्री केजरीवाल द्वारा उपेक्षित किये जाने के पीछे भी गिरफ्तारी से बचने का दांव ही था। जरूरत से ज्यादा होशियारी व्यक्ति को कितनी महंगी पड़ जाती है ये इस उदाहरण से स्पष्ट है। जेल जाते ही मुख्यमंत्री त्यागपत्र दे देते तब वे नैतिकता का ढोल पीटने के अधिकारी होते किंतु अब वे जो अकड़ दिखा रहे हैं वह सत्ता में येन केन प्रकारेण बने रहने की छटपटाहट का परिणाम है। दरअसल उन्हें ये डर है कि  एक बार मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद दोबारा उसे हासिल करना मुश्किल होगा। वे अपनी पत्नी को यदि उत्तराधिकार सौंपते तो अव्वल तो पार्टी में नेताओं का अभाव सामने आता और दूसरा भाजपा परिवारवाद के आरोप में आम आदमी पार्टी को कटघरे में खड़ा करती। श्री केजरीवाल जानते हैं कि उनके हटते ही पार्टी में नये शक्ति केंद्र सिर उठाने लगेंगे और बड़ी बात नहीं कि कोई एकनाथ शिंदे और अजीत पवार जैसा खेल रचते हुए पार्टी को दो फाड़ कर डाले। भाजपा भी मौके की तलाश में है।  सर्वोच्च न्यायालय में श्री केजरीवाल की याचिका का क्या हश्र होता है  उस पर सबकी निगाह लगी है। यदि वहाँ से मुख्यमंत्री को राहत नहीं मिली तब दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगने के आसार और मजबूत हो जायेंगे। लेकिन इस सबके कारण आम आदमी पार्टी और श्री केजरीवाल दोनों की चुनावी व्यूहरचना अस्त व्यस्त होकर रह गई है। सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि जिस समय श्री केजरीवाल को भाजपा और प्रधानमंत्री पर सबसे अधिक हमलावर होना था उस समय वे अपना बचाव करने मजबूर हैं। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 12 April 2024

चुनाव को आंकड़ों पर केंद्रित कर अपना माहौल बनाने में सफल हो रहे मोदी

शांत किशोर भले ही राजनीतिक नेता न हों किंतु राजनीति में रुचि रखने वालों के बीच वे एक जाना - पहचाना नाम हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान के दिशा निर्देशक रहे प्रशांत  रातों - रात चर्चित व्यक्तित्व बन गए। मोदी सरकार के बनने में पोउनकी रणनीति काफी कारगर मानी गई थी। लेकिन बाद में वे भाजपा से दूर हो गए। नीतीश कुमार और ममता बैनर्जी के अलावा जगन मोहन रेड्डी की चुनावी सफलता में भी उनका योगदान रहा। नीतीश ने उनको जनता दल (यू) में पद भी दिया किंतु फिलहाल वे जन सुराज नामक संगठन बनाकर बिहार के चप्पे - चप्पे में घूमकर लोगों को जागरूक करने में जुटे हुए हैं। भविष्य में इसी बैनर तले बिहार में चुनाव लड़ने का इरादा भी जता चुके हैं। संरासंघ जैसी संस्था में  काम कर चुके प्रशांत इन दिनों टीवी चैनलों पर अपने साक्षात्कार के लिए चर्चाओं में हैं। इस दौरान वे लोकसभा चुनाव को लेकर अपना आकलन भी पेश कर रहे हैं। उल्लेखनीय है 2014 के बाद उनकी श्री मोदी और भाजपा दोनों से दूरी काफी ज्यादा हो गई। प्रधानमंत्री की आलोचना करने का कोई अवसर वे नहीं चूकते थे। उनके कांग्रेस से जुड़ने की खबरें भी खूब चलीं किंतु राहुल गाँधी से पटरी न बैठने से बात आगे नहीं बढ़ी। उसके बाद वे बिहार में जनता से सीधे संवाद के जरिये अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने में जुट गए किंतु प्रादेशिक के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति और नेताओं पर उनकी टिप्पणियां लोगों का ध्यान आकर्षित करती रहती हैं।  इसीलिए विभिन्न समाचार माध्यम लगातार उनके साथ  बातचीत प्रसारित कर रहे हैं। चूँकि वे किसी दल या चैनल के लिए सर्वेक्षण का  काम नहीं कर रहे   इसलिए उनका आकलन काफी मायने रखता है। शुरुआती दौर में तो वे ज्यादा नहीं बोल रहे थे किंतु कुछ दिनों से खुलकर ये कहने लगे हैं कि पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद  नरेंद्र मोदी लगातार तीन चुनाव जीतने का करिश्मा दोहराने जा रहे हैं। यद्यपि भाजपा को 370 और एनडीए के 400 पार के दावे से वे सहमत नहीं हैं लेकिन उनका स्पष्ट रूप से कहना है कि भाजपा 2019 की अपनी संख्या में वृद्धि करने के साथ ही पूर्वी और दक्षिणी राज्यों में अब तक के सबसे ज्यादा मत हासिल करेगी।  प. बंगाल, उड़ीसा, तेलंगाना आदि में उसके चमत्कारिक प्रदर्शन की उम्मीद भी श्री किशोर जता रहे हैं। हालांकि इस कारण से कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियाँ उनकी आलोचना करते हुए आरोप लगा रही हैं कि वे भाजपा के पक्ष में माहौल बना रहे हैं लेकिन जिस आधार पर उन्होंने मोदी सरकार की वापसी की उम्मीद व्यक्त की है उसे समझने के उपरांत उनकी बात सही प्रतीत होने लगती है। उदाहरण के लिए इंडिया गठबंधन  बन जाने जाने के महीनों बाद तक उसका कोई मैदानी शक्ति प्रदर्शन नहीं हो सका। मुंबई, बिहार और दिल्ली में आयोजित रैलियां क्रमशः कांग्रेस, राजद और आम आदमी पार्टी द्वारा प्रायोजित थीं। दूसरी बात ये कि अब तक सिवाय मोदी को हटाने के इस गठबंधन का अन्य कोई साझा कार्यक्रम लोगों को समझ नहीं आया। राहुल गाँधी की नेतृत्व क्षमता पर भी वे सवाल उठाते रहे हैं। वैसे श्री किशोर तो अपनी राय पूरे देश के राजनीतिक हालात का अवलोकन करने के बाद व्यक्त कर रहे हैं किंतु जिन पेशेवर एजेंसियों द्वारा  चुनाव पूर्व सर्वेक्षण किया जा रहा है वे भी  जो अनुमान प्रस्तुत कर रही हैं उनके अनुसार दक्षिण भारत छोड़कर बाकी के राज्यों में भाजपा और एनडीए बढ़त पर हैं। महाराष्ट्र, प. बंगाल और बिहार ही वे राज्य हैं जहाँ एनडीए को कड़ी टक्कर मिलती बताई जा रही है किंतु वहाँ भी   किसी बड़े नुकसान की संभावना कम है। प्रशांत किशोर का भी  मानना है कि प्रधानमंत्री ने भाजपा की 370 और एनडीए की 400 से अधिक सीटें आने का जो नारा देकर  पूरे विमर्श की उसी पर केंद्रित कर दिया। और उसके बाद उन्होंने  तीसरे कार्यकाल में बड़े और कड़े निर्णय करने के साथ ही पहले 100 दिन की कार्य योजना तैयार होने जैसी बात कहकर जिस आत्मविश्वास का प्रदर्शन किया उस वजह से ये अवधारणा और मजबूत हुई कि मतदाता इस सरकार को तीसरा अवसर देने जा रहे हैं। अब तक मिले मैदानी संकेत  और तमाम सर्वेक्षण एजेंसियों के आकलन से वे राजनीतिक विश्लेषक भी अब मोदी सरकार के लौटने की संभावना से सहमत होने लगे हैं जो ऐलनिया भाजपा विरोधी कहे जाते हैं। गत वर्ष संपन्न विधानसभा चुनावों के बाद से राष्ट्रीय राजनीति में विपक्षी खेमे में जो बिखराव और शून्यता नजर आने लगी उससे भाजपा को और आक्रामक होने का अवसर मिल गया। सत्ता विरोधी रुझान पूरी तरह लुप्त हो गया ये मान लेना गलत होगा किंतु प्रधानमंत्री पद को लेकर विपक्ष में व्याप्त अनिश्चितता और अविश्वास ने नरेंद्र मोदी को और मजबूती दे दी। प्रशांत किशोर का आकलन उसी का परिणाम है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 11 April 2024

चुनावी वायदों में महानगरों की बढ़ती प्यास और रुकती सांस की चिंता क्यों नहीं की जाती

चुनाव के मौसम में वायदों की बरसात हो रही है। कोई नौकरियां बांटने का आश्वासन बांट रहा है तो किसी के झोले में आपको लखपति बनाने का नुस्खा है। मुफ्त बिजली और अन्न के वायदे भी  उछल रहे हैं। जाति के नाम पर लोगों को अलग पाँत में खड़ा करने का झुनझुना भी बजाया जा रहा है। संपत्ति के समान बँटवारे की सुरसुरी भी छोड़ दी गई है। लाखों रुपये का इलाज मुफ्त करवाने का भरोसा  दिये जाने के साथ ही महिलाओं को आकर्षित करने सभी राजनीतिक दल स्पेशल इलेक्शन पैकेज लेकर घर - घर जा रहे हैं। बुजुर्गों और युवाओं को भी तरह - तरह के सपने दिखाकर आकर्षित किया जा रहा है। वैसे इसमें नया कुछ भी नहीं है। कृषि प्रधान से चुनाव प्रधान देश बन जाने के कारण भारत में वायदों के बीज बोये जाने लगे हैं। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि उनमें से बहुत कम ही अंकुरित हो पाते हैं। यदि चुनावी वायदों में आधे भी वास्तविकता में बदले होते तो  देश दुनिया के विकसित देशों की कतार में आगे खड़ा नजर आता। हालांकि ये कहना तो गलत होगा कि कुछ नहीं हुआ किंतु जितना कहा गया वह नहीं होने से आज भी तमाम ऐसी समस्याएं मौजूद हैं जो आज़ादी के समय भी थीं। इसका कारण राजनीतिक नेताओं में प्रतिबद्धता और दायित्वबोध का अभाव ही है वरना सात दशक के कालखण्ड में जापान राख के ढेर से निकलकर बड़ी आर्थिक शक्ति बन बैठा। वहीं अफीमचियों के देश के तौर पर कुख्यात चीन दुनिया की आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बनकर अमेरिका तक को चुनौती देने की हिमाकत करने से नहीं चूकता। कहने का आशय ये है कि जिस लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हेतु लोकतंत्र को हमने अपनाया वह निजी स्वार्थों की पूर्ति का साधन बनकर रह गया। विकास तो हुआ किंतु जिन मूलभूत समस्याओं पर ध्यान देते हुए भविष्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं  से बचा जा सकता था उनकी अनदेखी की गई। जिसका दुष्परिणाम नई पीढ़ी के सपनों को साकार करने वाले महानगरों की चरमराती व्यवस्थाओं के रूप में देखने मिल रहा है। कुछ दिनों पहले देश के आई.टी हब और सिलीकान वैली कहलाने वाले बेंगलुरू महानगर में उत्पन्न जलसंकट की खबर आई थी। और अब दक्षिण भारत के एक और महानगर चेन्नई में पानी की किल्लत का समाचार आ गया। इस महानगर में पेयजल आपूर्ति के स्रोत के तौर पर प्रसिद्ध झील में पानी समाप्त हो गया जबकि अभी तो पूरी गर्मियां पड़ी हैं। वीरानम नामक इस झील से 43 फीसदी चेन्नई को पानी मिलता है । समुद्र के किनारे बसी तमिलनाडु की इस राजधानी के बाकी तालाब भी जवाब दे चुके हैं। यहां समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने का संयंत्र भी लगाया गया है किंतु उसकी क्षमता आबादी के अनुपात में बेहद कम है। एक समय था जब बेंगलुरू अपने खुशनुमा मौसम के लिए प्रसिद्ध था। इसीलिए इसे मैसूर रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी बनाया गया था। यहाँ के बाग - बगीचे पर्यटकों को आकर्षित करते थे। उधर चेन्नई देश के चार महानगरों में शुमार किया जाता रहा है। अंग्रेजों के जमाने से ही चेन्नई ( पूर्व नाम मद्रास) एक प्रमुख शहर रहा। पहले तो तमिलनाडु राज्य  का नाम ही मद्रास हुआ करता था। आजादी के बाद से ही बेंगलुरू और चेन्नई का विकास और विस्तार होता गया जिसके कारण  आबादी बेतहाशा बढ़ी। परिणाम स्वरूप अव्यस्थाओं ने पनपना शुरू किया। यातायात समस्या, प्रदूषण और  अतिक्रमण यहाँ की पहचान बनते चले गए। देश के अन्य महानगर मसलन कोलकाता, मुंबई भी इन्हीं का शिकार हैं। देश की राजधानी दिल्ली तो दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी बन चुकी है। ऐसे में प्रश्न ये है कि चुनावी वायदों में उक्त समस्या के निदान को कितना महत्व दिया जाता है। सड़कें, पुल, फ्लायोवर निश्चित रूप से बने हैं।  अंतर्राष्ट्रीय स्तर के राजमार्गों के निर्माण की वजह से सड़क यातायात में दिन ब दिन वृद्धि हो रही है। प्रधानमंत्री ने देश में 100 स्मार्ट सिटी बनाने की योजना शुरू की। स्वच्छता मिशन की वजह से साफ - सफाई भी एक महत्वपूर्ण विषय बन गया। लेकिन ये स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है कि शासन में बैठे रहनुमा बढ़ते शहरीकरण के खतरों को भांपने में चूक गए। आबादी का केंद्रीकरण बड़े शहरों में एकाएक तो हुआ नहीं। ऐसे में  सरकार चलाने वाले चाहे वे किसी भी दल के क्यों न रहे हों यदि सतर्क रहते तब शायद महानगरों की कमर इस तरह न टूटती। समय आ गया है जब इस बारे में गंभीर चिंता की जाए। शहरों पर आबादी के बढ़ते बोझ को नहीं रोका गया तो फिर वह वह दिन दूर नहीं जब बेंगुलुरू और चेन्नई जैसी पानी की किल्लत और दिल्ली जैसी सांस लेने की दिक्कत मझोले स्तर के शहरों में भी देखने मिलेगी। बेहतर होता यदि चुनाव में ऐसे मुद्दे भी राजनीतिक दलों की प्राथमिकताओं में नजर आते। लेकिन कुछ कसूर तो मतदाताओं का भी है जो क्षणिक लाभ के बदले  बदहाली की ज़िंदगी जीने तैयार हो जाते हैं। 


-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 10 April 2024

केजरीवाल द्वारा जगाई उम्मीदें यमुना के प्रदूषित जल में डूब गईं


दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा उनकी गिरफ्तारी को दी गई चुनौती याचिका उच्च न्यायालय ने न सिर्फ खारिज कर दी बल्कि उनके द्वारा उठाये गए मुद्दों पर तीखी टिप्पणियां भी कर डालीं। चुनाव के समय  गिरफ्तारी पर आपत्ति को अदालत ने ये कहते हुए ठुकरा दिया कि उसे राजनीतिक  नहीं, संवैधानिक नैतिकता की ज्यादा फिक्र है। सरकारी गवाहों के बयानों  के आधार पर  आरोपी बनाए जाने के ऐतराज पर  न्यायालय ने ये कहते लताड़ भी लगाई कि मजिस्ट्रेट के सामने रिकार्ड किये गए बयानों की प्रामाणिकता पर सवाल उठाना न्याय प्रक्रिया का अपमान है। उक्त आधार पर न्यायाधीश ने उनकी गिरफ्तारी को सही बताते हुए स्पष्ट किया कि  शराब घोटाले में श्री केजरीवाल के लिप्त होने के पुख्ता प्रमाण हैं । उन्होंने उक्त फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी है क्योंकि यदि वे जेल में रहते हुए इंतजार करते रहेंगे तो फिर आम जनता में ये संदेश जायेगा कि उन्होंने हथियार डाल दिये। पहले भी अदालत ने उनकी गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त सबूत होने की पुष्टि की जिसके बाद ईडी ने उनको गिरफ्तार किया।  यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के निष्कर्षों से पूरी तरह सहमत होगा यह मान लेना जल्दबाजी होगी किंतु  मनीष सिसौदिया की जमानत याचिकाएं लगातार निरस्त होने से लगता है कि श्री केजरीवाल आसानी से बाहर नहीं आ सकेंगे। अपनी टिप्पणियों में उच्च न्यायालय ने ऐसे मामलों में आम जनता और मुख्यमंत्री के बीच अंतर करने से मना कर दिया। यही कारण है आज उनकी वह अर्जी अदालत ने नामंजूर कर दी जिसमें उन्होंने अपने वकील से सप्ताह में पांच बार मिलने की सुविधा चाही थी ।  चूंकि सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल कर दी गई है इसलिए कानूनी पक्ष पर कुछ कहना उचित नहीं है लेकिन श्री केजरीवाल और उनकी पार्टी ने बीते 12 सालों में जो धाक बनाई थी, उसे जबरदस्त धक्का पहुंचा है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि  अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए आंदोलन के गर्भ से जन्मी आम आदमी पार्टी दिल्ली की तत्कालीन शीला दीक्षित सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई थी। दरअसल उसका सैद्धांतिक पलायन तो उसी दिन शुरू हो गया था जब  2014 में सबसे बड़ी पार्टी होने पर भी भाजपा द्वारा सरकार बनाने में असमर्थता व्यक्त किये जाने पर श्री केजरीवाल ने बिना संकोच किये उस कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली जो उनकी नजर में भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति थी। हालांकि वह सरकार जल्द गिर गई और नया चुनाव होने पर आम आदमी पार्टी प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौटी। स्मरणीय है श्री  केजरीवाल ने 2014 में देश के भ्रष्ट नेताओं की जो  सूची जारी की थी उसमें राहुल गाँधी तो थे , लेकिन नरेंद्र मोदी नहीं, जो आज उनके सबसे बड़े दुश्मन हैं। उस सूची में नितिन गडकरी का भी नाम था जिनसे बाद में उन्होंने घर जाकर लिखित माफी मांगी। ऐसा ही माफीनामा  बाद  में उनको विक्रमजीत सिंह मजीठिया, कपिल सिब्बल और स्व. अरुण जेटली के सामने भी प्रस्तुत करना पड़ा। भले ही मुफ्त बिजली -  पानी के लालच में दिल्ली की जनता ने श्री केजरीवाल को जबरदस्त बहुमत दिया किंतु उनकी कार्य शैली से नाराज होकर आम आदमी पार्टी के संस्थापकों में से कुछ ने जब अपना विरोध जताया तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा  दिया गया। जिन अन्ना हजारे के सहारे श्री केजरीवाल नेता बने उन्हें भी किनारे करने में संकोच नहीं किया। इस तरह आम आदमी पार्टी एक खास व्यक्ति की निजी जागीर होकर रह गई। शराब घोटाले में चोर की दाढ़ी में तिनका की कहावत तो तभी सत्य साबित हो गई थी जब चौतरफा विरोध के बाद वह नीति वापस ले ली गई । सही बात तो ये है कि  श्री केजरीवाल जिस नई और साफ सुथरी राजनीति के ध्वजावाहक बनकर उभरे थे वह तो  तभी हवा- हवाई होकर रह गई जब  वे उन दलों के साथ गठबंधन में शामिल हो गए  जिनके नेता उनकी नजर में भ्रष्ट थे। जिन सोनिया गाँधी को गिरफ़्तार नहीं किये जाने के लिए श्री केजरीवाल, नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा करते हुए सब एक हैं जी जैसा तंज कसते थे , उन्हीं की शरण में खड़े होने में उनको शर्म नहीं आई। सबसे जल्दी राष्ट्रीय  पार्टी बनने का कीर्तिमान बनाने वाली आम आदमी पार्टी सबसे जल्दी नैतिक पतन का रिकार्ड भी बना बैठी। शराब घोटाले का अंत क्या होगा ये तो अदालत तय करेगी किंतु  जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनको देखकर  कहा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी ने जो उम्मीदें जगाई थीं वे दिल्ली में यमुना नदी के प्रदूषित जल में डूबकर रह गईं । और इसके लिए श्री केजरीवाल की महत्वाकांक्षाएं और बड़बोलापन  ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 9 April 2024

निवेशकों का उत्साह मोदी सरकार की वापसी का संकेत

लांकि शेयर बाजार के उतार - चढ़ाव को  चुनाव परिणामों का संकेत समझ लेना पूरी तरह सही तो नहीं कहा जा सकता किंतु देश में उदारीकरण आने के बाद  विदेशी निवेशक भी भारतीय बाजारों में पूंजी निवेश करने लगे हैं। इसका कारण भारत का बड़े उपभोक्ता बाजार की स्थिति से निकलकर निर्यातक की भूमिका में आना है। पहले केवल सॉफ्टवेयर निर्यात में भारत का दबदबा था किंतु अब मोबाइल  और दवाओं के अलावा  खाद्यान्न तथा रक्षा सामग्री का बड़े पैमाने पर निर्यात होने से वैश्विक  अर्थव्यवस्था में भारत एक महत्वपूर्ण  हिस्सेदार के तौर पर उभरा है। कोविड काल में जब दुनिया के ज्यादातर  संपन्न और शक्तिशाली देश आर्थिक मोर्चे पर मुसीबतों का सामना कर रहे थे तब भारत में रिकार्ड मात्रा में विदेशी पूंजी का आना इस बात को प्रमाणित करने पर्याप्त है कि वह न सिर्फ राजनीतिक स्थिरता अपितु आर्थिक दृष्टि से भी सुदृढ़ होने की ओर अग्रसर है। कोविड की विदाई होते - होते दुनिया रूस - यूक्रेन युद्ध के कारण नई परेशानी में फंस गई। और फिलहाल इजराइल और फिलिस्तीनियों के बीच गाज़ा पट्टी में जारी युद्ध समस्या बना हुआ है। भारत इन सभी संकटों से खुद को बचाकर जिस तरह आर्थिक तौर पर दुनिया भर के निवेशकों को आकर्षित कर रहा है उससे इतना तो स्पष्ट है उन्हें इस बात का विश्वास हो चला है कि लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार की वापसी सुनिश्चित है।  राजनीति की नब्ज पर हाथ रखने वाले भी अब दबी जुबान ही सही किंतु ये कहने लग गए हैं कि भले ही भाजपा को 370 और एनडीए को 400 सीटें मिलने का दावा यथार्थ में न बदले किंतु विपक्ष को सत्ता मिलने की संभावना  लगातार क्षीण होती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण आपसी समझ का अभाव है। कहने को इंडिया नामक गठबंधन अस्तित्व में जरूर आ गया किंतु  उसमें शामिल पार्टियां अपने निजी हितों को लेकर जिस प्रकार से अड़ियल रवैया दिखाती आईं हैं उसकी वजह से भले ही राज्य विशेष में गठबंधन का कोई घटक भाजपा का मुकाबला कर रहा हो किंतु उसे संयुक्त विपक्ष का स्वरूप नहीं मिल पा रहा। भाजपा के विरुद्ध एक साझा उम्मीदवार खड़ा करने की मुहिम भी उतनी असरकारक नजर नहीं आ रही।  इस वजह से एक विपक्षी दल के वोट दूसरे को स्थानांतरित होना मुश्किल लगता है। और फिर नीतिगत मुद्दों पर भी एक स्वर नहीं सुनाई देने से  दिशाहीनता उजागर होने लगी है। कांग्रेस द्वारा जारी न्यायपत्र की भाजपा द्वारा की गई आलोचना तो समझ में आती है किंतु इंडिया के घटक दल सीपीएम के नेता केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने भी उस पर तीखी टिप्पणियां कर डालीं । इसी तरह राहुल गाँधी अपनी सभाओं में जिन वायदों और गारंटियों का जिक्र कर रहे हैं उनको गठबंधन के सदस्यों की ओर से समर्थन नहीं मिलना भी सवाल खड़े कर रहा है। यही वजह है कि प्रसिद्ध  स्तंभकार और चुनाव विश्लेषक भी अब इस बात की संभावना व्यक्त करने लगे हैं कि आएंगे तो मोदी ही। प्रसिद्ध चुनाव विश्लेषक प्रशांत किशोर ने भी कहना शुरू कर दिया है कि भाजपा 300 से अधिक सीटें लेकर सत्ता में लौटेगी। उन्होंने श्री गाँधी पर जिस प्रकार की व्यंग्यात्मक टिप्पणियां कीं उससे ये लगने लगा है कि वे एक बार फिर असफल साबित होने जा रहे हैं। 1977 के बाद जब नई - नवेली जनता पार्टी मैदान में उतरी तब उसका कोई संगठनात्मक ढांचा तक न था। लेकिन राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की लंबी कतार जरूर थी। कहने को इंडिया के मंच पर भी विभिन्न पार्टियों के नेता नजर आते हैं किंतु उनमें न भावनात्मक एकजुटता है और न ही सैद्धांतिक। इस वजह से गठबंधन जिस मजबूत स्थिति में दिखना चाहिए था वह न हो सका। कांग्रेस को सबसे बड़े दल के नेता के तौर पर गठबंधन में कसावट लानी चाहिए थी किंतु वह चूक गई। यही वजह है कि श्री गाँधी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित नहीं किये जा सके। कांग्रेस  के बारे में वैसे भी ये बात सामने आ चुकी है कि वह बहुमत तो दूर की बात है अपनी वर्तमान स्थिति में सुधार कर ले तो वह बड़ी उपलब्धि होगी। यह  अवधारणा जितनी व्यापक होगी विपक्ष का उतना नुकसान होगा। कुल मिलाकर श्री गाँधी दो - दो बड़ी यात्राएं करने के बावजूद श्री मोदी की तुलना में बहुत कमजोर साबित हो रहे हैं। कांग्रेस से नेताओं का लगातार पलायन उसी वजह से हो रहा है। चुनाव 7 चरणों में होने से प्रचार अभियान लम्बा चलेगा जो विपक्ष के लिए समस्या बन गया है। भाजपा दक्षिण के जिन राज्यों में कमजोर है, वहाँ भी पूरी ताकत झोंक रही है जबकि भाजपा के प्रभाव वाले राज्यों में  कांग्रेस आधे - अधूरे मन से लड़ती दिख रही है। सोनिया गाँधी की अस्वस्थता भी उसके लिए नुक्सानदायक है। अमेठी और रायबरेली जैसी सीटों पर उम्मीदवार चुनने में उदासीनता अच्छा संकेत नहीं है। 

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 रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 8 April 2024

निजी कानूनों की आज़ादी का वायदा अलगाववाद को बढ़ावा देगा

काँग्रेस द्वारा  अपने न्याय पत्र में प्रत्येक नागरिक की तरह अल्पसंख्यकों को भी पोशाक, खान-पान, भाषा और निजी कानूनों की आजादी का जो वादा किया गया है वह बहुत ही खतरनाक है जिसका दुष्परिणाम अलगाववाद के रूप में सामने आये बिना नहीं रहेगा। कर्नाटक की पिछली भाजपा सरकार द्वारा शिक्षण संस्थानों में हिज़ाब पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद देश भर के मुस्लिम संगठन विरोध में उतर आये। कांग्रेस भी उनके साथ खड़ी हो गई। राज्य विधानसभा चुनाव में उसी वजह से मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण उसके पक्ष में हुआ वरना कई दशकों से वे जनता दल (सेकुलर) को मिलते आ रहे थे। धारा 370 , तीन तलाक़ और राम  मन्दिर जैसे मुद्दों पर अपने गलत रवैये के कारण हिन्दू मतदाताओं के बीच पकड़ खोती जा रही काँग्रेस के लिए मुस्लिम मत डूबते में तिनके का सहारा जैसे हैं। इसीलिए वह उनके तुष्टीकरण में जुटी है। भाजपा द्वारा समान नागरिक संहिता लागू करने की मुहिम शुरू करने के बाद से काँग्रेस का मुस्लिम प्रेम कुछ ज्यादा  ही बढ़ गया है। न्याय पत्र में अल्पसंख्यकों को खान पान , भाषा और पोशाक की आजादी का वायदा तो फिर भी ठीक है किंतु निजी कानूनों की आजादी का वायदा पूरे देश में अस्थिरता और अराजकता का माहौल उत्पन्न करने का आधार बन सकता है । ऐसे में जब पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू कर धार्मिक आधार पर भेदभाव खत्म करने पर विमर्श चल रहा हो और सर्वोच्च न्यायालय तक इस बात पर नाराजगी जता चुका हो कि संविधान के अनुच्छेद 44 की मंशा के अनुसार समान नागरिक संहिता लागू क्यों नहीं की गई तब काँग्रेस द्वारा इस तरह का वायदा करना उस संविधान का भी अपमान है जिसे उसी के नेताओं द्वारा बनाया गया था।  उल्लेखनीय है उक्त अनुच्छेद में स्पष्ट कहा गया था कि एक समान नागरिक संहिता विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के प्रति परस्पर विरोधी विचारधाराओं और निष्ठाओं को दूर करके राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देगी।  आजादी के बाद हिंदुओं के विवाह और उत्तराधिकार कानूनों को तो सिरे से बदल दिया गया किंतु पंडित नेहरू जैसे आधुनिक सोच रखने वाले प्रधानमंत्री में इतना साहस नहीं हुआ कि वे मुस्लिम समाज को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए उसके पर्सनल लॉ में समयानुकूल परिवर्तन करने की पहल करते। यदि उन्होंने उस दिशा में कदम उठाये होते तो आज हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो खाई है वह शायद इतनी चौड़ी न  होती। दशकों बाद नेहरू जी के नाती राजीव गाँधी के शासनकाल  में सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो के गुजारा भत्ते  पर ऐतिहासिक फैसला देकर मुस्लिम समाज में सुधार  की शुरुआत की थी। लेकिन विदेशों में पढ़े और बेहद प्रगतिशील ख्यालों के लिए लोकप्रिय राजीव ने मुस्लिम मतों के लालच में उस निर्णय को संसद में  अपने बहुमत के बल पर उलट दिया। ये कहना गलत नहीं होगा कि उस गलती का खामियाजा आज तक कांग्रेस भुगत रही है। आज देश में हिंदुत्व का जो उभार दिखाई देता है उसके लिए भी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं। हालांकि धीरे - धीरे भाजपा और शिवसेना (अविभाजित ) को छोड़कर लगभग सभी पार्टियां मुस्लिम वोट बैंक के मोहपाश में फंसती गईं। आज के परिदृश्य पर नजर डालें तो ममता बैनर्जी, लालू प्रसाद यादव, अखिलेश यादव  की राजनीति तो मुस्लिम मतदाताओं की दम पर ही जीवित है। कांग्रेस नये सिरे से उनकी मिजाजपुर्सी में जुटी है, लेकिन कुछ  क्षेत्रीय दल इस मामले में उससे भी आगे हैं । ये देखते हुए कांग्रेस को चाहिए वह खुद को मुख्यधारा की राजनीति से जोड़ने के लिए प्रयास करे किंतु उसमें ईमानदारी होनी चाहिए। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर कांग्रेस पहले ही अपने पाँवों में कुल्हाड़ी मार चुकी थी। उस गलती को सुधारने के बजाय उसने अपने न्याय पत्र में अल्पसंख्यकों को निजी कानूनों की आजादी देने का वायदा कर बर्र के छत्ते में पत्थर मारने की मूर्खता कर डाली। एक तरफ तो उसके सहयोगी द्रमुक के नेता सनातन को नष्ट करने की डींग हांकते हैं जिसका समर्थन करने वाले कांग्रेस अध्यक्ष के बेटे पर कोई कारवाई नहीं होती। दूसरी ओर पार्टी अपने चुनावी वायदे में सांकेतिक शैली में मुस्लिम पर्सनल लॉ को बनाये रखने का वायदा करती है। उसके नेता चुनाव जीतने के लिए जो कुचक्र रच रहे हैं वह बहुत बड़ी समस्या को जन्म देने का कारण बने बिना नहीं रहेगा। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 6 April 2024

विपक्ष का साझा घोषणापत्र ज्यादा असरकारक होता


कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र को न्याय पत्र नाम देकर जारी कर दिया। जिन मतदाताओं के लिए वह प्रस्तुत किया गया उनको कुछ समझ में आता उसके पहले ही भाजपा ने उसे झूठ का पुलिंदा कहते हुए उसका मजाक उड़ाया। हालांकि जब भाजपा का संकल्प पत्र आयेगा तब ऐसी ही प्रतिक्रिया कांग्रेस से भी आना तय है। सही बात तो ये है कि अब घोषणापत्र, संकल्प पत्र, न्याय पत्र या वचन पत्र भी चुनावी कर्मकांड का रूप ले चुके हैं। कांग्रेस द्वारा गत दिवस किये गए वायदों में कुछ गत वर्ष हुए विधान सभा चुनावों में भी किये गए थे। लेकिन मतदाताओं ने उन पर भरोसा नहीं किया। हाल ही में  कांग्रेस का एक विज्ञापन भी जारी हुआ जिसमें मोदी सरकार के उन वायदों का उल्लेख  है जो आज तक पूरे नहीं हो सके। भाजपा इसके उत्तर में कांग्रेस को ये कहते हुए कठघरे में खड़ा करती है कि आधी सदी  तक राज करने के बाद भी वह गरीबी और  बेरोजगारी दूर नहीं कर सकी। सड़क, बिजली और पीने के पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी देश का बड़ा इलाका उसके सत्ता में रहते वंचित रहा। ज़ाहिर है कांग्रेस उस सबकी चर्चा करने के बजाय भाजपा से बीते 10 साल के शासन काल में पूरे नहीं हुए वायदों का हिसाब पूछ रही है। दोनों के आरोप और तर्क अपनी - अपनी जगह सही हैं। कांग्रेस ने दशकों तक केंद्र के साथ ही ज्यादातर प्रदेशों में सरकार चलाई थी। भाजपा 2014 के बाद से राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरी। केंद्रीय सत्ता में तो वह 1999 से 2004 तक भी रही किंतु  स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली उस सरकार में सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। लिहाजा घटक दलों के दबाव की वजह से धारा 370 , राम मन्दिर, समान नागरिक संहिता, तीन तलाक़ जैसे मुद्दों पर वह एक भी कदम आगे नहीं बढ़ सकी। लेकिन नरेंद्र मोदी उस दृष्टि से भाग्यशाली रहे जिनके नेतृत्व में भाजपा को पहली बार में ही स्पष्ट बहुमत मिल गया।  2019 में तो वह 300 का आंकड़ा पार कर गई। इसीलिए उन्हें भाजपा के मुख्य नीतिगत मुद्दों को लागू करने का अवसर मिल गया। यद्यपि राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के बावजूद वैसा करना  नेतृत्व की कुशलता का प्रमाण था। और इसी  कारण श्री  मोदी की गणना एक मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर की जाने लगी। आज भाजपा में तीसरी बार सरकार बनाने के प्रति जो आत्मविश्वास नजर आ रहा है उसका कारण मोदी सरकार द्वारा लिए गए साहसिक निर्णय ही हैं। आम जनता के मन में यह बात बैठ चुकी है कि विषम परिस्थितियों में भी प्रधानमंत्री जोखिम भरे फैसले लेने में नहीं चूकते। इसीलिए भाजपा मोदी की गारंटी  नारे पर अपने प्रचार को केंद्रित रखे हुए है। कांग्रेस की समस्या ये है कि अव्वल तो वह ये विश्वास उत्पन्न करने में विफल है कि उसे 100 सीटें भी मिल जाएंगी क्योंकि  उ.प्र , बिहार, प. बंगाल, जैसे बड़े राज्यों में उसे कुल 10 सीटें मिलना भी मुश्किल हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और केरल ही वे राज्य हैं जहाँ से उसे कुछ उम्मीदें हैं। ऐसे में वह लोकसभा में  अपनी मौजूदा संख्या को बरकरार रख पाएगी ये भी पक्के तौर पर कह पाना सम्भव नहीं है। यदि काँग्रेस को 100 सीटों का भी भरोसा होता तो वह राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री का चेहरा बना देती। लेकिन न्याय पत्र जारी करते हुए उन्होंने भी यही कहा कि विपक्षी गठबंधन को बहुमत मिलने पर नेता का नाम तय किया जाएगा। ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि कांग्रेस जब  गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में है तब उसने अपना पृथक न्याय पत्र (घोषणापत्र) क्यों जारी कर दिया ? इससे ये संदेश मतदाताओं में जा सकता है कि गठबंधन में शामिल  दल नीतिगत मामलों में एकमत नहीं हैं। यदि  गठबंधन के सभी नेता सामूहिक तौर पर साझा घोषणापत्र जारी करते तो उनकी एकजुटता प्रकट होती और जनता में भी सकारात्मक संदेश जाता। रही बात एनडीए की तो चूंकि भाजपा के पास  अपना बहुमत है इसलिए उसके सहयोगी दल भी उस पर हावी नहीं हो पाएंगे। नीतीश कुमार ही कुछ मुद्दों पर असहमत रहे हैं किंतु अब वे दबाव बनाने की हैसियत में नहीं हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस को ममता बैनर्जी ने प.बंगाल में जहाँ एक भी सीट नहीं दी वहीं अरविंद केजरीवाल ने भी  पंजाब में उपकृत करने से इंकार कर दिया। केरल में वामपंथी मोर्चा कांग्रेस से बेहद नाराज है। शायद इसीलिए गठबंधन का साझा घोषणापत्र जारी करने की स्थिति  नहीं बन सकी। कांग्रेस द्वारा 100 सीटों का आंकड़ा छू पाने में भी चूंकि संदेह हैं  , इसलिए उसके वायदे जनमानस को प्रभावित कर सकेंगे इसमें संदेह है।


 -रवीन्द्र वाजपेयी
   

Friday 5 April 2024

जो आए वो ईमानदार और जो जाए वो गद्दार


कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत से एक टीवी चैनल पर जब पार्टी में मची भगदड़ पर सवाल दागा गया तब उन्होंने पहले तो ये कहा कि जो नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं वे बिना संघर्ष किये ही बहुत कुछ पा गए थे। इसलिए उनकी निष्ठा में परिपूर्णता नहीं थी। लेकिन जब उनको पार्टी छोड़ने वाले कुछ ऐसे नेताओं का नाम बताया गया जिनकी जड़ें कांग्रेस में ही पनपीं तब वे असहज होकर कहने लगे कि आज कांग्रेस के पास न तो किसी को देने के लिए सत्ता से जुड़ा पद है और न ही ईडी और सीबीआई जैसा डराने का जरिया । इसलिए पदलोलुप नेताओं के अलावा वे लोग पार्टी छोड़कर भाजपा में जा रहे हैं जिनको जेल जाने का डर सता रहा था।  लेकिन इसके साथ ही उन्होंने ऐसे दर्जन भर भाजपाइयों के नाम गिनवा दिये जो सांसद - विधायक होते हुए भी पार्टी छोड़ बैठे और उनमें से कुछ कांग्रेस में  शामिल होकर टिकिट पा गए। श्री राजपूत के मुताबिक कांग्रेस छोड़ने वालों की चर्चा ज्यादा होती है जबकि भाजपा से निकलने वालों की खबर दबकर रह जाती है। उनके कहने का आशय ये था कि कांग्रेस की स्थिति उतनी दयनीय नहीं है जितनी प्रचारित की जा रही है । उक्त जानकारी चूंकि टीवी चैनल पर दी गई इसलिए उसको लेकर किसी भी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता किंतु उससे ये तो साबित हो ही गया कि जिस तरह भाजपा को अन्य दलों से आ रहे नेताओं को शामिल करने में परहेज नहीं है उसी तरह कांग्रेस को भी भाजपाइयों की भर्ती में कोई संकोच नहीं है। रोचक बात ये है कि पार्टी छोड़कर जाने वाले नेताओं के लिए  कांग्रेस  अवसरवादी, डरपोक, गद्दार और कचरा जैसे शब्दों का उपयोग करती है किंतु जो लोग भाजपा छोड़कर उसका दामन थाम रहे हैं उनकी प्रशंसा के पुल बांधने में कोई कंजूसी नहीं की जाती। हालांकि यही रवैया भाजपा का भी है जो पार्टी में आने वाले और जाने वाले नेताओं के बारे में अलग -अलग रवैया प्रदर्शित करती है। दरअसल कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव वल्लभ और मुंबई कांग्रेस के तेज तर्रार नेता संजय निरुपम के पार्टी छोड़ने को कांग्रेस के लिए बड़ा धक्का माना गया। लोकसभा चुनाव के मतदान के पहले चरण के एक पखवाड़े पहले तक कांग्रेस छोड़ने का क्रम जिस तरह जारी है उसे दूबरे में दो असाढ़ वाली कहावत का चरितार्थ होना कहा जा रहा है। हालांकि आज इस दौर से लगभग सभी दलों को गुजरना पड़ रहा है किंतु चर्चा सबसे ज्यादा कांग्रेस की इसलिए होती है क्योंकि बतौर राष्ट्रीय पार्टी भाजपा का विकल्प बनने के लिए घूम फिरकर नजरें उसी पर टिकती हैं। ये बात पूरी तरह सच है कि भाजपा से भी अनेक नेता पलायन कर चुके हैं किंतु उनमें से ज्यादातर वही लोग हैं जिनको पार्टी टिकिट से वंचित कर दिया गया। जबकि कांग्रेस से जाने वाले अधिकांश  नेताओं के मन में टिकिट कटने से उत्पन्न नाराजगी से ज्यादा ये भय बैठ चुका था कि उसकी टिकिट पर जीत पाना असंभव होगा। और भी दलों से नेताओं का भाजपा प्रवेश हुआ है जिनमें भ्रष्टाचार के आरोपी भी हैं किंतु कांग्रेस में जिस बड़े पैमाने पर भगदड़ मची उसके लिए वह साधारण बहाने बनाकर नहीं बच सकती। रही बात पद लोलुपता  की तो राजनीति का मुख्य आकर्षण ही कुर्सी है। और जो भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे हुए हैं उनको पार्टी छोड़ने के पहले तक कांग्रेस ने कभी भ्रष्ट नहीं माना। यही विरोधाभास आज उसकी समस्या बन गया है। उसके शीर्ष नेतृत्व को यदि उन नेताओं के भ्रष्ट होने की जानकारी थी तो उनको निकाल बाहर करना था। उस स्थिति में वे कहीं के न रहते। सही बात तो ये है कि भ्रष्ट होना अब राजनीति में अयोग्यता नहीं रहा। कोई भी पार्टी भ्रष्टाचार से परहेज करने का दावा नहीं कर सकती। किसी नेता के बारे में अवधारणा बनाने का आधार ये होता है कि वह हमारे पाले में है या दूसरे दल के साथ ? ऐसे में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने के दावे अर्थहीन होकर रह गए । कोई नेता अपनी पार्टी छोड़ते समय उसकी बुराइयों का ढेर लगा देता है। वहीं जिस पार्टी में वह प्रवेश करता है वह उसे गुणों की खान नजर आती है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आज की भारतीय राजनीति में वैचारिक शून्यता अपने चरमोत्कर्ष पर है। दल छोड़कर दूसरे में शामिल होना  कोई नई बात नहीं है। देश आजाद होने के बाद से ही  इसका सिलसिला शुरू हो चुका था। पंडित नेहरू जैसे कद्दावर नेता का विरोध करते हुए अनेक नेताओं ने पार्टी  छोड़ी। बाद में उनमें से कुछ वापस भी लौटे। लेकिन सत्तर के दशक में आयाराम - गयाराम का जो  खेल शुरू हुआ उसने राजनीति को मजाक बना दिया। धीरे - धीरे हालात बदतर होते - होते मौजूदा विकृति तक आ पहुंचे। इसके लिए किसी एक पार्टी को दोष देना अन्याय होगा क्योंकि दावा कितना भी करें किंतु सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के प्रति पहले जैसी ईमानदारी कल्पनातीत हो गई है।


- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 4 April 2024

भ्रष्टाचार विरोधी शिकंजा अपनों पर भी कसा जाना चाहिए



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में भ्रष्टाचार को  चुनाव का मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। ईडी और सीबीआई की गिरफ्त में आये राजनेताओं के कारण वैसे भी यह चुनाव काफी खींचतान भरा हो चुका है। झारखंड और दिल्ली के मुख्यमंत्री को ईडी द्वारा जेल भेजे जाने से विपक्ष आग बबूला है। 31 मार्च को दिल्ली में हुई रैली में सभी वक्ताओं ने आरोप लगाए कि मोदी सरकार विपक्ष के नेताओं को फर्जी मामलों में फंसाकर चुनाव को इकतरफा बनाने  का षडयंत्र रच रही है। एक नेता के अनुसार यह पिच खोदने के बाद बल्लेबाजी करने का अवसर देने जैसा ही है। संवैधानिक जाँच एजेंसियों का दुरूपयोग विपक्ष के चुनाव प्रचार का मुख्य मुद्दा बन गया है। उसका एतराज इस बात को लेकर भी है कि  भाजपा ईडी और सीबीआई का भय दिखाकर विपक्षी नेताओं को अपने पाले में खींच रही है। चूंकि भाजपा में शामिल होने के बाद या तो भ्रष्टाचार का प्रकरण समाप्त कर दिया जाता है अथवा जाँच धीमी कर दी जाती है, लिहाजा विभिन्न मामलों में फंसे विपक्षी नेता भाजपा में घुसकर खुद को निर्दोष साबित करने में जुटे हुए हैं। विपक्ष द्वारा उन भाजपा  नेताओं को भी निशाना बनाया जा रहा है जो भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद जेल से बाहर हैं और उनके विरुद्ध चल रही जाँच भी डिब्बे में बंद है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री सहित भाजपा के तमाम नेता इस बात को जोरदारी से उठा रहे हैं कि विपक्ष के अनेक नेता भ्रष्टाचार के मामले में या तो बेल (जमानत) पर हैं या फिर जेल में। श्री केजरीवाल सहित आम आदमी  पार्टी के कुछ बड़े नेताओं के जेल में होने से विपक्ष का डर और गुस्सा दोनों बढ़ गया है। हालांकि चौंकाने वाली बात ये है कि मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी पर न तो आम आदमी पार्टी और न ही विपक्ष के बाकी दलों ने आसमान सिर पर उठाया था। उल्टे कांग्रेस ने तो मनीष के जेल जाने पर खुशियाँ मनाते हुए ये कहकर खुद ही अपनी पीठ ठोकी कि जिस शराब नीति को लेकर आम आदमी पार्टी के नेताओं पर शिकंजा कसा गया उसमें भ्रष्टाचार का खुलासा उसी के द्वारा किया गया था। इसी मामले में तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के. सी. राव की बेटी भी तिहाड़ जेल में है। महाराष्ट्र के अलावा प. बंगाल और  झारखंड के अनेक नेता ईडी या सीबीआई द्वारा पकड़े जा चुके हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री  का ये दावा स्वागतयोग्य है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध निर्णायक लडाई में किसी भी प्रकार का लिहाज नहीं किया जायेगा। श्री मोदी का ये भी कहना है कि तीसरे कार्यकाल में वे और भी कड़े निर्णय लेंगे। निश्चित रूप से इस समय विपक्ष में घबराहट है। एक समय था जब श्री केजरीवाल चीख- चीखकर कहते थे कि सोनिया गाँधी को गिरफ्तार कर पूछताछ करें तो भ्रष्टाचार के बड़े -बड़े मामलों का खुलासा हो जायेगा। वे ये भी कहते थे कि ऐसा न कर पाने पर ईडी और सीबीआई भंग कर दी जानी चाहिए। लेकिन जब वे खुद जेल जा पहुंचे तब ईडी को ही कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। हालांकि  विपक्ष के भ्रष्ट नेता ये कहने से पवित्र नहीं हो जाते कि भाजपा में बैठे भ्रष्ट लोगों की गर्दन में फंदा क्यों नहीं डाला जाता? लेकिन भाजपा पर भी ये जवाबदेही तो है ही कि क्या उसका कोई नेता भ्रष्ट नहीं है और दूसरी पार्टी से आये भ्रष्टाचार के आरोपी  उसका दामन थामते ही साफ - सुथरे कैसे हो जाते हैं? यद्यपि ऐसा आरोप लगाने वाले विपक्षी दलों को भी भ्रष्ट नेताओं से कोई परहेज नहीं है इसलिए उनकी बात पर जनता ध्यान नहीं देती। यही कारण है कि  देश की सबसे बड़ी समस्या होने के बावजूद भ्रष्टाचार चुनाव का मुद्दा नहीं बन पा रहा। 2014 के चुनाव में यूपीए सरकार के राज में हुए घोटाले खूब चर्चित हुए थे किंतु मोदी सरकार आने के बाद भी किसी को सजा नहीं हो सकी। 2019 के चुनाव में राहुल गाँधी राफेल विमान खरीदी पर चौकीदार चोर का नारा लगाते रहे किंतु इस बार उसकी चर्चा तक नहीं है। सोनिया गाँधी और राहुल दोनों नेशनल हेराल्ड प्रकरण में लंबे समय से जमानत पर हैं किंतु उसका अंजाम भी अज्ञात है। यदि ईडी ताबड़तोड़ छापेमारी और गिरफ़्तारियां नहीं करती तब न लोकतंत्र खतरे में पड़ता और न ही विपक्ष भी एकजुट होता। उस दृष्टि से श्री मोदी को उस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उनकी सरकार ने भ्रष्ट नेताओं पर शिकंजा कसने का साहस दिखाया किंतु ये मुहिम तभी निष्पक्ष कही जायेगी जब इसमें भाजपा के दागदार लोगों पर भी प्रहार किया जाए। हमारे देश में भ्रष्ट नेता भी लोकप्रिय होते हैं। जयललिता और लालू यादव इसके उदाहरण हैं।  ओमप्रकाश चौटाला जैसों को तो बाकायदा सजा हुई। यदि श्री मोदी भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रही कारवाई में अपने पराये का भेद मिटा सकें तो देश की उससे बड़ी सेवा नहीं हो सकती।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 3 April 2024

केरल के मुख्यमंत्री का गंभीर आरोप : काँग्रेस के जवाब का इंतजार



विपक्षी गठबंधन को इंडिया नाम देकर राहुल गाँधी ने  सोचा था कि उसके सहारे वे प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पूरी कर सकेंगे। लेकिन ऐसा लगता है कांग्रेस इस गठबंधन का सही तरीके से नेतृत्व नहीं कर सकी। इसका बड़ा कारण गठबंधन के आकार लेते ही श्री गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा प्रारंभ होना  रहा। पार्टी को उम्मीद थी कि उसके जरिये राहुल का कद बाकी विपक्षी नेताओं की तुलना में ऊंचा हो जायेगा। कर्नाटक में  शानदार जीत के बाद तो पार्टी का हौसला और बुलंद हो गया । उसे लगने लगा कि श्री गाँधी ने अकेले दम पर नरेंद्र मोदी को चुनौती देने की क्षमता अर्जित कर ली है। इसी आत्मविश्वास के बल पर कांग्रेस ने उसके बाद हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में अन्य विपक्षी दलों से गठजोड़  से परहेज कर लिया। इसके साथ ही उसने इंडिया की खोजखबर लेनी बंद कर दी। दरअसल कांग्रेस की रणनीति ये थी कि उक्त राज्यों में  जीत दर्ज करने के बाद वह गठबंधन पर हावी होने की हैसियत में आ जाएगी। लेकिन  म.प्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वह जिस बुरी तरह से हारी उसके बाद उसका रुतबा घटने लगा। नीतीश कुमार तो गठबंधन छोड़कर ही चले गए।  विभिन्न घटक दलों की भी  जो प्रतिक्रियाएं। आईं  उनसे ये ज़ाहिर हो गया कि कांग्रेस के भरोसे चुनाव जीतने की उनकी उम्मीद टूट गई है।   बावजूद उसके गठबंधन की एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते कांग्रेस को उसमें कसावट लाने का प्रयास करना चाहिए था किंतु श्री गाँधी ने न्याय यात्रा शुरू कर दी। कांग्रेस समर्थक कहे जाने वाले राजनीतिक विश्लेषक भी लोकसभा चुनाव की तैयारियां छोड़कर राहुल के यात्रा पर निकल जाने को गलत फैसला बताने से नहीं चूके। उनका आकलन सही साबित हुआ। यात्रा को पहले जैसा प्रतिसाद नहीं मिलने से पार्टी में भी निराशा आई। विभिन्न राज्यों में उसके नेता और कार्यकर्ता पार्टी छोड़ते जा रहे हैं। ऐसे समय श्री गाँधी को पार्टी के साथ ही  गठबंधन की मजबूती के लिए भी समय और ध्यान देना चाहिए था। उनकी अनदेखी का ही नतीजा है कि देश के सभी बड़े राज्यों में सहयोगी दलों ने कांग्रेस को हाशिये पर धकेलने का दुस्साहस कर डाला। सीटों के बंटवारे वाले राज्यों में केवल महाराष्ट्र में ही वह बड़े भाई की भूमिका में बची है। बाकी जगह गठबंधन के साथियों ने उसकी कमजोरी का भरपूर लाभ उठाया। आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव के पूर्व बाबू जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी आदि ने जब कांग्रेस कांग्रेस छोड़ी तो पूरा परिदृश्य बदल गया था। बावजूद उसके पार्टी में उतनी हताशा और दिशाहीनता नहीं थी जितनी आज नजर आ रही है। जिन राज्यों में भाजपा से सीधा मुकाबला है उनको छोड़कर शेष में कांग्रेस की जो दयनीय स्थिति है उसके लिए गांधी परिवार तो जिम्मेदार है ही किंतु उसमें भी राहुल सबसे ज्यादा दोषी हैं । ममता, लालू , अखिलेश कोई भी उनको महत्व नहीं दे रहा। लेकिन सबसे बड़ी चोट की केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने। दिल्ली में आयोजित लोकतंत्र बचाओ रैली के अगले दिन ही उन्होंने राहुल और कांग्रेस को नसीहत दे डाली कि कुछ भी करने से पहले उसको दूरगामी परिणामों के बारे में सोचना चाहिए। उल्लेखनीय है उक्त रेली में श्री विजयन की पार्टी सीपीएम के पूर्व महासचिव सीताराम येचुरी भी मंचासीन थे। उसके बाद भी उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के जेल जाने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए  कहा कि दिल्ली सरकार की विवादित शराब नीति में भ्रष्टाचार की सबसे पहली शिकायत उसके द्वारा ही की गई थी। श्री विजयन यहीं नहीं रुके अपितु उन्होंने श्री गाँधी की केरल की वायनाड सीट से दोबारा लड़ने के लिए तीखी आलोचना करते हुए कहा कि वे सीपीआई प्रत्याशी के विरुद्ध लड़ रहे हैं। हालांकि वामपंथी पार्टियों का प. बंगाल में कांग्रेस से गठबंधन होने के बावजूद केरल में दोनों अलग - अलग गठबंधन में हैं। और राज्य की जनता बारी - बारी से दोनों को अवसर देती रही। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा ने लगातार दूसरी बार सरकार बनाकर वह परिपाटी तोड़ दी। सीपीएम  की भीतरी राजनीति में श्री येचुरी जहाँ कांग्रेस के पक्षधर रहे हैं वहीं श्री विजयन और प्रकाश कारत इंडिया गठबंधन में रहकर भी कांग्रेस को ज्यादा छूट देने के समर्थक नहीं हैं। 2019 में राहुल अमेठी और  वायनाड दोनों से लड़े। लेकिन जीते वायनाड से। वामपंथी सोचते थे राहुल  इस बार उत्तर भारत लौट जायेंगे किंतु वैसा न होने पर उनकी नाराजगी जाहिर होने लगी। सीपीआई महासचिव डी. राजा भी इस बारे में श्री गाँधी की खिचाई कर चुके थे जिनकी पत्नी वायनाड से प्रत्याशी हैं। लेकिन  श्री विजयन का ये आरोप इंडिया को नुकसान पहुंचा सकता है कि कांग्रेस के कारण ही श्री केजरीवाल जेल गए । देखना ये है कि कांग्रेस , विशेष रूप से श्री गाँधी उनके आरोप का क्या जवाब देते हैं? और ये भी कि आम आदमी पार्टी इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करती है? 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 2 April 2024

एक सुंदर सपना टूट गया : अब कहने को बचा ही क्या है

छ दशक पूर्व भारतीय फिल्मों में  एक ऐसे नायक का उदय हुआ जो व्यवस्था से विद्रोह करता हुआ धारा के विरुद्ध तैरने का दुस्साहस कर बैठता है। उसके क्रिया - कलापों में स्थापित मान्यताओं को तोड़ने की प्रवृत्ति होने के बावजूद दर्शक उसे भरपूर प्यार देते हैं और फिल्म समीक्षक उसे एंग्री यंग मैन नामक संबोधन देकर ये साबित करने का प्रयास करते हैं कि वह समाज के उस वर्ग की आवाज है जिसे उपेक्षित और शोषित समझा जाता था। वह एंग्री यंग मैन अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए कुछ भी कर गुजरने पर आमादा था। इसलिए समाज के एक बड़े वर्ग में उसकी स्वीकार्यता कायम हुई। जावेद - अख्तर की पटकथाओं से जन्मा वह नायक एक काल्पनिक वास्तविकता बन गया। दरअसल वह हिन्दी फिल्मों के उस भोले - भाले नायक का आधुनिक संस्करण था जो व्यवस्था की बुराइयों को देखता भी था और झेलता भी।  वह धक्का देने की बजाय धक्के खाकर समाज को झकझोरता था किंतु एंग्री यंग मैन पिटने की जगह पीटने वाला बन गया। उसके कंधे पर टंगे झोले को कोई छीनकर भागे तो वह उसके लिए कानून की शरण नहीं लेता बल्कि खुद का कानून लागू कर सुर्खियां बटोर लेता । भारतीय राजनीति में भी 13 साल पहले  आंदोलन की कोख से एक एंग्री यंग मैन का जन्म हुआ जो व्यवस्था बदलने की राह छोड़कर सत्ता के खेल का हिस्सा बन गया। उसके कंधो पर आदर्शों के झोले टंगे थे। वह धारा के विपरीत तैरने के जुनून से भरा हुआ था। कानून तोड़ने में उसे संकोच न था। वह जनता के लिए लड़ने के लिए विख्यात हो गया। जल्द ही उसका अंदाज लोगों के सिर पर चढ़कर बोलने लगा। उसे गरीबों के नये मसीहा के तौर पर पहिचान मिली और अपार जनसमर्थन भी। देश की राजधानी में भारी बहुमत के साथ उसकी सरकार बन गई।  लोगों को मुफ्त बिजली - पानी का उसका वायदा रास आ गया। सरकारी शालाओं के साथ मोहल्ला क्लीनिक जैसी सुविधा देकर वह जनता का लाड़ला बन बैठा। सफलता का कारनामा उसने दूसरी मर्तबा भी दोहराया किंतु इसके कारण उसके मन में पहले महत्वाकांक्षा और फिर अभिमान जागा। उसे लगने लगा वह सर्वशक्तिमान है । बस यहीं से उसके पैर फिसलन भरे रास्ते पर मुड़ गए और अंततः गत दिवस वह उसी तिहाड़ जेल में जा पहुंचा जहाँ देश के तमाम नेताओं को भ्रष्टाचार के आरोप में वह भेजना चाहता था। जी हाँ, वह अरविंद केजरीवाल ही हैं। उनकी सरकार की शराब नीति में हुए कथित घोटाले में आम आदमी पार्टी के कुछ नेताओं के जेल में बन्द होने के बाद अंततः उन्हें भी वहीं जाना पड़ा। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिन लोगों को वह भ्रष्टाचार का सरगना बताते नहीं  थकता था , कुछ दिनों से उन्हीं से समर्थन मांग रहा है। आंदोलन से निकली नई राजनीति, ढर्रे का शिकार होकर रह गई।  तमाम बुराइयाँ जिनसे लड़ने वह मैदान में उतरा था आज उसके चारों तरफ मंडरा रही हैं। इस शख्ख का भविष्य तो अदालत ही तय करेगी किंतु जिन उम्मीदों के साथ अन्ना का यह शिष्य राजनीति में आया था वे सब निराशा के अंधे कुए  में खोकर रह गई हैं। सत्ता से दूर रहने की कसम खाने वाले इस भूतपूर्व एंग्री यंग मैन को सत्ता छोड़ने में डर लग रहा है। देश को साफ - सुथरी राजनीति का स्वाद चखाने वाले इस व्यक्ति ने अपने चाहने वालों के मुँह में कड़वाहट भर दी है। उसका जेल जाना किसी की जय - पराजय न होकर एक सुंदर सपने के टूटने जैसा है। वह खुद को निर्दोष मानते हुए दावा करता है कि विवाद का जड़ बनी शराब नीति सही और लाभदायक थी। लेकिन अपने हर फैसले पर डटे रहने वाले इस नेता के पास इस सवाल का कोई उत्तर नहीं कि यदि सब सही था तो वह नीति वापस क्यों ली गई ? सवाल ये भी है कि जिन नेताओं को वह भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति बताते नहीं थकता था, आज उन्हीं से ईमानदारी का प्रमाण पत्र मांगने में उसे तनिक भी शर्म क्यों नहीं आ रही ? उसके जेल जाने से उसके समर्थक और अनुयायी तो दुखी हैं ही किंतु उनसे ज्यादा झटका उन लोगों को लगा जिन्हें केजरीवाल में एक मसीहा नजर आता था। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन से उत्पन्न पार्टी का सर्वोच्च नेता जब खुद ही कठघरे में खड़ा हो गया तो अब कहने को बचता ही क्या है? 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 1 April 2024

आक्रामक तेवर के बजाय लाचारी का प्रदर्शन विपक्ष के लिए नुकसानदेह होगा


गत दिवस दिल्ली  में इंडिया गठबंधन की जो रैली हुई उसका आयोजन आम आदमी पार्टी द्वारा अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी  के विरोध में किया गया था। चूंकि पार्टी अपने बल पर इतना बड़ा जमावड़ा नहीं कर सकती थी इसलिए    उसने इसे सर्वदलीय रूप दे दिया। संयोगवश कांग्रेस पर भी आयकर विभाग का शिकंजा कस गया। इसलिए उसने भी इसके प्रति रजामंदी दे दी। लेकिन दोनों मिलकर भी यदि रैली करते तो  उसका प्रभाव दिल्ली तक सीमित होकर रह जाता। इसलिए गठबंधन के सभी नेताओं को बुलाया गया। लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को होने वाला है। उस दृष्टि से यह रैली विपक्ष के लिए काफी उपयोगी हो सकती थी लेकिन वह श्री केजरीवाल और हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के अलावा कांग्रेस को आयकर विभाग द्वारा दिये वसूली नोटिस तक सिमटकर रह गई। यदि रैली में ऐसी कुछ घोषणाएं की जातीं  जिनसे आम जनता में उत्साह जाग्रत होता तब वह अपने उद्देश्य में सफल मानी जाती। कुल मिलाकर विभिन्न दलों के नेताओं ने वही सब बातें दोहराईं जो मुंबई रैली में सुनने मिलीं। दूसरी तरफ कल ही एनडीए ने भी मेरठ में रैली की जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार को लेकर विपक्ष पर हमला किया। इस रैली में लोकदल सहित उप्र में भाजपा के सहयोगी दलों के नेता शामिल हुए। एनडीए में तो चूंकि श्री मोदी का नेतृत्व सर्वमान्य है प्रधानमंत्री को लेकर कोई अनिश्चितता नहीं है। एक जमाने में कांग्रेस भी इसी सुविधाजनक स्थिति में हुआ करती थी और तब उसके नेता विपक्ष को प्रधानमंत्री का चेहरा बताने की चुनौती देने से नहीं चूकते थे। लेकिन आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। विपक्ष वैचारिक तौर पर एकजुट होने की बजाय केवल श्री मोदी को सत्ता से हटाये जाने के लिए एकजुट हुआ है। कल दिल्ली की रैली में आम आदमी पार्टी की ओर से श्री केजरीवाल की धर्मपत्नी सुनीता केजरीवाल ने मंच पर बैठ कर अपने पति का संदेश पढ़ा। अन्य जो नेता उपस्थित हुए वे सब परिवार द्वारा संचालित दल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। केवल सीपीएम के सीताराम येचुरी ही अपवाद कहे जाएंगे। लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब  नई राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी ने श्री केजरीवाल की अनुपस्थिति में बजाय किसी और नेता के श्रीमती केजरीवाल को भेज दिया। हालांकि पति के गिरफ्तार होने के बाद से वे ही उनके संदेश प्रसारित करते हुए सार्वजनिक तौर पर सक्रिय हुईं जिससे ये अवधारणा मजबूत होने लगी कि यदि श्री केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद छोड़ा तब वे अपनी पत्नी को ही उत्तराधिकारी बनाएंगे। यद्यपि आम आदमी पार्टी की सरकार में गोपाल रॉय, सौरभ भरद्वाज और आतिशी जैसे मंत्री  हैं जिन्हें श्री केजरीवाल का विश्वासपात्र माना जाता है किंतु उनमें से किसी के भी नाम की चर्चा नहीं होने से इस संभावना को बल मिलने लगा कि श्रीमती केजरीवाल ही अगली मुख्यमंत्री बनेंगी। कल हुई सभा में उनके मंचासीन होने से राजनीतिक  विश्लेषक भी ये मानने लगे हैं कि आम आदमी पार्टी भी अब परिवारवाद के शिकंजे में फंसने लगी है। सही बात ये है इस पार्टी के जो आधारस्तंभ थे उनमें से ज्यादातर को श्री केजरीवाल ने  धकिया कर बाहर निकाल दिया। और उनके स्थान पर जी हुजूरी करने वाले जनाधारविहीन लोगों को भर लिया। मनीष सिसौदिया जरूर श्री केजरीवाल के बाद दूसरे स्थान पर थे किंतु उनके जेल जाने के उपरांत कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आ रहा जो उनकी अनुपस्थिति में पार्टी और सरकार की बागडोर संभाल सके। हालांकि इस स्थिति तक पार्टी को पहुंचाने के लिए श्री केजरीवाल ही जिम्मेदार कहे जाएंगे जिन्होंने दूसरी पंक्ति का नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया। चूंकि इंडिया समूह की लगभग सभी पार्टियां परिवारवाद की पोषक हैं लिहाजा किसी को भी मंच पर श्रीमती केजरीवाल की मौजूदगी असहज नहीं लगी। इंडिया की सबसे बड़ी कमजोरी यही परिवारवाद बनती जा रही है। वामपंथियों को छोड़ भी दें किंतु उसके पास भी ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर अपील हो। इस तरह के अनेक  बेमेल गठबंधन कांग्रेस के विरुद्ध अतीत में भी बने किंतु उनमें कुछ नेता ऐसे होते थे जिनकी राष्ट्रीय पहिचान हुआ करती थी। दुर्भाग्य से इंडिया समूह में  सोनिया गाँधी और राहुल को छोड़कर किसी की भी राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदगी नहीं है  । श्रीमती गाँधी की अस्वस्थता से उनकी सक्रियता घटती जा रही है। कल भी उनका भाषण नहीं हुआ। बचे राहुल तो चूंकि गठबंधन में ही उनके नेतृत्व को लेकर उत्साह नहीं है इसलिए वे जम नहीं पा रहे। यही वजह रही की कल की बहुप्रचारित रैली  आक्रामक तेवर दिखाने के बजाय अपनी लाचारी का  ढोल पीटती रही। यदि आने वाले कुछ दिनों में  यह गठबंधन धुंआधार तरीके से नहीं खेला तब बाजी उसके हाथ से खिसकती चली जायेगी। उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रष्टाचार के आरोप में बंद नेताओं को अदालत से जमानत नहीं मिलने से वह सहानुभूति नहीं मिलेगी जिसकी वे उम्मीद लगाए हुए थे। 


- रवीन्द्र वाजपेयी