Monday 26 February 2024

अपेक्षित समर्थन न मिलने से बिखर रहा किसान आंदोलन


इस बार के किसान आंदोलन में पिछली बार जैसा तीखापन नजर नहीं आ रहा। हरियाणा सरकार के कड़े रुख के कारण पंजाब से निकले जत्थे दिल्ली पहुंचने में सफल नहीं हो सके । रास्ते बंद किए जाने से आम जनता और वाहन चालकों को  भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है । सामान की आवाजाही रुकने से व्यापार को भी नुकसान हो रहा है। पंजाब के बाहर के किसान संगठन भी मैदान में उतरने से बच रहे हैं। विपक्षी नेता लोकसभा चुनाव में व्यस्त हैं। दरअसल जिस तरह से कांग्रेस की तत्कालीन अमरिंदर सरकार ने किसानों को दिल्ली जाकर धरना देने के लिए मदद दी थी ठीक वही  पंजाब की वर्तमान आम आदमी पार्टी सरकार ने किया। इसका कारण ये है कि इस पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान किसानों से सभी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने का वायदा किया था।  जब उसे लगा कि ऐसा करना असंभव होगा तब सुनियोजित तरीके से किसान नेताओं को दिल्ली जाकर आंदोलन करने की समझाइश  दे दी । लेकिन हरियाणा सरकार की सख्ती के कारण किसानों की टोलियां आगे नहीं बढ़ पा रहीं। केंद्र सरकार से जारी बातचीत में एक भी बिंदु पर सहमति नहीं बन सकी। ये बात भी जमकर प्रचारित हो रही है कि यह संपन्न किसानों द्वारा प्रायोजित है। महंगे चौपहिया वाहनों की मौजूदगी से आंदोलन के जमीन से कटे होने की अवधारणा  फैल गई है। देश भर से किसान संगठनों द्वारा दिल्ली कूच जैसा फैसला नहीं किया जा रहा । उल्लेखनीय है पिछला आंदोलन भी पंजाब , उ.प्र और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव के पहले किया गया था जबकि यह लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हो रहा है। आम आदमी पार्टी जरूर आंदोलन को पूरी मदद कर रही है किंतु कांग्रेस और अकाली दल  दूरी बनाए हुए हैं । चूंकि आंदोलनकारी दिल्ली से काफी दूर हैं इसलिए विपक्षी राजनेता भी फोटो सेशन हेतु नहीं आ पा रहे। पिछले आंदोलन में प्रचार का काम देख रहे योगेंद्र यादव भी कटे हुए हैं। राहुल गांधी किसानों के पक्ष में  कुछ न कुछ रोजाना बोलते हैं किंतु कांग्रेस पार्टी की तरफ से आंदोलन में सक्रिय भागीदारी नहीं दिखाई दे रही। वामपंथी संगठन  छद्म रूप से भले ही किसानों के बीच घुसे हों किंतु खुलकर  सामने आने से हिचक रहे हैं। कुल मिलाकर  कहा जा सकता है कि आंदोलन का समय चयन गलत हो गया क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल या उससे जुड़े किसान संगठन इस समय उलझने की मनःस्थिति में नहीं है।  सभी नेता जानते हैं कि किसान संगठनों की  सभी मांगों को मान लेना लगभग असंभव है। जिस स्वामीनाथन रिपोर्ट की चर्चा अक्सर होती है वह डा.मनमोहन सिंह की सरकार के समय ही आ चुकी थी । लेकिन आर्थिक मामलों के बड़े जानकार होने के बाद भी वे एम.एस.पी को कानूनी दर्जा देने से बचते रहे।  मोदी सरकार भी किसानों की आय को दोगुना करने का आश्वासन देती रही किंतु उसने भी एम.एस.पी को वैधानिक स्वरूप देने की मांग को स्वीकार नहीं किया। जिन राज्यों में गैर भाजपा सरकार है वे भी ऐसा करने का साहस नहीं दिखा सकी। इससे ये साबित होता है कि किसानों की जो प्रमुख मांगें हैं उनके प्रति सैद्धांतिक समर्थन तो चौतरफा है किंतु जब उन पर अमल करने की बात उठती है खजाना दिखने लगता है। केंद्र सरकार ने भी यह आकलन कर लिया है कि फसल कटाई नजदीक आने के कारण  साधारण किसान अपना खेत छोड़कर आंदोलन में शामिल होने से रहा और  किराए की भीड़ जमा करना  लंबे समय तक संभव नहीं होगा। लोकसभा चुनाव की तिथियां मार्च के प्रथम सप्ताह में घोषित होने वाली हैं और सभी पार्टियां  व्यूह रचना तैयार करने में व्यस्त हैं। पश्चिमी उ.प्र के अलावा हरियाणा और राजस्थान के जाट समुदाय द्वारा पिछले किसान आंदोलन को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिया गया था । और राकेश टिकैत बड़े किसान नेता के तौर पर उभरे भी किंतु उ.प्र में भाजपा की जीत ने  टिकैत परिवार का दबदबा खत्म कर दिया। हाल ही में जयंत चौधरी के विपक्षी गठबंधन से बाहर निकलने के बाद से जाट बहुल इलाकों में  राजनीतिक समीकरण काफी बदल गए हैं। अब तक जो देखने मिल रहा है उसके मुताबिक मौजूदा आंदोलन पंजाब तक सीमित रह गया है। कुछ लोगों द्वारा जिस प्रकार की देशविरोधी बयानबाजी की गई उसके कारण पंजाब  से ही आंदोलन पर उंगलियां उठने लगी हैं। बार - बार दिल्ली कूच की तारीख आगे बढ़ाए जाने से बड़ी संख्या में आंदोलनकारी अपने ठिकाने पर लौट गए। पूरे परिदृश्य पर नजर डालने से लगता है इस बार का आंदोलन पूरी तैयारी से शुरू नहीं किया गया। इसीलिए वह भटकाव और बिखराव का शिकार हो रहा है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

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