Friday 26 April 2024

तो अखिलेश सीटों के लिए राहुल के सामने गिड़गिड़ाते


उ.प्र की रायबरेली और अमेठी लोकसभा सीटें गाँधी परिवार के गढ़ के तौर पर प्रसिद्ध रही हैं। हालांकि 2019 में राहुल गाँधी अमेठी में हार गए थे। पराजय की आशंका के चलते वे केरल की वायनाड सीट से भी लड़े और जीत हासिल की।  इस बार अब तक अमेठी से उनके लड़ने का कोई संकेत नहीं मिला था। रायबरेली से उनकी माँ सोनिया गाँधी सांसद रहीं किंतु अब वे राज्यसभा में आ गईं। लिहाजा उनकी सीट पर उम्मीदवारी भी अनिश्चित बनी रही। अखिलेश यादव ने कांग्रेस को राज्य की जो 17 सीटें समझौते में  दी उनमें उक्त दोनों सीटें भी हैं। पहले भी सपा और बसपा इन सीटों पर प्रत्याशी खड़ा नहीं करती थीं । आज वायनाड में मतदान हो रहा है। कांग्रेस से जुड़े सूत्रों के अनुसार इसके बाद अमेठी और रायबरेली से कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर राहुल और प्रियंका को उतारा जा सकता है। अब तक ये निर्णय इसलिए रुका रहा ताकि वायनाड में गलत संदेश न जाए। ये चर्चा भी सुनने में आती रही कि राहुल  , अमेठी से लड़ने के प्रति उदासीन हैं। हारने के बाद वे महज 2 बार उस क्षेत्र में गए। इधर प्रियंका का नाम रायबरेली से उछलता रहा है किंतु विधानसभा चुनाव में उ.प्र की प्रभारी के तौर पर उनका प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा। रायबरेली का गढ़ भी ढह गया। हाल के वर्षों में गाँधी परिवार के अनेक पुराने वफादार पाला बदलकर यहाँ - वहाँ चले गए। स्वास्थ्य अच्छा न होने से सोनिया जी का भी संपर्क अपने निर्वाचन क्षेत्र में कम होता चला गया। इसी कारण भाजपा ये दावा करने लगी थी कि इस बार उक्त दोनों सीटें वह जीत लेगी। उसी के बाद कांग्रेस में यह मंथन शुरू हुआ कि इन सीटों पर गाँधी परिवार के सदस्य को ही उतारा जाए। अब विचार इस बात पर चल रहा है कि भाई कहाँ से लड़े और बहिन कहाँ से ? वैसे ये किसी  भी  राजनीतिक दल का निजी मामला है कि किस सीट से वह किसे लड़ाए। उस दृष्टि से गाँधी परिवार का कोई सदस्य यदि रायबरेली और अमेठी से लड़ाया जाता है तो इसमें अटपटा कुछ भी नहीं किंतु एक बात अवश्य खटकने वाली है कि लंबे समय से उक्त सीटों पर काबिज रहने के बाद भी गाँधी परिवार ने काँग्रेस के किसी भी कार्यकर्ता को इतना सक्षम नहीं बनने दिया जो इस सीट को बचाकर रख सके। रायबरेली से सोनिया जी का न लड़ना काफी पहले से तय था किंतु आज तक पार्टी ये तय न कर सकी कि उनका विकल्प कौन होगा? अमेठी से  हारने के बाद राहुल ने एक तरह से मुँह ही फेर लिया। यदि वे वहाँ नहीं लौटना चाहते थे तब भी काँग्रेस को किसी नये उम्मीदवार को तैयार करना था। लेकिन उस बारे में कोई प्रयास नहीं हुआ। और अब उनके वहां  से लड़ने की चर्चा महज इसलिए जोर पकड़ रही है कि और कोई जीत हासिल नहीं कर सकेगा। हालांकि ये स्थिति केवल रायबरेली और अमेठी की नहीं अपितु देश भर में दर्जनों सीटों की है जो कुछ नेताओं और उनके परिवार की निजी जागीर बन चुकी हैं। प्रजातंत्र के लिहाज से ये बेहद चिंतनीय और राजनीतिक दलों के प्रभाव में विचारधारा के महत्वहीन होने का प्रमाण है। कुछ सीटें  दिग्गज नेताओं के नाम मानो लिख दी गई हैं। उनके अलावा दूसरा कोई उनका परिजन ही हो सकता है। उ.प्र में काँग्रेस जिस दयनीय स्थिति में है उसके लिए गाँधी परिवार ही जिम्मेदार है क्योंकि सोनिया जी और राहुल तो सपा और बसपा का समर्थन लेकर अपनी नैया पार लगाते रहे किंतु बाकी प्रत्याशियों को डूबने छोड़ दिया जाता था। 2019 में राहुल भले ही अमेठी से हार गए किंतु उन्हें वहाँ सम्पर्क बनाये रखते हुए नया नेतृत्व तैयार करना था। उल्लेखनीय है 2014 में स्मृति ईरानी इस सीट के लिए अपरिचित चेहरा थीं। कड़े संघर्ष में हारने के बाद वे अगले पाँच वर्ष तक वहाँ आती - जाती रहीं और अंततः राहुल को हराकर ही दम ली। लेकिन श्री गाँधी ने अमेठी से दूरी बना ली। जबकि होना यह चाहिए था कि वे उसके साथ ही उ.प्र की बाकी सीटों पर पार्टी को ताकतवर बनाने के लिए परिश्रम करते। लेकिन वे यात्राओं में अपनी शक्ति और समय लगाते रहे। नतीजा ये हुआ कि 80 सीटों वाले देश के सबसे बड़े राज्य में उनकी पार्टी को एक क्षेत्रीय दल द्वारा खींची गई सीमा रेखा में सिमटना पड़ा। रायबरेली और अमेठी में काँग्रेस का प्रत्याशी कौन होगा ये वायनाड में मतदान के बाद तय करना तो रणनीति का हिस्सा हो सकता है किंतु ये मान लेना कि वहाँ से एक  परिवार ही जीत सकेगा पार्टी की वैचारिक विपन्नता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। कहते हैं दिल्ली की सत्ता का रास्ता उ.प्र होकर जाता है। इसीलिए नरेंद्र मोदी ने गुजरात से आकर वाराणसी को अपना क्षेत्र बनाया। राहुल ने भी यदि बीते पाँच वर्ष उ.प्र में मेहनत की होती तब गठबंधन में काँग्रेस का हाथ ऊंचा होता और अखिलेश यादव उनसे सीटों के लिए गिड़गिड़ाते। 


-  रवीन्द्र वाजपेयी

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