Wednesday 26 December 2018

मप्र : सक्रिय मुख्यमंत्री और मजबूत विपक्ष

मप्र के नये मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अपने मंत्रिमंडल का गठन करते हुए सभी मंत्रियों को कैबिनेट का दर्जा देकर एक नया प्रयोग कर डाला। विधानसभा की सदस्य संख्या को देखते हुए मप्र में 35 मंत्री बनाये जा सकते हैं। उस लिहाज से अभी आधा दर्जन की गुंजाइश और है। हो सकता है सरकार को समर्थन दे रहे निर्दलीयों के अलावा सपा और बसपा के किये कुछ स्थान रिक्त रखे गये हों या फिर लोकसभा चुनाव  तक यथास्थिति बनाकर रखी जावेगी। सभी मंत्री चूंकि कैबिनेट स्तर के हैं इसलिए  ये उम्मीद की जा सकती है कि निर्णय प्रक्रिया में तेजी आएगी क्योंकि मंत्रीमंडल की बैठक में उन सभी को हिस्सा लेने का अवसर मिलेगा जिससे सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का व्यवहारिक रूप में पालन सम्भव होगा। हालांकि जैसा प्रचारित हुआ है मंत्रियों के चयन का आधार उनकी गुटीय प्रतिबद्धता है। कमलनाथ के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा रखने वालों के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और मुख्यमंत्री की दौड़ में आखिर तक शामिल रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक विधायकों को मंत्री पद से नवाजा गया है। हालांकि दिग्विजय और कमलनाथ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इन दोनों की जुगलबंदी ने ही श्री सिंधिया की अतृप्त महत्वाकांक्षा को एक बार फिर निराशा की खाई में धकेल दिया।  ढाई दशक पहले लगभग ऐसा ही उनके पिता स्व. माधवराव सिंधिया के साथ भी हो चुका था।  लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि मंत्रीमंडल में चूंकि कमलनाथ सबसे बड़े कद के नेता हैं इसलिए कोई मंत्री उनसे टकराने की हिम्मत नहीं करेगा जैसा शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल में बाबूलाल गौर और सरताज सिंह किया करते थे।  हालांकि कई ऐसे विधायक सरकार का हिस्सा बने हैं जो छह बार और उससे भी ज्यादा चुनाव जीत चुके हैं लेकिन ये भी सच है कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच बेहतर तालमेल होने की वजह से सिंधिया गुट के मंत्री दांतों के बीच जुबान की तरह रहने मजबूर होंगे। कमलनाथ ने आँचलिक के साथ जातीय संतुलन का भी अच्छा ध्यान रखा है। उन्हें अच्छी तरह से पता है कि भले ही जनादेश पांच वर्ष के लिए मिला हो लेकिन उनकी पहली बड़ी परीक्षा कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव में होगी। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिलने से भाजपा का मनोबल पूरी तरह टूटा नहीं है और फिर चुनावी वायदों को पूरा करने के लिए प्रदेश सरकार के पास बहुत कम समय है। ऐसे में मंत्रीमंडल में शामिल सभी सदस्यों को न सिर्फ  तेजी से काम करना पड़ेगा अपितु नतीजे भी देने होंगे। कांग्रेस इस बात को अच्छे से जानती है कि लोकसभा चुनाव में यदि मोदी सरकार वापिस आ गई तब उनके लिए  शासन चलाना कठिन हो जाएगा। इसीलिए उन्होंने कुर्सी संभालते ही फैसले लेने शुरू करते हुए प्रशासन में भी मनमाफिक बदलाव कर डाले। उस दृष्टि से नई सरकार की शुरुवात अच्छी कही जाएगी। मुख्यमंत्री चूंकि अतीत में केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं इसलिए उन्हें खासा अनुभव है।  निजी तौर पर भी वे एक बड़े व्यवसायिक समूह का नेतृत्व करते रहे हैं। राजनीति में प्रबंधन का उपयोग कैसे किया जा सकता है ये भी उन्हें भली भांति आता है।  इस आधार पर कहा जा सकता है कि कमलनाथ ने सरकार के गठन की प्रक्रिया आसानी से पूरी कर ली है। अभी तक के संकेत त्वरित निर्णय करने वाली सरकार के हैं। मंत्रियों की औसत आयु भी पिछली सरकार से कम है। अनुभव के साथ क्षमता और योग्यता का भी अच्छा ध्यान मुख्यमंत्री ने रखा है लेकिन देखने वाली बात ये रहेगी कि विधानसभा में सरकार विपक्ष के हमले का सामना किस प्रकार करती है ? भाजपा के 109 विधायक होने से सदन में सत्ता पक्ष घिरा नजर आएगा। पूर्व मुख्यमंत्री श्री चौहान ये एहसास करवा चुके हैं कि सत्ता जाने के बावजूद उनकी सियासी सक्रियता कम नहीं होगी तथा भाजपा आक्रामक विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करेगी। खबर ये भी है कि श्री चौहान नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए भी प्रयत्नशील हैं जिससे वे मुख्यमंत्री से सीधे मुकाबले में दिख सकें। केंद्र की राजनीति में जाने से इनकार कर उन्होंने ये इशारा भी कर दिया कि चुनावी पराजय के बाद भी उनके भीतर फिर सत्ता में लौटने की इच्छा है। आयु और स्वास्थ्य के दृष्टि से वे चुस्त-दुरुस्त है और जनता से सीधे संवाद की कला में भी माहिर हैं। थोड़ी सी सीटों की कमी से सरकार चली जाने से उन्हें सहानुभूति भी मिल रही है। मुख्यमंत्री इस पहलू से बेखबर नहीं हैं। मंत्रीमंडल बनाने के बाद वे संसदीय सचिव बनाने की सम्भावनाएँ तलाश रहे हैं ताकि सत्ता से वंचित रहे लोगों को ठंडा रखा जा सके। हालांकि विभागों के बंटवारे का काम भी आसान नहीं है क्योंकि मंत्री बनने के बाद मलाईदार विभाग की तलब भी सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ गई है। चूंकि अधिकतर मंत्री नए हैं इसलिए उनसे समुचित काम लेना भी मुख्यमंत्री के लिए कठिन होगा। किसानों की ऋण माफ़ी सबसे बड़ी चुनौती है। भले ही शपथ के फौरन बाद चुनावी वायदा पूरा कर दिया हो किन्तु उस निर्णय को जमीन पर उतारना उतना आसान नहीं होगा। लोकसभा चुनाव करीब नहीं होते तब शायद जल्दबाजी से बचा भी जा सकता था किंतु मौजूदा हालात टी -20 क्रिकेट मैच जैसे हैं जिसमें पहली ही गेंद से रन बनाने की जरूरत होती है। राज्य की खस्ता माली हालत भी रोड़े अटकाने का कारण बनेगी। कुल मिलाकर आजादी के बाद ये पहला अवसर है जब सत्ता और विपक्ष के बीच सँख्याबल में बहुत कम फासला है। मतदाताओं ने पिछली सत्ता को अपदस्थ तो किया किन्तु भाजपा को पूरी तरह से किनारे नहीं किया। इस प्रकार जनादेश यही है कि सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों सक्रिय रहते हुए समन्वय और सन्तुलन बनाकर काम करें। मुख्यमंत्री को भी चाहिए कि वे लोकसभा चुनाव तक अपने घोषणापत्र के वायदे पूरे करने पर ध्यान दें और राजनीतिक प्रतिशोध से बचने की कोशिश करें। वरना वे व्यर्थ के पचड़ों में उलझकर विपक्ष के जाल में फंस जाएंगे। वैसे मप्र की राजनीति में आने वाला समय बहुत ही रोचक राजनीति के नजारे उत्पन्न करने वाला रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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