Thursday 29 February 2024

उच्च न्यायालय सख्त न होता तो शाहजहां की गिरफ्तारी नहीं होती



प.बंगाल के 24 परगना जिले का संदेशखाली नामक कस्बा बीते काफी समय से चर्चा में है। जनवरी माह में शाहजहां शेख नामक एक व्यक्ति के यहां ईडी का दल जब छापा मारने गया तो सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के उक्त  नेता के गुर्गों ने उस पर हमला कर दिया जिसमें ईडी के अनेक लोग घायल हो गए। उसी बीच शाहजहां भाग निकला। उस घटना के बाद संदेशखाली में उसके अत्याचारों का खुलासा होने लगा। वह और उसके गैंग के लोग महिलाओं के यौन शोषण और जमीनों पर कब्जा करने जैसा काम लंबे समय से करते आ रहे थे ।  उनके आतंक का  कोई विरोध इसलिए नहीं करता था क्योंकि  पुलिस द्वारा उनकी शिकायतें अनसुनी कर दी जाती थीं और पता लगने पर शाहजहां के लोग उन्हें और प्रताड़ित करते। महिलाओं को घर से उठा ले जाना और बलात्कार करने के बाद छोड़ देना वहां  आम हो चला था। नव विवाहिता तक के साथ इस तरह की अमानवीयता की जाती रही । जाहिर है शाहजहां और उसकी गैंग को सत्ता का संरक्षण था । ईडी के छापे के बाद शाहजहां के फरार होने और उसके खास साथियों के  भूमिगत हो जाने के बाद संदेशखाली में जो जनजागृति आई उसने पूरे देश को चौंका दिया। महिलाओं ने सड़कों पर आकर अपने साथ हुए अत्याचार का  वृतांत उजागर किया।  विपक्षी दलों के प्रतिनिधिमंडल , महिला और मानव अधिकार आयोग जैसी  संस्थाओं सहित समाचार माध्यमों के  प्रतिनिधियों ने भी संदेशखाली पहुंचकर वहां के हालात को देश और दुनिया की जानकारी में लाने का कार्य किया। होना तो ये चाहिए था कि मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी  पीड़ित महिलाओं के जख्मों पर मरहम लगातीं और तृणमूल से जुड़े नरपिशाचों को गिरफ्तार करवाने की कार्रवाई करतीं। लेकिन इसके उलट उन्होंने विपक्षी दलों पर अशांति फैलाने का आरोप मढ़ दिया। सबसे  चौंकाने वाली बात रही शाहजहां को गिरफ्तार न किया जाना। बीच - बीच में खबर उड़ी कि वह बांग्ला देश भाग गया किंतु संदेशखाली में ही रह रहे उसके भाई दावा करते रहे कि वह प.बंगाल में ही था। कुछ दिन पहले कोलकाता उच्च न्यायालय ने ममता सरकार को लताड़ते हुए एक सप्ताह के भीतर शाहजहां को गिरफ्तार कर पेश करने का हुक्म दिया। उसके बाद सरकार हरकत में आई और आज सुबह उसे 24 परगना के ही किसी इलाके में गिरफ्तार कर लिया गया। अब जबकि शाहजहां पकड़ा जा चुका है तब ये प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठ खड़ा हुआ है कि उच्च न्यायालय द्वारा  डांट पिलाए जाने के बाद गिरफ्तारी इतनी आसानी से कैसे हो गई ? ये बात इसलिए उठ खड़ी हुई क्योंकि शाहजहां अपने ही जिले में पकड़ा गया। ये भी शंका है कि वह किसी अन्य जगह पर रहा हो और गिरफ्तार करने के लिए 24 परगना बुलवा लिया गया। भाजपा इस मामले को पूरे जोरशोर से उठाती आई है। वहीं कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर तो ममता सरकार पर हमला बोलने से परहेज किया किंतु उसकी प.बंगाल इकाई जरूर इस मुद्दे पर तृणमूल को घेरती रही।  उच्च न्यायालय द्वारा  दी गई  मोहलत के पहले ही पुलिस द्वारा शाहजहां को पकड़ लेने से ये स्पष्ट हो गया कि उसके ठिकाने के बारे में  शासन - प्रशासन को सब कुछ पता था। ममता सरकार पर मुस्लिम तुष्टीकरण के जो आरोप लगते रहे , संदेशखाली ने उनकी पुष्टि कर दी है। शाहजहां और उसके गुर्गों के अत्याचार के जो किस्से वहां की महिलाओं द्वारा बताए जा रहे हैं वे दिल दहला देने वाले हैं । सबसे शर्मनाक ये है कि महिलाओं के साथ सामूहिक दुराचार तृणमूल के कार्यालय तक में होता रहा। अब जबकि शाहजहां और उसके साथ के लोग पकड़े जा चुके हैं तब सुश्री बैनर्जी को चाहिए उन्हें पार्टी से  बाहर करने के साथ ही संदेशखाली की पीड़ित महिलाओं और उनके परिवार को सुरक्षा और न्याय दिलवाने की पुख्ता व्यवस्था करें।  शाहजहां को राज्य सरकार का कितना  संरक्षण था ये उसके 55 दिन तक फरार रहने से स्पष्ट हो गया। उच्च न्यायालय यदि सख्ती न दिखाता तो वह अभी भी गिरफ्तार नहीं होता। 


- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 28 February 2024

क्रॉस वोटिंग : विपक्ष से अपना घर नहीं संभल रहा



गत दिवस उ.प्र, हिमाचल और कर्नाटक में राज्यसभा चुनाव के जो परिणाम आए उनमें सपा और कांग्रेस को  झटका लगा । उ.प्र में सपा के आधा दर्जन विधायकों ने भाजपा के आठवें प्रत्याशी को मत देकर अपने एक प्रत्याशी को हरवा दिया। इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस के 6 विधायकों द्वारा भाजपा प्रत्याशी को मत देने से अभिषेक मनु सिंघवी हार गए। यदि  तीन निर्दलीय ही साथ देते तो कांग्रेस उम्मीदवार जीत जाता। लेकिन पार्टी का नेतृत्व सिर पर मंडराते खतरे को भांप नहीं सका । उ.प्र में भी सपा विधायकों द्वारा बगावत की आशंका  थी । वैसे बगावत कर्नाटक में भी हुई जहां भाजपा विधायक ने कांग्रेस प्रत्याशी को मत देकर सबको चौंका दिया। लेकिन उ.प्र में सपा और हिमाचल में कांग्रेस का प्रत्याशी चूंकि हार गया इसलिए भाजपा पर विधायकों को लालच और भय दिखाकर तोड़ने का आरोप लगाया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक इसमें सपा और कांग्रेस के नेतृत्व की विफलता देख रहे हैं जिसने सामने खड़े खतरे को नजरंदाज किया। उ.प्र में जया बच्चन को उम्मीदवार बनाए जाते ही सपा में बगावत के सुर उठने लगे थे जिन्हें अखिलेश यादव ने  अनसुना कर दिया । इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस को बगावत की आशंका थी इसीलिए सोनिया गांधी को राजस्थान से राज्यसभा भेजने का फैसला लिया गया  । कुछ मंत्री और विधायक खुलकर मुख्यमंत्री के विरुद्ध थे। राम मंदिर के शुभारंभ पर विक्रमादित्य सिंह नामक मंत्री  पार्टी लाइन से अलग हटकर अयोध्या भी गए। आज उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया । अनेक विधायक खुलकर मुख्यमंत्री बदलने पर अड़े हुए थे  जिसके बाद  मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने भी इस्तीफा दे दिया। जो जानकारी आ रही है उसके मुताबिक शाम तक कांग्रेस नया नेता चुन सकती है। लेकिन बागी विधायक नहीं माने और  निर्दलीय भी छिटक गए तो सरकार की स्थिरता संदिग्ध रहेगी। उ.प्र में सपा चूंकि विपक्ष में है इसलिए उसे सरकार गिरने की चिंता तो है नहीं किंतु लोकसभा चुनाव के ठीक पहले पार्टी के विधायकों की बगावत अखिलेश के लिए चेतावनी है। निश्चित रूप से भाजपा की रणनीति विपक्षी दलों में सेंध लगाने की है । सत्ता में होने के कारण उसका प्रभाव और दबाव दोनों बढ़े हैं। लेकिन विपक्ष को अपनी कमजोरी भी देखनी होगी। हिमाचल में कांग्रेस की अंतर्कलह का लाभ ही भाजपा ने उठाया । उसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस के पास भारी बहुमत होने के बाद भी उसने एक भाजपा विधायक को तोड़ने में संकोच नहीं किया।  हिमाचल में मुख्यमंत्री द्वारा त्यागपत्र दिए जाने से स्पष्ट हो गया कि कल बगावत न हुई होती तब भी  उनके विरुद्ध  ज्वालामुखी फूटने के कगार पर था। स्मरणीय है श्री सुक्खू कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा की पसंद थे जिन्हें पूर्व मुख्यमंत्री स्व.वीरभद्र सिंह का परिवार पसंद नहीं करता । विक्रमादित्य उन्हीं के बेटे हैं और  प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह उनकी माता जी । इस प्रकार श्री सिंघवी न हारते तब भी मुख्यमंत्री की कुर्सी को हिलाने का प्रयास जारी रहता। दरअसल ये कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए चेतावनी है कि उसके द्वारा थोपे गए नेताओं को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेने वाला दौर चला गया। वैसे भी पुरानी कहावत है कि जब केंद्रीय सत्ता कमजोर होती है तो सूबे सिर उठाने लगते हैं। गांधी परिवार राज्यों में अपनी मर्जी के नेताओं को लादने की जो गलती कर रहा है उसी के कारण अनेक राज्य उसके हाथ से खिसक गए। म.प्र में झटका खाने के बाद भी उसने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पनपे असंतोष का समय रहते इलाज नहीं किया जिसका नतीजा सामने है। सपा में भी अखिलेश खुद को सर्वेसर्वा मानकर नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ ही गठबंधन के साथियों से  दूरी बनाए रहते हैं। यही कारण है कि ओमप्रकाश राजभर  और स्वामीप्रसाद मौर्य के  बाद जयंत चौधरी ने उनसे रिश्ता तोड़ लिया । रही - सही कसर पूरी कर दी राज्यसभा चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग ने। इस प्रकार ये स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस और सपा जैसी पाटियों के शीर्ष नेतृत्व का  निचले स्तर तक संवाद  टूट चुका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खबर आ गई कि असम में कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष ने भी पार्टी छोड़ दी। प. बंगाल से भी ऐसी ही जानकारी आई है। बेहतर है भाजपा को कोसने के बजाय कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां अपने अंदरूनी हालात सुधारें। केवल आपस में गठबंधन कर लेने से उनका  बेड़ा पार नहीं होने वाला। भाजपा की रणनीति बेशक विपक्ष का मनोबल तोड़ने की है। इसके लिए वह कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती परंतु जहां भाजपा कमजोर है वहां विपक्ष को भी सफलता मिली । कर्नाटक और तेलंगाना इसके उदाहरण हैं । ऐसे में विपक्षी दलों को चाहिए वे अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाते हुए उन्हें पार्टी में बने रहने प्रेरित करें । यदि वे इस काम में असफल रहते हैं तब फिर किसी और को दोष देना कहां तक उचित है ? 
क्रॉस वोटिंग : विपक्ष से अपना घर नहीं संभल रहा

गत दिवस उ.प्र, हिमाचल और कर्नाटक में राज्यसभा चुनाव के जो परिणाम आए उनमें सपा और कांग्रेस को  झटका लगा । उ.प्र में सपा के आधा दर्जन विधायकों ने भाजपा के आठवें प्रत्याशी को मत देकर अपने एक प्रत्याशी को हरवा दिया। इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस के 6 विधायकों द्वारा भाजपा प्रत्याशी को मत देने से अभिषेक मनु सिंघवी हार गए। यदि  तीन निर्दलीय ही साथ देते तो कांग्रेस उम्मीदवार जीत जाता। लेकिन पार्टी का नेतृत्व सिर पर मंडराते खतरे को भांप नहीं सका । उ.प्र में भी सपा विधायकों द्वारा बगावत की आशंका  थी । वैसे बगावत कर्नाटक में भी हुई जहां भाजपा विधायक ने कांग्रेस प्रत्याशी को मत देकर सबको चौंका दिया। लेकिन उ.प्र में सपा और हिमाचल में कांग्रेस का प्रत्याशी चूंकि हार गया इसलिए भाजपा पर विधायकों को लालच और भय दिखाकर तोड़ने का आरोप लगाया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक इसमें सपा और कांग्रेस के नेतृत्व की विफलता देख रहे हैं जिसने सामने खड़े खतरे को नजरंदाज किया। उ.प्र में जया बच्चन को उम्मीदवार बनाए जाते ही सपा में बगावत के सुर उठने लगे थे जिन्हें अखिलेश यादव ने  अनसुना कर दिया । इसी तरह हिमाचल में कांग्रेस को बगावत की आशंका थी इसीलिए सोनिया गांधी को राजस्थान से राज्यसभा भेजने का फैसला लिया गया  । कुछ मंत्री और विधायक खुलकर मुख्यमंत्री के विरुद्ध थे। राम मंदिर के शुभारंभ पर विक्रमादित्य सिंह नामक मंत्री  पार्टी लाइन से अलग हटकर अयोध्या भी गए। आज उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया । अनेक विधायक खुलकर मुख्यमंत्री बदलने पर अड़े हुए थे  जिसके बाद  मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने भी इस्तीफा दे दिया। जो जानकारी आ रही है उसके मुताबिक शाम तक कांग्रेस नया नेता चुन सकती है। लेकिन बागी विधायक नहीं माने और  निर्दलीय भी छिटक गए तो सरकार की स्थिरता संदिग्ध रहेगी। उ.प्र में सपा चूंकि विपक्ष में है इसलिए उसे सरकार गिरने की चिंता तो है नहीं किंतु लोकसभा चुनाव के ठीक पहले पार्टी के विधायकों की बगावत अखिलेश के लिए चेतावनी है। निश्चित रूप से भाजपा की रणनीति विपक्षी दलों में सेंध लगाने की है । सत्ता में होने के कारण उसका प्रभाव और दबाव दोनों बढ़े हैं। लेकिन विपक्ष को अपनी कमजोरी भी देखनी होगी। हिमाचल में कांग्रेस की अंतर्कलह का लाभ ही भाजपा ने उठाया । उसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस के पास भारी बहुमत होने के बाद भी उसने एक भाजपा विधायक को तोड़ने में संकोच नहीं किया।  हिमाचल में मुख्यमंत्री द्वारा त्यागपत्र दिए जाने से स्पष्ट हो गया कि कल बगावत न हुई होती तब भी  उनके विरुद्ध  ज्वालामुखी फूटने के कगार पर था। स्मरणीय है श्री सुक्खू कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा की पसंद थे जिन्हें पूर्व मुख्यमंत्री स्व.वीरभद्र सिंह का परिवार पसंद नहीं करता । विक्रमादित्य उन्हीं के बेटे हैं और  प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह उनकी माता जी । इस प्रकार श्री सिंघवी न हारते तब भी मुख्यमंत्री की कुर्सी को हिलाने का प्रयास जारी रहता। दरअसल ये कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए चेतावनी है कि उसके द्वारा थोपे गए नेताओं को आंख मूंदकर स्वीकार कर लेने वाला दौर चला गया। वैसे भी पुरानी कहावत है कि जब केंद्रीय सत्ता कमजोर होती है तो सूबे सिर उठाने लगते हैं। गांधी परिवार राज्यों में अपनी मर्जी के नेताओं को लादने की जो गलती कर रहा है उसी के कारण अनेक राज्य उसके हाथ से खिसक गए। म.प्र में झटका खाने के बाद भी उसने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पनपे असंतोष का समय रहते इलाज नहीं किया जिसका नतीजा सामने है। सपा में भी अखिलेश खुद को सर्वेसर्वा मानकर नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ ही गठबंधन के साथियों से  दूरी बनाए रहते हैं। यही कारण है कि ओमप्रकाश राजभर  और स्वामीप्रसाद मौर्य के  बाद जयंत चौधरी ने उनसे रिश्ता तोड़ लिया । रही - सही कसर पूरी कर दी राज्यसभा चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग ने। इस प्रकार ये स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस और सपा जैसी पाटियों के शीर्ष नेतृत्व का  निचले स्तर तक संवाद  टूट चुका है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक खबर आ गई कि असम में कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष ने भी पार्टी छोड़ दी। प. बंगाल से भी ऐसी ही जानकारी आई है। बेहतर है भाजपा को कोसने के बजाय कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियां अपने अंदरूनी हालात सुधारें। केवल आपस में गठबंधन कर लेने से उनका  बेड़ा पार नहीं होने वाला। भाजपा की रणनीति बेशक विपक्ष का मनोबल तोड़ने की है। इसके लिए वह कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहती परंतु जहां भाजपा कमजोर है वहां विपक्ष को भी सफलता मिली । कर्नाटक और तेलंगाना इसके उदाहरण हैं । ऐसे में विपक्षी दलों को चाहिए वे अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाते हुए उन्हें पार्टी में बने रहने प्रेरित करें । यदि वे इस काम में असफल रहते हैं तब फिर किसी और को दोष देना कहां तक उचित है ? 


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 27 February 2024

वायनाड में सीपीआई प्रत्याशी के उतरने से विपक्षी एकता सवालों के घेरे में



राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय न्याय यात्रा अपने अंतिम चरण में आने जा रही है। इसका उद्देश्य लोकसभा चुनाव में उनको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प साबित करने के अलावा इंडिया गठबंधन के घटक दलों को ये संदेश देना था कि कांग्रेस ही राष्ट्रीय पार्टी होने की वजह से भाजपा को टक्कर दे सकती है। हालांकि इस यात्रा के दौरान ही विपक्षी एकता को लगातार झटके लगते रहे। अनेक कांग्रेसी नेताओं के अलावा कुछ विपक्षी नेता इंडिया गठबंधन से निकलकर भाजपा के साथ चले गए। उ.प्र और दिल्ली में क्षेत्रीय दल द्वारा सीमित संख्या में सीटें दिए जाने से भी कांग्रेस का वजन घटा है। ममता बैनर्जी ने प.बंगाल और अरविंद केजरीवाल ने पंजाब में अकेले लड़ने का ऐलान कर रखा है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव तो न्याय यात्रा में शरीक ही तभी हुए जब कांग्रेस ने 17 सीटों पर लड़ने की शर्त स्वीकार कर ली। सही बात ये है कि नीतीश कुमार और जयंत चौधरी के अलग होने के बाद इंडिया गठबंधन की धमक कम हुई है। वह बिखराव की ओर बढ़ रहा है ये कहना जल्दबाजी होगी किंतु जैसे संकेत आ रहे हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि घटक दलों की प्रतिबद्धता घटती जा रही है। इसका ताजा प्रमाण केरल से मिला जहां की वायनाड सीट से राहुल गांधी लोकसभा के सदस्य हैं। 2019 में अमेठी में हार का खतरा देखते हुए उन्होंने अचानक केरल की इस सीट से भी लड़ने का निर्णय लिया जिसमें मुस्लिम और ईसाई मतदाताओं की संख्या निर्णायक है। उनका वह दांव कारगर रहा और अमेठी में परास्त होने के बाद भी वायनाड के रास्ते वे लोकसभा में आ गए। उस चुनाव में उनके विरुद्ध सीपीआई प्रत्याशी था जो कि सत्तारूढ़ वाममोर्चे की घटक है। ये भी उल्लेखनीय है कि प.बंगाल में वाममोर्चे के साथ कांग्रेस का गठबंधन होने के बाद भी केरल में वे अलग - अलग लड़ते रहे। विधानसभा में भी कांग्रेस मुख्य विपक्ष की भूमिका में है। लेकिन इंडिया गठबंधन के अस्तित्व में आने के बाद ये माना जा रहा था कि केरल में भी वामपंथी और कांग्रेस एकजुट होकर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे । लेकिन गत दिवस सीपीआई महासचिव डी. राजा ने अपनी पत्नी एनी राजा को वायनाड से चुनाव मैदान में राहुल के विरुद्ध उतारने की घोषणा करते हुए सबको चौंका दिया। यही नहीं उन्होंने तिरूवनंतपुरम सीट से कांग्रेस सांसद शशि थरूर के सामने भी सीपीआई उम्मीदवार के नाम का ऐलान कर दिया। वामपंथी पार्टियों में महासचिव ही सबसे प्रमुख पद होता है । वैसे भी श्री राजा वर्तमान में वामपंथियों के सबसे वरिष्ट नेता हैं। ऐसे में उनके द्वारा प्रत्याशियों की घोषणा को हवा - हवाई नहीं माना जा सकता। लेकिन श्री गांधी और श्री थरूर जैसे बड़े कांग्रेस नेताओं के विरुद्ध सीपीआई द्वारा अचानक प्रत्याशी उतार देने से इंडिया गठबंधन में दरार आने की आशंका तो बढ़ी ही है। पंजाब में भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अलग - अलग लड़ने जा रही हैं। वहीं प.बंगाल में ममता बैनर्जी के रुख में नरमी नहीं आ रही। ये देखते हुए इस गठबंधन की एकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। ये बात भी सामने आ रही है कि गठबंधन के सदस्यों के बीच संवादहीनता बढ़ती जा रही है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद दिसंबर में उसकी बैठक हुई थी जिसमें राज्यों के स्तर पर सीटों का बंटवारा करने की बात तय की गई थी। उसी आधार पर कुछ राज्यों में फार्मूला तय भी हुआ लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन यह एहसास करवाने में अब तक सफल नहीं हो सका कि भाजपा के विरुद्ध साझा प्रत्याशी खड़ा करने की नीति पर अमल होगा। यही कारण है कि वह अब तक खुद को विकल्प के तौर पर प्रचारित करने में नाकामयाब साबित हुआ है। कुछ राज्यों में दोस्ताना संघर्ष के बावजूद घटक दलों के प्रमुख नेताओं के विरुद्ध प्रत्याशी लड़ाने से राष्ट्रीय स्तर पर गलत संदेश जाएगा । सोनिया गांधी के चुनाव मैदान से हट जाने के बाद राहुल ही कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरे हैं। पार्टी के अलावा लालू प्रसाद यादव जैसे नेता तो उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकार भी करते हैं। ऐसे में यदि गठबंधन का कोई घटक उनके विरुद्ध प्रत्याशी खड़ा करता है तो इससे आम जनता में ये बात फैलेगी कि जिस नेता का उसके सहयोगी दल ही विरोध करते हों उसे प्रधानमंत्री के लिए उपयुक्त कैसे माना जाए ?उल्लेखनीय है उ.प्र की अमेठी और रायबरेली लोकसभा सीट से सपा और बसपा अपना उम्मीदवार नहीं उतारते थे । सीपीआई वायनाड में अपना प्रत्याशी लड़ाने के निर्णय पर अडिग रहेगी या मान - मनौव्वल के बाद हटा लेगी ये अभी कहना कठिन है क्योंकि उसके महासचिव श्री राजा हार्ड लाइनर किस्म के वामपंथी माने जाते हैं। और जब उन्होंने अपनी पत्नी को उम्मीदवार बनाया तब जाहिर है चुनाव उनके लिए भी प्रतिष्ठा का विषय बनेगा। हालांकि वायनाड में सीपीआई प्रत्याशी को उतारे जाने के बावजूद श्री गांधी की जीत में कोई संशय भले न हो किंतु इंडिया गठबंधन की मजबूती और घटक दलों में आपसी विश्वास जरूर सवालों के घेरे में आ गया है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 26 February 2024

अपेक्षित समर्थन न मिलने से बिखर रहा किसान आंदोलन


इस बार के किसान आंदोलन में पिछली बार जैसा तीखापन नजर नहीं आ रहा। हरियाणा सरकार के कड़े रुख के कारण पंजाब से निकले जत्थे दिल्ली पहुंचने में सफल नहीं हो सके । रास्ते बंद किए जाने से आम जनता और वाहन चालकों को  भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है । सामान की आवाजाही रुकने से व्यापार को भी नुकसान हो रहा है। पंजाब के बाहर के किसान संगठन भी मैदान में उतरने से बच रहे हैं। विपक्षी नेता लोकसभा चुनाव में व्यस्त हैं। दरअसल जिस तरह से कांग्रेस की तत्कालीन अमरिंदर सरकार ने किसानों को दिल्ली जाकर धरना देने के लिए मदद दी थी ठीक वही  पंजाब की वर्तमान आम आदमी पार्टी सरकार ने किया। इसका कारण ये है कि इस पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान किसानों से सभी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने का वायदा किया था।  जब उसे लगा कि ऐसा करना असंभव होगा तब सुनियोजित तरीके से किसान नेताओं को दिल्ली जाकर आंदोलन करने की समझाइश  दे दी । लेकिन हरियाणा सरकार की सख्ती के कारण किसानों की टोलियां आगे नहीं बढ़ पा रहीं। केंद्र सरकार से जारी बातचीत में एक भी बिंदु पर सहमति नहीं बन सकी। ये बात भी जमकर प्रचारित हो रही है कि यह संपन्न किसानों द्वारा प्रायोजित है। महंगे चौपहिया वाहनों की मौजूदगी से आंदोलन के जमीन से कटे होने की अवधारणा  फैल गई है। देश भर से किसान संगठनों द्वारा दिल्ली कूच जैसा फैसला नहीं किया जा रहा । उल्लेखनीय है पिछला आंदोलन भी पंजाब , उ.प्र और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव के पहले किया गया था जबकि यह लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हो रहा है। आम आदमी पार्टी जरूर आंदोलन को पूरी मदद कर रही है किंतु कांग्रेस और अकाली दल  दूरी बनाए हुए हैं । चूंकि आंदोलनकारी दिल्ली से काफी दूर हैं इसलिए विपक्षी राजनेता भी फोटो सेशन हेतु नहीं आ पा रहे। पिछले आंदोलन में प्रचार का काम देख रहे योगेंद्र यादव भी कटे हुए हैं। राहुल गांधी किसानों के पक्ष में  कुछ न कुछ रोजाना बोलते हैं किंतु कांग्रेस पार्टी की तरफ से आंदोलन में सक्रिय भागीदारी नहीं दिखाई दे रही। वामपंथी संगठन  छद्म रूप से भले ही किसानों के बीच घुसे हों किंतु खुलकर  सामने आने से हिचक रहे हैं। कुल मिलाकर  कहा जा सकता है कि आंदोलन का समय चयन गलत हो गया क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल या उससे जुड़े किसान संगठन इस समय उलझने की मनःस्थिति में नहीं है।  सभी नेता जानते हैं कि किसान संगठनों की  सभी मांगों को मान लेना लगभग असंभव है। जिस स्वामीनाथन रिपोर्ट की चर्चा अक्सर होती है वह डा.मनमोहन सिंह की सरकार के समय ही आ चुकी थी । लेकिन आर्थिक मामलों के बड़े जानकार होने के बाद भी वे एम.एस.पी को कानूनी दर्जा देने से बचते रहे।  मोदी सरकार भी किसानों की आय को दोगुना करने का आश्वासन देती रही किंतु उसने भी एम.एस.पी को वैधानिक स्वरूप देने की मांग को स्वीकार नहीं किया। जिन राज्यों में गैर भाजपा सरकार है वे भी ऐसा करने का साहस नहीं दिखा सकी। इससे ये साबित होता है कि किसानों की जो प्रमुख मांगें हैं उनके प्रति सैद्धांतिक समर्थन तो चौतरफा है किंतु जब उन पर अमल करने की बात उठती है खजाना दिखने लगता है। केंद्र सरकार ने भी यह आकलन कर लिया है कि फसल कटाई नजदीक आने के कारण  साधारण किसान अपना खेत छोड़कर आंदोलन में शामिल होने से रहा और  किराए की भीड़ जमा करना  लंबे समय तक संभव नहीं होगा। लोकसभा चुनाव की तिथियां मार्च के प्रथम सप्ताह में घोषित होने वाली हैं और सभी पार्टियां  व्यूह रचना तैयार करने में व्यस्त हैं। पश्चिमी उ.प्र के अलावा हरियाणा और राजस्थान के जाट समुदाय द्वारा पिछले किसान आंदोलन को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया गया था । और राकेश टिकैत बड़े किसान नेता के तौर पर उभरे भी किंतु उ.प्र में भाजपा की जीत ने  टिकैत परिवार का दबदबा खत्म कर दिया। हाल ही में जयंत चौधरी के विपक्षी गठबंधन से बाहर निकलने के बाद से जाट बहुल इलाकों में  राजनीतिक समीकरण काफी बदल गए हैं। अब तक जो देखने मिल रहा है उसके मुताबिक मौजूदा आंदोलन पंजाब तक सीमित रह गया है। कुछ लोगों द्वारा जिस प्रकार की देशविरोधी बयानबाजी की गई उसके कारण पंजाब  से ही आंदोलन पर उंगलियां उठने लगी हैं। बार - बार दिल्ली कूच की तारीख आगे बढ़ाए जाने से बड़ी संख्या में आंदोलनकारी अपने ठिकाने पर लौट गए। पूरे परिदृश्य पर नजर डालने से लगता है इस बार का आंदोलन पूरी तैयारी से शुरू नहीं किया गया। इसीलिए वह भटकाव और बिखराव का शिकार हो रहा है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 25 February 2024

उप्र में 80 फीसदी सीटों पर कांग्रेस के न लड़ने से कार्यकर्ता और समर्थक निराश



उ.प्र में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच लोकसभा चुनाव की सीटों के बंटवारे की गुत्थी सुलझने को इंडिया गठबंधन की बड़ी सफलता प्रचारित किया जा रहा है। इसके अंतर्गत अखिलेश यादव ने कांग्रेस को महज 17 सीटें दी हैं जबकि वह 21 मांग रही थी। इस समझौते के बाद कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच दिल्ली , हरियाणा , गुजरात और गोवा में भी सीटों का बंटवारा तय हो गया। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण राज्य उ.प्र ही है जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ होकर जाता है। 80 सीटों वाले इस राज्य ने देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री दिए। स्व अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी क्रमशः म.प्र और गुजरात के मूल निवासी होने के बावजूद प्रधानमंत्री तभी बने जब उन्होंने उ.प्र से लोकसभा चुनाव जीता। और ये भी कि इस राज्य में ज्यादा सीटें जीतने पर ही भाजपा को केंद्र की सत्ता मिली। 2014 की मोदी लहर में भाजपा को यहां 71 और 2019 में 62 सीटें मिली थीं जिसके कारण वह स्पष्ट बहुमत हासिल करने में कामयाब हुई। 

       इस बार विपक्ष का प्रयास है कि भाजपा को उ.प्र में घेरकर उसकी सीटें कम की जाएं ताकि वह बहुमत से पीछे रहे। शुरुआत में इंडिया गठबंधन में सपा और कांग्रेस के अलावा रालोद भी था । लेकिन जयंत चौधरी अचानक इससे दूर हो गए। बहरहाल , सपा और कांग्रेस द्वारा सीटें बांटने के बाद इंडिया की स्थिति तो स्पष्ट हो गई किंतु अभी भाजपा , अनुप्रिया पटेल , जयंत चौधरी , ओमप्रकाश राजभर और निषाद पार्टी के बीच सीटों का आवंटन नहीं होने से एनडीए की मोर्चेबंदी साफ नहीं हो सकी। हालांकि उसमें अधिकतर सीटें भाजपा ही लड़ेगी और ज्यादा से ज्यादा 10 सीटें सहयोगियों को दी जाएंगी। दूसरी तरफ राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटों वाले राज्य में मात्र 20 फीसदी सीटों पर लड़ेगी जिनमें केवल रायबरेली उसके पास है। जो 17 सीटें सपा ने उसे दी हैं उनमें आज की स्थिति में कांग्रेस के जीतने की संभावनाएं बहुत ही कम हैं । सबसे बड़ी बात ये हुई की मात्र 17 सीटें मिलने के कारण बाकी की 63 में कांग्रेस परिदृश्य से बाहर हो गई। वैसे भी उसका मत प्रतिशत चुनाव दर चुनाव घुटता चला गया जिससे संगठन भी बेहद कमजोर हो गया। इसीलिए ये माना जा रहा है कि वह पांच सीटें जीत ले तो आश्चर्य होगा। रायबरेली से सोनिया गांधी के न लड़ने के फैसले के बाद अब तो उसे लेकर भी पार्टी निराश है। 

      हालांकि अखिलेश भी कांग्रेस की खस्ता हालत से परिचित हैं और इसीलिए वे उसके साथ गठबंधन से हिचक रहे थे । लेकिन जयंत चौधरी के भाजपा की ओर झुकने के बाद सपा प्रमुख कांग्रेस को अपने साथ जोड़ने बाध्य हो गए । लेकिन इस गठजोड़ के बाद भी भाजपा को रोक पाना इंडिया के लिए कठिन है क्योंकि सपा और बसपा 2019 में जब मिलकर लड़े तब दोनों ने मिलकर 15 सीटें जीती थीं । इस बार बसपा एकला चलो की नीति अपनाए हुए है। ये भी कहा जा रहा है कि ऐसा वह भाजपा के दबाव में कर रही है। चूंकि कांग्रेस का समर्थन या विरोध चुनाव परिणाम को प्रभावित करने लायक बचा नहीं इसलिए सपा भी बुरी तरह फंस गई है। 2022 के विधानसभा चुनाव में उसके साथ रहे ओमप्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य साथ छोड़ चुके हैं। वहीं पल्लवी पटेल भी खुलकर विरोध कर रही हैं। भाजपा ने दलित और ओबीसी वर्ग में अपनी पकड़ को जहां मजबूत किया वहीं राममंदिर में प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद सवर्ण मतदाता थोक के भाव उसके साथ नजर आ रहा है। एक बात और जो इंडिया के साथ ही सपा को भी नुकसान पहुंचा रही है वह है किसी वरिष्ट नेता का न होना। 2019 में मुलायम सिंह की भौतिक उपस्थिति के कारण सपा को कुछ राहत थी जिससे वह इस बार वंचित है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का आभामंडल भी पूरे प्रदेश में भाजपा की ताकत है। 

        दरअसल सपा के साथ सीटों का बंटवारा कांग्रेसजनों को ही नागवार गुजर रहा है। पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने तो खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर भी कर दी है जबकि अन्य कुछ नेता दबी जुबान असंतोष जताते हुए अलग रास्ता तलाश रहे हैं। वैसे भी उ.प्र में पार्टी के पास कोई बड़ा चेहरा बचा ही नहीं है । यदि अमेठी और रायबरेली से गांधी परिवार का कोई सदस्य नहीं लड़ा तब इस राज्य में उसका सफाया होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता । 80 फीसदी लोकसभा सीटों पर अपना प्रत्याशी नहीं होने से उसके कार्यकर्ता और समर्थक दिशाहीन होकर रह गए हैं। हालांकि राजनीति के जानकार ये भी कह रहे हैं कि अखिलेश ने कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल कर एक तीर से कई निशाने साध लिए। पहला तो बसपा को इंडिया में आने से रोक लिया और दूसरा 67 सीटों पर कांग्रेस के विरोध की संभावना को खत्म करने में भी कामयाब हो गए। कुल मिलाकर इस समझौते से समाजवादी पार्टी भले ही अपनी चार - पांच सीटें बचाने में कामयाब हो जाए किंतु कांग्रेस के हाथ खाली ही रहेंगे। और इसके लिए गांधी परिवार की अकड़ ही जिम्मेदार है। जो काम प्रियंका वाड्रा ने चार दिन पहले किया वह हफ्ते दो हफ्ते पहले कर लिया जाता तब शायद अखिलेश न्याय यात्रा के उ.प्र में घुसते ही उसके साथ जुड़ते जिसका फायदा इंडिया को होता। लेकिन सीटों का बंटवारा तब हुआ जब यात्रा राज्य से बाहर निकलने को है। आगरा में अखिलेश का उसमें शामिल होना भी महज चेहरा दिखाना होगा। 

      उ.प्र में कांग्रेस का पक्ष प्रभावशाली ढंग से रखने वाले आचार्य प्रमोद कृष्णम के भाजपा के साथ जुड़ने से भी पार्टी को बड़ा झटका लग गया। लोकसभा चुनाव नजदीक आते तक कांग्रेस से नेताओं के बाहर निकलने सिलसिला जारी रहने की संभावना बढ़ती जा रही है। कांग्रेस समर्थकों का मानना है कि यदि पार्टी अकेले दम पर लड़ती तो पूरे प्रदेश में उसकी उपस्थिति महसूस की जाती । उस स्थिति में भी वह अमेठी और रायबरेली के अलावा और किसी सीट की उम्मीद नहीं कर सकती थी और सपा से गठजोड़ के बाद भी वह वहीं अटकी हुई है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 24 February 2024

कांग्रेस के लिए भाजपा से ज्यादा खतरनाक है आम आदमी पार्टी




उ.प्र में  सपा के साथ सीट बंटवारे के बाद कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी के साथ दिल्ली , हरियाणा और गुजरात में  लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ने का निर्णय कर लिया। दिल्ली में कांग्रेस 3 और आप 4 सीटों पर लड़ेगी। जबकि हरियाणा में कांग्रेस ने 1 और गुजरात में 2 सीटें उसके लिए छोड़ी हैं। कांग्रेस पंजाब में भी तालमेल चाहती थी किन्तु आम आदमी पार्टी  वहां एक भी सीट छोड़ने राजी नहीं हुई। इससे लगता है  गरज आम आदमी पार्टी की नहीं बल्कि कांग्रेस की है । दिल्ली , गुजरात और हरियाणा में 2919 में कांग्रेस- भाजपा के बीच मुकाबला था। वहीं पंजाब में  कांग्रेस ने  8 सीटें जीतने के साथ ही 40 प्रतिशत मत हासिल किए। लेकिन आम आदमी पार्टी द्वारा एक भी सीट न दिया जाना  दर्शाता है कि उसकी नजर में कांग्रेस वहां अस्तित्वहीन हो चुकी है। ऐसे में कांग्रेस को दिल्ली में  ज्यादा की मांग करनी थी। लेकिन  लगता है वह पिछली गलतियां  दोहराने पर अमादा है। 2014 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ा दल थी किंतु कांग्रेस ने 8 विधायकों का समर्थन देकर अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनवा दिया। कुछ महीनों बाद कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस लिए जाने पर सरकार गिर गई। दोबारा हुए चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो गया।और भाजपा भी लुढ़ककर 3 पर आ गई। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस दिल्ली की सभी सीटों पर दूसरे स्थान पर रही और आम आदमी पार्टी की जमानतें जप्त हो गईं । फिर 2020 के विधानसभा और उसके बाद  दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भी आम आदमी पार्टी ने शानदार जीत हासिल की। वहीं कांग्रेस घुटनों के बल चलने की स्थिति में ही है। हालांकि दोनों भाजपा की विरोधी हैं और नरेंद्र मोदी को किसी भी कीमत पर हटाना चाहती हैं। लेकिन कांग्रेस  भूल रही है कि दिल्ली और पंजाब में उसकी दुर्गति के लिए भाजपा से ज्यादा आम आदमी पार्टी जिम्मेदार है।  पंजाब में भगवंत सिंह मान की सरकार  अनेक कांग्रेस नेताओं पर भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाते हुए कार्रवाई कर रही है। वहीं दिल्ली में कांग्रेस ने शराब घोटाले पर केजरीवाल सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए मनीष सिसौदिया की गिरफ्तारी का स्वागत किया था। दोनों राज्यों के कांग्रेस नेता आम आदमी पार्टी  के साथ गठबंधन का खुलकर विरोध करते रहे । फिर भी दिल्ली की  4 तथा हरियाणा की 1 सीट उसके लिए छोड़ दी गईं। कांग्रेस के लिए आगामी लोकसभा चुनाव जीवन - मरण का प्रश्न  है।  इसीलिए वह क्षेत्रीय दलों के समक्ष  झुकने तैयार हो रही है। लेकिन ये चुनाव आम आदमी पार्टी का भविष्य भी तय करेगा जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का विकल्प बनने की कोशिश में  है जिसका सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस को होने की आशंका है। पूरे देश  पर नजर डालें तो कांग्रेस आज भी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी है।  भाजपा भले ही केंद्र के साथ अनेक राज्यों में सत्तासीन हो किंतु अनेक राज्यों में  उसकी उपस्थिति नाममात्र की है । ऐसे में आम आदमी पार्टी के विस्तार का सीधा नुकसान कांग्रेस को ही होने वाला है। इसलिए  सीटों का बंटवारा करने से पहले कांग्रेस को ये बात सोचनी चाहिए थी कि शराब घोटाले के सिलसिले में  श्री सिसौदिया और संजय सिंह जेल में न होते तब क्या श्री केजरीवाल उसे दिल्ली की एक भी सीट देते? पंजाब में एकला चलो की नीति अपनाकर उन्होंने अपनी  नीयत  स्पष्ट कर दी। दरअसल कांग्रेस को दिल्ली की सभी सीटों के लिए इस आधार पर अड़ना था कि 2019 में उसे 22 फीसदी से ज्यादा मत मिले थे जबकि आम आदमी पार्टी को 1 प्रतिशत से भी कम। ऐसा करने से  उसे पंजाब की कुछ सीटें मिल सकती थीं  । लेकिन पार्टी का आत्मबल कमजोर हो चुका है। उसके उच्च नेतृत्व को ये बात समझनी चाहिए कि आम आदमी पार्टी  जहां भी मजबूत होगी वहां कांग्रेस का खात्मा होना तय है। 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा रोककर उन्हें गिरफ्तार किए जाने के बाद भाजपा ने  वी.पी. सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया था । उ.प्र में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव  की सरकार भी उस कारण खतरे में आ गई । स्व. राजीव गांधी ने समर्थन देकर उन दोनों सरकारों को तो गिरने से बचा लिया लेकिन उसके बाद उ.प्र और बिहार में पार्टी का तम्बू जो उखड़ा तो आज तक दोबारा नहीं लग सका। आम आदमी पार्टी  से भी सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही हुआ है। ऐसे में उसे पंजाब में भी सीटें मांगनी थीं और यदि श्री केजरीवाल राजी न होते तो दिल्ली में उनको उपकृत करने से इंकार करना था। कांग्रेस को ये बात अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि आम आदमी पार्टी उसके लिए भाजपा से बड़ा खतरा है क्योंकि भाजपा तो सामने से वार करती है जबकि आम आदमी पार्टी उसकी पीठ में छुरा भोंकने में जुटी हुई है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 23 February 2024

सपा और कांग्रेस का गठबंधन नेताओं के बीच ही सीमित रहने का अंदेशा


आखिरकार  उ.प्र में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे का मसला सुलझ ही गया। इसके अनुसार कांग्रेस  17 और  63 पर सपा लड़ेगी । जो जानकारी आई उसके अनुसार राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच पटरी नहीं बैठने के कारण अनिश्चितता बनी हुई थी। अखिलेश ने तो उनकी न्याय यात्रा में शामिल होने तक से  इंकार कर दिया था। लेकिन बात बिगड़ती देख प्रियंका वाड्रा ने श्री यादव से बात की और 21 सीटों की जिद छोड़कर 17 से संतुष्ट होने की पुष्टि कर दी। बताते हैं सपा अध्यक्ष की सांसद पत्नी डिंपल यादव श्रीमती वाड्रा की निकट मित्र हैं। उल्लेखनीय है 2017 के विधानसभा चुनाव में भी अखिलेश और राहुल के बीच सीटों के बंटवारे पर समझौता हुआ था। और तब कांग्रेस ने 100 सीटों पर लड़ने के शर्त स्वीकार कर ली थी। यूपी के दो लड़के नाम से चर्चित उस गठजोड़ के बावजूद भाजपा ने शानदार जीत हासिल की । उस चुनाव के बाद कांग्रेस का जनाधार उ.प्र में और सिकुड़ गया। उसका कारण ये था कि जो 300 विधानसभा सीटें कांग्रेस ने सपा के लिए छोड़ दीं उनमें चुनाव लड़ने के इच्छुक कांग्रेस कार्यकर्ताओं का राजनीतिक भविष्य चौपट हो गया। साथ ही अखिलेश सरकार के दौर में एक जाति विशेष के बढ़ते वर्चस्व के कारण भी कांग्रेस का समर्थक वर्ग नाराज था। परिणामस्वरूप उन 300 सीटों पर पार्टी का कैडर  या तो भाजपा की तरफ चला गया या  निराश होकर घर बैठ गया। इसी तरह कांग्रेस के हिस्से में आईं 100 सीटों पर सपा समर्थकों ने उदासीनता ओढ़ ली। इस प्रकार नेताओं के स्तर पर तो गठजोड़ हो गया और सीटों का बंटवारा भी कर लिया गया किंतु  न तो एक दूसरे के कार्यकर्ताओं में आपसी सामंजस्य  बैठा और न ही प्रतिबद्ध मतदाता ही उस बंटवारे को स्वीकार कर पाए। उस प्रयोग की असफलता के बाद अखिलेश ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बुआ और बबुआ नामक दूसरा प्रयोग किया। उसके अंतर्गत सांप और  नेवला जैसी शत्रुता वाली सपा और बसपा साथ आईं । लेकिन उसमें बसपा को तो लाभ मिला किंतु सपा घाटे में रही। चुनाव के बाद फिर दोनों में दूरी बढ़ गई। और 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने ओमप्रकाश राजभर , स्वामी प्रसाद मौर्य और जयंत चौधरी के साथ गठबंधन करते हुए भाजपा को चुनौती दी। लेकिन पिछली बार से ज्यादा सीटें जीतने के बाद भी योगी सरकार की वापसी नहीं रोकी जा सकी। उसके बाद बिखराव का नया दौर शुरू हुआ जिसके चलते पहले श्री राजभर और बाद में स्वामीप्रसाद सपा से दूर हो गए किंतु सबसे बड़ा झटका लगा जयंत चौधरी द्वारा भाजपा के साथ निकटता कायम करने पर।  उनके दादा चौधरी चरण सिंह को मोदी सरकार द्वारा भारत रत्न दिए जाने के बाद उन्होंने बिना देर लगाए इंडिया गठबंधन से नाता तोड़ लिया।  उसके बाद से अखिलेश के लिए कांग्रेस से समझौता मजबूरी बन गया। यही स्थिति कांग्रेस की भी थी जो उ.प्र के अपने पुश्तैनी गढ़ जीतने लायक भी नहीं बची। सोनिया गांधी के  राज्यसभा सदस्य चुने जाने के बाद रायबरेली में लड़ने योग्य प्रत्याशी पार्टी के पास नहीं है। पहले चर्चा प्रियंका को उतारने की थी लेकिन 2019 में राहुल गांधी को अमेठी में मिली पराजय के कारण गांधी परिवार का आत्मविश्वास डगमगाया हुआ है। ऐसे में सपा और कांग्रेस दोनों के बीच सीटों का बंटवारा होने के बावजूद भाजपा विरोधी मतों को गोलबंद करना मुश्किल है। इसमें सबसे बड़ी बाधा बसपा बनेगी । हालांकि मायावती अब पहले जैसी ताकतवर नहीं रहीं किंतु दलित मतदाताओं का एक वर्ग आज भी उनके आभामंडल से प्रभावित है। अखिलेश यादव के विरुद्ध श्री राजभर और स्वामीप्रसाद तो मुखर थे ही किंतु राज्यसभा चुनाव में जया बच्चन को फिर उम्मीदवार बनाए जाने से अपना दल की विधायक पल्लवी पटेल भी मोर्चा खोलकर बैठ गईं। जयंत चौधरी द्वारा साथ छोड़ देने के बाद पश्चिमी उ.प्र में अखिलेश का गणित पहले ही गड़बड़ा गया था। राम मंदिर से कांग्रेस द्वारा दूरी बनाए जाने के कारण उसका बचा - खुचा आधार भी  खिसक गया है। ऐसे में सपा को उसका साथ कितना लाभान्वित करेगा ये सवाल राजनीतिक विश्लेषकों के मन में घूमने लगा है। सही बात तो ये है कि मुलायम सिंह यादव की मौत के बाद पुराने समाजवादी भी अखिलेश से छिटकने लगे हैं। और फिर योगी सरकार के प्रभावशाली प्रदर्शन के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैश्विक छवि के कारण लोकसभा चुनाव में उ.प्र में भाजपा को रोक पाना असंभव लगता है। 2022 के विधानसभा चुनाव में सरकार नहीं बना पाने के कारण अखिलेश की चमक भी फीकी पड़ी है । उ.प्र की जनता के मन में ये बात बैठ गई  है कि योगी और मोदी की जुगलजोड़ी ने राज्य की तस्वीर बदल दी है।  ऐसे में सपा और कांग्रेस का यह गठबंधन  2017 और 2019 वाली कहानी दोहराने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकेगा।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 22 February 2024

किसान आंदोलन को अतिवादियों से बचना होगा वरना हाथ खाली रहेंगे


गत दिवस एक किसान और एक पुलिसकर्मी की मौत होने के बाद किसान आंदोलन के नेताओं ने दिल्ली कूच दो दिन टाल दिया। दरअसल आंदोलन के एक बड़े नेता  तबियत खराब होने से  अस्पताल में भर्ती हो गए। इस कारण भी आंदोलन को  विराम दिया गया। लेकिन दो बातें ऐसी हुईं जो सवाल खड़े करती हैं। पहली तो ये कि आंदोलनकारियों और पुलिस के बीच चल रहे संघर्ष के बीच किसानों की तरफ से सफेद झंडा लहराया गया जो युद्धविराम का संकेत होता है। पुलिस ने भी सफेद झंडे से जवाब दिया। और दूसरी बात ये हुई कि किसानों ने पराली जलाने के साथ ही उसमें मिर्च डाल दी जिससे पुलिस कर्मियों के साथ ही आसपास के लोगों को बेहद परेशानी का सामना करना पड़ा । हालांकि केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच वार्ता भी जारी है किंतु अभी तक समझौता नहीं हो सका। सरकार जो प्रस्ताव देती है उसे किसान नेता किसी न किसी बहाने से ठुकरा देते हैं।  कृषक वर्ग के प्रति हर किसी की सहानुभूति होने के बावजूद  इस आंदोलन के प्रति ये अवधारणा व्याप्त है कि ये पंजाब के बड़े किसानों द्वारा प्रायोजित है ।जेसीबी और पोकलेन जैसी मशीनों का साथ होना स्पष्ट करता है कि आंदोलन के पीछे कुछ ऐसी शक्तियां छिपी हैं जिनका उद्देश्य शांति - व्यवस्था को खतरे में डालकर  अपना स्वार्थ सिद्ध करना है। यही वजह है कि पंजाब से ही आंदोलन के विरुद्ध आवाजें उठने लगी हैं। जिस अकाली दल ने कृषि कानूनों के विरोध में मोदी सरकार से नाता तोड़ लिया वह भी खुलकर कह रहा है कि किसान पहले पंजाब सरकार के विरुद्ध आंदोलन करें जिसने उनके साथ किए वायदों पर अमल नहीं किया। जहां तक एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य ) का प्रश्न है तो उससे किसी को एतराज नहीं है। लेकिन सभी कृषि उत्पादों के लिए उसका तय किया जाना अव्यवहारिक लगता है। इसी तरह की कुछ और मांगें हैं जिनको सैद्धांतिक सहमति के बावजूद स्वीकार करना मौजूदा स्थितियों में असंभव है । सबसे बड़ी बात ये है कि यह आंदोलन  पूरे देश के किसानों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। पिछली बार दिल्ली में चले लंबे किसान आंदोलन को  ज्यादातर राजनीतिक दलों का समर्थन मिलने के बाद भी वह दिल्ली के निकटवर्ती कुछ राज्यों के किसानों तक सीमित होकर रह गया था। ये बात भी देखने मिल रही है कि आंदोलनकारी जिस अंदाज में  दिल्ली आना चाहते हैं वह किसी हमले की तैयारी जैसा लगता है। पुलिस द्वारा लगाए गए अवरोधों को तोड़ने के लिए जेसीबी और पोकलेन मशीन जैसे उपकरण साथ लाना उनकी मंशा को स्पष्ट करता है । जिस तरह से पुलिस के साथ उनका मुकाबला हो रहा है। उससे इस संदेह की पुष्टि होती है कि किसानों के कंधे पर रखकर कोई और बंदूक चला रहा है। यदि यह आंदोलन समूची किसान बिरादरी की आवाज होता तो अब तक दूसरे राज्यों से भी किसान  दिल्ली आने लगते। और ऐसे समय जब रबी फसल तैयार होने को है और किसान का पूरा ध्यान कटाई के बाद अपनी फसल को सही समय पर बेचने में लगा हो तब उसका अपने खेत से दूर जाकर बैठ जाना चौंकाने वाला है। भारत कृषि प्रधान देश है और किसान को हमारे समाज में सेना के जवानों की तरह ही सम्मान हासिल है। कोई भी सरकार कृषि और कृषक की उपेक्षा नहीं कर सकती । इसीलिए ग्रामीण विकास पर सभी सरकारें भरपूर जोर देती हैं। किसान की आय बढ़े और खेती लाभ का व्यवसाय बने इसमें भी किसी को ऐतराज नहीं होगा। किसान की खुशहाली से ही भारत के उपभोक्ता बाजार में रौनक आती है। सड़क और बिजली पहुंचने के कारण ग्रामीण भारत की तस्वीर काफी हद तक बदल चुकी है। ऐसे में किसान समुदाय में खेती के प्रति लगाव बनाए रखने के लिए आवश्यक है उसका आर्थिक पक्ष सुदृढ़ हो। लेकिन यह एक क्रमिक प्रक्रिया है जो दबाव बनाकर पूरी करवाना संभव नहीं लगता। आंदोलनकारियों को ये समझना होगा कि उनकी सभी बातें स्वीकार करने के बाद भी उनका क्रियान्वयन न हो तो उसका लाभ ही क्या ? और ये भी कि इस तरह के आंदोलन से समाज का एक बड़ा वर्ग नाराज भी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ज्यादातर किसान अभी तक बाजारवादी अर्थव्यवस्था के साथ सामंजस्य नहीं बिठा सके। वैसे भी प्रत्येक राज्य के किसानों की समस्याएं अलग - अलग हैं। एमएसपी के बारे में भी ऐसा ही है। बेहतर हो आंदोलन कर रहे किसान इस बात को समझें।लोकसभा चुनाव के कारण उनकी मांगों के प्रति सहानुभूति दिखाना सरकार की मजबूरी है। लेकिन विभिन्न क्षेत्रों से जो प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं उनसे लगता है आंदोलन की दशा और दिशा को लेकर लोगों में तरह - तरह की आशंकाएं हैं। पूरा आंदोलन खालिस्तानियों के हाथ में है ये कहना पूर्णतः सही न हो किंतु आंशिक तौर पर तो ऐसा प्रतीत होता ही है।  आंदोलन और युद्ध में अंतर नहीं किया गया तो पिछली बार की तरह इस बार भी कुछ हाथ नहीं लगेगा । वैसे भी इस बार आंदोलन को वैसा समर्थन नहीं मिल रहा क्योंकि 26 जनवरी 2021 को लाल किले पर किए गए उत्पात की याद जनमानस में सजीव है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 21 February 2024

सीधे आने वाले मामलों में सर्वोच्च न्यायालय अपनी राय स्पष्ट करे


सर्वोच्च न्यायालय ने चंडीगढ़ के महापौर चुनाव में हुई गड़बड़ी पर सख्त रवैया अपनाते हुए जिस तरह आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के संयुक्त उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित किया उसकी सर्वत्र प्रशंसा हो रही है । न्यायपालिका की यही निडरता देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने में सहायक है । यद्यपि राजनेताओं को ये अच्छा नहीं लगता और अनेक मर्तबा इस बात को लेकर बहस भी चली कि न्यायाधीश अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर निकलकर कार्यपालिका और विधायिका के दैनंदिन कार्यों में भी हस्तक्षेप करते हैं। हमारे देश में न्यायपालिका की रचनात्मक आलोचना का अधिकार होने के बावजूद सभी उसके फैसलों का सम्मान करते हैं। हालांकि अपवादस्वरूप अनेक मामलों में उसके निर्णयों को संसद ने पलटा भी है किंतु आम तौर पर नापसंद होते हुए भी उनको स्वीकार करने की परंपरा कायम है। संसद द्वारा पारित अनेक कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दिया है। ताजा उदाहरण इलेक्टोरल बॉन्ड का है जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने  रोक लगा दी है। लेकिन न्यायपालिका की सक्रियता उसकी इच्छा पर निर्भर करती है , जिसके कारण उसे आलोचना का शिकार होना पड़ता है। कुछ दिनों पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका को सुनने से इंकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जब उच्च न्यायालय जाने की सलाह दी तो  अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने इस पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि सर्वोच्च न्यायालय तय करे कि कौन से मामले सीधे सुनेगा , कौन से नहीं ? श्री सिब्बल जैसी शिकायत अनेक लोगों को है। अनेक प्रकरणों में लंबी सुनवाई करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय निचली अदालत जाने के निर्देश देता है। इसी तरह अनेक प्रकरणों में पूरी बहस के बाद कह देता है कि इस बारे में संसद कानून बनाए अथवा  सक्षम व्यक्ति या संस्था व्यवस्था करे। इलेक्टोरल बॉन्ड मामले में भी ये कहा जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उसके जरिए राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे पर तो रोक लगा दी किंतु लोकसभा चुनाव के कुछ माह पहले नई व्यवस्था क्या हो ये नहीं बताया। संसद का विदाई सत्र हो चुका और सभी पार्टियां चुनाव की तैयारियों में जुट गईं हैं। ऐसे में नया कानून बनाना भी आसान नहीं होगा। दो दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने प.बंगाल के संदेशखाली कस्बे में महिलाओं के साथ हुई बर्बरता के मामले में  याचिकाकर्ता को फटकारते हुए उच्च न्यायालय जाने की समझाइश दी। साथ ही ये टिप्पणी भी कर डाली कि इसमें और मणिपुर में अंतर है। इस फैसले को लेकर भी काफी तीखी टिप्पणियां हो रही हैं। लोग पूछ रहे हैं कि एक शहर के महापौर के चुनाव में हुई धांधली पर सर्वोच्च न्यायालय ने जैसी तत्परता दिखाई वैसी संदेशखाली के मामले में दिखाने पर वह राज़ी क्यों नहीं हुआ ? सोशल मीडिया में इसे लेकर न्यायाधीशों पर जो लिखा जा रहा है वह शोभनीय नहीं है किंतु  देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाय.चंद्रचूड़ को इस बारे में पारदर्शी व्यवस्था बनानी चाहिए कि किस तरह के मामले में सबसे ऊंची अदालत सीधे सुनवाई करेगी और किसमें नहीं। विचारणीय बात ये है कि निचली अदालतों में समय  की बरबादी से  बचने त्वरित न्याय की उम्मीद लिए लोग सर्वोच्च न्यायालय जाते हैं जिसकी  कार्यप्रणाली काफी चुस्त है और उसकी बात का प्रभाव भी पड़ता है। ये देखते हुए उसे स्पष्ट कह देना चाहिए कि सीधे आने वाले किसी भी मामले में वह सुनवाई नहीं करेगा। वैसे  न्यायिक व्यवस्था के अनुसार होना तो यही चाहिए कि जब तक निचली अदालत का विकल्प है तब तक ऊपरी अदालत प्रकरण की सुनवाई नहीं करेगी।  लेकिन  कुछ विशेष मामले होते हैं जिनको सीधे उच्च या सर्वोच्च न्यायालय में ले जाना आवश्यक होता है। उस दृष्टि से ये बात अटपटी लगती है कि सर्वोच्च न्यायालय मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी का प्रकरण न सुने किंतु महापौर चुनाव में अतिरिक्त तेजी दिखाते हुए फैसला करे। इसी तरह किसी जगह हिंसा होने पर तो वह स्वतः संज्ञान ले किंतु संदेशखाली में महिलाओं के बड़े पैमाने पर हुए उत्पीड़न को  सुनवाई योग्य न माने । न्यायपालिका और सरकार ही नहीं बल्कि न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं के बीच भी इसीलिए कहा सुनी की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। बेहतर हो श्री चंद्रचूड़ इस दिशा में समुचित कदम उठाएं जिससे न्याय व्यवस्था के प्रति सम्मान न सिर्फ बना रहे बल्कि उसमें और भी वृद्धि हो। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 20 February 2024

अन्य दलों के दूर रहने से न्याय यात्रा असर नहीं छोड़ पा रही


कांग्रेस नेता राहुल गांधी की न्याय यात्रा उ.प्र में है। बीते दो दिनों से वे अपने पुश्तैनी गढ़ रहे अमेठी , सुल्तानपुर और रायबरेली के इलाके में मौजूद हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र से भी यात्रा गुजर चुकी है। हालांकि यात्रा मार्ग में भीड़ तो नजर आती है किंतु भारत जोड़ो का प्रबंधन जितना अच्छा था और कांग्रेस के तमाम नेतागण उसमें उपस्थिति दर्ज करवाते देखे गए , वैसा इस बार देखने नहीं मिल रहा। संभवतः इसका कारण म.प्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के साथ ही लोकसभा चुनाव नजदीक होना  है। लेकिन यात्रा को लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं होने की वजह इंडिया में शामिल दलों के नेताओं की उससे दूरी भी  है। उ.प्र. को ही लें तो वहां सपा विपक्षी गठबंधन की सबसे मजबूत सदस्य है। लेकिन सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने ऐलान कर दिया कि जब तक सीटों के बंटवारे का मुद्दा उलझा रहेगा तब तक वे राहुल के साथ यात्रा नहीं करेंगे । इसी के साथ कांग्रेस को 17 सीटें देने का प्रस्ताव भी दे डाला। स्मरणीय है कुछ दिन पहले उन्होंने कांग्रेस को 11 सीटें देने की बात कही थी । उसके बाद जयंत चौधरी अपनी पार्टी रालोद को लेकर एनडीए में शामिल हो गए। इसीलिए रालोद को दी जा रही आधा दर्जन सीटें अखिलेश ने कांग्रेस को देने का दांव चला। हालांकि कांग्रेस ने अब तक इस प्रस्ताव पर सहमति नहीं दिखाई और वह 21 - 22 सीटों पर अड़ी हुई है। इस खींचातानी की वजह बसपा भी है क्योंकि कांग्रेस ने अखिलेश के दबाव को कम करने के लिए बसपा को भी इंडिया गठबंधन में शरीक होने का निमंत्रण दे दिया। क्षेत्रीय पार्टियां जिस तरह कांग्रेस पर हावी होकर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ने की बात कर रही हैं उसका कारण कांग्रेस में निर्णय क्षमता का अभाव ही है। लोकसभा चुनाव पार्टी के लिए जीवन - मरण का प्रश्न है। 2014 और 19 के लोकसभा चुनाव में मिली जबर्दस्त  पराजय के बाद उसके हाथ से ज्यादातर राज्य निकलते चले गए। हिमाचल , कर्नाटक और तेलंगाना में जीत से  जो मनोबल बढ़ा वह म.प्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की हार से धरातल पर आ गया। ऐसे में जरूरत थी कि वह विपक्षी पार्टियों के बीच  सामंजस्य बनाकर भाजपा के समक्ष कड़ी चुनौती पेश करने के लिए सीटों के बंटवारे का तरीका खोजकर जल्द से जल्द विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवारों की घोषणा करवाती । लेकिन  पांच राज्यों के  विधानसभा चुनाव और उसके बाद न्याय यात्रा की तैयारियों के कारण कांग्रेस नेतृत्व इस कार्य के लिए समय ही नहीं निकाल सका , जिससे संवाद हीनता की स्थिति बनती चली गई। न्याय यात्रा से अन्य दलों के नेताओं द्वारा दूरी बना लेने का कारण उनको सही समय और सही तरीके से निमंत्रित नहीं किया जाना ही है। उ.प्र में यात्रा के आने पर अखिलेश से उसमें शामिल होने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा , बुलाया ही नहीं गया। उनकी उस टिप्पणी के बाद ही न्यौता भेजा गया। दूसरी बात ये भी है कि उ.प्र कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय रॉय से सपा प्रमुख का छत्तीस का आंकड़ा है । म.प्र विधानसभा चुनाव के समय कमलनाथ और अखिलेश के बीच हुए बयान युद्ध के दौरान श्री रॉय द्वारा किए गए कटाक्ष पर श्री यादव ने उनको चिरकुट बताते हुए कांग्रेस को खरी - खोटी सुनाई थी। भले ही कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है किंतु उ.प्र में उसकी स्थिति दयनीय से भी बुरी है। ऐसे में बुद्धिमत्ता इसी में थी कि खुद श्री गांधी सपा प्रमुख को शुरू में ही यात्रा का निमंत्रण देते । लेकिन यात्रा के संयोजक जयराम रमेश एवं अन्य प्रबंधकों को इन सब बातों का ध्यान नहीं है । इसीलिए यात्रा को न पहले जैसा प्रचार मिल रहा है और न ही वह पार्टी में उत्साह जगाने में कामयाब लगती है। विपक्षी गठबंधन के अनेक नेता खुलकर कह चुके हैं कि इस यात्रा का गठबंधन से कोई संबंध नहीं है।  संवाद हीनता के साथ ही श्री गांधी की आत्ममुग्धता के कारण नीतीश कुमार ने एनडीए का पल्ला पकड़कर विपक्षी एकता में सेंध लगा दी। पूरे देश से कांग्रेस नेताओं द्वारा पार्टी छोड़ने की खबरें आ रही हैं । ऐसे में  न्याय यात्रा आगे पाट,  पीछे सपाट की उक्ति को चरितार्थ कर रही है। हालांकि अब उसे बंद कर देना तो उचित नहीं होगा । लेकिन पार्टी को गठबंधन के दलों को ये विश्वास दिलाना चाहिए कि कांग्रेस उनके महत्व और प्रभुत्व को कम करने की मंशा नहीं रखती। दरअसल क्षेत्रीय दल इस बात से आशंकित हैं कि कांग्रेस उनके प्रभावक्षेत्र को नुकसान पहुंचाना चाह रही है। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 19 February 2024

संदेशखाली में मध्ययुगीन बर्बरता का नंगा नाच


हालांकि ऐसे मामलों में राजनीति नहीं होना चाहिए किंतु जब आरोपी राजनीतिक व्यक्ति हो और उसकी पार्टी बजाय  दंडित करने के उसे संरक्षण दे तब राजनीतिक विवाद उत्पन्न होना स्वाभाविक है। प.बंगाल के 24 परगना जिले का संदेशखाली नामक स्थान बीते कुछ दिनों से चर्चा का कारण बना हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय तक में उसकी सुनवाई हो रही है। राष्ट्रीय स्तर पर अकेली भाजपा  इस प्रकरण पर मुखर है इसलिए ममता सरकार उसे  राजनीतिक वैमनस्य कहकर हवा में उड़ा रही है। वैसे कांग्रेस की राज्य इकाई भी संदेशखाली में महिलाओं पर हुए अमानुषिक अत्याचारों को लेकर मैदान में है । 5 जनवरी को संदेशखाली में ईडी की टीम तृणमूल कांग्रेस नेता शाहजहां शेख के यहां छापा मारने पहुंची थी। लेकिन उसके गुर्गे ईडी के लोगों के साथ मारपीट करते हुए उन्हें तब तक रोके रहे जब तक शाहजहां फरार नहीं हो गया। तदुपरांत वहां की महिलाएं खुलकर सामने आईं और उन्होंने शेख के बारे में जो कुछ बताना शुरू किया उसके बाद ममता सरकार के राज में हो रहे महिला उत्पीड़न की दर्दनाक स्थिति सामने आई। जो कुछ भी उनके द्वारा बताया गया , वह 21 वीं सदी में अकल्पनीय है। शाहजहां शेख और उसके गुर्गे महिलाओं को अपनी निजी संपत्ति मानकर उठा ले जाते रहे और तृणमूल कार्यालय में रखकर उनका यौन शोषण कर छोड़ देते थे । विवाहित महिला के पति को भी ये कहा जाता कि उसकी पत्नी पर पहला अधिकार शेख का है। किसी भी सुंदर महिला को जबरन उठाकर ले जाना और उसका यौन शोषण करना संदेशखाली में आम बात थी। जब महिलाओं से पूछा गया कि वे इस अत्याचार के विरुद्ध अब तक खामोश क्यों रहीं तो उनका उत्तर था कि शाहजहां  जब ईडी के डर से फरार हुआ तब जाकर उनमें साहस आया। वह लोगों की जमीनों पर जबरन कब्जा करने और उनकी मजदूरी छीनकर आतंकित करने का काम करता रहा किंतु तृणमूल कांग्रेस से जुड़ा होने  की वजह से उसका हौसला बुलंद था।  ईडी की छापेमारी के बाद संदेशखाली महिला  सशक्तीकरण का जीवंत उदाहरण बन गया है। लेकिन महिला होने के बावजूद ममता बैनर्जी अभी तक अपनी पार्टी के कुख्यात नेता पर लग रहे आरोपों पर ध्यान देने के बजाय ये शिगूफा छोड़ रही हैं कि संदेशखाली रास्वसंघ का प्रभावक्षेत्र है। महिलाओं पर उनके साथ हुए बलात्कार को साबित करने का दबाव भी बनाया जा रहा है। दिखावे के लिए कुछ छुटभैये किस्म के तृणमूल नेताओं को पुलिस ने जरूर पकड़ा है किंतु जो लोग संदेशखाली के हालात का जायजा लेने जा रहे हैं उनको भी रोकने की करवाई पुलिस और प्रशासन द्वारा किए जाने से साफ है कि ममता सरकार को महिलाओं के मान - सम्मान से अधिक अपनी पार्टी के नेताओं की चिंता है। जो जानकारी आई उसके आधार पर ये कहा जा सकता है कि संदेशखाली में मध्ययुगीन गुलाम प्रथा जिंदा है। भारतीय फिल्मों में पुराने जमींदारों की क्रूरता के जो दृश्य दिखाए जाते हैं वे भी इस कांड के सामने हल्के लगते हैं। वस्तुस्थिति ये है कि वामपंथी सरकार के राज में जो गुंडे आतंक का पर्याय थे वे सभी सत्ता परिवर्तित होते ही तृणमूल कांग्रेस में आ गए। परिणामस्वरूप प.बंगाल की स्थिति आसमान से टपके खजूर पर अटके वाली होकर रह गई। पहले जो लूटपाट वामपंथी पार्टी का कैडर करता था , वही अब तृणमूल कार्यकर्ता बन चुके असामाजिक तत्व धड़ल्ले से करते हैं। चूंकि पुलिस उनके क्रियाकलापों  पर रोक नहीं लगाती लिहाजा जनता भी भयग्रस्त है।   संदेशखाली की घटना पहली नहीं है। बीते कुछ सालों में यह राज्य अराजकता के शिकंजे में फंस गया है। चूंकि कांग्रेस और वामपंथी पूरे तौर पर हाशिए पर आ चुके हैं इसलिए भाजपा ही प.बंगाल में विकल्प के रूप में उभर रही है। संदेशखाली की लड़ाई में भी वही पीड़ित महिलाओं के साथ खड़ी हुई है। हालांकि लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता अधीर रंजन चौधरी  ममता सरकार के विरुद्ध आवाज उठाया करते हैं किंतु जिस इंडिया गठबंधन में तृणमूल भी शामिल है उसकी ओर से संदेशखाली में हुए अत्याचार के विरुद्ध कुछ न कहा जाना चौंकाता है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी की तरफ से भी ममता बैनर्जी की सरकार का वैसा विरोध नहीं हुआ जैसा अपेक्षित था । सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में क्या करता है इस पर सबकी नजर है क्योंकि उसके निर्णय को राजनीति से परे माना जायेगा। लेकिन ममता बैनर्जी ने इस कांड पर अब तक जिस प्रकार का गैर जिम्मेदाराना रवैया दिखाया वह शर्मनाक है। जब किसी स्थान की दर्जनों महिलाएं उन पर हुए अमानुषिक अत्याचार की जानकारी सार्वजनिक रूप से दे रही हों तब तो मुख्यमंत्री को खुद उनसे मिलकर अपराधियों को सजा दिलवाने की पहल करनी चाहिए थी । लेकिन इसके विपरीत वे इसे राजनीतिक मोड़ देकर अपनी पार्टी के साथ जुड़े समाज विरोधी तत्वों को बचाने में जुटी हुई हैं। बेहतर तो ये होता कि कांग्रेस सहित विपक्षी गठबंधन में शामिल अन्य दलों का संयुक्त प्रतिधिमंडल संदेशखाली में पीड़ित महिलाओं की बात सुनकर ममता बैनर्जी को कठघरे में खड़ा करता किंतु वोटों की राजनीति के कारण महिलाओं के अपमान पर भी अधिकतर पार्टियां मौन साधे बैठी हैं। ऐसे में अब सर्वोच्च न्यायालय से ही उम्मीद है न्याय की। चूंकि लोकसभा चुनाव नजदीक हैं इसलिए देखना ये होगा कि इतना गंभीर मुद्दा कहीं राजनीतिक आरोप - प्रत्यारोप में दबकर न रह जाए।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 17 February 2024

किसान आंदोलन : दोनों पक्षों को लचीला रुख दिखाना चाहिए


किसान आंदोलन एक बार फिर खबरों में है। पंजाब से किसानों के ट्रेक्टर और अन्य वाहन दिल्ली की ओर बढ़ना चाह रहे हैं जिनको हरियाणा पुलिस आगे नहीं बढ़ने दे रही । उनको रोकने के लिए  लाठीचार्ज , अश्रुगैस और रबर की गोलियों जैसे तरीके भी इस्तेमाल हो रहे हैं। किसान नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों के एक दल के बीच वार्ता भी जारी है । जिसमें कुछ बिंदुओं पर सहमति के संकेत भी मिले हैं। हालांकि  किसान नेता राकेश टिकैत अभी तक आंदोलन को दूर से ही समर्थन दे रहे हैं जिससे दिल्ली तक किसानों की टोलियां नहीं पहुंच सकीं। लगता है इस आंदोलन के पहले श्री टिकैत सहित किसानों के अन्य नेताओं को विश्वास में नहीं लिया गया। राजनीतिक पार्टियां भी लोकसभा चुनाव की व्यूह रचना  में व्यस्त हैं।  ऐसे में केंद्र सरकार ऐसा कोई निर्णय लेने से बचना चाहेगी जो भविष्य में समस्या बन जाए।  अन्नदाता जैसे सम्मानजनक संबोधन के साथ ही किसानों के प्रति समाज में हमदर्दी भी है। जिन हालातों में वे काम करते हैं ,  वे निश्चित तौर पर बेहद कठिन  हैं। जब तक फसल का सुरक्षित भंडारण अथवा विक्रय न हो जाए तब तक  उनकी चिंता बनी रहती है। फसल बीमा के साथ ही प्राकृतिक आपदा में हुए नुकसान के मुआवजे की व्यवस्था भी उतनी पुख्ता नहीं है। नौकरशाही की कार्यशैली भी  परेशानी का कारण बनती है। लेकिन किसान जिन मांगों को पूरा करने के लिए दबाव बना रहे हैं वे जस की तस पूरी करना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एम.एस.पी (न्यूनतम समर्थन मूल्य ) को कानूनी रूप देने का आश्वासन दे डाला किंतु दस साल तक डा.मनमोहन सिंह की सरकार रहने के बावजूद श्री गांधी ने उक्त व्यवस्था क्यों नहीं करवाई इसका उत्तर भी मिलना चाहिए। केंद्र सरकार समय - समय पर एम.एस.पी में वृद्धि करती  है। उसके अलावा राज्य सरकारें बोनस आदि जोड़कर उसे और बढ़ा देती हैं। लेकिन समर्थन मूल्य कुछ फसलों पर ही है जबकि किसान नेता चाहते हैं समूचे कृषि उत्पादनों के लिए एम.एस.पी तय की जाए। और सरकार के अलावा बाजार में व्यापारी भी उससे कम पर खरीदे तो उसे दंडित किया जाए। इसके अलावा वृद्ध किसानों की पेंशन जैसी कुछ मांगें भी हैं। इन सबको स्वीकार करने पर केंद्र और राज्य सरकारों के कंधों पर जो आर्थिक बोझ आएगा वह आज के हालातों में तो सहने योग्य नहीं हैं । हालांकि एम.एस.पी का उद्देश्य किसानों को उत्पादन का उचित दाम दिलवाना है। जिसका लाभ भी उन्हें होता है। लेकिन उसको कानूनी शक्ल देकर निजी क्षेत्र को भी उसके लिए बाध्य किया जाए ये न तो सैद्धांतिक दृष्टि से उचित होगा और न ही व्यवहारिक। पिछले आंदोलन के बाद सरकार ने इसके लिए समिति भी बनाई थी और गत दिवस हुई बातचीत में भी इसी दिशा में विचार हुआ किंतु समूचे कृषि उत्पादनों को एम.एस.पी के अंतर्गत लाने और उसे कानून का जामा पहनाने जैसी मांग मान लेना किसी भी सरकार के बस में नहीं है। लोकसभा चुनाव  के कारण हो सकता है केंद्र सरकार नर्म रुख दिखाते हुए किसानों को कुछ आश्वासन देकर आंदोलन को खत्म करवा दे किंतु वह ऐसा कुछ भी  करने से बचेगी जो भविष्य में सिरदर्द बन जाए। हालांकि , जो किसान संगठन आंदोलन में शामिल हैं उनकी प्रामाणिकता को लेकर भी तरह - तरह की बातें सुनने में आ रही हैं। जिनमें सबसे प्रमुख तो ये है कि सही मायने में जिसे किसान कहा जाता है उसकी मौजूदगी इस आंदोलन में बेहद कम है। लेकिन आर्थिक तौर पर सम्पन्न किसान की बात की भी अनसुना नहीं किया जा सकता।  दूसरा पक्ष ये भी है कि राजनीतिक दलों द्वारा किसान आंदोलन को हवा देने के कारण इसका स्वरूप बिगड़ जाता है। पिछले आंदोलन में खालिस्तानी तत्व भी उसमें घुस आए।  एक बात और ये भी है कि किसान आंदोलन चुनाव के समय ही क्यों होता है। पिछली बार उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब में चुनाव होना थे। चुनाव हो जाने के बाद आंदोलन भी ठंडा पड़ गया था। इस बार लोकसभा चुनाव के पहले किसान फिर सड़कों पर उतरे हैं। उनके तेवर भी पिछली बार जैसे ही हैं किंतु अब तक वैसा समर्थन नहीं मिल सका ,जैसा उस समय दिखाई दिया था । इसका कारण उ.प्र और उत्तराखंड के बाद म.प्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली जबर्दस्त जीत के अलावा राजनीतिक नेताओं का लोकसभा चुनाव के तैयारियों में जुटना भी है। उम्मीद है कि किसान नेताओं और केंद्र सरकार के बीच हो रही वार्ता में कुछ न कुछ समाधान निकल ही आएगा लेकिन उसके लिए दोनों पक्षों को लचीलापन दिखाना होगा। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 15 February 2024

इलेक्टोरल बॉन्ड का विकल्प न होने से काले धन में चंदा बढ़ेगा



सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में प्रारंभ की गई इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था को असंवैधानिक निरूपित करते हुए उस पर तत्काल रोक लगा दी। इसके साथ ही अब तक इस माध्यम से विभिन्न राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा देने वालों का नाम उजागर किए जाने का आदेश भी भारतीय स्टेट बैंक को दिया। अपने फैसले में न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था को इसलिए असंवैधानिक माना क्योंकि उसके लिए अधिकृत स्टेट बैंक , बॉन्ड खरीदने वाले की जानकारी होते हुए भी उसे उजागर करने के लिए बाध्य नहीं था जो सूचना के अधिकार के कानून का उल्लंघन है। अदालत का कहना है कि चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखने से पारदर्शिता नहीं रहती और स्वार्थों का आदान - प्रदान भी स्वाभाविक रूप से होता है। इस बारे में केंद्र सरकार की दलील मुख्य रूप से ये थी कि इस व्यवस्था के कारण राजनीतिक दलों को काले धन से चंदा मिलने पर रोक लगी । वहीं चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रखे जाने का उद्देश्य उसे संभावित राजनीतिक प्रतिशोध से बचाना था। इस योजना के तहत अब तक 11723 करोड़ रु.चंदा मिला । इसका लगभग 55 प्रतिशत भाजपा को मिलने से बाकी राजनीतिक दल भन्नाए हुए थे। चूंकि सभी पार्टियों को अपना हिसाब - किताब चुनाव आयोग में देना पड़ता है इसीलिए उनको बॉन्ड के जरिए प्राप्त चंदे की जो जानकारी मिली उसके मुताबिक कांग्रेस को जहां 1123 करोड़ वहीं तृणमूल कांग्रेस को उससे थोड़ा कम अर्थात 1092 करोड़ रु. मिले । बीजू जनता दल को 774 करोड़, द्रमुक को 616 करोड़ , बीआरएस को 912 करोड़ , वाई.एस.आर कांग्रेस को 382 करोड़ , तेलुगु देशम को 146 करोड़ के अलावा अन्य दलों को भी 372 करोड़ रु. इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिले। इससे ये स्पष्ट है कि बॉन्ड का विरोध करने वाली पार्टियों ने भी उसके माध्यम से चंदा हासिल करने से इंकार नहीं किया । 10 वर्षों में भाजपा राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस से काफी आगे निकल गई और केंद्र में लगातार दूसरी बार सत्ता में आने से उसका प्रभुत्व भी बढ़ा। जाहिर है ऐसे में चंदा देने वाले आधे से ज्यादा दान दाता उसकी तरफ आकर्षित हो गए । लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि तृणमूल कांग्रेस को बॉन्ड से मिला चंदा कांग्रेस के लगभग बराबर है। कांग्रेस के पास उक्त अवधि में कुछ छोटे राज्यों में ही सत्ता थी। इसी तरह तेलंगाना जैसे छोटे राज्य में सत्तासीन रही बी.आर.एस को भी 912 करोड़ चंदा मिलना चौंकाता है। विभिन्न दलों का जो विवरण सामने आया उसने स्पष्ट कर दिया कि चंदा देने वाले विचारधारा से प्रेरित होकर नहीं अपितु स्वार्थों के कारण चंदा देते हैं। राजनीतिक दबाव तो काम करते ही हैं। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय औचित्य की कसौटी पर उचित प्रतीत होता है । लेकिन न्यायालय ने ऐसे समय फैसला सुनाया जब लोकसभा चुनाव एकदम करीब आ चुके हैं और सरकार के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था करना भी इतनी जल्दी न तो संभव है और न ही उचित। ऐसे में चुनाव के समय एकत्र किए जाने वाले चंदे में काले धन का उपयोग खुलकर होगा । सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी ऐतराज किया कि इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने के लिए किसी भी कंपनी का लाभ में होना जरूरी नहीं और घाटे में चलने के बावजूद वे बॉन्ड के जरिए चंदा दे सकती थीं। कुछ और विसंगतियों पर भी टिप्पणियां की गईं हैं किंतु मुख्य आपत्ति चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखने पर ही रही। अब सवाल ये है कि राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले क्या बिना किसी भय के वैसा कर सकेंगे ? दिग्गज उद्योगपतियों को भले छोड़ दें किंतु मध्यम और लघु श्रेणी के उद्योगपति और व्यवसायी अपनी पहचान उजागर करने का साहस शायद ही प्रदर्शित कर सके। इस प्रकार बात फिर काले धन पर आकर टिक गई क्योंकि चुनाव और चंदे का चोली दामन का साथ है। बिना उसके चुनाव लड़ना लगभग असंभव है। ऐसे में उक्त फैसले के बाद एक शून्य की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इसलिए लोकसभा चुनाव के लिए बटोरे जाने वाले चंदे में काले धन की बड़ी मात्रा होने से इंकार नहीं किया जा सकता। इस फैसले के बाद एक देश एक चुनाव की जरूरत और बढ़ गई है क्योंकि कभी न रुकने वाले चुनाव रूपी सिलसिले ने भ्रष्टाचार और नीतिगत अस्थिरता के साथ ही क्षेत्रीय भावनाओं को बढ़ावा दिया है जिसके कारण संघीय ढांचे पर भी संकट उठ खड़ा होता है। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 

उच्च सदन की उच्चता बनाए रखना अपेक्षित भी है और आवश्यक भी


म.प्र सहित अनेक राज्यों से राज्यसभा उम्मीदवारों के नाम सामने आ गए हैं। इस चुनाव में विभिन्न पार्टियां अपने संख्याबल के मुताबिक प्रत्याशी उतारती हैं। जिस पार्टी के पास  निर्धारित कोटे से अधिक मत होते हैं वह या तो दूसरी पार्टी में सेंध लगाकर अपने अतिरिक्त प्रत्याशी को जिताने का प्रयास करती है या  किसी धनकुबेर या अन्य हस्ती के साथ सौदेबाजी कर लेती है। राज्यसभा संसद का स्थायी सदन है। इसे उच्च सदन भी कहा जाता है । इसका गठन उन लोगों के लिए किया गया था जो पूर्णकालिक राजनीति तो नहीं करते किंतु देश को उनके योगदान की ज़रूरत होती है। ऐसे लोग चूंकि चुनाव लड़ना पसंद नहीं करते और लड़ते भी हैं तो जीत नहीं पाते ,  लिहाजा विभिन्न पार्टियां अपनी पसंद के इन लोगों को राज्यसभा में लाती हैं। कुछ विशिष्ट गैर राजनीतिक हस्तियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत भी किया जाता है।  राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है । बीते एक - दो दिनों में जिन उम्मीदवारों के नाम सामने आए उनमें कांग्रेस नेत्री सोनिया गांधी और भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा भी हैं। सपा ने फिल्म अभिनेत्री जया बच्चन को फिर अवसर दिया तो भाजपा ने महाराष्ट्र में कांग्रेस से दो दिन पहले आए अशोक चव्हाण को प्रत्याशी बना दिया । म.प्र में केंद्रीय मंत्री डा.मुरुगन भी भाजपा की सूची में है जो मूलतः तमिलनाडु के हैं किंतु वहां भाजपा के पास आवश्यक  संख्या बल न होने से उन्हें दूसरी बार यहां से राज्यसभा भेजा जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस द्वारा सागरिका घोष नामक महिला पत्रकार को उच्च सदन भेजने की जानकारी भी आई जो प्रख्यात पत्रकार राजदीप सरदेसाई की धर्मपत्नी हैं। कुछ केंद्रीय मंत्री भी उनके मूल राज्य की बजाय अन्य राज्य से उतारे जा रहे हैं। लेकिन इससे हटकर प्रश्न ये है कि राज्यसभा जिस उद्देश्य के लिए बनाई गई थी , क्या प्रत्याशी चयन करते समय राजनीतिक पार्टियां उसका ध्यान रखती हैं ? अभी तक जो नाम विभिन्न पार्टियों के सामने आए हैं उनमें से अनेक ऐसे हैं जो सिर्फ इसलिए नहीं चौंकाते क्योंकि वे अनजान चेहरे हैं या सक्रिय राजनीति से उनका वास्ता नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि उनका कृतित्व इस सदन के अपेक्षित मापदंड के  मुताबिक अपर्याप्त  लगता है। समाज के पिछड़े , वंचित और दलित वर्ग के ऐसे लोगों को राज्यसभा में लाना तो समझ में आता है जो भले ही प्रचार से दूर रहकर समाज की भलाई हेतु कार्य करते रहे हों , परंतु राजनीतिक सौदेबाजी और जातिगत वोटबैंक को साधने के लिए किसी को उच्च सदन में लाना औचित्यहीन है। देश की राजनीति चूंकि जाति के जंजाल में बुरी तरह उलझकर रह गई है इसलिए प्रत्येक राजनीतिक दल के भीतर जाति आधारित दबाव समूह बन गए हैं । अनेक ऐसे व्यक्तियों को , जिनके नाम और उपनाम से भले पता न चले परंतु उम्मीदवार बनाने के साथ ही उनकी जाति की जानकारी दे दी जाती है। ऐसा करने से उस जाति विशेष के लोग खुश होते हों किंतु राज्यसभा सांसद बन जाने के बाद व्यक्ति पर जाति की छाप लगने से अन्य वर्ग उससे छिटकने लगते हैं । ये देखते हुए बेहतर होगा राजनीतिक दल यदि पिछड़े ,  दलित या आदिवासी वर्ग के किसी उम्मीदवार को मैदान में उतारते हैं तो जाति के बजाय उसके सामाजिक योगदान का उल्लेख होना चाहिए। मौजूदा  केंद्र सरकार द्वारा पद्म पुरस्कारों के लिए अनेक ऐसे गुमनाम व्यक्तियों का चयन किया गया जो चुपचाप समाज की बेहतरी के लिए काम करते रहे।  लेकिन उनकी जाति या समुदाय का बखान न करते हुए केवल उनके कारनामों को प्रचारित करने से उनके प्रति स्वप्रेरित सम्मान उत्पन्न होता है। इसी तरह राज्यसभा के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा जिन उम्मीदवारों का चयन किया जाता है उनकी जाति की बजाय राजनीति के अलावा भी सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान को  प्रचारित किया जाए तो वे सीमित दायरे से निकलकर पूरे समाज के लिए सम्मानित बन सकते हैं। जाति के नाम पर चल रहे क्षेत्रीय दलों से तो इस बारे में कोई अपेक्षा करना व्यर्थ है किंतु भाजपा और कांग्रेस को तो कम से कम उम्मीदवारों की जाति के बजाय  शैक्षणिक और पेशेवर योग्यता के अलावा सामाजिक जीवन में योगदान को चयन का आधार बनाना चाहिए। समय आ गया है जब लोकसभा और राज्यसभा के स्वरूप में अंतर स्पष्ट नजर आए। संसद के उच्च सदन की उच्चता बनाए रखना संवैधानिक दृष्टि से अपेक्षित ही नहीं आवश्यक भी है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 14 February 2024

अबू धाबी में हिन्दू मंदिर का शुभारंभ राष्ट्रीय गौरव का विषय



अबू धाबी में स्वामीनारायण संप्रदाय के  भव्य मंदिर का आज शुभारंभ हो रहा है। प्रधानमंत्री इस आयोजन के लिए गत दिवस वहां पहुंच गए। उन्होंने इस बारे में जो जानकारी दी वह सुनकर वाकई सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि संयुक्त अरब अमीरात में हिन्दू धर्म के अनुसार सार्वजनिक रूप से पूजा - पाठ विशेष रूप से मूर्ति पूजा की अनुमति नहीं थी। लेकिन बीते कुछ दशकों में कुछ छोटे - छोटे देशों के इस समूह में भारतीयों की संख्या जिस तेजी से बढ़ी उसने उन्हें अमीरात की जरूरत बना दिया। ये कहना गलत नहीं है कि यदि ये भारतीय वापस आ जाएं तो वहां की व्यवस्था गड़बड़ा जायेगी। व्यवसायी वर्ग के अतिरिक्त भी दुबई और अबूधाबी में श्रमिक , तकनीशियन , ड्राइवर जैसे कामों में भारतीय बड़ी संख्या में कार्यरत हैं। इनके अलावा इन्फ्रा स्ट्रक्चर के कार्यों में भी भारतीय कंपनियों की काफी सहभागिता है। भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच आपसी व्यापार भी लगातार बढ़ता जा रहा है। भारत से लाखों सैलानी हर साल दुबई  जाते हैं। इस प्रकार संयुक्त अरब अमीरात के साथ हमारे रिश्ते व्यापार और कूटनीति से ऊपर भावनात्मक स्तर पर पहुंच गए हैं। आज जिस मंदिर का शुभारंभ हो रहा है उसके लिए अबू धाबी के शासक ने बड़ी ही उदारता से भूमि प्रदान की जो किसी इस्लामिक देश में कल्पनातीत  है। इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना पूरी तरह सही होगा क्योंकि उन्होंने अपने दस वर्ष के कार्यकाल में  संयुक्त अरब अमीरात के शाही परिवारों से आत्मीय रिश्ते बना लिए। यही वजह है कि पाकिस्तान और भारत के बीच किसी भी प्रकार के विवाद की स्थिति में वे हमारे पक्ष में खड़े नजर आए। निश्चित रूप से इसके पीछे उन लाखों भारतीयों का भी योगदान है जिन्होंने  अपने परिश्रम और सदाचरण से वहां की सरकार और समाज का विश्वास अर्जित किया। दुनिया के अनेक देशों में स्वामी नारायण संप्रदाय के भव्य मंदिर बने हैं किंतु अबूधाबी का यह मंदिर उन लोगों के मुंह पर तमाचा है जो भारत में मंदिर बनाए जाने पर नाक सिकोड़ते हैं। इसी के साथ ये मुस्लिम कट्टरपंथियों के लिए भी सबक है जो अतीत में मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मस्जिदों पर हिंदुओं के दावे को स्वीकार करने की सौजन्यता दिखाने के बजाय उसमें अड़ंगे लगाया करते हैं।  अयोध्या में गत 22 जनवरी को राममंदिर के शुभारंभ के अवसर पर समूचे विश्व के सनातन प्रेमियों ने हर्षोल्लास मनाया किंतु मुस्लिम समाज का बड़ा वर्ग  कोपभवन में बैठा रहा। उसके प्रवक्ता भी अपनी खीझ व्यक्त करने से बाज नहीं आए। बाबरी ढांचे को दोबारा खड़ी करने जैसी डींगें भी हांकी गईं। पाकिस्तान ने भी राममंदिर के निर्माण को लेकर बकवास करते हुए भारत के मुसलमानों को भड़काने  के उद्देश्य से बयान जारी किए। यहां तक कि संरासंघ तक में शिकायत की। लेकिन अबूधाबी के मुस्लिम शासकों द्वारा प्रदत्त 27 एकड़ के भूखंड पर  बना यह मंदिर इस्लामिक कट्टरपंथियों के लिए जबरदस्त संदेश है। हालांकि सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर अनेक प्रतिक्रियाओं में संयुक्त अरब अमीरात के हुक्मरानों की  आलोचना करते हुए कहा जा रहा है कि अरब की धरती पर हिन्दू मंदिर के निर्माण की अनुमति विनाश की शुरुआत है। किसी ने यहां तक टिप्पणी कर डाली कि ऐसा लगता है जैसे इस्लामिक जगत में भी हिंदुत्व को स्वीकार किया जाने लगा है। लेकिन इस मंदिर का विरोध करने वाले  कट्टरपंथियों को ये सोचना चाहिए कि  सारी दुनिया में आतंकवाद के कारण मुस्लिमों को संदेह की नजर से देखा जाता है । यूरोप के जिन देशों ने सीरिया संकट के बाद अरब देशों से भाग कर आए लोगों को मानवीय आधार पर शरण दी वे आतंकवाद का दंश भोगने के बाद अब उनको निकाल बाहर करने की सोचने लगे हैं। दूसरी तरफ  दुनिया भर में फैले हिंदुओं के साथ ऐसी समस्या उत्पन्न नहीं हुई । अबू धाबी में बना मंदिर उनकी इसी साख का प्रमाण है । वैसे तो इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे इस्लामिक देशों में भी हिन्दू मंदिर प्राचीनकाल से हैं परंतु किसी अरब देश में इतना भव्य नया मंदिर बनना भारत की कूटनीतिक से अधिक सांस्कृतिक विजय है । संयुक्त अरब अमीरात ने  इस्लामिक कानून से चलने वाली सत्ता होने के बावजूद अपने देश को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाने हेतु उदारवादी रवैया दिखाते हुए पूरी दुनिया से लोगों को वहां आकर काम करने और कमाने का  अवसर दिया। लेकिन हिन्दू मंदिर बनाने के लिए पहले अनुमति और फिर भूमि प्रदान करना इस बात का प्रमाण है कि वहां के शासक भारत और भारतीयों के महत्व को महसूस कर उनके प्रति सम्मान का भाव रखते हैं। इस मंदिर को इसीलिए धर्म विशेष से न जोड़कर राष्ट्रीय गौरव के तौर पर देखा जाना चाहिए। 
 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 13 February 2024

भारत की शानदार कूटनीतिक सफलता


कतर में जासूसी के आरोप में गिरफ्तार 8 पूर्व भारतीय नौसेना अधिकारियों को अगस्त 2022 में  गिरफ्तार करने के बाद गत वर्ष अक्टूबर में मृत्युदंड दिए जाने की जानकारी आई तो परिवारजनों के अलावा पूरा देश चिंता में पड़ गया। केंद्र सरकार पर जनता और विपक्ष का दबाव भी आने लगा। इसके बाद बिना शोर मचाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रयास शुरू किए। पहली सफलता मृत्यदंड को आजीवन कारावास में बदले जाने के तौर पर मिली। उसके बाद  विदेश मंत्री एस.जयशंकर , राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और कतर में रह चुके प्रधानमंत्री कार्यालय में पदस्थ विदेश सेवा के एक पूर्व अधिकारी द्वारा बनाई कार्ययोजना के कारण कतर के अमीर द्वारा उक्त सभी को माफी दे दी गई और कल वे भारत लौट भी आए। समूचे अभियान को जिस कुशलता से संचालित किया गया वह परिपक्व कूटनीति का शानदार उदाहरण है। 135 करोड़ की आबादी वाले देश के कुछ नागरिकों की जान किसी अन्य देश में संकट में पड़ने पर सामान्य दृष्टि से सरकार उसे प्रतिष्ठा का विषय बनाए ये जरूरी नहीं लगता । लेकिन सही सोच ये है कि देश के बाहर रह रहे हर भारतीय  की चिंता करना सरकार का कर्तव्य है। जो पूर्व नौसेना अधिकारी कतर में गिरफ्तार हुए वे पेशेवर अपराधी नहीं थे। एक निजी कम्पनी के लिए वहां काम करने के दौरान वे किसी गलतफहमी वश ही गिरफ्तार हुए होंगे। कतर में इस्लामिक कानून लागू होने से बेहद सख्ती है। लेकिन भारत सरकार की प्रशंसा करनी होगी जिसके प्रयासों से उनको फांसी के तख्ते से सुरक्षित वापस लाया जा  सका । देखने में भले ये छोटी सी बात लगे किंतु इससे भारत की प्रतिष्ठा के साथ ही कूटनीतिक वजनदारी भी प्रमाणित हुई और आम भारतीय का आत्मविश्वास भी बढ़ा है। प्रधानमंत्री और उनके नेतृत्व में कार्यरत सभी लोग इस कामयाबी के लिए अभिनंदन के पात्र हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी

म.प्र का अंतरिम बजट : मोहन सरकार की अच्छी शुरुआत


म.प्र की डा. मोहन यादव सरकार ने गत दिवस 1 अप्रैल से 31 जुलाई तक की अवधि के लिए रु.1,45,229 करोड़ का अंतरिम बजट प्रस्तुत किया। हालांकि प्रदेश सरकार चाहती तो वित्तीय वर्ष 2024 - 25 के लिए पूर्ण बजट भी ला सकती थी।लेकिन लोकसभा चुनाव नजदीक होने की वजह से  चूंकि केंद्र सरकार द्वारा भी अंतरिम बजट पेश किया गया इसीलिए म.प्र सरकार को भी वैसा ही करना पड़ा । दरअसल  केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को विभिन्न मदों में दी जाने वाली राशि का प्रावधान पूर्ण बजट में ही किया जाएगा । ऐसे में इस अंतरिम बजट को चार माह तक के लिए तदर्थ व्यवस्था के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। लेकिन ये  बजट पूरे साल के प्रारंभिक एक तिहाई हिस्से को प्रभावित करने वाला है इसलिए इसकी समीक्षा करना औचित्यपूर्ण है। विशेष रूप से इसलिए भी क्योंकि मुख्यमंत्री डा.यादव की सरकार का यह प्रथम बजट होने से उनकी आर्थिक नीतियों का एहसास करवाने वाला है। उस दृष्टि से देखें तो इस बजट पर मोदी की गारंटी के साथ ही विधानसभा चुनाव में भाजपा द्वारा पेश किए संकल्प पत्र की छाया स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। लाड़ली बहना योजना को जारी रखने के बारे में विपक्ष शुरू से संदेह जताता रहा है। लेकिन मोहन सरकार ने लगातार दो महीनों से 10 तारीख को उक्त योजना की राशि लाभार्थी महिलाओं के खाते में जमा करवाकर विपक्ष के प्रचार को गलत साबित कर दिया । साथ ही अंतरिम बजट से इस बात की पुष्टि कर दी कि शिवराज सरकार द्वारा प्रारंभ जनकल्याण की सभी योजनाएं जारी रहेंगी। इसी के साथ ही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा स्वीकृत सभी जनहितैषी और विकास संबंधी योजनाओं पर प्रदेश में अमल लिए जाने का प्रावधान भी किया गया है। इसमें दो राय नहीं हैं कि म.प्र पर काफी कर्ज है । इसके बाद भी सरकार ने  86 हजार करोड़ कर्ज लेने का इरादा जताया है जो निश्चित तौर पर चिंता का कारण है। प्रदेश सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। भले ही ऋण , रिजर्व बैंक द्वारा स्वीकृत सीमा के भीतर हो किंतु उसके ब्याज की अदायगी का बोझ अंततः प्रदेश के विकास को प्रभावित करता है। इस अंतरिम बजट की सबसे अच्छी बात ये है कि इसमें यदि किसी नई योजना की घोषणा नहीं की गई तो नया कर भी नहीं लगाया गया। हालांकि विपक्ष ने इसे निराशजनक बताया है किंतु वर्तमान हालात में वित्तमंत्री का दायित्व संभाल रहे उप मुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा इससे बेहतर और कुछ नहीं कर सकते थे। संक्षेप में कहें तो म.प्र का अंतरिम बजट प्रधानमंत्री द्वारा वर्णित  गरीब, युवा ,महिला और किसान नामक चार जातियों पर केंद्रित है। इसलिए डा.मोहन यादव सरकार की अच्छी शुरुआत कहना हर दृष्टि से सही होगा।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 12 February 2024

मुस्लिम समाज को प्रशांत किशोर की बात को गंभीरता से लेना चाहिए


चुनाव विश्लेषक से राजनेता बनने की ओर बढ़ रहे प्रशांत किशोर बिहार में घूम - घूमकर जनता से सीधा संपर्क कर रहे हैं। राजनीति और राजनेताओं के बारे में बेबाक विचार व्यक्त करने में भी वे परहेज नहीं करते। उनके साक्षात्कार समाचार माध्यमों में छाए रहते हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर श्री किशोर प्रकाश में आए जिन्होंने भाजपा की रणनीति बनाई थी। लेकिन ज्यादा दिनों तक ये रिश्ता नहीं चला और कुछ माह बाद हुए बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार    का दामन पकड़ा और उनका चुनाव अभियान संचालित कर उन्हें जितवाने में मुख्य भूमिका निभाई। वे मुख्यमंत्री के सलाहकार और जनता दल (यू) में भी शामिल हुए किंतु वहां भी पटरी नहीं बैठी तो फिर चुनाव रणनीतिकार बनकर ममता बैनर्जी के अभियान में शामिल होकर उनको जबरदस्त जीत दिलवाई । इसके अलावा भी कुछ राज्यों में विभिन्न पार्टियों को सेवाएं देते रहे किंतु बीते एक दो सालों से जन सुराज अभियान नामक संगठन बनाकर बिहार के कोने - कोने में घूमकर लोगों को व्यवस्था की बुराइयों के साथ उनके कर्तव्यों का स्मरण करवा रहे हैं । देर सवेर राजनीतिक दल बनाकर चुनाव मैदान में उतरने का भी इरादा वे व्यक्त कर चुके हैं। इसी सिलसिले में उन्होंने मुस्लिम समुदाय के बीच कुछ ऐसी बातें कहीं जो निश्चित रूप से आंखें खोलने वाली हैं। उन्होंने साफ तौर पर ये कहा कि मुस्लिमों की वर्तमान दुरावस्था का कारण  भाजपा नहीं हैं । ये कहना भी गलत होगा कि उनको लालू या अन्य भाजपा विरोधी संगठनों ने ठगा है।  असलियत ये है कि मुसलमानों ने अपने रहनुमा चुनने में भारी भूल की जिसका खामियाजा वे भुगत रहे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि मोहम्मद पैगंबर साहब ने  नसीहत दी थी कि जिस कौम को अपने रहनुमाओं की समझ न हो वह मुसीबत में फंसती है। उनके कहने का आशय ये था कि मुसलमानों में डर पैदा करने वाली पार्टियों ने उनके वोट तो जमकर बटोरे लेकिन उनकी भलाई के बारे में नहीं सोचा। यही बात असदुद्दीन ओवैसी भी अक्सर कहा करते हैं कि मुसलमानों को कांग्रेस , सपा और राजद जैसे दलों का पिछलग्गू बनने की बजाय अपना स्वयं का नेतृत्व विकसित करना चाहिये जो उनकी स्थिति का आकलन करते हुए उनकी जरूरतों को जमीनी स्तर पर समझकर पूरा करे। ये बात बिलकुल सही है कि आजादी के 76 साल बाद भी मुसलमान मुख्यधारा से अलग - थलग बने हुए हैं। उनके बीच से राजनीतिक नेता तो बहुत सारे निकले किंतु उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बन सका। कहने को तो देश के राष्ट्रपति के अलावा केंद्र तथा राज्यों में तमाम मंत्री मुस्लिम समाज से बने । उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायपालिका के उच्च पदों पर  भी अनेक मुस्लिम आसीन रहे। कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी मुस्लिम समाज से बड़ी - बड़ी हस्तियां निकलीं किंतु राजनीतिक नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में उन्हें स्थान नहीं मिला। जिन राजनीतिक दलों ने उनका हितचिंतक बनने का दिखावा किया उनका स्वार्थ केवल उनके वोट कबाड़ने तक सीमित रहा।।बाबरी कांड के बाद  कांग्रेस से नाराज होकर मुस्लिम समुदाय ने मुलायम ,  लालू , ममता और पवार जैसे नेताओं को अपना भाग्यविधाता बनाया । इन नेताओं ने मुसलमानों के मन में रास्वसंघ और भाजपा के विरुद्ध जहर तो खूब भरा लेकिन उनके सामाजिक , शैक्षणिक और आर्थिक विकास की दिशा में ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे वे बदहाली से बाहर आ पाते। उल्टे उन्हें और धर्मांध बनाकर मुल्ला या मौलवियों की मानसिक गुलामी करने की ओर धकेल दिया। नतीजा ये हुआ कि मुसलमान राजनीति का मोहरा बनकर किनारे लगा दिया गया। मुस्लिम वोट बैंक कभी जीत की गारंटी हुआ करता था किंतु उत्तरप्रदेश सहित अनेक राज्यों में हुए चुनावों में मुसलमानों की गोलबंदी भी बेअसर साबित होने लगी है। इसका कारण हिंदुओं का ध्रुवीकरण है। इसीलिए अब कांग्रेस जैसी पार्टी भी खुद को हिंदू हितचिंतक साबित करने में लगी है। अरविंद केजरीवाल मंच से हनुमान चालीसा और ममता बैनर्जी चंडी पाठ करते हुए खुद को हिंदू दिखाने का दावा करती हैं । राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा मंदिरों में जाकर पूजा - पाठ करते फोटो प्रचारित करते दिखाई देते हैं। कमलनाथ ने खुद को हनुमान भक्त घोषित कर रखा है।  सभी को समझ आ रहा है कि अब हिंदुत्व ही राजनीतिक सफलता का  मूल मंत्र है। इसके लिए मुस्लिमों को महज वोट बैंक बनाकर रखने  वाले राजनेता ही जिम्मेदार हैं । प्रशांत किशोर ने मुस्लिम समाज को इन्हीं से बचने की समझाइश दी है। हालांकि मुसलमानों में भी अब  एक वर्ग ऐसा  हो गया है जो इस्लाम के नाम पर उन्हें मुख्य धारा से अलग किए जाने के  षडयंत्र को समझकर उसके विरुद्ध सोचने और बोलने लगा है किंतु अधिकांश मुस्लिम समाज अभी भी मुल्लाओं और मौलवियों के इशारों पर नाचता देखा जा सकता है। यहां तक कि अनेक पढ़े - लिखे मुसलमान भी धर्मांधता के शिकंजे में फंसे हुए हैं। श्री किशोर चूंकि बिना लाग - लपेट के बात करते हैं इसलिए उन्होंने साफ शब्दों में मुस्लिम समाज को समयानुकूल सलाह दे डाली। उनका जुड़ाव किसी पार्टी या विचारधारा से नहीं होने से उनकी बात निष्पक्ष है। यदि मुसलमान इस बारे में गंभीरता से सोचें तो उनका भविष्य संवर सकता है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 9 February 2024

हल्द्वानी का दंगा बड़े षडयंत्र का हिस्सा : तराई में बढ़ती मुस्लिम आबादी चिंता का विषय


उत्तराखंड में नैनीताल जिले के अंतर्गत आने वाला हल्द्वानी शहर बीते दो दिनों से दंगे की आग में झुलस रहा है। कुमाऊं अंचल की तराई में बसे इस नगर में एक अवैध मजार को तोड़ने गए प्रशासनिक अमले पर नाराज मुस्लिम समाज की भीड़ ने हमला कर दिया। उसके बाद निकटवर्ती पुलिस थाने को जलाने और उसमें रखे शस्त्र लूटने की कोशिश भी की गई। पूरे शहर में  पथराव और आगजनी की वारदातें भी कैमरों में कैद हो चुकी हैं। छतों से पत्थर बरसाने का सिलसिला भी चला। सैकड़ों पुलिस वाले घायल हो गए हैं। आधा दर्जन मौतों की भी खबर है। बरेली में तौकीर रजा नामक मौलवी द्वारा दिए भड़काऊ भाषण के बाद वहां भी तनाव व्याप्त है। उल्लेखनीय बात ये है कि उक्त मजार को अवैध निर्माण मानकर तोड़ने का आदेश न्यायालय द्वारा दिया गया था। बावजूद उसके मुस्लिम समाज के सैकड़ों लोगों द्वारा प्रशासनिक दस्ते पर हमला किया जाना ये स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि धर्म की आड़ में मुस्लिम धर्मगुरु कानून का पालन करने के स्थान पर व्यवस्था के विरुद्ध बगावत भड़काते हैं। तौकीर रजा ने जिस अंदाज में जान लेने की धमकी  दी वह शुभ संकेत नहीं है। उन्होंने पत्रकारों के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के बारे में जिस शब्दावली का उपयोग किया वह धर्मांधता के साथ ही उनके दुस्साहस का प्रमाण है। जिस शैली में उन्होंने मुसलमानों को भड़काया वह उनको जेल भेजे जाने के लिए पर्याप्त है। दूसरी तरफ  हल्द्वानी में जो कुछ हुआ उसके बाद उत्तराखंड के इस बेहद शांत इलाके के जनसंख्या संतुलन में आए बदलाव को लेकर चर्चा प्रारंभ हो गई है। इस तराई क्षेत्र में बीते कुछ सालों के भीतर ही मुस्लिम आबादी बेतहाशा बढ़ी। उसमें भी रोहिंग्या मुस्लिमों की खासी संख्या बताई जा रही है। जिस अंदाज में अतिक्रमण हटाने गए शासकीय अमले पर हमले के बाद  थाने को लूटने और जलाने की कोशिश हुई वह क्षणिक आवेश न होकर पूर्व नियोजित लगता है । अदालती आदेश के बाद अवैध रूप से बनाई गई मजार को तोड़ने की जानकारी लगते ही जिस तरह मुसलमानों की भीड़ एकत्र होकर हिंसात्मक हुई उसके पीछे तौकीर रजा जैसे लोगों का दिमाग ही लगता है। गौरतलब है वे बीते कुछ दिनों से ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर मुस्लिम समुदाय को लामबंद करने में जुटे हुए थे। ज्ञानवापी के अलावा आजकल मथुरा की ईदगाह का मसला भी खबरों में  है। अयोध्या में राम मंदिर के प्राण - प्रतिष्ठा समारोह की अभूतपूर्व सफलता के बाद मुस्लिम समाज के अनेक कट्टरपंथी नेता और धर्मगुरु आए दिन ऐसे बयान दे रहे हैं जिनसे सामाजिक सद्भाव नष्ट होने का अंदेशा है । दरअसल इन लोगों को ये भय सता रहा है कि  पुरातत्व सर्वेक्षण में जिस तरह के प्रमाण मिल रहे हैं उनके आधार पर वाराणसी की  ज्ञानवापी और मथुरा की ईदगाह  भी उनसे छिनना तय है।  अयोध्या विवाद का हल तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से शांति के साथ हो गया । लेकिन ज्ञानवापी और ईदगाह में हिन्दू मंदिर होने की संभावना बढ़ते जाने से मुस्लिम धर्मगुरु और अल्पसंख्यक वोट बैंक के ठेकेदारों की रातों की नींद उड़ी हुई है। इसीलिए आए दिन जहर बुझे बयान देकर  उत्तेजना फैलाई जा रही है। हल्द्वानी की घटना के पीछे कट्टरपंथी मुस्लिमों की खीझ भी है जिसका कारण राज्य विधानसभा में समान नागरिकता विधेयक पारित होना है। प्रसिद्ध पर्वतीय पर्यटन केंद्र नैनीताल की तराई में स्थित हल्द्वानी की शांति व्यवस्था को भंग करने के पीछे जिन तत्वों का हाथ है उन पर तो कड़ी कार्रवाई होगी ही किंतु इस इलाके में मुस्लिम आबादी में बेतहाशा वृद्धि के पीछे देश विरोधी ताकतों की भूमिका की जांच जरूरी है। विशेष रूप से रोहिंग्या मुस्लिमों की बसाहट के अलावा धड़ाधड़ खुलते मदरसे चिंता का विषय है। मैदानी इलाकों को छोड़कर पर्वतीय क्षेत्रों में मुसलमानों की नई - नई बस्तियां चौंकाने वाली हैं। जिस तरह से समूची घटना को अंजाम दिया गया वह  साधारण उपद्रव  न होकर किसी बड़े षडयंत्र को अमली जामा पहनाने जैसा कृत्य है । जिसकी सूक्ष्म जांच करवाने के बाद दोषियों को कड़ी सजा तो दी ही जाए ,किंतु लगे हाथ हल्द्वानी और उसके आसपास कुकुरमुत्ते की तरह उग आईं मुस्लिम बस्तियों की भी जांच कर पता लगाया जाए कि उसके पीछे है कौन? वरना ये लोग समूचे उत्तराखंड को अशांत कर देंगे।


- रवीन्द्र वाजपेयी

न्याय यात्रा विपक्षी गठबंधन के लिए नुकसानदेह साबित हो रही



भाजपा विरोधी तमाम यू ट्यूब पत्रकार इस बात से चिंतित हैं कि जिस विपक्षी गठबंधन को 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का विकल्प माना जा रहा था वह बिखराव का शिकार हो रहा है। इसके लिए वे राहुल गांधी को कसूरवार ठहराते हुए आरोप लगा रहे हैं कि घटक दलों के साथ संवाद शून्यता के कारण चुनाव की रणनीति और सीटों के बंटवारे का फार्मूला तय करने का काम लंबित पड़ा हुआ है। राहुल ने जबसे न्याय यात्रा प्रारंभ की तभी से इंडी की गतिविधियां रुकी हुई हैं। इसीलिए क्षेत्रीय दल स्वतंत्र निर्णय ले रहे हैं। प .बंगाल में ममता बैनर्जी ने इसकी शुरुआत की और उसी क्रम में उ.प्र में सपा नेता अखिलेश यादव ने भी कांग्रेस को 11 सीटें देने का फैसला कर डाला। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शरद पवार कांग्रेस के प्रति उदासीन हो रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने भी पंजाब और हरियाणा में उसको उपकृत करने से मना कर दिया। वहीं दिल्ली , गुजरात और गोवा में कड़ी शर्तें रख दी हैं। नीतीश कुमार द्वारा भाजपा के साथ चले जाने से बिहार में तेजस्वी यादव सीटों के बड़े हिस्से पर दावा ठोक रहे हैं। यही स्थिति तमिलनाडु और केरल की भी है। दरअसल गठबंधन अस्तित्व में तो आ गया और उसकी कुछ बैठकें भी हुईं किंतु मैदानी स्तर पर आज तक उसकी उपस्थिति दर्ज नहीं हो सकीं। 5 अक्टूबर को भोपाल की जिस रैली में एकता का प्रदर्शन होना था उसे कांग्रेस नेता कमलनाथ ने बिना किसी से सलाह किए ही रद्द करने का फैसला कर डाला। उसके बाद पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के उलझ जाने से अन्य कोई कार्यक्रम नहीं रखा जा सका। दरअसल कांग्रेस सोच रही थी कि उन चुनावों में उसका सितारा बुलंद रहेगा और तब वह सीटों के बंटवारे में अपनी इच्छा थोप सकेगी किंतु उत्तर भारत के तीन राज्यों में वह बुरी तरह पराजित हो गई। उसके बाद हालांकि गठबंधन की बैठक हुई किंतु प्रधानमंत्री के चेहरे और सीटों के बंटवारे पर कोई नीति नहीं बन सकी। होना तो ये चाहिए था कि गठबंधन की संयुक्त रैलियां देश भर में आयोजित कर उन मतदाताओं को आकर्षित किया जाता जो भाजपा विरोधी मानसिकता से प्रेरित और प्रभावित हैं। लेकिन कांग्रेस ने इससे अलग हटकर श्री गांधी की न्याय यात्रा शुरू करने को प्राथमिकता दी। यदि यात्रा गठबंधन के बैनर तले होती तो तमाम विपक्षी दल अपनी सहभागिता देकर इसे प्रभावशाली बनाते किंतु जिन राज्यों से वह गुजर रही है वहां असर रखने वाले क्षेत्रीय दलों को यात्रा में आमंत्रित करने में भी देर की गई जिससे वे कटे रहे। ममता बैनर्जी ने तो अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर करते हुए यहां तक भविष्यवाणी कर दी कि कांग्रेस 40 लोकसभा सीट भी बमुश्किल जीत सकेगी। नीतीश कुमार के किनारा करने के बाद ही कांग्रेस ने अखिलेश यादव को यात्रा में शिरकत करने हेतु आमंत्रित किया । वह भी तब जब वे कांग्रेस को 11 सीटें देने का इकतरफा ऐलान कर चुके थे। कुल मिलाकर इंडी समर्थक विश्लेषक इस बात को लेकर निराश हैं कि वह केवल बैठकों और बयानों तक सीमित है जबकि अभी तक तो उसे जबरदस्त मोर्चा खोल देना चाहिए था। इसका एक कारण ये भी है कि गठबंधन के हिस्सेदार दलों में साम्यवादियों को छोड़कर बाकी सब किसी नेता या परिवार के हित के लिए राजनीति करते हैं जिनके निजी स्वार्थ गठबंधन के सामूहिक हितों पर भारी पड़ रहे हैं। नीतीश कुमार चूंकि सबको जोड़कर रखने वाले नेता थे इसलिए उनके अलग हो जाने के बाद गठबंधन में थोड़ी ही सही किंतु जो कसावट थी वह भी ढीली पड़ने लगी। यही कारण है कि विभिन्न राज्यों से कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों से नेताओं और जनप्रतिनिधियों की भाजपा के साथ जुड़ने की खबरें आने लगी हैं। उद्धव ठाकरे के हालिया नर्म बयान के अलावा उ.प्र में कांग्रेस नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम द्वारा प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपने आयोजन में आमंत्रित कर भविष्य के संकेत दे दिए गए। वैसे भी वे राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार करने के निर्णय के कारण कांग्रेस की खुलकर आलोचना कर रहे हैं। विपक्षी गठबंधन के कमजोर पड़ने का संकेत पश्चिमी उ.प्र के जाट नेता और रालोद प्रमुख जयंत चौधरी की टेढ़ी चाल से भी मिल रहा है जो भाजपा के साथ गठजोड़ की प्रक्रिया में हैं। इस सबके कारण न तो गठबंधन को लेकर जनमानस में उत्सुकता और आकर्षण है और न ही घटक दलों में सामंजस्य बन पा रहा है। इसके विपरीत भाजपा ने अपनी चुनावी मशीनरी को पूरी तरह मुस्तैद कर दिया है। तीन राज्यों में मिली जीत के कारण उसका मनोबल भी ऊंचा है। प्रधानमंत्री खुद समय निकालकर देश के विभिन्न हिस्सों में जा रहे हैं । यदि यही स्थिति रही तो गठबंधन की एकता और उस पर आधारित सफलता की उम्मीद हवा - हवाई होकर रह जायेगी। प्रधानमंत्री द्वारा संसद में भाजपा को 370 और राजग को 400 से ज्यादा सीटें मिलने का जो दावा किया गया उसे भले ही अतिरंजित माना जाए किंतु विपक्षी गठबंधन में तो कांग्रेस द्वारा पिछले प्रदर्शन को दोहराए जाने को लेकर ही विश्वास का अभाव है । 


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 8 February 2024

बेहतर होगा मुस्लिम समाज खुद होकर सुधारवादी पहल करे



उत्तराखंड विधानसभा ने समान नागरिक संहिता विधेयक पारित कर दिया। इसके साथ ही अब ये संभावना  है कि भाजपा शासित अन्य राज्य भी इस दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।  दरअसल  स्व.राजीव गांधी के शासनकाल में सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो के पक्ष में गुजारा भत्ता संबंधी जो फैसला सुनाया था वह समान नागरिक संहिता की मांग को तेज करने का आधार बना। बाद में जब राजीव सरकार द्वारा संसद में उक्त फैसले को रद्द करवा दिया गया तो उसके समर्थकों  को जबरदस्त हथियार हाथ लग गया। सच तो ये है कि स्व.गांधी को जितना राजनीतिक नुकसान बोफोर्स कांड ने पहुंचाया उतना ही शाह बानो वाले फैसले को पलटने से पहुंचा । उसके बाद देश में मिली - जुली सरकारों का दौर चलता रहा । लेकिन 2014 में  नरेंद्र मोदी की जो सरकार बनी उसे स्पष्ट बहुमत हासिल होने के कारण भाजपा अपने मुख्य नीतिगत मुद्दों पर आगे बढ़ी। तीन तलाक , धारा 370 और राम मंदिर के मामले में सफलता प्राप्त होने के बाद अब समान नागरिक संहिता ही शेष है। रोचक बात ये है। कि इसके पक्ष और विपक्ष दोनों में प्रस्तुत याचिकाओं को सर्वोच्च न्यायालय ने ये कहते हुए रद्द कर दिया कि यह संसद के क्षेत्राधिकार का विषय है। ये  भी महत्वपूर्ण है कि उत्तराखंड भले समान नागरिक संहिता लागू करने वाले पहले राज्य के तौर पर प्रचारित हो रहा हो किंतु गोवा में तो यह पुर्तगाली शासन के समय से ही लागू  है। और यह भी कि उसका न मुस्लिम विरोध करते हैं और न ही ईसाई। लेकिन देश के अन्य राज्यों में  समान नागरिक संहिता लागू करने का मुस्लिम समाज ये कहकर विरोध करता है कि पर्सनल लॉ से छेड़छाड़ उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप होगा जो संविधान में अल्पसंख्यकों को प्रदत्त सुरक्षा के मद्देनजर अनुचित है। लेकिन संविधान में सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार की बात भी तो कही गई है। संविधान सभा में  इस विषय पर उस समय के दिग्गज नेताओं ने भी खुलकर अपने विचार रखे थे। ये मुद्दा शायद कभी नहीं उठता यदि पंडित नेहरू की सरकार ने हिंदू विवाह , उत्तराधिकार , पैतृक संपत्ति सहित कुछ और कानूनों में रद्दोबदल न किया जाता। हिन्दू कोड बिल को लेकर कांग्रेस में भी अंतर्विरोध थे।  डा. आंबेडकर द्वारा जब इसे पेश किया गया तब  यह संसद में पारित न हो सका जिस पर उन्होंने मंत्री पद छोड़ दिया। संविधान सभा के अध्यक्ष के तौर पर भी डा.राजेंद्र प्रसाद उसके पक्ष में नहीं थे। अंततः 1955 में अनेक टुकड़ों में उसे पारित करवा लिया गया। कांग्रेस में जो हिंदूवादी नेता उस दौर में थे वे भी नेहरू जी के आभामंडल के सामने ज्यादा कुछ न कर सके। उसी के बाद से हिंदूवादी संगठनों ने ये कहना शुरू कर दिया कि जब बहुसंख्यक होने के बाद भी हिंदुओं के पर्सनल लॉ में सुधार के नाम पर बदलाव किया गया तब मुस्लिम पर्सनल लॉ को समयानुकूल बनाने में सरकार पीछे क्यों रही? जनसंघ के उदय के बाद से ही समान नागरिक संहिता की मांग लगातार उठती आ रही है जो 2014 के बाद से और तेज हो गई। उत्तराखंड की पहल के बाद अब यह मुद्दा और जोर पकड़ेगा। हो सकता है लोकसभा चुनाव में भी यह भाजपा के प्रचार का हिस्सा बने। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण का उत्तर देते हुए कहा भी कि अपने तीसरे कार्यकाल में उनकी सरकार कुछ कड़े और बड़े फैसले लेगी। जाहिर है समान नागरिक संहिता उनमें से एक होगी। वैसे अनेक मुस्लिम देशों में एक से अधिक विवाह , तलाक , हलाला , संपत्ति में उत्तराधिकार जैसे अनेक मामलों में बदलाव किया जा चुका है , जिनमें पाकिस्तान भी एक है। भारत में चूंकि मुसलमान वोट बैंक बनकर रह गए हैं इसलिए उनके तुष्टीकरण का खेल चलता रहा। लेकिन उनकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति को सुधारने के दिशा में वे नेता कुछ नहीं करते जो उनके वोट के बलबूते पर राजनीति चलाया करते हैं। मुस्लिम समुदाय को चाहिए कि वह समाज सुधार की प्रक्रिया के प्रति खुले मन से आगे आए। उसे ये देखना और सोचना चाहिए कि जब अनेक इस्लामिक देशों ने सदियों से  प्रचलित रीति - रिवाजों को बदलने में संकोच नहीं किया तब भारत जैसे धर्म निरपेक्ष कहे कहे वाले देश में उसका विरोध करने का अर्थ क्या है ? समान नागरिक संहिता में  प्रस्तावित किसी बात पर ऐतराज होना तो स्वाभाविक है किंतु उसे सिरे से नकार देना  समाज को विकास की राह पर आगे बढ़ने से रोकना ही है। कट्टरपंथी लोग हिंदुओं में भी कम नहीं हैं किंतु उसके बाद भी उनका बहुमत समय की जरूरत के अनुरूप खुद को ढालते रहने के  कारण ही तरक्की की राह पर आगे निकल गया। समान नागरिक संहिता को इस्लाम विरोधी कहकर उसका अंध विरोध करने की मानसिकता त्यागकर मुस्लिम समाज के समझदार लोगों को खुद होकर पर्सनल लॉ में बदलाव करने की पहल करना चाहिए। ऐसा करने से वे उस पराजयबोध से बच जायेंगे जिसके वे इन दिनों शिकार हैं।


 - रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 7 February 2024

हरदा हादसे के जिम्मेदार नौकरशाहों को भी सह अभियुक्त बनाया जाए


म.प्र के हरदा शहर की  पटाखा फैक्ट्री में गत दिवस हुए अग्निकांड में एक दर्जन से ज्यादा मौतों के अलावा सैकड़ों लोगों के घायल होने की खबर है। बारूद के भंडार में आग लगने के बाद धमाकों की आवाज से पूरा शहर दहल उठा। दूर - दूर तक के मकान धमाके में हिल गए। राह चलते लोग भी बारूदी धमाकों के शिकार हुए। अभी मरने वालों की सही  संख्या का पता नहीं चल सका है क्योंकि फैक्ट्री में कार्यरत अनेक मजदूर लापता हैं। मलबा हटाए जाने के बाद ही सही स्थिति सामने आयेगी। पटाखा फैक्ट्री में इस तरह के हादसे होना स्वाभाविक होता है क्योंकि जहां बड़ी मात्रा में बारूद का भंडार हो वहां छोटी सी असावधानी से आग भड़क जाती है। जाहिर है इस व्यवसाय का लाइसेंस देने के पहले  संबंधित सरकारी विभाग अग्निशमन सहित अन्य सुरक्षा प्रबंधों की जांच करते होंगे। उक्त फैक्ट्री के बारे में जो जानकारी आई  उसके अनुसार नियम विरुद्ध कार्य करने के कारण  उसे प्रशासन ने बंद कर दिया किंतु संभागायुक्त ने उक्त आदेश पर स्थगन आदेश जारी करते हुए फैक्ट्री खोलने की अनुमति दे दी। अब जबकि हादसे की खबर देश भर में फैल चुकी है । मुख्यमंत्री से लेकर  पूरा प्रशासन कड़ी कार्रवाई करने की घोषणा कर रहा है । पहले से ही जमानत पर चल रहे फैक्ट्री मालिक को दोबारा गिरफ्तार भी कर लिया गया। घायलों का इलाज हरदा और भोपाल के अस्पतालों में हो रहा है। भुगतान दिवस होने की वजह से बड़ी संख्या में मजदूर हादसे के समय फैक्ट्री में जमा थे। ऐसी आशंका है कि धमाकों में कुछ श्रमिकों का पूरा परिवार ही भस्म हो गया। फैक्ट्री का रिहायशी इलाके में होना भी स्थानीय प्रशासन की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है। मुख्यमंत्री डा.मोहन यादव का ये कहना तो बिलकुल सही है कि दोषियों पर ऐसी कार्रवाई करेंगे कि दोबारा किसी की जुर्रत ऐसी गड़बड़ी करने की न हो। लेकिन हर बड़ी जानलेवा दुर्घटना के बाद दिखाई जाने वाली सख्ती यदि सही समय पर बरती जावे तो उनको रोका जा सकता है। हाल ही में गुना जिले में हुए बस हादसे में काफी संख्या में यात्रियों के मारे जाने के बाद भी मुख्यमंत्री ने परिवहन आयुक्त से लेकर जिले के तमाम अधिकारियों को हटा दिया । जांच शुरू होने के बाद जो तथ्य सामने आए वे प्रशासनिक लापरवाही और भ्रष्टाचार के साथ ही राजनेताओं और नौकरशाहों के  गठजोड़ को उजागर करने वाले थे। दुर्घटनाग्रस्त बस की हालत बेहद खराब थी। उसके बाद भी उसे चलाए जाने की अनुमति दी गई। बस मालिक सत्ताधारी पार्टी के नेता परिवार का होने से वह सम्भव हुआ होगा। उसके बाद पूरे प्रदेश में परिवहन महकमा सक्रिय हुआ। दो - चार दिनों तक जहां देखो वहां व्यवसायिक वाहनों की फिटनेस सहित अन्य  जांच कराने का नाटक हुआ । और उसके बाद सब कुछ ढर्रे पर लौट आया। गत वर्ष जबलपुर के एक निजी अस्पताल  में हुए अग्निकांड में अनेक लोग जान गंवा बैठे थे । उक्त  अस्पताल में एक ही निकासी द्वार  के अलावा आग बुझाने के समुचित इंतजाम नहीं थे। घटना के बाद शहर में फायर आडिट का अभियान चला। अनेक नए अस्पतालों और बहुमंजिला भवनों के निर्माण की अनुमति रोक ली गई। उसके पहले भोपाल के हमीदिया अस्पताल में भी आग लगने की घटना ने पूरे प्रदेश में हलचल मचा दी थी। उसके बाद भी अग्निशमन को लेकर प्रदेश भर में जांच का अभियान चला। लेकिन उसमें कितनी ईमानदारी रही ये हरदा के हादसे से सामने आ गया। बारूद के उपयोग से जुड़े  किसी भी व्यवसाय को रिहायशी इलाके में चलाए जाने की अनुमति देना अपराधिक उदासीनता ही कही जाएगी। उस दृष्टि से संभागायुक्त द्वारा बंद की जा चुकी फैक्ट्री को शुरू करने की अनुमति किस आधार पर दी गई वह सामने आना चाहिए । ऐसे काम केवल दो कारणों से होते हैं  जिनमें पहला राजनीतिक दबाव और दूसरा भ्रष्टाचार ,जो घूसखोरी की शक्ल में होता  है। हरदा  का हादसा एक तमाचा है प्रशासनिक व्यवस्था के निकम्मेपन पर । मुख्यमंत्री डा.यादव ने सत्ता संभालते ही अपने सख्त तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे। गुना बस कांड के बाद हरदा अग्निकांड ने आपदा प्रबंधन की अग्रिम सावधानियों की असलियत का पर्दाफाश कर दिया है। मुख्यमंत्री को  प्रदेश भर के प्रशासनिक अधिकारियों को सख्त हिदायत देना चाहिए कि नियम विरुद्ध यदि इस तरह के व्यवसाय की जानकारी सामने आई तो संबंधित अधिकारी को  बराबर का दोषी माना जाएगा  । हरदा का हादसा हुआ ही इस वजह से कि  रिहायशी  इलाके में नियम विरुद्ध चलाई जा रही  पटाखा फैक्ट्री को सील करने के बाद दोबारा खोलने की अनुमति एक बड़े साहब ने दे दी। इसलिए ऐसे हादसों में उन नौकरशाहों को भी सह अभियुक्त बनाया जाना जरूरी हो गया है जो मौत के ऐसे मंजर पैदा करने में सहायक बनते हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 6 February 2024

मोदी के आक्रामक अंदाज के मुकाबले विपक्ष के पास रणनीति का अभाव


राष्ट्रपति के अभिभाषण के प्रति धन्यवाद प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर साल लंबा भाषण देते हुए विपक्ष पर जोरदार हमले करते हैं। ऐसा ही उन्होंने गत दिवस भी किया जिसमें सरकार की उपलब्धियों के बखान को आगामी लोकसभा चुनाव के  प्रचार के तौर पर देखा जा सकता है । अपनी चिर - परिचित शैली में उन्होंने कांग्रेस पर प्रहार में कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी और विपक्ष पर यहां तक ताना मारा कि अगले चुनाव में वह दर्शक दीर्घा में नजर आएगा। पिछले स्वाधीनता दिवस पर भी उन्होंने कहा था कि आगामी वर्ष भी वे ही लाल किले की प्राचीर पर ध्वजारोहण करेंगे। गत दिवस लोकसभा में उन्होंने वही आत्म विश्वास दोहराते हुए दावा किया कि 2024  में  भाजपा 370 और एनडीए 400 से ज्यादा सीटें जीतेगा। उन्होंने विपक्षी गठबंधन पर भी निशाना साधा। परिवारवाद पर श्री मोदी हमेशा से ही मुखर रहे हैं। लाल किले से दिए भाषण में भी उन्होंने इस पर हमला बोला था। वैसे भी प्रधानमंत्री काफी हौसले वाले इंसान हैं जो जय - पराजय में अपना संतुलन बनाए रखने के साथ ही अवसर को भुनाने में कभी पीछे नहीं रहते। राहुल गांधी की न्याय यात्रा के कारण कांग्रेस उसमें उलझी हुई है। वहीं दूसरी और नीतीश कुमार के अलग होने के अलावा ममता बैनर्जी के तेवरों से विपक्षी गठबंधन में बिखराव के आसार बढ़ रहे हैं । अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल भी कांग्रेस पर अपनी मर्जी थोपने पर अमादा हैं । इसका प्रभाव संसद में भी देखने मिल रहा है। उल्लेखनीय है 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा की पराजय ने मोदी सरकार की वापसी के प्रति आशंका उत्पन्न कर दी थी। लेकिन वह गलत साबित हो गई। उसके विपरीत इस बार उक्त तीनों राज्यों में भाजपा ने धमाकेदार अंदाज में वापसी करते हुए कांग्रेस का मनोबल तोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली है। इसके अलावा इस बार प्रधानमंत्री के पास  उपलब्धियों का लंबा ब्यौरा है। 2014 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने जिन योजनाओं और कार्यक्रमों को प्रारंभ किया था उनके प्रति जनविश्वास बढ़ा है। मोदी की गारंटी नामक  नया नारा  उसी आत्मविश्वास का परिचायक है जिसके बल पर वे 370 और 400 सीटों का दावा कर पा रहे हैं।  22 जनवरी को अयोध्या में निर्मित भव्य राम मंदिर में प्राण - प्रतिष्ठा के अवसर पर पूरे देश में जिस तरह से  हर्षोल्लास नजर आया वह भाजपा के पक्ष में वैसी ही लहर का संकेत दे रहा है जैसी 1984 में कांग्रेस के पक्ष में नजर आई थी । विपक्ष के अधिकांश दल भी इस बात को समझ चुके हैं कि कांग्रेस ने प्राण - प्रतिष्ठा समारोह की उपेक्षा कर बहुत बड़ी गलती कर डाली । और इसीलिए वे उससे छिटकने के संकेत दे रहे हैं। आज खबर आई कि उद्धव ठाकरे भी प्रधानमंत्री के विरुद्ध तीखी बयानबाजी से बचते हुए उनके साथ पुराने संबंधों का हवाला देते हुए सौजन्यता का प्रदर्शन करने लगे हैं। इन सबके कारण प्रधानमंत्री का मनोबल ऊंचा होना स्वाभाविक है। कोरोना काल में अर्थव्यवस्था को जो ग्रहण लगा था वह हट चुका है और भारत की विकास दर पूरी दुनिया को आकर्षित कर रही है। विदेशी मोर्चे पर भी हमारी स्थिति बेहद मजबूत है तथा श्री मोदी विश्व के सबसे लोकप्रिय लोकतांत्रिक शासक के तौर पर स्थापित हो चुके हैं। दुनिया के बड़े देश तक भारत के महत्व को स्वीकारने लगे हैं। सही बात तो ये है कि विपक्ष अपनी धार खोता चला जा रहा है। उसका गठबंधन कागज पर बने तो महीनों बीत गए किंतु न उसका कोई सर्वमान्य नेता है और न ही नीति। सीटों के बंटवारे को लेकर विभिन्न घटक दलों के बीच में जबरदस्त अविश्वास है । नीतीश कुमार के साथ छोड़ देने के बाद गठबंधन में कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो सभी को एकजुट रख सके। मौजूदा  संसद का ये अंतिम सत्र है और इसमें भी विपक्ष सरकार को घेरने में सफल होता नहीं दिखता । ऐसा नहीं है कि उसके पास हमले करने लायक मुद्दे न हों किंतु आपसी समन्वय का अभाव और दिशाहीनता के कारण वह उसका लाभ नहीं  उठा पाता। होना तो ये चाहिए था कि श्री गांधी न्याय यात्रा को विराम देकर संसद में विपक्ष की तरफ से सरकार पर हमले की अगुआई करते। लेकिन उन्होंने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। बहरहाल विपक्ष में व्याप्त अव्यवस्था के बीच प्रधानमंत्री ने अपने चुनाव अभियान को पूरे जोर - शोर से शुरू कर दिया है। वे लगातार राज्यों का दौरा करते हुए विकास की नई योजनाओं की शुरुआत के जरिए मोदी की गारंटी के प्रति भरोसा बढ़ा रहे हैं। वहीं कांग्रेस सहित बाकी विपक्ष अभी तक अपनी रणनीति ही नहीं बना सका। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 5 February 2024

दूसरों को फंसाने फेंके जाल में खुद फंस गए केजरीवाल


दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी मंत्रीमंडलीय साथी आतिशी को नोटिस सौंपने के लिए उनके निवास पर  घंटों इंतजार करना पड़ा। पहले प्रयास में दोनों नेता घर पर नहीं मिले। और जब मिले तो नोटिस देने आए अधिकारियों को खरी - खोटी सुनाते हुए केंद्र सरकार पर आरोपों की झड़ी लगा दी।  इन दोनों ने  सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया था कि भाजपा द्वारा 25 - 25 करोड़ रु. में आम आदमी
पार्टी के विधायकों को खरीदने का प्रयास किया जा रहा है। इसके विरुद्ध भाजपा ने रिपोर्ट दर्ज करवाकर श्री केजरीवाल  और  आतिशी से ये बताने कहा कि विधायकों को खरीदने का प्रस्ताव देने वाला कौन था ? अब जबकि अपराध शाखा द्वारा दोनों को बाकायदा नोटिस भेजकर  विधायकों को 25 करोड़ रु . का प्रस्ताव देने वाले का नाम बताने कहा तब संवैधानिक पद पर विराजमान  नेताओं को अपने आरोप के पक्ष में प्रमाण देना चाहिए। लेकिन ऐसा करने के बजाय वे  केंद्र सरकार और भाजपा पर भड़ास निकालने में जुटे हैं। उनको आज नोटिस का जवाब देना है। इसके पहले शराब घोटाले में श्री केजरीवाल ईडी द्वारा अनेक  समन दिए जाने के बावजूद पूछताछ के लिए उपस्थित नहीं हुए और आए दिन अपनी गिरफ्तारी का शिगूफा छोड़ा करते हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी ईडी के कई समन रद्दी की टोकरी में फेंक दिए किंतु आंख - मिचौली करते रहने के बाद अंततः वे उसके सामने पेश हुए और गिरफ्तार कर लिए गए। हो सकता है यदि वे पहले बुलावे पर ही जाकर अपना बयान देते तब ये नौबत नहीं आती। केजरीवाल जी भी यदि ईडी के अनेक बुलावे ठुकराने के बाद गिरफ्तार किए जाएं तो फिर उनके पास सहानुभूति अर्जित करने का अवसर भी नहीं रहेगा। ऐसे मामलों में एक बात और विचारणीय है कि मुख्यमंत्री और मंत्री पद पर विराजमान व्यक्ति संविधान की रक्षा और उसके पालन की शपथ लेने के उपरांत ही कुर्सी पर बैठता है। ऐसे में किसी वैधानिक जांच एजेंसी द्वारा पूछताछ हेतु बुलाए जाने पर उनका उपस्थित न होना एक दो मर्तबा तो व्यस्तता या अन्य किसी कारण से समझ में आता है , लेकिन छह - आठ समन के बाद भी  अवहेलना करना इस बात का प्रमाण  है कि कानून के प्रति उनके मन में तनिक भी सम्मान नहीं हैं। इन नेताओं को इस बात का जवाब देना चाहिए कि इनके मातहत कार्यरत कोई अधिकारी अथवा कर्मचारी इनके द्वारा बुलाए जाने पर  उपस्थित न हो तो क्या उसे ये बख्श देंगे ? अरविंद और आतिशी ने जब खुले आम अपने विधायकों को खरीदे जाने का आरोप भाजपा पर लगाया तो फिर संबंधित व्यक्ति की पहचान भी उनको स्पष्ट करना चाहिए थी। और फिर 25 करोड़ की राशि साधारण नहीं है अतः उनके द्वारा लगाया  आरोप  बेहद गंभीर है। जब भाजपा ने आरोपों की पुष्टि करवाने के लिए विधिवत कार्रवाई की तब ये उनका कानूनी दायित्व है कि वे उसको सत्य सिद्ध करें या उसका जो भी दंड हो उसको भुगतें। स्मरणीय है सत्ता में आने से पहले आम आदमी पार्टी की ओर से श्री केजरीवाल ने देश के सबसे भ्रष्ट नेताओं की सूची जारी की थी। उस पर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और स्व.अरुण जेटली सहित अनेक लोगों ने  मानहानि का प्रकरण दर्ज करवाया । ऐसा होते ही केजरीवाल जी की सारी हेकड़ी जाती रही और फिर वे उन सभी के सामने लिखित माफीनामा लेकर यह याचना करते दिखाई दिए कि प्रकरण वापिस ले लें । जिन लोगों से उन्होंने माफी मांगी उनमें विक्रम मजीठिया , श्री गडकरी , स्व.जेटली  और स्व. शीला दीक्षित जैसे अनेक दिग्गज रहे। सबसे रोचक बात ये है कि  कपिल सिब्बल से भी अरविंद ने माफी मांगी जो आजकल ऐसे नेताओं के बचाव में खड़े होते हैं। उनके माफीनामे पर  कांग्रेस नेता अजय माकन ने कटाक्ष भी किया था कि केजरीवाल को अपना नाम बदलकर माफीवाल कर लेना चाहिए । आम आदमी पार्टी के संयोजक आजकल उन तमाम नेताओं के साथ गठबंधन में शामिल हो रहे हैं जिन्हें वे भ्रष्टाचार का सिरमौर बताते रहे। हालांकि उनकी समूची राजनीति विरोधभासों और पलायनवाद पर टिकी रही किंतु इस प्रकरण में एक बार फिर उनके समक्ष  मुसीबत आ खड़ी हुई है। भाजपा पर उनकी पार्टी के विधायकों को 25 - 25 करोड़ में खरीदने का प्रस्ताव देने का आरोप  उनके गले में पड़ गया है। यदि उनके पास इसका कोई प्रमाण होता तो निश्चित रूप से वे अपराध शाखा का नोटिस लेने में विलंब नहीं करते और अब तक उन कथित लोगों के नाम सार्वजनिक कर चुके होते जिन्होंने विधायकों को खरीदने की पेशकश की थी। ऐसा लगता दूसरों को  फंसाने के लिए फेंके गए जाल में केजरीवाल एंड कंपनी खुद फंसती जा रही है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 3 February 2024

कांग्रेस न्याय यात्रा में व्यस्त : विपक्षी गठबंधन में सब अस्त व्यस्त


ऐसा लगता है इंडी नामक विपक्षी गठबंधन जंग में उतरने के पहले ही बिखराव की ओर बढ़ रहा है। राहुल गांधी की न्याय यात्रा भी इसे कमजोर करने का कारण बन रही है। अभी तक के संकेत गठबंधन और कांग्रेस दोनों के लिए अशुभ कहे जायेंगे। यात्रा के प. बंगाल में घुसते ही तृणमूल कांग्रेस नेत्री ममता बैनर्जी ने राज्य की सभी लोकसभा सीटों पर अकेले लड़ने की घोषणा कर दी।  वे इस बात से नाराज थीं कि  न्याय यात्रा के पूर्व  उनके आग्रह के बावजूद भी श्री गांधी ने उनसे फोन पर बात नहीं की। गत दिवस  सुश्री बैनर्जी का बयान आ गया कि कांग्रेस लोकसभा की 40  सीटें भी नहीं जीत सकेगी। उन्होंने  चुनौती दी कि यदि उसमें हिम्मत है तो वह भाजपा को वाराणसी और प्रयागराज में परास्त करके दिखाए। उन्होंने ये ताना भी मारा कि वह न जाने किस अहंकार में जी रही है। हालांकि वे काफी  पहले से ही राहुल और  कांग्रेस को अक्षम बता चुकी थीं।  विपक्षी मोर्चा बनने के बाद उन्होंने कांग्रेस से साफ कह दिया कि वे उसके लिए वही दो सीटें छोड़ेगी जिन पर 2019 में वह जीती थी। न्याय यात्रा से उनकी खुन्नस इसलिए भी बढ़ी क्योंकि उसमें वामपंथी शामिल हुए। नीतीश कुमार के पाला बदल लेने के बाद ममता ही इंडी की सबसे बड़ी नेता कही जा सकती हैं जिनका प.बंगाल के अलावा एक दो राज्यों में कुछ असर है। जहां तक बात तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन की है तो वे अपने राज्य के अलावा पांडिचेरी तक ही सिमटे  हैं। एनसीपी के दिग्गज  शरद पवार का करिश्मा भी ढलान पर है। भतीजे अजीत की बगावत के बाद  विपक्षी गठबंधन के बजाय उन्हें अपनी बेटी सुप्रिया सुले के राजनीतिक भविष्य की चिंता सताए जा रही है । कहा तो ये भी जा रहा है कि अजीत के भाजपा में जाने की योजना भी चाचा की  ही तैयार की हुई थी। देर - सवेर अपनी बेटी के  राजनीतिक भविष्य को सुरक्षा चक्र प्रदान करने के लिए वे भी श्री मोदी के मोहपाश में फंस जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। स्मरणीय है कि आज भले ही नीतीश कुमार को पलटूराम और ऐसे ही न जाने कितने विशेषणों से विभूषित किया जा रहा है परंतु राष्ट्रीय राजनीति में शरद पवार काफी पहले से  पाला बदलने और धोखा देने के लिए कुख्यात रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने के लिए अपने राजनीतिक गुरु स्व.बसंत दादा पाटिल की पीठ में छुरा भौंकने में भी उन्होंने शर्म नहीं की। 1999 के लोकसभा चुनाव के पूर्व  सोनिया गांधी के विदेशी मूल को बहाना बनाकर उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा देकर एनसीपी बना ली।   लेकिन कुछ सालों बाद  कांग्रेस के करीब आकर डा.मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री भी बन गए।  इसीलिए वे  पूरी तरह अविश्वसनीय माने जाते हैं। ये सब देखते हुए इंडी की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ाती दिख रही हैं । राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार विपक्षी गठबंधन के तमाम घटक जिस प्रकार अपनी ढपली अपना राग लेकर घूम रहे हैं वह उसके भविष्य को लेकर आशंकित कर रहा है। ममता के  सभी सीटों पर लड़ने के ऐलान के बाद जब राहुल ने सीटों के बंटवारे को लेकर बातचीत चलने जैसी टिप्पणी करते हुए उनकी नाराजगी दूर करना चाहा तो तृणमूल नेत्री ने कांग्रेस को 40 सीटें मिलने की भविष्यवाणी कर दूध में नींबू निचोड़ दिया। महाराष्ट्र में श्री पवार और उद्धव ठाकरे भी कांग्रेस को बड़ा भाई मानने राजी नहीं हो रहे। आम आदमी पार्टी ने पंजाब के बाद हरियाणा में भी अकेले लड़ने की धौंस दिखा दी। 22 जनवरी को अयोध्या स्थित राम मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर समूचे देश में जो स्वस्फूर्त वातावरण निर्मित हुआ उसने कांग्रेस को पिछले पैरों पर धकेल दिया । उक्त आयोजन का आमंत्रण मिलने के बावजूद उसमें शामिल नहीं होने के उसके  निर्णय को राजनीतिक विश्लेषक बहुत बड़ी गलती मान रहे हैं । यद्यपि श्री पवार और ममता सहित ज्यादातर विपक्षी नेता उस दिन अयोध्या नहीं गए किंतु पूरे देश में कांग्रेस जन जिस उत्साह के साथ राम नाम की माला जपते दिखे उसके बाद ये साफ हो गया कि पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता ही नहीं अपितु नेतागण भी राम मंदिर निर्माण के कारण पैदा हुई हिन्दू लहर से भयाक्रांत हैं। आचार्य प्रमोद कृष्णम तो खुले आम पार्टी लाइन के विरुद्ध बोलते जा रहे हैं । और तो  और वे प्रधानमंत्री को अपने एक अयोजन का निमंत्रण पत्र देने उनसे भेंट तक कर आए। चौंकाने वाली बात ये है कि विपक्षी गठबंधन में आ रही दरारों को भरने की फुरसत किसी नेता को नहीं है। नीतीश कुमार इसमें सक्षम थे किंतु वे  खुद ही भाजपा की गोद में जा बैठे। पवार साहेब से अपना घर ही नहीं संभल रहा। जहां तक बात ममता की है तो उनके साथ किसी की पटरी नहीं बैठती। बच रहते हैं मल्लिकार्जुन खरगे तो अव्वल तो उनको कोई भाव देता नहीं है और वैसे भी उनका पूरा ध्यान न्याय यात्रा पर लगे रहने से वे विपक्षी एकता के लिए कुछ नहीं कर पा रहे। यदि कुछ दिन और ऐसा ही चला तब इस गठबंधन के छिन्न - भिन्न होने की आशंकाएं प्रबल होती चली जाएंगी।


- रवीन्द्र वाजपेयी