मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस : संपादकीय
-रवीन्द्र वाजपेयी
कर्ज माफी : बात निकली है तो .....
मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने शपथ लेते ही किसानों के दो लाख तक के ऋण माफ करने के साथ ही कुछ और घोषणाएं भी कर डालीं । जिनमें लड़कियों के विवाह हेतु दी जाने वाली राशि बढ़ाकर 51 हजार और प्रसूति के लिए 26 हजार देने के अलावा चार रेडीमेड गारमेंट काम्प्लेक्स शुरू करना भी है । श्री नाथ पेशेवर तरीके से समयबद्ध कार्य करने के लिये जाने जाते हैं । चूंकि राहुल गांधी 10 दिनों में किसानों के कर्ज माफ करने जैसी बात कर चुके थे इसलिए श्री नाथ पर भी दबाव था क्योंकि लोकसभा चुनाव के लिए ज्यादा समय नहीं बचा है । छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री बनते ही भूपेश बघेल ने कर्ज माफी और धान का मूल्य 2500 प्रति क्विंटल करने का फैसला कर वायदे पूरे करने की प्रतिबद्धता प्रदर्शित की । राजस्थान में भी एक दो दिन में ऐसा हो जाएगा ये उम्मीद है । इसकी वजह से हजारों किसानों के सिर पर कर्ज अदायगी की जो तलवार लटक रही है वह हट जाएगी । नौकरशाही भी नई सरकार के निर्देश का पालन करने में जुट गई है । लेकिन दूसरी तरफ ये भी कहा जा रहा है कि पिछली सरकारें अरबों - खरबों का कर्ज छोड़कर गई हैं । कमलनाथ से जब इस बाबत पूछा गया तब उन्होंने दो टूक कहा कि जब उद्योगपातियों के ऋण माफ किये जा सकते हैं तब किसान भाइयों के क्यों नहीं ? तर्क के आधार पर मुख्यमंत्री की बात बिल्कुल सही है। राहुल गाँधी भी अक्सर यही कहा करते हैं किन्तु राजनेता ये भूल जाते हैं क्रिया की प्रतिक्रिया का सिद्धांत भी शाश्वत है और राजनीति भी उससे अछूती नहीं है। इसीलिए जिस तरह आरक्षण का दायरा जब सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता गया तब उसकी उग्र प्रतिक्रिया कुछ महीनों पहले देखी गई। सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण संबंधी किसी प्रावधान को छेडऩे का साहस दिखाया तो पूरी राजनीतिक बिरादरी भयाक्रांत हो उठी और संसद ने न्याय की सबसे ऊंची आसंदी को अंगूठा दिखाते हुए उस फैसले को रद्दी की टोकरी दिखा दी। लेकिन संसद भी ये भूल गई कि जनमत उससे भी ताकतवर होता है और प्रतिक्रियास्वरूप देश के अनेक हिस्सों में सवर्ण जातियां सड़कों पर उतर आई। कुछ जगह तो आरक्षण प्राप्त वर्ग के साथ उनका हिंसक टकराव भी हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अति उत्साह में जो बयान दिए उनसे सवर्ण मतदाता आक्रोशित हो उठे जिसका नतीजा मप्र और राजस्थान के साथ छत्तीसगढ़ में भाजपा को भोगना पड़ा। इन राज्यों में कांग्रेस ने किसानों के कर्ज माफी का जो अस्त्र चलाया वह निशाने पर जाकर लगा। उसे चुनावी सफलता भी हासिल हो गई और जनमत के दबाव के चलते कल कमलनाथ और भूपेश बघेल ने चुनावी वायदा पूरा कर अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखी लेकिन सोशल मीडिया पर तुरंत कुछ लोगों ने छोटे व्यापारी को भी कर्ज माफी की सुविधा देने का मुद्दा उछाल दिया। उनका तर्क है कि किसान की तरह वे भी बीते कुछ सालों से विपरीत परिस्थितियों के कारण क़ारोबार में घाटा उठा रहे हैं जिससे बैंक से लिये गए कर्ज को चुकाना उनके बस में नहीं है। कमलनाथ और राहुल गांधी को ढाल बनाते हुए ये कहा जाने लगा है कि जब सरकार बड़े उद्योगपातियों और किसानों पर ऋण माफी अथवा ब्याज में रियायत रूपी कृपा बरसा रही है तब उसे छोटे व्यापारियों पर भी रहम करना चाहिए। अनेक व्यापारी ये तर्क भी देते हैं कि अपनी आय में से आयकर एवं अन्य कर चुकाने की बाद भी व्यापारी समुदाय को किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। बीमारी अथवा दुर्घटना में मृत्यु से उसके परिवार पर भी रोजी - रोटी का संकट आ जाता है। विगत दिवस किसी अभिभावक ने एक और मुद्दा उछाल दिया। जिसका आशय ये था कि अपने बेटे-बेटियों को पढ़ाने के लिए शैक्षणिक ऋण लेने के बाद जब तक उन्हें नौकरी न मिले तब कर्ज वसूली स्थगित की जाए और ब्याज का मीटर भी बन्द रखा जाए। उक्त तर्कों से भला कोई कैसे असहमत हो सकता है लेकिन सवाल वही वोट बैंक की राजनीति का है। जो वर्ग संगठित होकर दबाव बना ले जाये उसे जो मांगोगे वहीं मिलेगा की तर्ज पर सभी सुविधाएं और लाभ मिल जाते हैं वरना कोई सुनने वाला नहीं है। समाज के मध्यमवर्ग में चाहे वह नौकरपेशा हो या स्वरोजगार करता हो , ये भावना तेजी से फैल रही है कि उसका कोई माई बाप नहीं है क्योंकि सरकारी नीतियों का पूरा ध्यान गरीबों पर रहता है। राजनेताओं और नौकरशाहों की पास तो न जाने कौन सा अलादीन का चिराग है जिसके सहारे वे बिना पूंजी के अनाप शनाप कमा लेते हैं। अब जबकि आरक्षण और किसानों की कर्ज माफी वोट बैंक की सियासत के चलते एक स्थायी व्यवस्था बनकर रह गए हैं तब युवा पीढ़ी के मन में ये सवाल स्वाभाविक रूप से उठने लगे हैं कि क्या वोट की दृष्टि से असंगठित वर्ग के लिए किसी के पास कुछ है या नहीं। कांग्रेस ने बेरोजगारों को 10 हजार भत्ता देने की बात भी वचन पत्र में कही थी। इस पर कबसे अमल शुरू होगा ये देखने वाली बात होगी क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा पहले से ही चल रही है। लेकिन उसके अपेक्षित परिणाम तो मिले नहीं उल्टे ग्रामीण अंचलों में शराबखोरी जबर्दस्त तरीके से बढ़ गई। किसानों के कर्ज माफी के आदेश निकलने के बाद भी अभी बहुत सारे पेंच फंसेंगे। कल ही मप्र सरकार ने इसके लिए पात्रता के जो आधार बताए उन्हें लेकर विवाद होना स्वाभाविक है। दो लाख तक की सीमा और 31 मार्च 2018 तक की समयावधि तय किये जाने से भी उन किसानों में गुस्सा बढ़ेगा जो कर्ज माफी की सौगात के वंचित रह जाएंगे। ये चलन अपने पैर जिस तरह से फैला रहा है उसे देखते हुए ये कहना गलत नहीं होगा कि निकट भविष्य में किसानों की ऋण माफी राजनीतिक बिरादरी के लिए बड़ी समस्या बनने वाली है। ये दिल मांगे मोर वाली बात यहां भी लागू होगी। आज 2 तो कल 5 लाख माफ करने का दबाव आएगा। मप्र के किसान नेता कक्का जी तो पहले से ही इस तरह की मांग करने लगे हैं। जिन किसानों ने 31 मार्च 2018 के बाद ऋण लिया वे भी छटपटाएँगे। कुल मिलाकर वोट बैंक की सियासत नए दलदल तैयार कर रही है। सुना है मप्र और छत्तीसगढ़ सरकारें किसानों के कर्ज को माफ करने के पहले बैंकों से ब्याज में रियायत की मांग करने जा रही हैं। यदि बैंकों ने एकमुश्त वसूली के लालच में ब्याज में छूट दे भी दी तब उनके आर्थिक नुकसान की भरपाई कौन करेगा ? सत्ता में आने के लिए वायदे करना गलत नहीं होता और जीत जाने के बाद उनको पूरा करना भी नैतिकता का तकाजा है। लेकिन समय आ गया है जब व्यवहारिकता पर आधारित अर्थनीति बनाई जाए जो वोटों की राजनीति को उपेक्षित कर वास्तविकता के धरातल पर सोचे। ये समस्या किसी एक पार्टी अथवा सरकार द्वारा पैदा नहीं की गई। किसी न किसी तौर पर सभी दल और नेता जनता के पैसे से खुद दानदाता बनने का खेलने में जुटे हैं लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि उ.प्र. जहां मनरेगा का सबसे ज्यादा धन बंटता था वहां कांग्रेस पिछले लोकसभा चुनाव में केवल सोनिया गांधी और राहुल तक सिमटकर रह गई। वह भी तब जब सपा और बसापा ने रायबरेली और अमेठी से प्रत्याशी नहीं उतारे थे। इस आधार पर राजनेताओं से अपेक्षा है कि वे मुफ्तखोरी के सिलसिले को रोकने का साहस दिखाएं वरना बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी के अनुसार आरक्षण के बाद कर्ज माफी का जो दौर चल रहा है उसकी विपरीत प्रतिक्रिया होना अवश्यंभावी है। इसके पहले कि असंतोष का ज्वालामुखी फूट पड़े, राजनेताओं को सतर्क हो जाना चाहिए वरना एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता है का खेल नए सिरे से शुरू हो जाएगा और जरूरी नहीं वह शांतिपूर्ण ही रहे।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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