Friday 5 April 2024

जो आए वो ईमानदार और जो जाए वो गद्दार


कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत से एक टीवी चैनल पर जब पार्टी में मची भगदड़ पर सवाल दागा गया तब उन्होंने पहले तो ये कहा कि जो नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं वे बिना संघर्ष किये ही बहुत कुछ पा गए थे। इसलिए उनकी निष्ठा में परिपूर्णता नहीं थी। लेकिन जब उनको पार्टी छोड़ने वाले कुछ ऐसे नेताओं का नाम बताया गया जिनकी जड़ें कांग्रेस में ही पनपीं तब वे असहज होकर कहने लगे कि आज कांग्रेस के पास न तो किसी को देने के लिए सत्ता से जुड़ा पद है और न ही ईडी और सीबीआई जैसा डराने का जरिया । इसलिए पदलोलुप नेताओं के अलावा वे लोग पार्टी छोड़कर भाजपा में जा रहे हैं जिनको जेल जाने का डर सता रहा था।  लेकिन इसके साथ ही उन्होंने ऐसे दर्जन भर भाजपाइयों के नाम गिनवा दिये जो सांसद - विधायक होते हुए भी पार्टी छोड़ बैठे और उनमें से कुछ कांग्रेस में  शामिल होकर टिकिट पा गए। श्री राजपूत के मुताबिक कांग्रेस छोड़ने वालों की चर्चा ज्यादा होती है जबकि भाजपा से निकलने वालों की खबर दबकर रह जाती है। उनके कहने का आशय ये था कि कांग्रेस की स्थिति उतनी दयनीय नहीं है जितनी प्रचारित की जा रही है । उक्त जानकारी चूंकि टीवी चैनल पर दी गई इसलिए उसको लेकर किसी भी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता किंतु उससे ये तो साबित हो ही गया कि जिस तरह भाजपा को अन्य दलों से आ रहे नेताओं को शामिल करने में परहेज नहीं है उसी तरह कांग्रेस को भी भाजपाइयों की भर्ती में कोई संकोच नहीं है। रोचक बात ये है कि पार्टी छोड़कर जाने वाले नेताओं के लिए  कांग्रेस  अवसरवादी, डरपोक, गद्दार और कचरा जैसे शब्दों का उपयोग करती है किंतु जो लोग भाजपा छोड़कर उसका दामन थाम रहे हैं उनकी प्रशंसा के पुल बांधने में कोई कंजूसी नहीं की जाती। हालांकि यही रवैया भाजपा का भी है जो पार्टी में आने वाले और जाने वाले नेताओं के बारे में अलग -अलग रवैया प्रदर्शित करती है। दरअसल कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव वल्लभ और मुंबई कांग्रेस के तेज तर्रार नेता संजय निरुपम के पार्टी छोड़ने को कांग्रेस के लिए बड़ा धक्का माना गया। लोकसभा चुनाव के मतदान के पहले चरण के एक पखवाड़े पहले तक कांग्रेस छोड़ने का क्रम जिस तरह जारी है उसे दूबरे में दो असाढ़ वाली कहावत का चरितार्थ होना कहा जा रहा है। हालांकि आज इस दौर से लगभग सभी दलों को गुजरना पड़ रहा है किंतु चर्चा सबसे ज्यादा कांग्रेस की इसलिए होती है क्योंकि बतौर राष्ट्रीय पार्टी भाजपा का विकल्प बनने के लिए घूम फिरकर नजरें उसी पर टिकती हैं। ये बात पूरी तरह सच है कि भाजपा से भी अनेक नेता पलायन कर चुके हैं किंतु उनमें से ज्यादातर वही लोग हैं जिनको पार्टी टिकिट से वंचित कर दिया गया। जबकि कांग्रेस से जाने वाले अधिकांश  नेताओं के मन में टिकिट कटने से उत्पन्न नाराजगी से ज्यादा ये भय बैठ चुका था कि उसकी टिकिट पर जीत पाना असंभव होगा। और भी दलों से नेताओं का भाजपा प्रवेश हुआ है जिनमें भ्रष्टाचार के आरोपी भी हैं किंतु कांग्रेस में जिस बड़े पैमाने पर भगदड़ मची उसके लिए वह साधारण बहाने बनाकर नहीं बच सकती। रही बात पद लोलुपता  की तो राजनीति का मुख्य आकर्षण ही कुर्सी है। और जो भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे हुए हैं उनको पार्टी छोड़ने के पहले तक कांग्रेस ने कभी भ्रष्ट नहीं माना। यही विरोधाभास आज उसकी समस्या बन गया है। उसके शीर्ष नेतृत्व को यदि उन नेताओं के भ्रष्ट होने की जानकारी थी तो उनको निकाल बाहर करना था। उस स्थिति में वे कहीं के न रहते। सही बात तो ये है कि भ्रष्ट होना अब राजनीति में अयोग्यता नहीं रहा। कोई भी पार्टी भ्रष्टाचार से परहेज करने का दावा नहीं कर सकती। किसी नेता के बारे में अवधारणा बनाने का आधार ये होता है कि वह हमारे पाले में है या दूसरे दल के साथ ? ऐसे में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने के दावे अर्थहीन होकर रह गए । कोई नेता अपनी पार्टी छोड़ते समय उसकी बुराइयों का ढेर लगा देता है। वहीं जिस पार्टी में वह प्रवेश करता है वह उसे गुणों की खान नजर आती है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आज की भारतीय राजनीति में वैचारिक शून्यता अपने चरमोत्कर्ष पर है। दल छोड़कर दूसरे में शामिल होना  कोई नई बात नहीं है। देश आजाद होने के बाद से ही  इसका सिलसिला शुरू हो चुका था। पंडित नेहरू जैसे कद्दावर नेता का विरोध करते हुए अनेक नेताओं ने पार्टी  छोड़ी। बाद में उनमें से कुछ वापस भी लौटे। लेकिन सत्तर के दशक में आयाराम - गयाराम का जो  खेल शुरू हुआ उसने राजनीति को मजाक बना दिया। धीरे - धीरे हालात बदतर होते - होते मौजूदा विकृति तक आ पहुंचे। इसके लिए किसी एक पार्टी को दोष देना अन्याय होगा क्योंकि दावा कितना भी करें किंतु सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के प्रति पहले जैसी ईमानदारी कल्पनातीत हो गई है।


- रवीन्द्र वाजपेयी


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