चुनाव के मौसम में वायदों की बरसात हो रही है। कोई नौकरियां बांटने का आश्वासन बांट रहा है तो किसी के झोले में आपको लखपति बनाने का नुस्खा है। मुफ्त बिजली और अन्न के वायदे भी उछल रहे हैं। जाति के नाम पर लोगों को अलग पाँत में खड़ा करने का झुनझुना भी बजाया जा रहा है। संपत्ति के समान बँटवारे की सुरसुरी भी छोड़ दी गई है। लाखों रुपये का इलाज मुफ्त करवाने का भरोसा दिये जाने के साथ ही महिलाओं को आकर्षित करने सभी राजनीतिक दल स्पेशल इलेक्शन पैकेज लेकर घर - घर जा रहे हैं। बुजुर्गों और युवाओं को भी तरह - तरह के सपने दिखाकर आकर्षित किया जा रहा है। वैसे इसमें नया कुछ भी नहीं है। कृषि प्रधान से चुनाव प्रधान देश बन जाने के कारण भारत में वायदों के बीज बोये जाने लगे हैं। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि उनमें से बहुत कम ही अंकुरित हो पाते हैं। यदि चुनावी वायदों में आधे भी वास्तविकता में बदले होते तो देश दुनिया के विकसित देशों की कतार में आगे खड़ा नजर आता। हालांकि ये कहना तो गलत होगा कि कुछ नहीं हुआ किंतु जितना कहा गया वह नहीं होने से आज भी तमाम ऐसी समस्याएं मौजूद हैं जो आज़ादी के समय भी थीं। इसका कारण राजनीतिक नेताओं में प्रतिबद्धता और दायित्वबोध का अभाव ही है वरना सात दशक के कालखण्ड में जापान राख के ढेर से निकलकर बड़ी आर्थिक शक्ति बन बैठा। वहीं अफीमचियों के देश के तौर पर कुख्यात चीन दुनिया की आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बनकर अमेरिका तक को चुनौती देने की हिमाकत करने से नहीं चूकता। कहने का आशय ये है कि जिस लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हेतु लोकतंत्र को हमने अपनाया वह निजी स्वार्थों की पूर्ति का साधन बनकर रह गया। विकास तो हुआ किंतु जिन मूलभूत समस्याओं पर ध्यान देते हुए भविष्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं से बचा जा सकता था उनकी अनदेखी की गई। जिसका दुष्परिणाम नई पीढ़ी के सपनों को साकार करने वाले महानगरों की चरमराती व्यवस्थाओं के रूप में देखने मिल रहा है। कुछ दिनों पहले देश के आई.टी हब और सिलीकान वैली कहलाने वाले बेंगलुरू महानगर में उत्पन्न जलसंकट की खबर आई थी। और अब दक्षिण भारत के एक और महानगर चेन्नई में पानी की किल्लत का समाचार आ गया। इस महानगर में पेयजल आपूर्ति के स्रोत के तौर पर प्रसिद्ध झील में पानी समाप्त हो गया जबकि अभी तो पूरी गर्मियां पड़ी हैं। वीरानम नामक इस झील से 43 फीसदी चेन्नई को पानी मिलता है । समुद्र के किनारे बसी तमिलनाडु की इस राजधानी के बाकी तालाब भी जवाब दे चुके हैं। यहां समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने का संयंत्र भी लगाया गया है किंतु उसकी क्षमता आबादी के अनुपात में बेहद कम है। एक समय था जब बेंगलुरू अपने खुशनुमा मौसम के लिए प्रसिद्ध था। इसीलिए इसे मैसूर रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी बनाया गया था। यहाँ के बाग - बगीचे पर्यटकों को आकर्षित करते थे। उधर चेन्नई देश के चार महानगरों में शुमार किया जाता रहा है। अंग्रेजों के जमाने से ही चेन्नई ( पूर्व नाम मद्रास) एक प्रमुख शहर रहा। पहले तो तमिलनाडु राज्य का नाम ही मद्रास हुआ करता था। आजादी के बाद से ही बेंगलुरू और चेन्नई का विकास और विस्तार होता गया जिसके कारण आबादी बेतहाशा बढ़ी। परिणाम स्वरूप अव्यस्थाओं ने पनपना शुरू किया। यातायात समस्या, प्रदूषण और अतिक्रमण यहाँ की पहचान बनते चले गए। देश के अन्य महानगर मसलन कोलकाता, मुंबई भी इन्हीं का शिकार हैं। देश की राजधानी दिल्ली तो दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी बन चुकी है। ऐसे में प्रश्न ये है कि चुनावी वायदों में उक्त समस्या के निदान को कितना महत्व दिया जाता है। सड़कें, पुल, फ्लायोवर निश्चित रूप से बने हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर के राजमार्गों के निर्माण की वजह से सड़क यातायात में दिन ब दिन वृद्धि हो रही है। प्रधानमंत्री ने देश में 100 स्मार्ट सिटी बनाने की योजना शुरू की। स्वच्छता मिशन की वजह से साफ - सफाई भी एक महत्वपूर्ण विषय बन गया। लेकिन ये स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है कि शासन में बैठे रहनुमा बढ़ते शहरीकरण के खतरों को भांपने में चूक गए। आबादी का केंद्रीकरण बड़े शहरों में एकाएक तो हुआ नहीं। ऐसे में सरकार चलाने वाले चाहे वे किसी भी दल के क्यों न रहे हों यदि सतर्क रहते तब शायद महानगरों की कमर इस तरह न टूटती। समय आ गया है जब इस बारे में गंभीर चिंता की जाए। शहरों पर आबादी के बढ़ते बोझ को नहीं रोका गया तो फिर वह वह दिन दूर नहीं जब बेंगुलुरू और चेन्नई जैसी पानी की किल्लत और दिल्ली जैसी सांस लेने की दिक्कत मझोले स्तर के शहरों में भी देखने मिलेगी। बेहतर होता यदि चुनाव में ऐसे मुद्दे भी राजनीतिक दलों की प्राथमिकताओं में नजर आते। लेकिन कुछ कसूर तो मतदाताओं का भी है जो क्षणिक लाभ के बदले बदहाली की ज़िंदगी जीने तैयार हो जाते हैं।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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