Monday 29 April 2024

दिल्ली काँग्रेस में दंगल से गठबंधन की दरारें नजर आने लगीं


दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने गत दिवस अपने पद से त्यागपत्र देकर सनसनी मचा दी। उनके पहले पूर्व मंत्री राजकुमार चौहान पार्टी को  अलविदा कह चुके हैं। दोनों की नाराजगी आम आदमी पार्टी से चुनावी गठबंधन के अलावा उदित राज और कन्हैया कुमार को टिकिट दिये जाने पर है। उल्लेखनीय है कि 2019 में काँग्रेस  दिल्ली की सातों सीटों पर दूसरे स्थान पर थी किंतु आम आदमी पार्टी ने इस बार उसको तीन सीटें ही दीं। इस गठजोड़ का दिल्ली के साथ ही पंजाब के कांग्रेसी नेता शुरू से विरोध करते आ रहे थे। दिल्ली के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन भी अपनी असहमति जताते रह गए। लेकिन जिस काँग्रेस ने सबसे पहले केजरीवाल सरकार की शराब नीति में भ्रष्टाचार की शिकायत की थी वही उनके सामने नत मस्तक हो गई। पंजाब में तो आम आदमी पार्टी ने काँग्रेस को एक भी सीट नहीं दी जबकि दिल्ली में उसने 4 सीटों पर दावा ठोककर काँग्रेस को शर्मिंदगी झेलने बाध्य कर दिया। श्री माकन तो राज्यसभा सदस्य बनाये जाने के बाद से सार्वजनिक तौर पर  बोलने से कतरा रहे हैं लेकिन श्री लवली और श्री चौहान के त्यागपत्र से स्पष्ट हो गया कि  असंतोष का ज्वालामुखी धधक रहा है।  त्यागपत्र में श्री लवली ने शराब नीति घोटाले में दिल्ली के मुख्यमंत्री सहित अनेक बड़े नेताओं के जेल जाने का मुद्दा उठाते हुए कहा कि आम आदमी पार्टी से निकटता आत्मघाती है। हालांकि काँग्रेस  इस मोड़ पर गठबंधन  तोड़ने का साहस शायद ही दिखा सकेगी किंतु इसके कारण दिल्ली में उसको  नुकसान झेलना पड़ रहा है । पार्टी नेताओं का गुस्सा इस बात पर है कि अरविंद केजरीवाल ने राजनीति की शुरुआत काँग्रेस और उसके नेताओं को भ्रष्ट प्रचारित करने से ही की थी। पूर्व मुख्यमंत्री स्व.शीला दीक्षित उनका मुख्य निशाना रहीं। लेकिन त्रिशंकु विधानसभा बनी तब कांग्रेस ने ही आम आदमी पार्टी की सरकार को समर्थन देकर श्री केजरीवाल की ताजपोशी करवाई । हालांकि वह गठजोड़ ज्यादा नहीं चला। उसके बाद यमुना में बहुत पानी बह चुका है। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के बाद पंजाब में भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। लेकिन इंडिया गठबंधन बनने पर दोनों में नजदीकियां बढ़ने लगीं। यही वजह है कि जिस काँग्रेस ने शराब घोटाले में मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी का स्वागत किया वही अब श्री केजरीवाल की गिरफ्तारी का विरोध कर रही है। इस दोहरे रवैये से दिल्ली के साथ ही पंजाब के कांग्रेसजन असमंजस में हैं। दरअसल भाजपा के अंध विरोध में आम आदमी पार्टी के साथ गलबहियाँ करने की नीति के कारण कांग्रेस अपनी जड़ों में मठा डालने की मूर्खता कर रही है। पूर्व सांसद संदीप दीक्षित भी बेहद नाराज हैं। जैसी खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक उदित राज टिकिट मिलने से पहले तक काँग्रेस का उपहास कर रहे थे। इसी तरह कन्हैया अपने पोस्टरों में काँग्रेस नेताओं के बजाय श्री केजरीवाल का फोटो और उनकी सरकार के काम प्रचारित कर रहे हैं।  राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते दिल्ली की हर घटना का राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञान लिया जाता है। इसीलिए श्री लवली के इस्तीफे और उसमें उठाये गए मुद्दों का असर दिल्ली के साथ ही पंजाब और अन्य पड़ोसी राज्यों पर पड़ना तय है। आम आदमी पार्टी भले ही इसे काँग्रेस का आंतरिक मामला कहकर टिप्पणी से बच रही हो किंतु श्री लवली  के इस्तीफे से यह  आशंका मजबूत हो रही है कि काँग्रेस और आम आदमी पार्टी के वोट एक दूसरे को नहीं मिलेंगे।  हालांकि  उन्होंने काँग्रेस में बने रहने की बात कही है किंतु जिस आसानी से उनका इस्तीफा मंजूर किया गया उसके बाद वे हाशिये पर जा सकते हैं। और उस स्थिति में   समर्थकों सहित पार्टी छोड़ दें तो आश्चर्य नहीं होगा,। इस उथल - पुथल  से  इंडिया गठबंधन की दरारें सामने आ गई है। भले ही श्री लवली राष्ट्रीय स्तर के नेता न हों किंतु आला नेतृत्व की अपने नेताओं के साथ संवादहीनता पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। बीते कुछ सालों के भीतर जितने भी नेताओं ने पार्टी छोड़ी उनमें से ज्यादातर की शिकायत यही रही कि ऊपर बैठे नेता उनकी सुनते नहीं है। जिन नेताओं को प्रदेश का प्रभार दिया जाता है वे भी  प्रादेशिक नेतृत्व को ठेंगे पर रखते हैं। दिल्ली में हुए बवाल में भी प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया  को जिम्मेदार बताया जा रहा है। आलाकमान की नाक के नीचे समय रहते जब स्थिति को नहीं संभाला जा सका तब बाकी जगहों पर क्या होता होगा ये अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 April 2024

आगामी चरणों में भी मत प्रतिशत कमोबेश ऐसा ही रह सकता है


लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण में भी मतदान का प्रतिशत कम रहने से राजनीतिक दल तो परेशान हैं ही चुनाव विश्लेषक और सर्वेक्षण करने वाली पेशेवर एजेंसियां भी भौचक हैं। यद्यपि त्रिपुरा, मणिपुर, असम, छत्तीसगढ़, प. बंगाल, असम और जम्मू कश्मीर में 70 फीसदी से अधिक मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया । इनके  अलावा केरल, कर्नाटक और राजस्थान में 60 प्रतिशत से ज्यादा मत पड़े किंतु म.प्र , उ.प्र, महाराष्ट्र और बिहार 60 प्रतिशत का आंकड़ा भी न छू सके।  सभी राज्यों की स्थिति और समीकरण एक जैसे नहीं होने से मतदान का प्रतिशत अलग - अलग होना स्वाभाविक है। चुनाव मैदान में उतरीं तमाम पार्टियाँ घटते मतदान में भी अपने लिए उम्मीद की किरणें तलाशने में जुटी हैं। भाजपा को लगता है उसके प्रतिबद्ध मतदाताओं ने घरों से निकलकर उसकी जीत को पुख्ता कर दिया। इसके विपरीत विपक्ष यह प्रचार करने में जुटा है कि मत प्रतिशत गिरने के पीछे मोदी सरकार से मतदाताओं का मोह भंग हो जाना ही एकमात्र कारण है। लेकिन ये भी देखने वाली बात  है कि विपक्ष द्वारा शासित राज्यों में भी मतदान के प्रति रुचि कम हुई है। तो क्या कम मतदान के लिए राज्य सरकार के प्रति गुस्से को भी  वजह माना जा सकता है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और पार्टी के एक अन्य नेता शशि थरूर के निर्वाचन क्षेत्र क्रमशः वायनाड और तिरुवनंतपुरम में भी 2019 की तुलना में मत प्रतिशत अच्छा खासा गिरा। संयोग से वहाँ कांग्रेस के अलावा वामपंथी और भाजपा भी मैदान में हैं। राज्य में सरकार वाम मोर्चे की है वहीं केंद्र में भाजपा काबिज है। ऐसे में केरल में मत प्रतिशत कम होने को किसके प्रति नाराजगी मानी जाए ये यक्ष प्रश्न है। श्री गाँधी और श्री थरूर के विरोधी प्रत्याशियों के अनुसार ये उन दोनों सांसदों के प्रति मतदाताओं की नाराजगी भी हो सकती है। वैसे  राजनीतिक दलों के नजरिये से देखें तो कम मतदान उनके विरोधी के लिए नुकसानदेह है। विपक्ष इसमें अपना फ़ायदा देख रहा है वहीं सत्ता में बैठी पार्टी की नजर में केवल उसी के समर्थक मत देने निकले । 2019  की तुलना में मत प्रतिशत के कम होने के लिए यदि गर्मी को कारण मानें तो पिछले दो - तीन लोकसभा चुनाव इसी मौसम में हुए थे। इसी तरह शादियों को बहाना बनाएं तो अखबारों में दूल्हा - दुल्हन तक के चित्र मतदान करते देखे जा सकते हैं। म.प्र में  रीवा सीट पर मत प्रतिशत सबसे कम होने के पीछे बड़ी संख्या में बच्चों के मुंडन होना बताया जा रहा है।  दूसरे चरण के साथ लंबे समय के लिए हिन्दू विवाहों का मुहूर्त भी रुक गया है, ऐसे में उत्तर भारत में अगले चरणों में मतदान का प्रतिशत बढ़ना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तब अनुमानों के घोड़ों को दिशा देना और कठिन हो जायेगा। बहरहाल एक बात तो तय है कि विपक्ष मतदाताओं में उत्साह जगाने में विफल है। इसका कारण ये है कि वह अपनी नीति और नेता स्पष्ट नहीं कर पाया। हालांकि भाजपा भी किसी बड़े मुद्दे को उठाने में सफल नहीं हो सकी किंतु कुछ बातें उसके पक्ष में जाती हैं। पहली तो प्रधानमंत्री के चेहरे को लेकर एनडीए में कोई अनिश्चितता नहीं है। दूसरी वह  अपने नीतिगत मुद्दों को खुलकर व्यक्त कर रही है। जबकि विपक्ष इस मामले में  ढुलमुल नजर आता है। ममता बैनर्जी और केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन जिस तरह कांग्रेस पर हमले कर रहे हैं उससे विपक्षी एकता पर अंगुलियाँ उठ रही हैं।  भाजपा का संगठन और चुनाव लड़ने की पेशेवर शैली उसकी बड़ी ताकत है। लेकिन सबसे बड़ी बात जिसके आधार पर मोदी सरकार की वापसी तय मानी जा रही है वह है उसके द्वारा विपक्ष पर बना दिया गया मनोवैज्ञानिक दबाव। उसी के कारण कांग्रेस के प्रतिबद्ध मतदाताओं तक में निराशा देखने मिल रही है। भाजपा बीते दोनों चुनावों में स्पष्ट बहुमत लाने में सफल रही जबकि कांग्रेस तो 50 सीटों के करीब आ गई। ऐसे में उससे ऊंची छलांग की उम्मीद  नहीं दिखाई दे रही। इंडिया गठबंधन भी ये प्रदर्शित नहीं कर सका कि उसका झंडाबरदार कौन है? आगामी चरणों में हो सकता है मत प्रतिशत थोड़ा बढ़ जाए। लेकिन वह 2019 के स्तर को नहीं छू सकेगा क्योंकि विपक्ष की मिसाइलें निशाने से भटक रही हैं। वास्तविकता यह है कि भारत का चुनाव अब चेहरे पर केंद्रित होने लगा है और विपक्ष इस मामले में शुरू से ही कमजोर साबित हो रहा है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 26 April 2024

तो अखिलेश सीटों के लिए राहुल के सामने गिड़गिड़ाते


उ.प्र की रायबरेली और अमेठी लोकसभा सीटें गाँधी परिवार के गढ़ के तौर पर प्रसिद्ध रही हैं। हालांकि 2019 में राहुल गाँधी अमेठी में हार गए थे। पराजय की आशंका के चलते वे केरल की वायनाड सीट से भी लड़े और जीत हासिल की।  इस बार अब तक अमेठी से उनके लड़ने का कोई संकेत नहीं मिला था। रायबरेली से उनकी माँ सोनिया गाँधी सांसद रहीं किंतु अब वे राज्यसभा में आ गईं। लिहाजा उनकी सीट पर उम्मीदवारी भी अनिश्चित बनी रही। अखिलेश यादव ने कांग्रेस को राज्य की जो 17 सीटें समझौते में  दी उनमें उक्त दोनों सीटें भी हैं। पहले भी सपा और बसपा इन सीटों पर प्रत्याशी खड़ा नहीं करती थीं । आज वायनाड में मतदान हो रहा है। कांग्रेस से जुड़े सूत्रों के अनुसार इसके बाद अमेठी और रायबरेली से कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर राहुल और प्रियंका को उतारा जा सकता है। अब तक ये निर्णय इसलिए रुका रहा ताकि वायनाड में गलत संदेश न जाए। ये चर्चा भी सुनने में आती रही कि राहुल  , अमेठी से लड़ने के प्रति उदासीन हैं। हारने के बाद वे महज 2 बार उस क्षेत्र में गए। इधर प्रियंका का नाम रायबरेली से उछलता रहा है किंतु विधानसभा चुनाव में उ.प्र की प्रभारी के तौर पर उनका प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा। रायबरेली का गढ़ भी ढह गया। हाल के वर्षों में गाँधी परिवार के अनेक पुराने वफादार पाला बदलकर यहाँ - वहाँ चले गए। स्वास्थ्य अच्छा न होने से सोनिया जी का भी संपर्क अपने निर्वाचन क्षेत्र में कम होता चला गया। इसी कारण भाजपा ये दावा करने लगी थी कि इस बार उक्त दोनों सीटें वह जीत लेगी। उसी के बाद कांग्रेस में यह मंथन शुरू हुआ कि इन सीटों पर गाँधी परिवार के सदस्य को ही उतारा जाए। अब विचार इस बात पर चल रहा है कि भाई कहाँ से लड़े और बहिन कहाँ से ? वैसे ये किसी  भी  राजनीतिक दल का निजी मामला है कि किस सीट से वह किसे लड़ाए। उस दृष्टि से गाँधी परिवार का कोई सदस्य यदि रायबरेली और अमेठी से लड़ाया जाता है तो इसमें अटपटा कुछ भी नहीं किंतु एक बात अवश्य खटकने वाली है कि लंबे समय से उक्त सीटों पर काबिज रहने के बाद भी गाँधी परिवार ने काँग्रेस के किसी भी कार्यकर्ता को इतना सक्षम नहीं बनने दिया जो इस सीट को बचाकर रख सके। रायबरेली से सोनिया जी का न लड़ना काफी पहले से तय था किंतु आज तक पार्टी ये तय न कर सकी कि उनका विकल्प कौन होगा? अमेठी से  हारने के बाद राहुल ने एक तरह से मुँह ही फेर लिया। यदि वे वहाँ नहीं लौटना चाहते थे तब भी काँग्रेस को किसी नये उम्मीदवार को तैयार करना था। लेकिन उस बारे में कोई प्रयास नहीं हुआ। और अब उनके वहां  से लड़ने की चर्चा महज इसलिए जोर पकड़ रही है कि और कोई जीत हासिल नहीं कर सकेगा। हालांकि ये स्थिति केवल रायबरेली और अमेठी की नहीं अपितु देश भर में दर्जनों सीटों की है जो कुछ नेताओं और उनके परिवार की निजी जागीर बन चुकी हैं। प्रजातंत्र के लिहाज से ये बेहद चिंतनीय और राजनीतिक दलों के प्रभाव में विचारधारा के महत्वहीन होने का प्रमाण है। कुछ सीटें  दिग्गज नेताओं के नाम मानो लिख दी गई हैं। उनके अलावा दूसरा कोई उनका परिजन ही हो सकता है। उ.प्र में काँग्रेस जिस दयनीय स्थिति में है उसके लिए गाँधी परिवार ही जिम्मेदार है क्योंकि सोनिया जी और राहुल तो सपा और बसपा का समर्थन लेकर अपनी नैया पार लगाते रहे किंतु बाकी प्रत्याशियों को डूबने छोड़ दिया जाता था। 2019 में राहुल भले ही अमेठी से हार गए किंतु उन्हें वहाँ सम्पर्क बनाये रखते हुए नया नेतृत्व तैयार करना था। उल्लेखनीय है 2014 में स्मृति ईरानी इस सीट के लिए अपरिचित चेहरा थीं। कड़े संघर्ष में हारने के बाद वे अगले पाँच वर्ष तक वहाँ आती - जाती रहीं और अंततः राहुल को हराकर ही दम ली। लेकिन श्री गाँधी ने अमेठी से दूरी बना ली। जबकि होना यह चाहिए था कि वे उसके साथ ही उ.प्र की बाकी सीटों पर पार्टी को ताकतवर बनाने के लिए परिश्रम करते। लेकिन वे यात्राओं में अपनी शक्ति और समय लगाते रहे। नतीजा ये हुआ कि 80 सीटों वाले देश के सबसे बड़े राज्य में उनकी पार्टी को एक क्षेत्रीय दल द्वारा खींची गई सीमा रेखा में सिमटना पड़ा। रायबरेली और अमेठी में काँग्रेस का प्रत्याशी कौन होगा ये वायनाड में मतदान के बाद तय करना तो रणनीति का हिस्सा हो सकता है किंतु ये मान लेना कि वहाँ से एक  परिवार ही जीत सकेगा पार्टी की वैचारिक विपन्नता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। कहते हैं दिल्ली की सत्ता का रास्ता उ.प्र होकर जाता है। इसीलिए नरेंद्र मोदी ने गुजरात से आकर वाराणसी को अपना क्षेत्र बनाया। राहुल ने भी यदि बीते पाँच वर्ष उ.प्र में मेहनत की होती तब गठबंधन में काँग्रेस का हाथ ऊंचा होता और अखिलेश यादव उनसे सीटों के लिए गिड़गिड़ाते। 


-  रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 25 April 2024

2024 के चुनाव में 1971 वाले फार्मूले काम नहीं आएंगे

काँग्रेस नेता राहुल गाँधी देश में संपत्ति का सर्वे करवाकर उसके समान वितरण का मुद्दा उठाते फिर रहे हैं। शायद उनको अपनी स्व.दादी इंदिरा गाँधी याद आ गईं जिन्होंने 1971 का लोकसभा चुनाव गरीबी हटाओ के नारे पर जीत लिया था। हालांकि उसके पहले वे बैंक राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स समाप्त करने जैसे कदम उठा चुकी थीं। कांग्रेस में विभाजन के बाद श्रीमती गाँधी ने सोवियत  संघ से निकटता बढ़ाई और खुद को समाजवादी विचारधारा से जोड़कर पेश किया। इसीलिए उनको वामपंथी पार्टियों और विचारकों का समर्थन भी मिला। ऐसा लगता है संपत्ति का राष्ट्रीय सर्वे करवाने का शिगूफा छोड़कर श्री गाँधी उन उद्योगपतियों को घेरना चाह रहे हैं जिनकी  वे आये दिन आलोचना करते हैं। उनकी इस बात पर बहस चल ही रही थी कि उनके सलाहकार और कांग्रेस के ओवरसीज विभाग के प्रमुख सैम पित्रोदा ने विरासत में मिलने वाली संपत्ति को लेकर बयान दे डाला  कि अमेरिका में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति का 55 फीसदी सरकार के पास चला जाता है जबकि महज 45 फीसदी उत्तराधिकारियों को मिलता है। जबकि भारत में पूरे हिस्से पर वारिसों का अधिकार होता है। राहुल की बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने गरीबों के हाथ में पैसा देने की वकालत भी की। उनका बयान से मानो भाजपा को मुँह मांगी मुराद मिल गई। उसने श्री पित्रोदा के बहाने काँग्रेस को घेरना शुरू कर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी  कांग्रेस को लोगों की दौलत छीनने वाली पार्टी बता दिया। और कोई समय होता तब शायद कांग्रेस जवाब देने में इतनी तत्परता न दिखाती किंतु लोकसभा चुनाव  जारी रहने की वजह से उसे बचाव के लिए आगे आना पड़ा। पार्टी  प्रवक्ता जयराम रमेश ने श्री पित्रोदा के बयान को उनकी निजी राय बताते हुए उससे पल्ला झाड़ लिया। उल्लेखनीय है सैम को भारत में संचार क्रांति का जनक माना जाता है। स्व राजीव गाँधी के शासनकाल में उनकी सलाह और मार्गदर्शन में ही मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट  जैसी चीजें शुरू हुईं थीं। पेशेवर  दक्षता के लिहाज से श्री पित्रोदा निश्चित तौर पर योग्य  हैं किंतु काँग्रेस से सीधे जुड़ जाने की वजह से अब उनकी छवि बदल चुकी है। हालिया सालों में  राहुल के विदेशी दौरों की व्यवस्था उन्हीं के द्वारा की जाती रही है। ऐसे में विरासत में मिली संपत्ति का बड़ा हिस्सा सरकार को मिलने जैसे बयान से कांग्रेस पूरी तरह खुद को अलग कैसे कर सकती है जबकि उसके न्याय पत्र ( घोषणा पत्र) में संपत्ति का राष्ट्रीय सर्वे करवाने का वायदा है। इसका अप्रत्यक्ष तौर पर अभिप्राय यही लगाया जा रहा है कि आर्थिक  विषमता दूर करने संपत्ति का समान बंटवारा किया जावेगा। इस प्रकार  पार्टी का घोषणापत्र और श्री पित्रोदा का बयान एक दूसरे के पूरक हैं। ये दोनों ही बातें काँग्रेस और उसके   नीति निर्धारकों की अपरिपक्वता का प्रमाण हैं। पता नहीं संपत्ति का सर्वे करवाने जैसा वायदा किसके सुझाव पर पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में शामिल किया। बची - खुची कसर पूरी कर दी अमेरिका में बैठे श्री पित्रोदा ने विरासत सम्बन्धी बयान देकर। जिस प्रकार सनातन और राम मन्दिर के मुद्दे पर कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली वैसी ही गलती इस मामले में होती दिखाई दे रही है।  श्री गाँधी को ये जानना और समझना चाहिए कि ये 2024 है जिसमें 1971 वाले फार्मूलों से चुनाव नहीं जीता जा सकता। और फिर संपत्ति के समान बंटवारे की कल्पना तो साम्यवाद के सबसे बड़े गढ़ सोवियत संघ और चीन तक में साकार न हो सकी। सोवियत संघ तो साम्यवादी विचारधारा के बोझ में ही बिखर गया वहीं चीन ने भी माओ के बनाये लौह आवरण को ध्वस्त कर निजी पूंजी और संपत्ति के मॉडल को मान्यता दे दी। ऐसा लगता है श्री गाँधी अपनी ही पार्टी की सरकार द्वारा लाए गए आर्थिक सुधारों की गाड़ी को पीछे धकेलना चाहते हैं जब सब कुछ सरकार के नियंत्रण में रहने के कारण कोटा, परमिट और लाइसेंस राज चल रहा था। उस व्यवस्था को उनके पिता ने बदला और फिर  डाॅ. मनमोहन सिंह ने मुक्त अर्थव्यवस्था का शुभारंभ करते हुए नई आर्थिक नीतियों का सृजन किया। उन दोनों के कार्यों का श्रेय लेना कांग्रेस कभी नहीं भूलती किंतु  आश्चर्य की बात है कि राहुल उसके विपरीत दिशा में चलने की कोशिश कर रहे हैं। उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि संपत्ति के समान वितरण की बजाय लोगों की उद्यमशीलता बढ़ाकर विषमता दूर करना ज्यादा कारगर होगा। चुनाव जीतने की लालसा में वर्ग संघर्ष  की परिस्थिति उत्पन्न करना  समाज के लिए घातक है, जिससे राजनीतिक नेता भी नहीं बच सकेंगे । 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 24 April 2024

चिकित्सकों के अनैतिक आचरण पर अपना रुख स्पष्ट करे मेडिकल एसोसियेशन


योग गुरु बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि के विरुद्ध आई .एम.ए (इंडियन मेडिकल एसोसियेशन ) द्वारा दायर याचिका की सुनवाई के दौरान दो न्यायाधीशों की पीठ ने बाबा और उनके सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को खूब लताड़ लगाईं।  इस प्रकरण में जिस तरह की टिप्पणियां पीठासीन न्यायाधीशों द्वारा की गईं उन्हें  लेकर ये चर्चा होने लगी कि यह याचिका आयुर्वेद नामक भारतीय चिकित्सा पद्धति को दबाने के लिए अंग्रेजी दवा कंपनियों द्वारा रचे गए कुचक्र का हिस्सा है। स्मरणीय है बाबा रामदेव ने पहले योग को घर - घर पहुंचाया और फिर पतंजलि  की स्थापना कर आयुर्वेद दवाओं का उत्पादन तो प्रारंभ किया ही अपितु वैद्यों की सेवाएँ उपलब्ध कराने का प्रबंध भी किया। सौंदर्य प्रसाधन के साथ ही दैनिक जीवन में उपयोग आने वाली दर्जनों चीजें भी पतंजलि द्वारा बनाई जाती हैं। परिणाम स्वरूप   बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों की बिक्री में गिरावट आने लगी। बाबा द्वारा विभिन्न बीमारियों के इलाज में एलोपैथी नामक चिकित्सा पद्धति की अक्षमता को भी उजागर किया गया। संदर्भित याचिका उसी की प्रतिक्रियास्वरूप पेश की गई थी। अब तक तो पीठ द्वारा बाबा और आचार्य बालकृष्ण की ही खिंचाई होती रही। लेकिन गत दिवस उसके द्वारा आई.एम.ए को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा गया कि जब आप एक अंगुली दूसरे पर उठाते हैं तब चार आपकी तरफ भी उठती हैं। इसके बाद अदालत ने चिकित्सकों द्वारा महंगी और अनावश्यक दवाइयाँ लिखने का जिक्र करते हुए कहा कि चिकित्सकों के सबसे बड़े संगठन को अपना घर ठीक करने के साथ ही चिकित्सकों के अनैतिक आचरण के बारे में भी अपना रवैया स्पष्ट करना चाहिए। लगे हाथ पीठ ने उपभोक्ता कंपनियों द्वारा दिये जा रहे भ्रामक विज्ञापनों पर भी चाबुक चलाया और उस बारे में केंद्र सरकार से भी जवाब तलब किया। जिसके बाद बेबी फूड और मसाले बनाने वाली कंपनियों के लपेटे में आने के आसार बढ़ गए हैं। लेकिन अदालत द्वारा चिकित्सकों को लेकर आई.एम.ए को जो डाँट पिलाई उसके बाद एलोपैथी चिकित्सा पद्धति से इलाज कर रहे  लाखों चिकित्सक सवालों के घेरे में आ गए हैं जिनके बारे में न्यायालय ने अनैतिक आचरण जैसे शब्द का उपयोग किया। पतंजलि द्वारा एलोपैथी के बारे में कही गई आलोचनात्मक बातों पर न्यायालय का सख्त रुख पूर्णतः उचित है क्योंकि बिना प्रामाणिकता के किसी  पर आक्षेप उचित नहीं है। एलोपैथी एक आधुनिक चिकित्सा पद्धति है जिसने पूरे विश्व में अपना प्रभाव स्थापित किया है। लगातार शोध के साथ ही शल्य क्रिया के क्षेत्र में उसकी उपलब्धियां प्रशंसनीय हैं। उसकी दवाओं के दुष्परिणाम भी हैं लेकिन तत्काल आराम के कारण उसकी स्वीकार्यता बढ़ती गई। लेकिन यह चिकित्सा पद्धति धीरे -  धीरे बाजारवादी ताकतों के शिकंजे में फंसकर रह गई । परिणामस्वरूप सेवा की बजाय चिकित्सा के पेशे ने व्यापार का रूप ले लिया। हालांकि आज भी इस क्षेत्र में अनेक ऐसे लोग हैं जिनमें पीड़ित मानवता की निःस्वार्थ सेवा करने का भाव विद्यमान है किंतु चिकित्सा जगत से जुड़े ज्यादातर लोगों में धन कमाने की हवस चरमोत्कर्ष पर है। महँगी और अनावश्यक दवाएं लिखकर दवा कंपनियों से अनुचित लाभ लेने का धंधा किसी से छिपा नहीं है। निजी अस्पतालों में होने वाली लूटमार तो निर्दयता की हद छूने लगी है। चिकित्सकों और अस्पताल संचालकों का अपना पक्ष हो सकता है किंतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई नसीहत के बाद भी आई.एम.ए यदि मौन रहता है तब वह अनैतिक आचरण की स्वीकारोक्ति होगी। महँगी और गैर जरूरी दवाएं लिखने की न्यालायीन टिप्पणी पर भी एसोसियेशन का उत्तर प्रतीक्षित रहेगा। नियमों के अनुसार चिकित्सक को किसी ब्रांड की बजाय जेनरिक दवा लिखनी चाहिए किंतु ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है। निजी प्रैक्टिस करने वाले अधिकतर चिकित्सकों ने दवाखाने के बगल में दवाई की दूकान खुलवा रखी है । उनकी लिखी दवाएँ आम तौर पर इनमें ही उपलब्ध होती हैं। निजी अस्पतालों के तो प्रांगण में ही दवा प्रतिष्ठान हैं जिनमें मुँह मांगे दाम वसूले जाते हैं। पैथालाजी, एक्सरे, सोनोग्राफी, स्केनिंग, एम.आर.आई आदि पर कमीशन का खेल खुले आम चलता है। अपने शहर से बाहर के किसी बड़े अस्पताल मरीज भेजने पर  सौजन्य राशि मिलने की चर्चा भी आम है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन्हीं विकृतियों पर रोक लगाने की अपेक्षा की गई है। देखना ये है कि एसोसियेशन अपना घर ठीक करने के लिए क्या करता है? वैसे भी उसे ये तो पता ही होगा कि चिकित्सा सेवाओं का व्यवसायीकरण हो जाने से अब चिकित्सकों की प्रतिष्ठा में भी भारी गिरावट आई है जिसके लिए वह खुद भी काफी हद तक जिम्मेदार है। आखिर उसके पदाधिकारी भी तो चिकित्सक ही होते हैं। 

Monday 22 April 2024

ताकि करदाता को ईमानदार होने का अफसोस न हो


लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान समाप्त होने के बाद बीते वित्तीय वर्ष में प्रत्यक्ष कर संग्रह के जो अधिकृत  आंकड़े जारी हुए वे बेहद  उत्साहवर्धक हैं। सरकार द्वारा जो लक्ष्य बजट में निर्धारित किया गया था उससे कहीं ज्यादा कर जमा होना वित्तीय नीतियों की सफलता के साथ ही अर्थव्यवस्था का पूरी तरह रफ्तार पकड़ने का प्रमाण है। वित्तीय वर्ष 2023-24 के प्रत्यक्ष कर संग्रह के  आंकड़े दर्शाते हैं कि शुद्ध संग्रह 19.58 लाख करोड़ रुपये का रहा, जो कि पिछले वित्तीय वर्ष 2022-23 के 16.64 लाख करोड़ रुपये के शुद्ध संग्रह की तुलना में 17.70 प्रतिशत अधिक है। इस बारे में सबसे संतोषजनक बात ये है कि कर संग्रह न केवल कार्पोरेट सेक्टर में बढ़ा अपितु व्यक्तिगत आयकर दाताओं ने भी आयकर रूपी सहयोग देने में सरकारी अनुमान को ध्वस्त कर दिया। वैसे तो सरकार के पास विभिन्न स्रोतों से राजस्व आता है किंतु प्रत्यक्ष कर की मद से आने वाले कर से कंपनियों और निजी  आयकर दाताओं का ब्यौरा देश के सामने आ जाता है। इसीलिए जब बजट आता है तब सबसे अधिक ध्यान आयकर पर लगा रहता है जो कि उच्च और मध्यम आय वर्ग को सीधे प्रभावित करता है। लंबे समय से इसकी दरें अपरिवर्तित हैं। हालांकि सरकार छोटे करदाताओं, विशेष रूप से महिलाओं और वरिष्ट नागरिकों को कर बचाने के कुछ विकल्प देती है जिनमें बचत योजनाएं प्रमुख हैं । लेकिन  उसकी ये मेहरबानी लोगों को रास नहीं आती क्योंकि महंगाई के बढ़ते जाने से बचत की गुंजाइश कम होती जा रही है। और फिर मध्यम और उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों की जीवनशैली में आ रहे  बदलाव ने भी खर्च बढ़ा दिये हैं। बच्चों की शिक्षा पर व्यय लगातार बढ़ रहा है। इसी तरह परिवहन खर्च में भी वृद्धि होती जा रही है। इन सबके चलते ये अपेक्षा की जाती है कि आयकर की छूट सीमा में अच्छी खासी वृद्धि की जाए। ऐसा होने पर करदाता की जेब में ज्यादा पैसा आने से अंततः वह बाजार में ही जायेगा जिससे सरकार को अप्रत्यक्ष कर जीएसटी के तौर पर मिलेगा। यही स्थिति जीएसटी की ऊँची दरों को लेकर है जिनकी वजह से महंगाई भी बढ़ती है और कर चोरी की प्रवृत्ति भी। हालांकि आधारभूत संरचना के लिए बड़े पैमाने पर धन की आवश्यकता सरकार को होती है और मौजूदा केंद्र सरकार ने इस दिशा में अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया भी है । कोरोना काल में जनता को मिलने वाली तमाम छूटें जब वापस ली गईं तब तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए लोगों ने सरकार के उस कदम को बिना संकोच स्वीकार कर लिया। ये भी मानना होगा कि केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान उससे निपटने के जो इंतजाम किये उनके लिए  अतिरिक्त धन की जरूरत थी। कोरोना के विदा हो जाने के बाद भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर आने में समय लगा किंतु बीते एक - डेढ़ साल में जिस तरह की उपलब्धियां देखने मिलीं उनके परिप्रेक्ष्य में जनता को कोरोना काल में वापस ली गई सुविधाएं और छूट लौटाई जानी चाहिए। इस वर्ष लोकसभा चुनाव होने के कारण केंद्र सरकार पूर्ण बजट पेश नहीं कर सकी। इस कारण प्रत्यक्ष कर ढांचे में भी बदलाव नहीं किये जा सके किंतु ये आश्चर्य की बात है कि किसी भी राजनीतिक दल द्वारा अपने चुनाव घोषणापत्र में आयकर और जीएसटी में राहत संबंधी वायदा नहीं किया गया । ध्यान देने योग्य बात ये है कि मध्यमवर्ग में भी आयकर के दायरे में आने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। देश का बड़ा उपभोक्ता बाजार इस वर्ग के कारण ही मजबूत स्थिति में है जिसका प्रमाण हर माह होने वाली जीएसटी वसूली है। ये देखते हुए लोकसभा चुनाव के बाद जो पूर्ण बजट आयेगा उसमें प्रत्यक्ष कर ढांचे को आर्थिक सुधारों के मद्देनजर इस तरह बनाया जाए जिससे आयकर दाता को कर देने में संतोष का अनुभव हो। दुनिया की सबसे तेज बढ़ती  अर्थव्यवस्था होने के साथ ही अब भारत का लक्ष्य तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का है। लेकिन इस खुशी में जनता को शामिल होने का अवसर तभी मिलेगा जब उसके कंधों का बोझ कम हो। हालांकि आयकर विभाग की कार्यप्रणाली में काफी सुधार हुआ है और रिफंड भी जल्द आने लगे हैं किंतु  उसकी दरों में कमी समय की मांग है। चुनाव के बीच में आये आंकड़े निश्चित ही सरकार के कुशल अर्थ प्रबंधन का परिणाम हैं लेकिन आयकर दाताओं को भी उनके योगदान  हेतु आभारस्वरूप कुछ न कुछ ऐसा मिलना चाहिए ताकि उन्हें अपने ईमानदार होने का अफसोस न हो। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 21 April 2024

कम मतदान से अंतिम परिणाम का अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी : विपक्ष से नाउम्मीदी भी कारण हो सकता है


पहले चरण में  मतदान का प्रतिशत कम होने के बाद  पूरे देश में इसके असर की चर्चा चल पड़ी है। प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय स्तर के भाजपा नेता तक दावा कर रहे हैं कि अब की 400 पार का दावा सही साबित होगा। वहीं विपक्ष इसके उलट इस बात को उछाल रहा है कि मत प्रतिशत में गिरावट का अर्थ नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटना है। जिन सीटों पर वे प्रचार के लिए गए वहाँ भी मतदान केंद्रों में भीड़ नहीं दिखी। सबसे ज्यादा आश्चर्य उ.प्र , म. प्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और बिहार में मत प्रतिशत  कम होने पर व्यक्त किया जा रहा है क्योंकि इनमें भाजपा अथवा एनडीए का राज है।

      यद्यपि अब तक माना जाता रहा है कि मत प्रतिशत में वृद्धि से सत्ता परिवर्तन का रास्ता खुलता है जबकि कम मतदान यथास्थिति बनाये रखने का इशारा है। लेकिन बीते कुछ सालों में उक्त अवधारणा  कई जगह गलत साबित हुई है। 2023 के विधानसभा चुनाव में म.प्र में 2018 की अपेक्षा मत प्रतिशत बढ़ने पर ये उम्मीद लगाई जा रही थी कि  भाजपा सत्ता से बाहर हो जायेगी। इसी तरह छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मतदान कम होने से वही सरकार जारी रहने का कयास लगाया गया था। लेकिन तीनों जगह हुआ उल्टा। इसी आधार पर चुनाव विश्लेषक मान रहे हैं कि पहले चरण में कम मतदान होने से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी ।

      कुछ लोगों का मानना है कि मतदाताओं की उदासीनता का कारण विपक्ष की नीति और नेता स्पष्ट न होना है। उसके समर्थकों को ये भरोसा हो चला है कि चूंकि उसे सत्ता मिलने वाली है नहीं, लिहाजा धूप में चलकर क्यों जाया जाए? 2009 में भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को आगे रखकर लोकसभा चुनाव लड़ा किंतु वे अटल जी जैसा आकर्षण उत्पन्न न कर सके । इसलिए पार्टी के सांसदों की संख्या कम हुई वहीं कांग्रेस 200 पर जा पहुंची। इस आधार पर 19 तारीख को मतदान का प्रतिशत गिरने से विपक्ष को भी चिंतित होना चाहिए  क्योंकि  प. बंगाल और तमिलनाडु में भी 2019 की तुलना में कम मतदान हुआ।

    तेज गर्मी और शादियाँ तो अप्रैल,मई में हर साल पड़ती है। अगले चरणों में तो तापमान और बढ़ेगा। ऐसे में मतदान का आंकड़ा और भी नीचे चला जाए तो अचंभा नहीं होगा। जहाँ तक बात नफे - नुकसान के आकलन की है तो अब तक एग्जिट पोल की जानकारी सभी दलों को उनके द्वारा नियुक्त सर्वे एजेन्सी के जरिये मिल गई होगी। मतदान खत्म होते ही हर सीट पर सैकड़ों मतदाताओं के पास ये जानने के लिए फोन आये कि उन्होंने अपना मत किसे दिया। हालांकि चुनाव आयोग की बंदिश के कारण उनका खुलासा संभव नहीं है लेकिन पार्टियां अगले चरणों के लिए अपनी  रणनीति और मैदानी तैयारी उसी के मुताबिक करेंगी।

       भाजपा इस मामले में ज्यादा सक्रिय है इसलिए  उसने एग्जिट पोल से मिले संकेतों का विश्लेषण करने के बाद अपनी चुनावी मशीनरी को अगले चरण के लिए मुस्तैद कर दिया होगा। लेकिन काँग्रेस चूंकि इस बारे में बहुत ढीली - ढाली है इसलिए उससे खास उम्मीद नहीं है। जिस इंडिया गठबंधन के बलबूते वह सत्ता में आने के ख्वाब देख रही है उसमें अभी तक वह कसावट नहीं नजर आई जो सत्ता बदलने के लिए जरूरी होती है। दिल्ली में कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी का पूर्व सांसद संदीप दीक्षित ने जिस प्रकार से विरोध किया वह इसका उदाहरण है।

     कुल मिलाकर पहले चरण के कम मतदान से अंतिम परिणाम के बारे में अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी। मतदाताओं की संख्या बढ़ जाने से  प्रतिशत कम होने के बाद भी अनेक सीटों पर कुल मतों की संख्या 2019 जैसी ही या उससे कुछ कम होने पर किसी उलटफेर की उम्मीद कम हो सकती है। लेकिन जहाँ हार जीत का अंतर हजारों में था वहाँ जरूर नतीजा चौंकाने वाला होगा।

     वैसे भाजपा या एनडीए शासित प्रदेशों में  विपक्ष  में  आक्रामकता का अभाव भी कम मतदान का कारण माना जा रहा है। इसीलिए वह भाजपा के नुकसान के दावे के बावजूद अपनी जीत के प्रति  आश्वस्त नजर नहीं आ रहा।

-रवीन्द्र वाजपेयी