Friday 28 December 2018

सियासत में उलझकर रह गया तीन तलाक


जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ। कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने बहिर्गमन करते हुए मतदान में हिस्सा नहीं लिया जिससे कि तीन तलाक पर रोक लगाने सम्बन्धी विधेयक लोकसभा में भारी बहुमत से पारित हो गया। विपक्ष को तीन तलाक़ देने वाले पति को तीन वर्ष की सजा के प्रावधान पर एतराज है। उसका तर्क है कि चूंकि कानून बनने पर तीन तलाक कहने मात्र से विवाह विच्छेद नहीं होगा इसलिये पति के जेल चले जाने पर पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण की व्यवस्था कौन करेगा ? वैसे प्रश्न गैर वाजिब भी नहीं है? विपक्ष ने कुछ और मुद्दों पर भी अपनी आपत्तियां दर्ज करवाते हुए विधेयक संसद की सिलेक्ट कमेटी के विचारार्थ भेजने की मांग भी उठाई जिसे सरकार ने नामंजूर करते हुए मतदान पर जोर दिया और फिर  विपक्ष की तकरीबन अनुपस्थिति में तीन तलाक़ विरोधी विधेयक एक बार फिर लोकसभा से पारित हो गया। स्मरणीय है एक बार पहले भी लोकसभा इसे पारित कर चुकी है। लेकिन राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत होने से उच्च सदन ने संशोधनों के साथ उसे वापिस कर दिया। उसके बाद केंद्र सरकार  ने अध्यादेश में जरिये उसे दंडनीय अपराध बना दिया। लेकिन उसे कानून बनाने हेतु संसद की मंजूरी जरूरी है। हालांकि लोकसभा ने उसे थोड़े से रद्दोबदल के साथ फिर  से पारित कर दिया लेकिन विपक्ष के साथ चूंकि सरकार का तालमेल नहीं बैठा इसलिए राज्यसभा में विधेयक के फिर  लटकने की आशंका बनी हुई है। मुस्लिम महिलाओं के जीवन को तबाह करने वाली तलाक प्रथा को अनेक इस्लामिक देशों ने भी ख़त्म कर दिया जिनमें पाकिस्तान भी है। लेकिन हमारे देश में मुसलमान चूंकि वोट बैंक का हिस्सा हैं इसलिए उन्हें नाराज करने से राजनीतिक पार्टियां डरती हैं। भाजपा इस विधेयक को पारित करवाकर एक तीर से दो निशाने साधना चाह रही है। उसे पता है कि मुस्लिम समाज कुछ अपवाद छोड़कर उसके लिए वोट नहीं करता। इसलिए उसने मुस्लिम महिलाओं को आकर्षित करने की कोशिश की है। कहते हैं उप्र के विधानसभा चुनाव में भाजपा की बंपर जीत में मुस्लिम महिलाओं का गुपचुप समर्थन भी एक कारण था। यद्यपि हाल में सम्पन्न कुछ राज्यों के विधानसाभा चुनाव में ऐसा नहीं लगा। दूसरी बात ये है ऐसा करते हुए भाजपा हिन्दू समाज को ये आभास कराना चाहती है कि वह मुस्लिम तुष्टीकरण से दूर है। उधर कांग्रेस के साथ अन्य विपक्षी पार्टियां तीन तलाक को अमानवीय मानते हुए इस कुरीति की शिकार मुस्लिम महिलाओं के प्रति हमदर्दी रखने के बाद भी मुस्लिम पुरुषों की नाराजगी से बचना चाहती हैं। उन्हें पता है कि इस  समाज में महिलाओं के बीच अशिक्षा होने से पुरुषों का वर्चस्व काफी अधिक है। राजनीतिक लिहाज से भी मुस्लिम पुरुष अपेक्षाकृत ज्यादा जागरूक होते हैं। ऐसे में विपक्ष राज्यसभा में भी इस विधेयक को पारित नहीं होने देगा। वैसे और कोई समय होता तब शायद अभी तक उक्त विधेयक दोनों सदनों की मंजूरी पाने के बाद  कानून बन चुका होता। लेकिन विपक्ष जानता है कि भाजपा इसका चुनावी फायदा उठाना चाहती है। लोकसभा चुनाव में इसका लाभ उसे न मिल सके इसलिए वह भी अड़ंगा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। इस प्रकार एक अच्छी पहल सियासत में उलझकर रह गई है। किसी सांसद का ये कहना सत्य के काफी निकट है कि तीन तलाक़ भी सती प्रथा की तरह से एक बुराई है जो आज के युग में असहनीय लगती है क्योंकि इसकी वजह से मुस्लिम महिलाओं के आत्मसम्मान और भविष्य दोनों पर खतरा मंडराता रहता है। इस्लामिक परम्पराओं के कई जानकारों का भी मानना है कि तीन तलाक का जिस बेरहमी से दुरुपयोग होता है वह अमानवीय है। इसकी वजह से हजारों महिलाएं नारकीय यातनाएं झेलने मजबूर हो गई। उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहद दर्दनाक है। उल्लेखनीय बात ये है कि केंद्र सरकार ने तीन तलाक़ को रोकने सम्बन्धी जो कानून बनाने की पहल की उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था। वह भी मुस्लिम महिलाओं की याचिका पर ही। ये सम्भवत: पहली बार हुआ होगा कि तीन तलाक़ से पीडि़त मुस्लिम महिलाओं ने खुलकर समाचार  माध्यमों में अपनी पीड़ा व्यक्त करने का साहस दिखाया। टीवी पर होने वाली बहसों में वे खुलकर मुल्ला-मौलवियों का सामना करती दिखाई दीं। सुशिक्षित मुस्लिम युवतियां भी इस मुद्दे पर सरकार के साथ खड़ी हुईं। तीन तलाक के साथ ही हलाला जैसी घिनौनी रीति भी सार्वजनिक विमर्श का विषय बनी वरना इसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते थे। गत दिवस लोकसभा में एनसीपी सांसद और शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने सरकार को इस बात पर घेरा कि वह जितनी जल्दबाजी तीन तलाक़ के विरूद्ध दिखा रही है उतनी संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण हेतु क्यों नहीं दिखाती? जहां तक बात सरकार की है तो वह सर्वोच्च न्यायालय की मंशानुरूप काम कर रही है जिस पर असदुद्दीन ओवैसी का तर्क था कि भाजपा जब सबरीमाला मंदिर मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने राजी नहीं है तब वह तीन तलाक़ को लेकर मुस्लिम धर्म में न्यायालयीन दखल के समर्थन में क्यों खड़ी हुई है? सवाल और भी हैं। मोदी सरकार के सामने समस्या ये है कि वह तीन तलाक को रोकने सम्बंधी अध्यादेश ला चुकी है जिसे संसद से पारित करवाना जरूरी है वरना छह महीने बाद वह बेकार हो जाएगा। इस पर हिन्दू समाज के भीतर से भी ये कटाक्ष हो रहे हैं कि जब सरकार इस मामले में अध्यादेश ला सकती है तब राम मन्दिर निर्माण हेतु ऐसा ही कदम उठाने में उसके पांव क्यों ठिठक जाते हैं? इस प्रकार ये साफ  है कि लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेस इस विधेयक को पारित नहीं होने देगी जिससे भाजपा को मुस्लिम महिलाओं की सहानुभूति मिलने से रोका जा सके। बेहतर होता यदि इस सम्वेदनशील मुद्दे पर सियासत को किनारे रखकर सर्वदलीय सहमति बनती। तीन तलाक और हलाला जैसे मध्ययुगीन मजहबी रीति-रिवाज आज के युग में कालातीत हो चुके हैं। मुस्लिम समाज के जिम्मेदार लोगों को खुद होकर तीन तलाक का विरोध करने आगे आना चाहिये। और जब इस्लामिक कहलाने वाले देशों तक में इसे खत्म किया जा चुका है तब भारत के मुसलमान क्यों पीछे रहें?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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