Monday 17 December 2018

कांग्रेस : मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की स्थिति में

कांग्रेस के लिए आज का दिन अत्यंत ऐतिहासिक है। 2014 की जबरदस्त पराजय के बाद इसे से उसका पुनरोदय कहा जा सकता है। यद्यपि बीते चार साल में वह पंजाब में अपनी दम पर सरकार बनाने में सफल हुई और कर्नाटक में उसने बहुमत गंवाने के बाद देवेगौड़ा की पार्टी जनता दल सेकुलर को समर्थन देकर भाजपा को रोकने का दांव भी सफलतापूर्वक खेला लेकिन उसको खुशी मनाने का असली अवसर बीते सप्ताह मिला जब मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में वह भाजपा की मजबूत सरकारों को हराकर सत्ता में लौटी। आज उसकी ये तीनों सरकारें पदभार ग्रहण कर रही हैं। मुख्यमंत्री चयन से अब ये स्पष्ट हो गया कि पार्टी में पूरी तरह से राहुल गांधी का नेतृत्व स्थापित हो चुका है। यद्यपि उनकी माताजी सोनिया गांधी ने भी इस कार्य में उनकी मदद की किन्तु आम कांग्रेसी के साथ पूरे देश ने भी ये मान लिया है कि राहुल अब स्वतंत्र रूप से संगठन चलाने में सक्षम हो गए हैं। यद्यपि उनकी बहन प्रियंका वाड्रा ने भी मुख्यमंत्री चयन में जिस तरह भाग लिया उससे ये संकेत भी मिला कि सोनिया जी की अस्वस्थता के चलते अब शायद प्रियंका अपने भाई के साथ पार्टी कार्यों में सहयोग देंगी। रायबरेली सीट से उनके लोकसभा चुनाव लडऩे की अटकलें तो वैसे भी काफी समय से लग रहीं हैं। जिन तीन राज्यों में आज कांग्रेस सत्ता ग्रहण कर रही है उनमें राजस्थान को छोड़ शेष दोनों में उसकी वापिसी 15 वर्ष बाद हो रही है। हालांकि मप्र में वह बहुमत से दो सीटें पीछे रहने की वजह से बसपा, सपा और निर्दलीयों का समर्थन लेने बाध्य हुई वहीं राजस्थान में उसे मात्र एक सीट से बहुमत मिला इसलिये वहां सरकार के स्थायित्व हेतु उसे अन्य का सहारा लेते रहना पड़ेगा किन्तु छत्तीसगढ़ जहां अधिकतर सर्वेक्षण बेहद नजदीकी मुकाबला बता रहे थे, वहां कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता हासिल होना चौंकाने वाला रहा। आदिवासी और पिछड़ी जातियों के बाहुल्य वाले इस छोटे से राज्य में कांग्रेस की जीत के सही कारण अब तक किसी को समझ में नहीं आ रहे लेकिन इतना तो तय है कि अजीत जोगी और बसपा के गठबंधन के बावजूद यदि वहां के मतदाताओं ने कांग्रेस को भरपूर सीटें दीं तब ये मान लेने में कोई बुराई नहीं है कि मतदाता भाजपा को हराने के मूड में थे। चुनाव के पहले तक छत्तीसगढ़ जैसे परिणाम की उम्मीद सभी राजस्थान में कर रहे थे जहाँ वसुंधरा राजे की सरकार बहुत ही अलोकप्रिय हो चुकी थी वहीं भाजपा अंतर्कलह से जूझ रही थी। कई बड़े नेता पार्टी छोडऩे मज़बूर कर दिए गए। यहां तक कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के चयन को लेकर तो वसुंधरा और राष्ट्रीय हाईकमान के बीच लंबे समय तक खींचातानी चली जिसमें वसुंधरा का पलड़ा भारी रहने के बावजूद भी ये कयास लग रहे थे कि 2013 में भाजपा को जैसी सफलता मिली थी वैसी 2018 में कांग्रेस के खाते में आएगी लेकिन जब परिणाम आए तो सभी चौंक गए। कांग्रेस को बहुमत तो मतदाताओं ने दिया लेकिन महज एक सीट से।  सफाये की आशंका के बीच भी भाजपा 73 सीटें लेकर मजबूत विपक्ष के तौर पर लौटी। चूंकि अन्य 26 में से अधिकतर ने कांग्रेस के साथ जाने की इच्छा व्यक्त की इसलिये सत्ता की चाबी उसके पास आ गई। तीसरे राज्य मप्र में जहां कांग्रेस पूरे विश्वास के साथ उतरी और भाजपा भी चौथी बार के आत्मविश्वास से लबरेज दिखाई दे रही थी वहां के नतीजों ने सभी को भौचक कर दिया। 114 सीट लेकर कांग्रेस बहुमत से दो सीट पीछे रही तो भाजपा 109 सीट प्राप्त कर जादुई आंकड़े के लिए तरस गई। जो अन्य। जीते उन सभी ने कांग्रेस को बिना देर लगाए समर्थन देकर सत्ता पलट में योगदान दिया। इस तरह कहीं बहुमत और कहीं बाहरी समर्थन से कांग्रेस की सरकारें बन गईं। राजनीतिक विश्लेषक तीनों राज्यों में हुए सत्ता परिवर्तन की विवेचना में जुटे हैं क्योंकि इनका आगामी लोकसभा चुनाव में असर पडऩे की संभावना बढ़ गई है। सबसे प्रमुख बात ये है कि जिस हिंदी पट्टी में भाजपा अपने को सर्वशक्तिमान मानकर चलती थी उसके तीन राज्य उसके हाथ से खिसक गए। उल्लेखनीय है इनकी 66 लोकसभा सीटों में 2014 के चुनाव में कांग्रेस मात्र तीन ही जीत पाई थी। एक बार ये मान भी लें कि लोकसभा चुनाव के मुद्दे सर्वथा अलग होंगे लेकिन ये भी सही है कि अब कांग्रेस और राहुल गाँधी पहले से ज्यादा ताकतवर और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। इसका असर उन ढुलमुल मतदाताओं पर पडऩा स्वाभाविक है जो जहां बम वहां हम की मानसिकता से प्रभावित होकर मतदान करते हैं। ये भी सही है कि भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में 2014 वाला वातावरण भी नहीं रहा। कांग्रेस ने किसानों के कर्ज माफ  करने के चुनावी वायदे को दस दिनों में पूरा करने की जो प्रतिबद्धता दिखाई है अगर वह कसौटी पर खरी उतरी तब ये निश्चित है कि भाजपा जल्द ही कोई ब्रह्मास्त्रनुमा कदम नहीं उठाती तब वह 2014 को दोहराने की बात नहीं सोच सकती। वैसे भी वह रॉफेल सहित अन्य मुद्दों पर रक्षात्मक होने से भी कमजोर नजर आ रही है। अपने परंपरागत मुद्दों को वह अपने एजेंडे में शामिल नहीं कर पाई जिससे कि रास्वसंघ और साधु-संत उससे असंतुष्ट हैं। कहा जा रहा है इसी नाराजगी की वजह से नोटा में पड़े मतों ने म.प्र. में भाजपा को तकरीबन 10 सीटें हरवाकर सत्ता से बाहर कर दिया। कांग्रेस के पास चूंकि खोने की लिये कुछ भी नहीं है इसलिए वह करो या मरो की नीति से मुकाबला कर रही है जिसका उसे लाभ भी मिल रहा है। यदि ये मान भी लें कि उक्त तीनों राज्यों के चुनाव वहां की राज्य सरकारों के प्रति नाराजगी का प्रगटीकरण था तब भी ये तो कहना ही पड़ेगा कि लोकसभा चुनाव के लिए ये जीत कांग्रेस का मनोबल बढ़ाने और भाजपा को चिंता में डालने का आधार बनेंगी। राहुल की चुनाव जिताऊ क्षमता पर मंडराने वाले सन्देह के बादल भी छंटे हैं। यद्यपि राष्ट्रीय परिदृश्य  पर निगाह डालने पर ये साफ  हो जाता है कि अकेले दम पर अभी भी कांग्रेस और राहुल भाजपा और नरेंद्र मोदी के सामने हल्के पड़ेंगे लेकिन अगर मप्र और राजस्थान जैसी स्थिति बनी तब उस सूरत में भी अन्य दल कांग्रेस के साथ जाएंगे या कांग्रेस कर्नाटक फार्मूले से किसी अन्य को आगे कर भाजपा का रास्ता रोकने में नहीं हिचकिचायेगी। उस दृष्टि से भाजपा और प्रधानमंत्री दोनों के लिए कांग्रेस का ये पुनरोदय चिंता पैदा करने वाला है। राहुल गाँधी भी पहले से ज्यादा हमलावर होते दिखाई दे रहे हैं। भाजपा अचानक बदली हुई इस स्थिति में कौन सी रणनीति अपनाती है ये तो वही जाने लेकिन फिलहाल तो कईं राज्यों की सत्ता पर कब्जा कर कांग्रेस भाजपा पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की क्षमता अर्जित कर चुकी है जिसे छह माह पहले तक अकल्पनीय समझा जाता था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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