Friday 7 December 2018

शालीनता और सिद्धांतों की राजनीति मरणासन्न

आज मतदान होने के बाद काफी दिनों से चल रही हलचल खत्म हो जाएगी। 11 को मतगणना के बाद दोपहर तक ये भी स्पष्ट हो जाएगा कि मप्र , छत्तीसगढ़ ; राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम में किसकी सरकार बनेगी? हमेशा की तरह चुनाव प्रचार जोरदार रहा। पहले तीन प्रदेशों में जहां भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर है वहीं तेलंगाना और मिज़ोरम में क्षेत्रीय दल निर्णायक स्थिति में हैं। परिणामों को लेकर विभिन्न सर्वेक्षण एजेन्सियों ने महीनों पहले से निष्कर्ष निकालने शुरू कर दिए थे जो विभिन्न चरणों में बदलते गए और अंतिम क्षण आते- आते तक तो बहुत उलटफेर हो गया। बहरहाल इस सबसे हटकर देखें तो राजनीति में हल्की सी भी रुचि रखने वाले को ये पीड़ा है कि चुनाव प्रचार का स्तर लगातार गिर रहा है। नीतियों और सिद्धान्तों से हटकर राजनीति निजी हमलों पर आकर केंद्रित हो गई है। विरोधी से सैद्धांतिक आधार पर मतभेद न होकर निजी शत्रुता का भाव प्रबल होता जा रहा है। आरोप-प्रत्यारोप तो पहले भी लगते थे लेकिन उनमें भी शालीनता हुआ करती थी। लेकिन ब परिदृश्य पूरी तरह बदल गया है। चुनाव जीतने के लिए केवल धन और बाहुबल के साथ ही शराब आदि का वितरण तो पुरानी बात है। अब तो विरोधी  को जेल भिजवाने की धमकियां खुले आम दी जाती हैं। नीतिगत आलोचना की जगह व्यक्तिगत कटाक्षों ने ले ली है। उसमें भी शब्दों की मर्यादा का ध्यान नहीं रखा जाता। कभी-कभी तो लगता है गली-मोहल्लों में खेलते हुआ लड़ बैठने वाले बच्चों के बीच भी जो कहा-सुनी होती है वह मंच से बोलने वाले स्वनामधन्य नेताओं की अपेक्षा उच्चस्तर की कही  जा सकती है।  सन्दर्भित पांच राज्यों में हुए चुनाव प्रचार के दौरान जो देखने सुनने मिला वह कोई नई बात नहीं है लेकिन ये भी सही है कि एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे इस तरह की खोखली और निम्नस्तरीय राजनीतिक शैली असहनीय लगने लगी है। विशेष रूप से 18 से 30 वर्ष की आयु के मतदाताओं को ये सब देखकर राजनीति और राजनेताओं से जो वितृष्णा थी वह अब घृणा का रूप लेने लगी है। प्रश्न ये है कि इस शर्मनाक और दर्दनाक स्थिति के लिए कौन दोषी है और कितना ? पूछने पर तो हर कोई सामने वाले पर पूरा अपराध थोप देगा लेकिन सच्चाई ये है कि किसी एक को कठघरे में खड़ा करने की बजाय सामूहिक रूप से सभी राजनेताओं को कसूरवार ठहराया जाना चाहिये क्योंकि किसी को भी न तो मर्यादाओं का ध्यान है और न ही सौजन्यता कहीं नजर आती है। ये स्थिति रातों -रात उत्पन्न हो गई हो ऐसा नहीं है। लेकिन इसकी शुरुवात कब और कहां से हुई इसका शोध करने से भी कोई लाभ नहीं है क्योंकि कोई भी अपनी गलती मानने की बजाय दूसरे में दोष तलाशने लगता है। आपातकाल के बाद  देश की राजनीति में नई पीढ़ी का वर्चस्व बढ़ा। जयप्रकाश जी के आंदोलन में शामिल रहे तमाम युवा नेता जेल से निकलने के बाद संसद पहुँच गए। कुछ को मंत्री पद भी मिल गया। 1980  में इंदिरा जी की सरकार लौटी तब संजय ब्रिगेड के नाम पर दूसरी तरफ  से भी काफी नौजवान संसद सदस्य बने। हालांकि 1975 के पहले भी नवयुवक संसद के लिए चुने जाते रहे लेकिन तब उनकी संख्या अपेक्षाकृत कम ही हुआ करती थी लेकिन अस्सी के दशक  में स्थितियां तेजी से बदलीं और बड़ी संख्या में बुजुर्गवार संसद से बाहर होते गए। नौजावान सदस्यों ने अपने नेतृत्व की नजर में चढऩे के लिए होहल्ला, धक्का-मुक्की और ऐसे ही अन्य अशोभनीय व्यवहार करना शुरू किए जो धीरे-धीरे सदन की संस्कृति बनती चली गई। बहस का स्थान शोरशराबे ने ले लिया। सदन की बैठकें शुरू होने के साथ ही अगले दिन तक के लिये स्थगित हो जाना साधारण बात हो गई। कई बार तो नौबत यहाँ तक आ पहुंची कि पूरा का पूरा सत्र बिना किसी विधायी काम और बहस के सामाप्त हो गया। राष्ट्रीय महत्व के ज्वलंत मुद्दों से हटकर सांसद गण गैर जरूरी विषयों पर समय खराब करने में रुचि लेने लगे। कार्यवाही के टीवी प्रसारण ने सदन में हंगामे को और प्रोत्साहित किया। ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि संसद के दृश्य देख-देखकर अन्य राजनेताओं में भी वैसा ही हंगामा खेज आचरण करने की प्रवृत्ति जोर पकडऩे लगी और फिर तब वह सब होने लगा जिसे लेकर प्रत्येक समझदार व्यक्ति दुखी और चिंतित है। वैसे इसकी एक बड़ी वजह लगातार होते रहने वाले चुनाव हैं। इसके कारण राजनेताओं के पास जनता से सार्थक संवाद करने लायक मुद्दों का टोटा पडऩे लगा है। तभी तो उन्हें फिल्मी सितारों, क्रिकेटरों, हास्य कलाकारों जैसी गैर राजनीतिक हस्तियों का सहारा लेना पड़ता है। हेमा मालिनी जब से भाजपा की स्टार प्रचारक बनीं तबसे वे 1975 में आई फिल्म शोले का संवाद चल धन्नो तेरी इज्जत खतरे में है, सुना-सुनाकर वोट मांगती हैं। अन्य लोग भी इसी तरह के बयानों से श्रोताओं का प्रबोधन कम मनोरंजन ज्यादा करते हैं। नवजोत सिद्धू भाजपा में रहते तक  डॉ. मनमोहन सिंह और राहुल गांधी का मखौल उड़ाया करते थे लेकिन कांग्रेस में आते ही नरेंद्र मोदी पर  तीखे कटाक्ष करते सुने देखे जा सकते हैं। टिकिट नहीं मिलते ही पार्टी छोड़कर दूसरे दल में जाकर उम्मीदवारी हासिल कर लेने वाले नेताओं की जुबान किस तरह पलटी मारती है ये देखकर आश्चर्य भी होता है और हंसी भी आती है। कहने का आशय ये है कि राजनीति का अवमूल्यन एक क्रमिक प्रक्रिया के अंतर्गत होता - होता मौजूदा मुकाम तक आ पहुंचा है। जहां उसके गिरते स्तर को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। जिस तरह हर समय होते रहने वाले क्रिकेट मैचों की वजह से खेल की कलात्मकता ने आक्रामकता का रूप ले लिया उसी तरह पूरे पांच साल चलने वाले चुनावी मौसम की वजह से  राजनीति भी शालीनता और सिद्धान्तवादिता से हटकर ओछेपन और निरर्थक बातों में उलझती जा रही है। 11 तारीख की दोपहर तक जैसे ही पांच राज्यों की तस्वीर साफ  होगी वैसे ही लोकसभा चुनाव की रणभूमि सजने लगेगी और राजनीतिक विमर्श की दिशा उस तरफ  घूम जाएगी। लेकिन राज्यों के चुनाव में जो बातें सुनाई दीं कमोबेश वे ही लोकसभा चुनाव में दोहराई जाने की संभावना है क्योंकि नेताओं के पास नया कुछ कहने के लिए शेष ही नहीं बचा। सवाल ये उठता है कि इस दुरावस्था से राजनीति को निकालेगा कौन क्योंकि जब स्नानागार में सभी दिगम्बर अवस्था में खड़े हों तब मान-मर्यादा की बात करे भी तो करे कौन?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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