Saturday 17 February 2024

किसान आंदोलन : दोनों पक्षों को लचीला रुख दिखाना चाहिए


किसान आंदोलन एक बार फिर खबरों में है। पंजाब से किसानों के ट्रेक्टर और अन्य वाहन दिल्ली की ओर बढ़ना चाह रहे हैं जिनको हरियाणा पुलिस आगे नहीं बढ़ने दे रही । उनको रोकने के लिए  लाठीचार्ज , अश्रुगैस और रबर की गोलियों जैसे तरीके भी इस्तेमाल हो रहे हैं। किसान नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों के एक दल के बीच वार्ता भी जारी है । जिसमें कुछ बिंदुओं पर सहमति के संकेत भी मिले हैं। हालांकि  किसान नेता राकेश टिकैत अभी तक आंदोलन को दूर से ही समर्थन दे रहे हैं जिससे दिल्ली तक किसानों की टोलियां नहीं पहुंच सकीं। लगता है इस आंदोलन के पहले श्री टिकैत सहित किसानों के अन्य नेताओं को विश्वास में नहीं लिया गया। राजनीतिक पार्टियां भी लोकसभा चुनाव की व्यूह रचना  में व्यस्त हैं।  ऐसे में केंद्र सरकार ऐसा कोई निर्णय लेने से बचना चाहेगी जो भविष्य में समस्या बन जाए।  अन्नदाता जैसे सम्मानजनक संबोधन के साथ ही किसानों के प्रति समाज में हमदर्दी भी है। जिन हालातों में वे काम करते हैं ,  वे निश्चित तौर पर बेहद कठिन  हैं। जब तक फसल का सुरक्षित भंडारण अथवा विक्रय न हो जाए तब तक  उनकी चिंता बनी रहती है। फसल बीमा के साथ ही प्राकृतिक आपदा में हुए नुकसान के मुआवजे की व्यवस्था भी उतनी पुख्ता नहीं है। नौकरशाही की कार्यशैली भी  परेशानी का कारण बनती है। लेकिन किसान जिन मांगों को पूरा करने के लिए दबाव बना रहे हैं वे जस की तस पूरी करना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एम.एस.पी (न्यूनतम समर्थन मूल्य ) को कानूनी रूप देने का आश्वासन दे डाला किंतु दस साल तक डा.मनमोहन सिंह की सरकार रहने के बावजूद श्री गांधी ने उक्त व्यवस्था क्यों नहीं करवाई इसका उत्तर भी मिलना चाहिए। केंद्र सरकार समय - समय पर एम.एस.पी में वृद्धि करती  है। उसके अलावा राज्य सरकारें बोनस आदि जोड़कर उसे और बढ़ा देती हैं। लेकिन समर्थन मूल्य कुछ फसलों पर ही है जबकि किसान नेता चाहते हैं समूचे कृषि उत्पादनों के लिए एम.एस.पी तय की जाए। और सरकार के अलावा बाजार में व्यापारी भी उससे कम पर खरीदे तो उसे दंडित किया जाए। इसके अलावा वृद्ध किसानों की पेंशन जैसी कुछ मांगें भी हैं। इन सबको स्वीकार करने पर केंद्र और राज्य सरकारों के कंधों पर जो आर्थिक बोझ आएगा वह आज के हालातों में तो सहने योग्य नहीं हैं । हालांकि एम.एस.पी का उद्देश्य किसानों को उत्पादन का उचित दाम दिलवाना है। जिसका लाभ भी उन्हें होता है। लेकिन उसको कानूनी शक्ल देकर निजी क्षेत्र को भी उसके लिए बाध्य किया जाए ये न तो सैद्धांतिक दृष्टि से उचित होगा और न ही व्यवहारिक। पिछले आंदोलन के बाद सरकार ने इसके लिए समिति भी बनाई थी और गत दिवस हुई बातचीत में भी इसी दिशा में विचार हुआ किंतु समूचे कृषि उत्पादनों को एम.एस.पी के अंतर्गत लाने और उसे कानून का जामा पहनाने जैसी मांग मान लेना किसी भी सरकार के बस में नहीं है। लोकसभा चुनाव  के कारण हो सकता है केंद्र सरकार नर्म रुख दिखाते हुए किसानों को कुछ आश्वासन देकर आंदोलन को खत्म करवा दे किंतु वह ऐसा कुछ भी  करने से बचेगी जो भविष्य में सिरदर्द बन जाए। हालांकि , जो किसान संगठन आंदोलन में शामिल हैं उनकी प्रामाणिकता को लेकर भी तरह - तरह की बातें सुनने में आ रही हैं। जिनमें सबसे प्रमुख तो ये है कि सही मायने में जिसे किसान कहा जाता है उसकी मौजूदगी इस आंदोलन में बेहद कम है। लेकिन आर्थिक तौर पर सम्पन्न किसान की बात की भी अनसुना नहीं किया जा सकता।  दूसरा पक्ष ये भी है कि राजनीतिक दलों द्वारा किसान आंदोलन को हवा देने के कारण इसका स्वरूप बिगड़ जाता है। पिछले आंदोलन में खालिस्तानी तत्व भी उसमें घुस आए।  एक बात और ये भी है कि किसान आंदोलन चुनाव के समय ही क्यों होता है। पिछली बार उ.प्र , उत्तराखंड और पंजाब में चुनाव होना थे। चुनाव हो जाने के बाद आंदोलन भी ठंडा पड़ गया था। इस बार लोकसभा चुनाव के पहले किसान फिर सड़कों पर उतरे हैं। उनके तेवर भी पिछली बार जैसे ही हैं किंतु अब तक वैसा समर्थन नहीं मिल सका ,जैसा उस समय दिखाई दिया था । इसका कारण उ.प्र और उत्तराखंड के बाद म.प्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली जबर्दस्त जीत के अलावा राजनीतिक नेताओं का लोकसभा चुनाव के तैयारियों में जुटना भी है। उम्मीद है कि किसान नेताओं और केंद्र सरकार के बीच हो रही वार्ता में कुछ न कुछ समाधान निकल ही आएगा लेकिन उसके लिए दोनों पक्षों को लचीलापन दिखाना होगा। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

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