Monday 31 December 2018

क्योंकि वोट मंत्रियों को दिया है अधिकारियों को नहीं

मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ गत दिवस अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र छिंदवाड़ा गए। प्रदेश की सत्ता में आने के बाद ये उनका पहला दौरा था इसलिए समूचे क्षेत्र में जबर्दस्त उत्साह दिखाई दिया। बतौर सांसद श्री नाथ ने छिंदवाड़ा के विकास हेतु बहुत काम किये। यही वजह है कि अब मप्र में विकास के छिंदवाड़ा मॉडल की चर्चा सर्वत्र चल पड़ी है। लेकिन मुख्यमंत्री ने उसकी तारीफ  करने की बजाय ये घोषणा कर डाली कि अब नई योजनाओं का एलान मंत्रीगण नहीं अपितु अधिकारी किया करेंगे जिससे कि जनता उनसे उसके बारे में पूछ सके। लगे हाथ उन्होंने वहां के कलेक्टर से कुछ घोषणाएं भी करवा दीं जिन्हें पूरा करने की समय सीमा भी जनता को बताई गईं। मुख्यमंत्री इस नई कार्यशैली के जरिये प्रशासन का विकेंद्रीकरण करना चाह रहे हैं या जिम्मेदारी से अपने और अपने मंत्रियों को बचाना चाह रहे हैं ये तो भविष्य में स्पष्ट होगा लेकिन ऐसा करने से सरकार में बैठे लोग अपनी जिम्मेदारियों से बच जाएंगे ये सोचना सही नहीं होगा। नौकरशाही को सीधे जनता के प्रति जवाबदेह बनाकर उन पर दबाव डालना सैद्धांतिक तौर पर तो सही लग सकता है किंतु इसका दुष्परिणाम ये होगा कि अधिकारी स्वेच्छाचारी बन जाएंगे। किसी घोषणा को समय पर पूरा  करने का दायित्व अधिकारी पर डालने की बात तो समझ में आती है लेकिन किसी क्षेत्र की योजना के बारे में निर्णय करने की छूट नौकरशाही को दिए जाने का अर्थ ये भी निकाला जा सकता है कि मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रियों का कद शुरुवात में ही घटा  दिया है। मसलन जिन कलेक्टर ने गत दिवस मुख्यमंत्री के जिले के लिए  कुछ घोषणाएं करते हुए उन पर अमल होने की समय सीमा भी बताई अगर आने वाले दिनों में उनका तबादला या पदोन्नति के चलते वे अन्य स्थान पर चले जाएं और तब तक उस योजना का काम पूरा न हो सका तब जिम्मेदारी का निर्धारण किस प्रकार होगा इसका उत्तर किसी के पास नहीं है क्योंकि जो भी नया अधिकारी आएगा वह पिछले द्वारा छोड़े गए अधूरे काम का बोझ अपने सिर पर लेने से बचेगा। इससे भी बढ़कर तो ये है कि अधिकारी किसी स्थान पर कुछ बरस के लिए नियुक्त होते हैं। उनको क्षेत्रीय जरूरतों और समस्याओं की जमीनी सच्चाई ज्ञात हो ये आसान नहीं होता। ऐसे में जनप्रतिनिधि को दरकिनार करते हुए नौकरशाहों के हाथ में निर्णय प्रक्रिया छोड़ देना टकराव का कारण बन सकता है। भाजपा खेमे में एक आम चर्चा है कि प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाकर निर्देश दिया कि वे मंत्रियों के गलत आदेशों का पालन न करें। वैसा कहते समय उनके मन में शायद ये भाव रहा होगा कि इससे अधिकारी दबावमुक्त रहकर सही कार्य करने के प्रति प्रेरित होँगे किन्तु उसकी वजह से मंत्रियों की वजनदारी नौकरशाहों की नजर में घट गई जिसका असर ये हुआ कि केन्द्र सरकार  के कई अच्छे निर्णयों पर अमल करवाने में मंत्री अपने आधिकारियों पर अपेक्षित दबाव नहीं डाल सके। कमलनाथ बहुत ही व्यवहारिक और परिणाममूलक राजनेता माने जाते हैं। ये भी सही है कि चाहे प्रदेश में उनके अनुकूल सत्ता रही या प्रतिकूल, उनके कोई भी काम इसलिए नहीं रुकते थे क्योंकि वे प्रशासनिक अधिकारियों से निजी तौर पर अच्छे रिश्ते बनाये रखते थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद यदि उन्हें लग रहा है कि उसी तरीके का इस्तेमाल करते हुए वे प्रदेश का शासन चला ले जाएंगे तो वे कहीं न कहीं खुशफहमी के शिकार लगते हैं। लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधि चाहे वह पंच, पार्षद, विधायक, सांसद या मंत्री हो, जनता के प्रति असली जवाबदेही उसी की बनती है क्योंकि चुनाव के समय मतदाताओं से वायदे वही करता है कलेक्टर या और कोई अधिकारी नहीं। मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद कोई जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के लिए किसी योजना को लागू करवाने के लिए नौकरशाह से कहे और जवाब में उसे सुनने मिले कि उसने तो पहले ही हुई दूसरी योजना बना  रखी है तब चुने हुए नेताजी क्या करेंगे इस सवाल का उत्तर खोजना भी जरूरी होगा। प्रदेश के बजट में घोषित होने वाली योजनाओं के क्रियान्वयन का दायित्व भी प्राथमिक रूप से तो सरकार का ही होता है। ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा जिस नई कार्य संस्कृति का एलान किया गया वह प्रशासनिक अराजकता और अव्यवस्था का कारण बन जाये तो आश्चर्य नहीं होगा। उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने एक मर्तबा कहा था कि नौकरशाही वह घोड़ा है जो अपने सवार की मर्जी से चलता है बशर्ते उसमें लगाम खींचने की क्षमता हो। मप्र की पिछली सरकार को लेकर भाजपाइयों को भी ये शिकायत बनी रही कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चंद वरिष्ठ नौकरशाहों की चौकड़ी में घिरे रहते थे। जिसके कारण अच्छी योजनाएं और कार्यक्रम भी सही ढंग से लागू नहीं हो सके। किसानों के लिए किए गये अनेक एलान जमीन पर इसलिए नहीं उतर सके क्योंकि भ्रष्ट सरकारी अमले ने बीच में ही भांजी मार दी। कांग्रेस विपक्ष में रहते हुए प्रशासनिक भ्रष्टाचार को लेकर शिवराज सरकार को घेरती रही किन्तु कमलनाथ ने जिस अंदाज में योजनाओं की घोषणा और अमल का दारोमदार अधिकारियों पर छोड़ दिया उससे लगता है कि सत्ता बदलने के बाद भी व्यवस्था बदलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे भी मप्र में नौकरशाही का शासन-प्रशासन पर वर्चस्व काफी पुराना है। अर्जुन सिंह के समय से ही कुछ अधिकारियों को सर्वशक्तिमान बनाकर सरकार चलाने का सिलसिला चल पड़ा जो आगे के दौर में भी यथावत रहा। मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र कुछ अधिकारी पूरी सरकार के पर्यायवाची बने रहे। यही वजह है कि सरकार बदलते ही प्रशासनिक सर्जरी जैसा काम किया जाता है। जबकि शासकीय अधिकारी किसी राजनीतिक दल के नहीं होते। कमलनाथ ने अपना मंत्रीमंडल गठित करते समय सभी 28 मंत्रियो को कैबिनेट दर्जा देकर ये संकेत दिया था कि वे मंत्रियों को ज्यादा ताकतवर बनाएंगे लेकिन छिंदवाड़ा में की गई घोषणा के बाद मंत्रियों का महत्व एक झटके में कम कर दिया गया। इसके बाद यदि पहले से मदमस्त नौकरशाही और भी निरंकुश हो जाये तो वह नितांत स्वाभाविक होगा। और यदि सरकारी योजनाओं की घोषणा और उस पर अमल करने का काम अधिकारी वर्ग को ही करना हो तब इतने सारे मंत्रियों की भी क्या जरूरत है जिनके अनुभव और शैक्षणिक योग्यता पर हर समय सवाल उठा करते हैं। कमलनाथ की जो भी सोच हो किन्तु उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि जनता अधिकारियों से नहीं बल्कि उनसे और मंत्रियों से सवाल पूछेगी क्योंकि उसने वोट भी तो उन्हीं को दिया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 29 December 2018

अभिव्यक्ति की आजादी : अलग - अलग मापदंड

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर बनी फिल्म द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर को लेकर विवाद न हुआ होता यदि भाजपा के अधिकृत ट्विटर पर उसका प्रचार न किया जाता और उससे भी बढ़कर अनुपम खेर ने उसमें डॉ. सिंह की भूमिका न निभाई होती। उल्लेखनीय है अनुपम की पत्नी किरण खेर चंडीगढ़ से भाजपा की लोकसभा सदस्य हैं। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा ने इस फिल्म को जानबूझकर प्रायोजित किया है। निर्माता के भी भाजपा से सम्बन्ध बताए जा रहे हैं। ये भी कहा जा रहा है कि फिल्म के जरिये लोकसभा चुनाव के पहले पूर्व प्रधानमंत्री के साथ गांधी परिवार की छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है।  कांग्रेस ने मांग की है कि चूंकि फिल्म डॉ. सिंह के व्यक्तिगत जीवन पर आधारित है इसलिए प्रदर्शित किए जाने के पहले वह उसे दिखाई जाए। दूसरी तरफ भाजपा और अनुपम खेर ने कांग्रेस को राहुल गांधी के उस ट्वीट की याद दिलवाई जिसमें उन्होंने अभिव्यक्ति की आज़ादी की पुरजोर वकालत की थी। अतीत में अनेक फिल्मों पर रोक लगाने और दबाव डालकर उनमें बदलाव करने की लिए भी कांग्रेस पर निशाने साधे गए। यद्यपि मप्र सहित कांग्रेस शासित राज्यों में डॉ सिंह संबंधी फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबंध की आशंका से इनकार किया गया है लेकिन पार्टी की छात्र इकाई एनएसयूआई ने भोपाल सहित कई शहरों में  सिनेमा मालिकों को फिल्म का प्रदर्शन नहीं करने कहा है। अनुपम खेर ने इस बीच ये बयान भी दिया है कि जितना विरोध होगा फिल्म उतनी ही चलेगी। आगे क्या होगा ये फिलहाल कह पाना मुश्किल है। यद्यपि ये बात सही है कि विवादास्पद होने वाली फिल्मों के प्रदर्शन से पहले होने वाला प्रचार उनकी लोकप्रियता की गारंटी नहीं होता। अतीत में कई फिल्में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी अनेक फिल्में विवाद में फंसी। उनमें से कुछ को तो टिकिट खिड़की पर अच्छी सफलता मिली किन्तु कुछ जमकर पिटीं भी। जोधा अकबर और पद्मावत दोनों का उदाहरण सामने है। दोनों को लेकर जबर्दस्त विरोध हुआ। फसाद भी देखने मिले। निर्माता ने दबाव में आकर कुछ सुधार और बदलाव भी कथानक में किये। पद्मावत का तो पूर्व नाम पद्मावती तक बदला गया। जोधा अकबर को पेक्षित सफलता नहीं मिल सकी किन्तु पद्मावत ने जमकर कमाई की। पिछले कुछ वर्षों में फिल्म उद्योग में लीक से हटकर चर्चित हस्तियों के निजी जीवन पर फिल्में बनने लगी हैं। कुछ साल पहले बनी मणिरत्नम की फिल्म गुरु स्व. धीरुभाई अम्बानी पर आधारित मानी गई जबकि बीते साल अभिनेता संजय दत्त पर बनी संजू ने खूब कारोबार किया। सचिन तेंदुलकर, महिंदर सिंह धोनी पर भी फिल्में बन चुकी है। सरकार नामक फिल्म के बारे में कहा गया कि वह शिवसेना संस्थापक बालासाहेब ठाकरे के जीवन पर आधारित थी लेकिन शीघ्र ही ठाकरे नामक फिल्म आने वाली है जो वाकई बालासाहेब पर ही बनाई गई है। ऐतिहासिक तथा पौराणिक घटनाओं और चरित्रों पर तो शुरू से ही फिल्में बनती रहीं जिनमें वास्तविकता के साथ कल्पना पर आधारित कथानक भी जोड़ा गया। विदेशी निर्माता द्वारा बनाई गई गांधी फिल्म तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई। उसमें  गांधी जी की भूमिका तो विदेशी कलाकार ने निभाई थी जबकि कस्तूरबा, पं नेहरू और अन्य कई महत्वपूर्ण चरित्रों को भारतीय कलाकारों द्वारा अभिनीत किया गया था। आपातकाल के दौरान गुलजार की फिल्म आँधी को स्व. इंदिरा गांधी और उनके पति फिरोज गांधी के निजी जीवन से जुड़ी माना गया था। उस आधार पर यदि डॉ. मनमोहन सिंह पर फिल्म बनी तो उसे सहज रूप में लिया जाना चाहिए किन्तु ये बात भी सही है कि किसी जीवित व्यक्ति पर फिल्म बनते समय सावधानी बरतना जरूरी है। कहा जा रहा है कि डॉ. सिंह के प्रेस सलाहकार रहे संजय बारू द्वारा उन पर लिखी पुस्तक इस फिल्म का आधार है किन्तु  फिल्मांकन में पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में कोई आपत्तिजनक या तथ्यहीन बात है तो उसका विरोध स्वाभाविक रूप से होगा। इस संबंध में उल्लेखनीय बात ये है कि मनमोहन सिंह जी काफी अंतर्मुखी और कम बोलने वाले व्यक्ति हैं। उनके मुंह से कभी किसी के लिए कोई तीखी बात शायद ही किसी ने सुनी हो। बहरहाल बतौर प्रधानमंत्री उनकी चुप्पी और कार्यशैली पर सवाल उठते रहे। ये कहना काफी हद तक सही है कि उन्हें स्वतंत्र होकर काम करने का अवसर नहीं मिला। गांधी परिवार के रिमोट कंट्रोल पर काम करने की तोहमत भी उन पर लगती रही जिसका प्रतिवाद उन्होंने कभी नहीं किया। सन्दर्भित फिल्म का शीर्षक उस दृष्टि से   गलत नहीं है क्योंकि जिन नाटकीय परिस्थिति में डॉ. सिंह प्रधानमंत्री बने वे किसी सियासी दुर्घटना से कम नहीं थीं। लेकिन फिल्म में यदि उनका चरित्र हनन अथवा उपहास किया गया है तो वह काबिले एतराज है क्योंकि पश्चिमी देशों में राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रति जिस तरह का मजाकिया रवैया अपनाया जाता है वह हमारे देश में अटपटा लगता है। हालांकि हाल के कुछ वर्षों में ये मर्यादा टूटती लग रही है तथा दशकों पहले दिवंगत हुए नेताओं तक के निजी जीवन को लेकर अनकही और अनसुनी बातें सामने आने लगीं। यहां तक कि महात्मा गांधी द्वारा किये गए ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को लेकर भी अनेक किस्से सामने आए। समाज की सोच में आए खुलेपन का असर अब चर्चित और सम्मानीय हस्तियों के बारे में भी होने लगा है। उस लिहाज से द एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर का विरोध सही नहीं है लेकिन दूसरी तरफ  ये भी सही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वछन्दता बनने की छूट  भी नहीं दी जानी चाहिए वरना राजनीति की गंदगी अन्यत्र भी फैल जाएगी। हालांकि इस विवाद का दूसरा पहलू भी है। जयपुर फेस्टिवल जैसे आयोजनों में कही जाने वाली तमाम बातें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की नाम पर स्वीकार्य मानी जाती हैं लेकिन प्रगतिशील तबका तसलीमा नसरीन को लेकर दोहरा रवैया अपनाने से भी बाज नहीं आता। कन्हैया कुमार के समर्थन में जेएनयू जाने वाले राहुल गांधी जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थन करते हैं तब वह किस संदर्भ में होती है। कहने का आशय ये है कि अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सबके अपने मापदंड हैं। यदि हम किसी की बारे में कुछ भी कहें तो वह बोलने की आज़ादी और दूसरा हमारे बारे में वैसा ही कहे तो उस पर एतराज करने जैसा विरोधाभास हमारा चरित्र बन गया है। डॉ. मनमोहन सिंह पर बनी फिल्म के कथानक को लेकर उठाई जा रहीं आपत्तियां कितनी जायज हैं ये तो फिल्म देखकर ही पता चलेगा किन्तु कांग्रेस द्वारा जवाब में नरेन्द्र मोदी पर फिल्म बनाने का धमकीनुमा संकेत भविष्य की राजनीति का एहसास करवा रहा है। लगता है दक्षिण भारत की राजनीति की तरह अब दिल्ली की सियासत पर भी फिल्मी रंग चढऩे वाला है। वैसे संचार क्रान्ति के इस दौर में जब इंटरनेट और यू ट्यूब पर धड़ल्ले से फिल्में दिखाई जा रही हों तब वह सिनेमाघरों में दिखाई जाए या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 28 December 2018

सियासत में उलझकर रह गया तीन तलाक


जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ। कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने बहिर्गमन करते हुए मतदान में हिस्सा नहीं लिया जिससे कि तीन तलाक पर रोक लगाने सम्बन्धी विधेयक लोकसभा में भारी बहुमत से पारित हो गया। विपक्ष को तीन तलाक़ देने वाले पति को तीन वर्ष की सजा के प्रावधान पर एतराज है। उसका तर्क है कि चूंकि कानून बनने पर तीन तलाक कहने मात्र से विवाह विच्छेद नहीं होगा इसलिये पति के जेल चले जाने पर पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण की व्यवस्था कौन करेगा ? वैसे प्रश्न गैर वाजिब भी नहीं है? विपक्ष ने कुछ और मुद्दों पर भी अपनी आपत्तियां दर्ज करवाते हुए विधेयक संसद की सिलेक्ट कमेटी के विचारार्थ भेजने की मांग भी उठाई जिसे सरकार ने नामंजूर करते हुए मतदान पर जोर दिया और फिर  विपक्ष की तकरीबन अनुपस्थिति में तीन तलाक़ विरोधी विधेयक एक बार फिर लोकसभा से पारित हो गया। स्मरणीय है एक बार पहले भी लोकसभा इसे पारित कर चुकी है। लेकिन राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत होने से उच्च सदन ने संशोधनों के साथ उसे वापिस कर दिया। उसके बाद केंद्र सरकार  ने अध्यादेश में जरिये उसे दंडनीय अपराध बना दिया। लेकिन उसे कानून बनाने हेतु संसद की मंजूरी जरूरी है। हालांकि लोकसभा ने उसे थोड़े से रद्दोबदल के साथ फिर  से पारित कर दिया लेकिन विपक्ष के साथ चूंकि सरकार का तालमेल नहीं बैठा इसलिए राज्यसभा में विधेयक के फिर  लटकने की आशंका बनी हुई है। मुस्लिम महिलाओं के जीवन को तबाह करने वाली तलाक प्रथा को अनेक इस्लामिक देशों ने भी ख़त्म कर दिया जिनमें पाकिस्तान भी है। लेकिन हमारे देश में मुसलमान चूंकि वोट बैंक का हिस्सा हैं इसलिए उन्हें नाराज करने से राजनीतिक पार्टियां डरती हैं। भाजपा इस विधेयक को पारित करवाकर एक तीर से दो निशाने साधना चाह रही है। उसे पता है कि मुस्लिम समाज कुछ अपवाद छोड़कर उसके लिए वोट नहीं करता। इसलिए उसने मुस्लिम महिलाओं को आकर्षित करने की कोशिश की है। कहते हैं उप्र के विधानसभा चुनाव में भाजपा की बंपर जीत में मुस्लिम महिलाओं का गुपचुप समर्थन भी एक कारण था। यद्यपि हाल में सम्पन्न कुछ राज्यों के विधानसाभा चुनाव में ऐसा नहीं लगा। दूसरी बात ये है ऐसा करते हुए भाजपा हिन्दू समाज को ये आभास कराना चाहती है कि वह मुस्लिम तुष्टीकरण से दूर है। उधर कांग्रेस के साथ अन्य विपक्षी पार्टियां तीन तलाक को अमानवीय मानते हुए इस कुरीति की शिकार मुस्लिम महिलाओं के प्रति हमदर्दी रखने के बाद भी मुस्लिम पुरुषों की नाराजगी से बचना चाहती हैं। उन्हें पता है कि इस  समाज में महिलाओं के बीच अशिक्षा होने से पुरुषों का वर्चस्व काफी अधिक है। राजनीतिक लिहाज से भी मुस्लिम पुरुष अपेक्षाकृत ज्यादा जागरूक होते हैं। ऐसे में विपक्ष राज्यसभा में भी इस विधेयक को पारित नहीं होने देगा। वैसे और कोई समय होता तब शायद अभी तक उक्त विधेयक दोनों सदनों की मंजूरी पाने के बाद  कानून बन चुका होता। लेकिन विपक्ष जानता है कि भाजपा इसका चुनावी फायदा उठाना चाहती है। लोकसभा चुनाव में इसका लाभ उसे न मिल सके इसलिए वह भी अड़ंगा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। इस प्रकार एक अच्छी पहल सियासत में उलझकर रह गई है। किसी सांसद का ये कहना सत्य के काफी निकट है कि तीन तलाक़ भी सती प्रथा की तरह से एक बुराई है जो आज के युग में असहनीय लगती है क्योंकि इसकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के आत्मसम्मान और भविष्य दोनों पर खतरा मंडराता रहता है। इस्लामिक परम्पराओं के कई जानकारों का भी मानना है कि तीन तलाक का जिस बेरहमी से दुरुपयोग होता है वह अमानवीय है। इसकी वजह से हजारों महिलाएं नारकीय यातनाएं झेलने मजबूर हो गई। उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहद दर्दनाक है। उल्लेखनीय बात ये है कि केंद्र सरकार ने तीन तलाक़ को रोकने सम्बन्धी जो कानून बनाने की पहल की उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था। वह भी मुस्लिम महिलाओं की याचिका पर ही। ये सम्भवत: पहली बार हुआ होगा कि तीन तलाक़ से पीडि़त मुस्लिम महिलाओं ने खुलकर समाचार  माध्यमों में अपनी पीड़ा व्यक्त करने का साहस दिखाया। टीवी पर होने वाली बहसों में वे खुलकर मुल्ला-मौलवियों का सामना करती दिखाई दीं। सुशिक्षित मुस्लिम युवतियां भी इस मुद्दे पर सरकार के साथ खड़ी हुईं। तीन तलाक के साथ ही हलाला जैसी घिनौनी रीति भी सार्वजनिक विमर्श का विषय बनी वरना इसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते थे। गत दिवस लोकसभा में एनसीपी सांसद और शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने सरकार को इस बात पर घेरा कि वह जितनी जल्दबाजी तीन तलाक़ के विरूद्ध दिखा रही है उतनी संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण हेतु क्यों नहीं दिखाती? जहां तक बात सरकार की है तो वह सर्वोच्च न्यायालय की मंशानुरूप काम कर रही है जिस पर असदुद्दीन ओवैसी का तर्क था कि भाजपा जब सबरीमाला मंदिर मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने राजी नहीं है तब वह तीन तलाक़ को लेकर मुस्लिम धर्म में न्यायालयीन दखल के समर्थन में क्यों खड़ी हुई है? सवाल और भी हैं। मोदी सरकार के सामने समस्या ये है कि वह तीन तलाक को रोकने सम्बंधी अध्यादेश ला चुकी है जिसे संसद से पारित करवाना जरूरी है वरना छह महीने बाद वह बेकार हो जाएगा। इस पर हिन्दू समाज के भीतर से भी ये कटाक्ष हो रहे हैं कि जब सरकार इस मामले में अध्यादेश ला सकती है तब राम मन्दिर निर्माण हेतु ऐसा ही कदम उठाने में उसके पांव क्यों ठिठक जाते हैं? इस प्रकार ये साफ  है कि लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस इस विधेयक को पारित नहीं होने देगी जिससे भाजपा को मुस्लिम महिलाओं की सहानुभूति मिलने से रोका जा सके। बेहतर होता यदि इस सम्वेदनशील मुद्दे पर सियासत को किनारे रखकर सर्वदलीय सहमति बनती। तीन तलाक और हलाला जैसे मध्ययुगीन मजहबी रीति-रिवाज आज के युग में कालातीत हो चुके हैं। मुस्लिम समाज के जिम्मेदार लोगों को खुद होकर तीन तलाक का विरोध करने आगे आना चाहिये। और जब इस्लामिक कहलाने वाले देशों तक में इसे खत्म किया जा चुका है तब भारत के मुसलमान क्यों पीछे रहें?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 27 December 2018

चुनावी एकता पर भारी मलाईदार विभाग


मप्र  में नई सरकार बन गई। मंत्रीमंडल ने भी शपथ ले ली। उम्मीद थी कि कल शाम तक विभागों का बंटवारा हो जाएगा और आज से मंत्रीगण अपने मंत्रालय का प्रभार लेकर काम शुरू कर देंगे। मुख्यमंत्री कमलनाथ  तेजी से काम करने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें ये एहसास है कि लोकसभा  चुनाव करीब होने से उनकी सरकार के पास मतदाताओं को खुश करने के लिये बहुत ही  कम समय है। किसानों की कर्जमाफी का निर्णय तो उन्होंने तत्काल ले लिया था किंतु उस पर अमल कब तक और कैसे होगा ये सवाल अभी तक अनुत्तरित है। दूसरी तरफ  यूरिया की कमी ने पूरे प्रदेश में किसानों को नाराज कर दिया और वे सड़कों पर उतरने मज़बूर हो गए। कई जग़ह उन पर लाठियां भी बरसाईं गईं। बिजली कटौती की खबरें भी नई सरकार के लिए सिर मुंडाते ही ओले पडऩे वाली स्थिति उत्पन्न कर रही है। ये सब देखते हुए जरूरी था कि मंत्रियों को तुरंत विभागों का प्रभार मिलता और वे अपना काम शुरू कर देते। लेकिन कल दिन भर खींचातानी चलने के बाद भी विभागों का वितरण नहीं हो सका। इसके पीछे जो कारण उभरकर आ रहे हैं वे नए नहीं हैं। जिस तरह मंत्रियों के चयन में मुख्यमंत्री के अलावा दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के गुटों  के बीच रस्साकशी हुई ठीक वैसे ही मंत्रियों के बीच विभागों के आवंटन में भी गुटीय विभाजन स्पष्ट नजर आ रहा है। तीनों छत्रप अपने कोटे के मंत्रियों के पास महत्वपुरण विभाग रखकर सरकार पर अधिकाधिक नियंत्रण चाहते हैं। हालांकि ये मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है कि वह अपनी टीम के सदस्यों की क्षमता और योग्यता का आकलन करते हुए उन्हें तदनुसार विभाग दे लेकिन अपने देश में राजनीति का जो चरित्र बन गया है उसके कारण से मंत्री भी उन विभागों को हासिल करने के लिए लालायित रहते हैं जिन्हें प्रचलित भाषा में मलाईदार कहा जाता है। इसी के साथ ये भी होने लगा है कि बड़े नेता अपने कृपापात्र मंत्री को ऐसा विभाग दिलवाएं जिसमें रौब-रुतबे के साथ पैसे का प्रवाह ज्यादा हो। परसों रात से भोपाल में जो कुछ भी होता रहा वह सत्ता के साथ जुड़ गईं आवाश्यक बुराइयों में से ही एक  है। यद्यपि ये कांग्रेस में ही होता हो ऐसा नहीं हैं। भाजपा एवं अन्य दलों में भी महत्वपूर्ण और मलाईदार पदों को लेकर इसी तरह की खींचातानी दिखाई देने लगी है। लेकिन मप्र में कांग्रेस 15 साल बाद सत्ता में लौटी है। इसके पीछे सभी गुटों में समन्वय बनना बड़ा कारण माना गया। इसके विपरीत भाजपा गुटों में बंटी नजर आई। लेकिन पहले मुख्यमंत्री और उसके बाद मंत्रियों के चयन में कांग्रेस की परंपरागत गुटबाजी उभरकर सामने आ गई। दिग्विजय सिंह कहने को तो कमलनाथ के साथ हैं लेकिन उन्होंने अपने पुत्र सहित अपने गुट के लोगों को मंत्री बनवाने में पूरी ताकत लगा दी। ज्योतिरादित्य ने भी अपने दरबारियों को सरकार का हिस्सा बनवाने हेतु दबाव बनाया। पहले उनका आग्रह उपमुख्यमंत्री पद को लेकर भी था लेकिन अब वे भी कुछ ऐसे विभाग अपने गुटीय मंत्रियों को दिलवाना चाह रहे हैं जिनकी वजह से उनकी वजनदारी शासन-प्रशासन पर बनी रहे। यही सोच मुख्यमंत्री और दिग्विजय सिंह की भी है। कई वरिष्ठ विधायक मंत्री पद नहीं मिल पाने की वजह से भन्नाए हुए हैं।  दूसरी तरफ़  जिन निर्दलीयों और सपा ,बसपा विधायकों के समर्थन से ये सरकार बनी वे भी कोपभवन में जा बैठे हैं। यद्यपि वारासिवनी से जीते कांग्रेस के बागी निर्दलीय प्रदीप जायसवाल को मंत्री पद दे दिया गया किन्तु शेष मलाई की इच्छा में बैठे रह गए। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस पर कटाक्ष भी किया है। कुल मिलाकर कमलनाथ ने जिस अच्छे तरीके से शुरुवात की वह मंत्रियो के विभाग वितरण को लेकर उत्पन्न गतिरोध की वजह से फीकी पडऩे लगी। बाहर से मिल रहे समर्थन को बिना शर्त मानकर कांग्रेस ने सम्भवत: उन विधायकों को सत्ता में हिस्सेदारी देने से परहेज किया हो किन्तु ये बात भी पूरी तरह सच है कि मुख्यमंत्री के पास जो बहुमत है वह तलवार की धार पर चलने जैसा है। यदि विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव में बाहर बैठे ये छह विधायक गड़बड़ कर दें तब पहले ही निवाले में मक्खी गिरने की कहावत सत्य सिद्ध हो जाएगी। भाजपा ने हालांकि अभी सरकार को अस्थिर करने जैसा कोई इरादा नहीं जताया है लेकिन शिवराज सिंह चौहान जिस तरह से सक्रिय हो उठे हैं उससे ये माना जा सकता है कि भाजपा अनुकूल अवसर मिलते ही दांव चलने में पीछे नहीं रहेगी। कमलनाथ ने अभी भी तकरीबन आधा दर्जन स्थान मंत्रीमंडल में रिक्त रखे हैं। लेकिन कुछ वरिष्ठ विधायकों की नाराजगी दूर करने के लिए उन्हें मंत्रीपद देना पड़ सकता है उस स्थिति में सपा-बसपा और बाकी निर्दलीयों का गुस्सा बना रहेगा। शायद मुख्यमंत्री को विभागों के लिए होने वाली रस्साकशी की उम्मीद नहीं रही होगी। यहां तक कि उनके अपने कोटे के मंत्री भी मनमाफिक विभाग के लिए बच्चों की तरह रूठे बैठे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भले हुई मुख्यमंत्री की दौड़ में मात खा गए किन्तु वे अपने गुट से मंत्री बने विधायकों को महत्वपूर्ण महकमे दिलवाकर सत्ता का समानांतर केंद्र बनने की कोशिश में जुटे हैं। इस झगड़े का अंत कैसे और क्या होगा फिलहाल कह पाना कठिन है लेकिन इससे कमलनाथ के प्रति निर्विवाद निष्ठा की बात गलत साबित हो गई। चुनाव तक जिस एकता का प्रदर्शन कांग्रेस के विभिन्न गुटों द्वारा किया गया वह सत्ता मिलते ही विलुप्त हो गई। इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि मुख्यमंत्री के अलावा दिग्विजय सिंह और श्री सिंधिया तीनों राहुल गांधी के बेहद करीब हैं। इस कारण हाईकमान को भी किसी नतीजे पर पहुंचने के पूर्व दसियों मर्तबा सोचना पड़ रहा है। ऐसी ही परेशानी राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी आ खड़ी हुई है। जाहिर तौर पर इससे पार्टी की छवि प्रभावित हो रही है। मंत्रियों का किसी विशेष विभाग के प्रति लगाव या जि़द का कोई कारण स्पष्ट नहीं है। लेकिन राजनीति के जानकार इसे अच्छी तरह से समझते हैं। मंत्रीमंडल का गठन और मंत्रियों के बीच विभागों का वितरण मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है। इस कार्य के लिए वे केंद्रीय नेतृत्व से मार्गदर्शन ले लेते हैं जिससे कि प्रादेशिक स्तर पर भी दबाव बनाया जा सके लेकिन कमलनाथ ने राहुल गांधी से स्वीकृति लेकर मंत्रिमंडल तो बना लिया लेकिन विभागों के बंटवारे को लेकर जिस तरह से नखरेबाजी और टाँग खिचौवल दिख रही है वह शुभ संकेत नहीं है जिसका असर आगामी लोकसभा चुनाव में पड़ जाए तो अचंभा नहीं होगा। शुरुवात में ही पार्टी की गुटबाजी सामने आ जाने से उसके प्रति बनी सकारात्मक धारणा भी ध्वस्त हो सकती हैं। बेहतर तो यही होगा कि मुख्यमंत्री तत्काल इस गतिरोध को खत्म करने हेतु दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य के साथ बैठकर समन्वय बनाएं वरना पार्टी की जीत का जश्न फीका पड़ते देर नहीं लगेगी। लोकसभा चुनाव में भाजपा से दो-दो हाथ करने की तैयारी करने की बजाय अगर कांग्रेस सरकार के मंत्री विभागों के लिए इस तरह लड़ेंगे तो फिर विधानसभा चुनाव की सफलता को कुछ महीने बाद लोकसभा चुनाव में दोहरा पाना उसके लिए कठिन हो जाएगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी