Thursday 15 February 2024

इलेक्टोरल बॉन्ड का विकल्प न होने से काले धन में चंदा बढ़ेगा



सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में प्रारंभ की गई इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था को असंवैधानिक निरूपित करते हुए उस पर तत्काल रोक लगा दी। इसके साथ ही अब तक इस माध्यम से विभिन्न राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा देने वालों का नाम उजागर किए जाने का आदेश भी भारतीय स्टेट बैंक को दिया। अपने फैसले में न्यायालय ने इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था को इसलिए असंवैधानिक माना क्योंकि उसके लिए अधिकृत स्टेट बैंक , बॉन्ड खरीदने वाले की जानकारी होते हुए भी उसे उजागर करने के लिए बाध्य नहीं था जो सूचना के अधिकार के कानून का उल्लंघन है। अदालत का कहना है कि चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखने से पारदर्शिता नहीं रहती और स्वार्थों का आदान - प्रदान भी स्वाभाविक रूप से होता है। इस बारे में केंद्र सरकार की दलील मुख्य रूप से ये थी कि इस व्यवस्था के कारण राजनीतिक दलों को काले धन से चंदा मिलने पर रोक लगी । वहीं चंदा देने वाले की पहचान गोपनीय रखे जाने का उद्देश्य उसे संभावित राजनीतिक प्रतिशोध से बचाना था। इस योजना के तहत अब तक 11723 करोड़ रु.चंदा मिला । इसका लगभग 55 प्रतिशत भाजपा को मिलने से बाकी राजनीतिक दल भन्नाए हुए थे। चूंकि सभी पार्टियों को अपना हिसाब - किताब चुनाव आयोग में देना पड़ता है इसीलिए उनको बॉन्ड के जरिए प्राप्त चंदे की जो जानकारी मिली उसके मुताबिक कांग्रेस को जहां 1123 करोड़ वहीं तृणमूल कांग्रेस को उससे थोड़ा कम अर्थात 1092 करोड़ रु. मिले । बीजू जनता दल को 774 करोड़, द्रमुक को 616 करोड़ , बीआरएस को 912 करोड़ , वाई.एस.आर कांग्रेस को 382 करोड़ , तेलुगु देशम को 146 करोड़ के अलावा अन्य दलों को भी 372 करोड़ रु. इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिले। इससे ये स्पष्ट है कि बॉन्ड का विरोध करने वाली पार्टियों ने भी उसके माध्यम से चंदा हासिल करने से इंकार नहीं किया । 10 वर्षों में भाजपा राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस से काफी आगे निकल गई और केंद्र में लगातार दूसरी बार सत्ता में आने से उसका प्रभुत्व भी बढ़ा। जाहिर है ऐसे में चंदा देने वाले आधे से ज्यादा दान दाता उसकी तरफ आकर्षित हो गए । लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि तृणमूल कांग्रेस को बॉन्ड से मिला चंदा कांग्रेस के लगभग बराबर है। कांग्रेस के पास उक्त अवधि में कुछ छोटे राज्यों में ही सत्ता थी। इसी तरह तेलंगाना जैसे छोटे राज्य में सत्तासीन रही बी.आर.एस को भी 912 करोड़ चंदा मिलना चौंकाता है। विभिन्न दलों का जो विवरण सामने आया उसने स्पष्ट कर दिया कि चंदा देने वाले विचारधारा से प्रेरित होकर नहीं अपितु स्वार्थों के कारण चंदा देते हैं। राजनीतिक दबाव तो काम करते ही हैं। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय औचित्य की कसौटी पर उचित प्रतीत होता है । लेकिन न्यायालय ने ऐसे समय फैसला सुनाया जब लोकसभा चुनाव एकदम करीब आ चुके हैं और सरकार के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था करना भी इतनी जल्दी न तो संभव है और न ही उचित। ऐसे में चुनाव के समय एकत्र किए जाने वाले चंदे में काले धन का उपयोग खुलकर होगा । सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी ऐतराज किया कि इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने के लिए किसी भी कंपनी का लाभ में होना जरूरी नहीं और घाटे में चलने के बावजूद वे बॉन्ड के जरिए चंदा दे सकती थीं। कुछ और विसंगतियों पर भी टिप्पणियां की गईं हैं किंतु मुख्य आपत्ति चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखने पर ही रही। अब सवाल ये है कि राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले क्या बिना किसी भय के वैसा कर सकेंगे ? दिग्गज उद्योगपतियों को भले छोड़ दें किंतु मध्यम और लघु श्रेणी के उद्योगपति और व्यवसायी अपनी पहचान उजागर करने का साहस शायद ही प्रदर्शित कर सके। इस प्रकार बात फिर काले धन पर आकर टिक गई क्योंकि चुनाव और चंदे का चोली दामन का साथ है। बिना उसके चुनाव लड़ना लगभग असंभव है। ऐसे में उक्त फैसले के बाद एक शून्य की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इसलिए लोकसभा चुनाव के लिए बटोरे जाने वाले चंदे में काले धन की बड़ी मात्रा होने से इंकार नहीं किया जा सकता। इस फैसले के बाद एक देश एक चुनाव की जरूरत और बढ़ गई है क्योंकि कभी न रुकने वाले चुनाव रूपी सिलसिले ने भ्रष्टाचार और नीतिगत अस्थिरता के साथ ही क्षेत्रीय भावनाओं को बढ़ावा दिया है जिसके कारण संघीय ढांचे पर भी संकट उठ खड़ा होता है। 

- रवीन्द्र वाजपेयी 

No comments:

Post a Comment