Friday 23 February 2024

सपा और कांग्रेस का गठबंधन नेताओं के बीच ही सीमित रहने का अंदेशा


आखिरकार  उ.प्र में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच लोकसभा चुनाव के लिए सीटों के बंटवारे का मसला सुलझ ही गया। इसके अनुसार कांग्रेस  17 और  63 पर सपा लड़ेगी । जो जानकारी आई उसके अनुसार राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच पटरी नहीं बैठने के कारण अनिश्चितता बनी हुई थी। अखिलेश ने तो उनकी न्याय यात्रा में शामिल होने तक से  इंकार कर दिया था। लेकिन बात बिगड़ती देख प्रियंका वाड्रा ने श्री यादव से बात की और 21 सीटों की जिद छोड़कर 17 से संतुष्ट होने की पुष्टि कर दी। बताते हैं सपा अध्यक्ष की सांसद पत्नी डिंपल यादव श्रीमती वाड्रा की निकट मित्र हैं। उल्लेखनीय है 2017 के विधानसभा चुनाव में भी अखिलेश और राहुल के बीच सीटों के बंटवारे पर समझौता हुआ था। और तब कांग्रेस ने 100 सीटों पर लड़ने के शर्त स्वीकार कर ली थी। यूपी के दो लड़के नाम से चर्चित उस गठजोड़ के बावजूद भाजपा ने शानदार जीत हासिल की । उस चुनाव के बाद कांग्रेस का जनाधार उ.प्र में और सिकुड़ गया। उसका कारण ये था कि जो 300 विधानसभा सीटें कांग्रेस ने सपा के लिए छोड़ दीं उनमें चुनाव लड़ने के इच्छुक कांग्रेस कार्यकर्ताओं का राजनीतिक भविष्य चौपट हो गया। साथ ही अखिलेश सरकार के दौर में एक जाति विशेष के बढ़ते वर्चस्व के कारण भी कांग्रेस का समर्थक वर्ग नाराज था। परिणामस्वरूप उन 300 सीटों पर पार्टी का कैडर  या तो भाजपा की तरफ चला गया या  निराश होकर घर बैठ गया। इसी तरह कांग्रेस के हिस्से में आईं 100 सीटों पर सपा समर्थकों ने उदासीनता ओढ़ ली। इस प्रकार नेताओं के स्तर पर तो गठजोड़ हो गया और सीटों का बंटवारा भी कर लिया गया किंतु  न तो एक दूसरे के कार्यकर्ताओं में आपसी सामंजस्य  बैठा और न ही प्रतिबद्ध मतदाता ही उस बंटवारे को स्वीकार कर पाए। उस प्रयोग की असफलता के बाद अखिलेश ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बुआ और बबुआ नामक दूसरा प्रयोग किया। उसके अंतर्गत सांप और  नेवला जैसी शत्रुता वाली सपा और बसपा साथ आईं । लेकिन उसमें बसपा को तो लाभ मिला किंतु सपा घाटे में रही। चुनाव के बाद फिर दोनों में दूरी बढ़ गई। और 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने ओमप्रकाश राजभर , स्वामी प्रसाद मौर्य और जयंत चौधरी के साथ गठबंधन करते हुए भाजपा को चुनौती दी। लेकिन पिछली बार से ज्यादा सीटें जीतने के बाद भी योगी सरकार की वापसी नहीं रोकी जा सकी। उसके बाद बिखराव का नया दौर शुरू हुआ जिसके चलते पहले श्री राजभर और बाद में स्वामीप्रसाद सपा से दूर हो गए किंतु सबसे बड़ा झटका लगा जयंत चौधरी द्वारा भाजपा के साथ निकटता कायम करने पर।  उनके दादा चौधरी चरण सिंह को मोदी सरकार द्वारा भारत रत्न दिए जाने के बाद उन्होंने बिना देर लगाए इंडिया गठबंधन से नाता तोड़ लिया।  उसके बाद से अखिलेश के लिए कांग्रेस से समझौता मजबूरी बन गया। यही स्थिति कांग्रेस की भी थी जो उ.प्र के अपने पुश्तैनी गढ़ जीतने लायक भी नहीं बची। सोनिया गांधी के  राज्यसभा सदस्य चुने जाने के बाद रायबरेली में लड़ने योग्य प्रत्याशी पार्टी के पास नहीं है। पहले चर्चा प्रियंका को उतारने की थी लेकिन 2019 में राहुल गांधी को अमेठी में मिली पराजय के कारण गांधी परिवार का आत्मविश्वास डगमगाया हुआ है। ऐसे में सपा और कांग्रेस दोनों के बीच सीटों का बंटवारा होने के बावजूद भाजपा विरोधी मतों को गोलबंद करना मुश्किल है। इसमें सबसे बड़ी बाधा बसपा बनेगी । हालांकि मायावती अब पहले जैसी ताकतवर नहीं रहीं किंतु दलित मतदाताओं का एक वर्ग आज भी उनके आभामंडल से प्रभावित है। अखिलेश यादव के विरुद्ध श्री राजभर और स्वामीप्रसाद तो मुखर थे ही किंतु राज्यसभा चुनाव में जया बच्चन को फिर उम्मीदवार बनाए जाने से अपना दल की विधायक पल्लवी पटेल भी मोर्चा खोलकर बैठ गईं। जयंत चौधरी द्वारा साथ छोड़ देने के बाद पश्चिमी उ.प्र में अखिलेश का गणित पहले ही गड़बड़ा गया था। राम मंदिर से कांग्रेस द्वारा दूरी बनाए जाने के कारण उसका बचा - खुचा आधार भी  खिसक गया है। ऐसे में सपा को उसका साथ कितना लाभान्वित करेगा ये सवाल राजनीतिक विश्लेषकों के मन में घूमने लगा है। सही बात तो ये है कि मुलायम सिंह यादव की मौत के बाद पुराने समाजवादी भी अखिलेश से छिटकने लगे हैं। और फिर योगी सरकार के प्रभावशाली प्रदर्शन के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैश्विक छवि के कारण लोकसभा चुनाव में उ.प्र में भाजपा को रोक पाना असंभव लगता है। 2022 के विधानसभा चुनाव में सरकार नहीं बना पाने के कारण अखिलेश की चमक भी फीकी पड़ी है । उ.प्र की जनता के मन में ये बात बैठ गई  है कि योगी और मोदी की जुगलजोड़ी ने राज्य की तस्वीर बदल दी है।  ऐसे में सपा और कांग्रेस का यह गठबंधन  2017 और 2019 वाली कहानी दोहराने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकेगा।


- रवीन्द्र वाजपेयी

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