Friday 19 April 2024

चाहो या न चाहो इस चुनाव में मुद्दा तो मोदी ही है


लोकसभा चुनाव का पहला चरण आज से शुरू हो गया। 21 राज्यों की 102 सीटों पर मतदान सुबह से चल रहा है। अगले 6 चरण के मतदान के बाद   परिणाम 4 जून को घोषित होंगे। वैसे तो भाजपा और काँग्रेस राष्ट्रीय दल के तौर पर स्वाभाविक  प्रतिद्वंदी माने जा रहे हैं। लेकिन अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी ज्यादा प्रभावशाली है। इनमें से अधिकतर  भाजपा - कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन  में शामिल हैं किंतु बीजद और वाय.एस.आर काँग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियां एकला चलो की नीति का पालन कर रही हैं। ममता बैनर्जी का मामला अलग किस्म का है जिनकी पार्टी तृणमूल काँग्रेस वैसे तो इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन का हिस्सा है किंतु प. बंगाल में उन्होंने किसी के साथ भी सीटों का बंटवारा नहीं किया। इस बहुदलीय चुनाव में वैसे तो अनेक नेताओं के चेहरे मतदाताओं को प्रभावित करने वाले हैं किंतु जिस एक व्यक्ति पर पूरा विमर्श केंद्रित हो गया है वह हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। स्मरणीय है  1971 का लोकसभा चुनाव भी स्व. इंदिरा गाँधी के व्यक्तित्व पर टिक जाने से वे ही चर्चा के केंद्र में थीं। लोग उनकी आलोचना भी करते थे और प्रशंसा भी, परन्तु  उपेक्षा करना संभव नहीं था। उस चुनाव में उन्होंने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। बैंक राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स समाप्त करने जैसे फैसलों से उनकी छवि गरीब हितचिंतक की बन गई थी। विपक्ष उसके आगे असहाय हो गया। उसके इंदिरा हटाओ नारे के उत्तर में इंदिरा जी ने पलटवार करते हुए कहा कि वे कहती हैं गरीबी हटाओ और विपक्ष कहता है इंदिरा हटाओ। उनकी बात का जादुई असर हुआ और उन्हें  350 से ज्यादा सीटें मिलीं।  हालांकि तब विपक्ष के बिखरे होने का लाभ श्रीमती गाँधी को मिला था। कमोबेश इस चुनाव में भी वैसी ही स्थिति है और पूरा माहौल मोदी समर्थन या  विरोध का रूप ले चुका है। अंतर इतना है कि इस बार सत्ता और विपक्ष दोनों गठबंधन बनाकर मैदान में उतरे हैं। वैसे गठबंधन राजनीति अब नई चीज नहीं रही लेकिन श्री मोदी ने 2014 के चुनाव से ही अपने व्यक्तित्व को केंद्र बिंदु में रखने की जो रणनीति बनाई थी उसका लाभ उन्हें मिला। 2019 में भी वे अपनी शख्सियत को प्रतिद्वंदी की तुलना में बड़ा साबित करने में कामयाब रहे। लेकिन 2024 का लोकसभा चुनाव  मोदी की गारंटी पर आकर सिमट गया है। विपक्ष के पास कहने को तो छोटे - बड़े नेताओं की लम्बी सूची है किंतु व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों मामलों में प्रधानमंत्री भारी पड़ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि विपक्ष के पास मुद्दे नहीं हैं लेकिन जिस तरह 1971 में विरोधी पार्टियों ने इंदिरा हटाओ की मुहिम छेड़ने की भूल की वही आज का विपक्ष कर बैठा। उसकी सभी तोपें श्री मोदी को निशाना बना रही हैं और यही वे चाहते भी थे। चूंकि राहुल गाँधी सहित शेष विपक्षी नेता लोकप्रियता में बहुत पीछे हैं। इसीलिए अभी तक जितने भी सर्वेक्षण आये उनमें श्री मोदी की वापसी सुनिश्चित बताई गई है।  हालांकि मोटे तौर पर श्री गाँधी को प्रधानमंत्री का प्रतिद्वंदी माना जाता है किंतु न तो विपक्षी गठबंधन के किसी घटक दल और न ही कांग्रेस ने उन्हें प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित किया। इस वजह से मोदी विरुद्ध कौन ये प्रश्न अनुत्तरित बना हुआ है।  उधर ममता ने चूंकि अपने राज्य में एक भी सीट सहयोगी दलों को नहीं दी लिहाजा उनकी महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है। लेकिन एनडीए में  श्री मोदी को लेकर सर्वसम्मति है इसलिए इस मुद्दे पर विपक्ष कमजोर साबित हो रहा है। चुनाव के अगले चरणों में कोई बड़ा उलटफेर न हुआ तब प्रधानमंत्री की बढ़त बनी रहेगी। दरअसल काँग्रेस और राहुल दोनों को इस बात से भी नुकसान हो रहा है कि उ.प्र, बिहार, प. बंगाल और तमिलनाडु की कुल 207 सीटों में से उसे केवल 35 सीटों पर लड़ने मिल रहा है। जबकि एनडीए में भाजपा ने सीटों के बंटवारे में आंध्र प्रदेश छोड़  अपना हाथ ऊपर रखा है। इस तरह इस चुनाव में मोदी ही मुद्दा बन गए हैं और  अन्य बातें पृष्ठभूमि में चली गईं। देखने वाली बात ये होगी कि क्या वे 1971 में इंदिरा जी जैसी सफलता दोहरा सकेंगे ? 370 सीटों का लक्ष्य भी शायद उन्होंने उसी से प्रेरित होकर तय किया गया होगा। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

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