Saturday 22 December 2018

सही और सच्चे व्यक्ति को डरने की क्या जरूरत

निजता या प्राइवेसी का सम्मान निश्चित रूप से किसी सभ्य और कानून से संचालित समाज की पहिचान होती है। किसी व्यक्ति की निजी जिंदगी एक तरह से उसका मौलिक अधिकार है। लेकिन दूसरी तरफ  ये भी सही है कि निजता के नाम पर उतना ही छिपाया जाना चाहिये या जा सकता है जिसकी वजह से समाज और देश को नुकसान न हो। कानून के समुचित पालन में भी निजता का उल्लंघन कई बार कानून सम्मत हो जाता है। उदाहरण के तौर पर किसी होटल में ठहरते समय अपनी पहिचान संबंधी कोई दस्तावेज देना होता है। एक समय ऐसा था जब इसकी कोई जरूरत नहीं पड़ती थी परंतु आतंकवाद के उदय के साथ ही आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे उत्पन्न हुए तबसे इस तरह की व्यवस्था शुरू की गई। इसके कारण कई अपराधी पकड़ में  भी आये। इसी तरह बैंकों में खाता खोलने जैसे कामों में भी निजी पहिचान को प्रमाणित करने का प्रावधान रखा गया। रेलगाड़ी में आरक्षित टिकिट पर यात्रा करने वाले को भी अपनी पहिचान दिखानी होती है। लेकिन इस सबके बावजूद भी निजता से जुड़ी कई ऐसी चीजें हैं जिन्हें व्यक्ति सार्वजनिक नहीं करना चाहता। इसीलिए आधार कार्ड से व्यक्ति की निजी जानकारी बाजार में बिकने के कारण ही उस पर सवाल उठने लगे। फेसबुक और सोशल मीडिया पर दी गई निजी जानकारी का व्यवसायीकरण  विश्वस्तर पर विवाद और बहस का विषय बना हुआ है। ऐसे में भारत सरकार द्वारा निजी कम्प्यूटर में संग्रहित जानकारी हासिल करने का जो नया प्रावधान किया गया उसका जमकर विरोध हो रहा है। 10 जांच एजेंसियों को इसका अधिकार दिया गया है। हालांकि इसमें काफी सतर्कता बरतने की बात कही गई है और गृह मंत्रालय की पूर्व अनुमति के बिना कोई भी जांच एजेंसी किसी के कम्प्यूटर को नहीं खंगाल सकेगी लेकिन विपक्ष द्वारा इसे मोदी सरकार की तानाशाही बताकऱ जोरदार विरोध शुरू कर दिया गया है। उधर सरकार सफाई दे रही है कि इस सम्बंध में पिछली सरकार द्वारा बनाये गए कानून को ही लागू किया जा रहा है। इसके पीछे जो उद्देश्य बताया गया वह देश की सुरक्षा है। सरकार का तर्क है कि किसी के फोन  वार्तालाप को निगरानी में लेने की तरह से ही कम्प्यूटर में निहित जानकारी को हासिल करना अगर राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक हो तब वैसा करने के लिए अधिसूचित 10 एजेंसियां अधिकृत होँगी। लेकिन विपक्ष का कहना है कि इसके जरिये व्यक्ति की निजी जिंदगी में ताक झांक करने का तानाबाना बुना जा रहा है। सतही तौर पर देखें तो विपक्ष के सन्देह सही लगते हैं। लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के  संदर्भ में देखें तब ऐसा लगता है कि आम शांतिप्रिय नागरिक को किसी भी प्रकार की चिंता करने की जरूरत नहीं है। जिन 10 एजेंसियों को निजी कम्प्यूटर से कोई भी जानकारी निकालने का अधिकार दिया गया है वे केंन्द्रीय गृह सचिव अथवा राज्य के मुख्य सचिव की पूर्व स्वीकृति के बिना वैसा नहीं कर सकेगी। इस प्रावधान के जरिये जांच एजेंसियों को किसी भी प्रकार की मनमानी करने और शांतिप्रिय नागरिक को बेवजह अथवा बदला लेने के लिए परेशान करने से रोक दिया गया है। और फिर जिन सरकारी जांच एजेंसियों को इसका जिम्मा सौंपा गया है वे सभी इतनी जिम्मेदार हैं कि उनसे किसी भी तरह के दुर्भावनापूर्ण कार्य की अपेक्षा साधारण स्थितियों में तो नहीं की जा सकती। देश की जो वर्तमान परिस्थितियाँ हैं उनमें ऐसा करना गलत नहीं लगता। आतंकवाद जिस तरह से देश के अंदरूनी हिस्सों तक फैल चुका है उसके मद्देनजऱ कम्प्यूटर जैसे उपकरण में समाहित जानकारी यदि सुरक्षा अथवा अथवा किसी अन्य जरूरी कारण से आवश्यक हो तब उसे हासिल करने का अधिकार तानाशाही नहीं माना जा सकता। लेकिन इसका दुरुपयोग किसी भी सूरत में न हो सके ये देखना भी सरकार का दायित्व  है वरना यह प्रावधान अपना उद्देश्य खो बैठेगा। स्मरणीय है जब मनमोहन सरकार ने एनआइए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) का गठन किया तब भाजपा के साथ अन्य विपक्षी दलों ने भी ये कहते हुए उसके विरोध में आसमान सिर पर उठा लिया था कि इससे राज्यों के अधिकार क्षेत्र में केंद्र का बेजा दखल बढ़ जाएगा जो संघीय ढांचे के लिए नुकसानदेह हो सकता है। लेकिन आज भाजपा की केंद्र सरकार भी एनआईए का खुलकर उपयोग कर रही है तथा इसे लेकर अब तक तो किसी राज्य से टकराव की जानकारी नहीं मिली। उस आधार पर ये मानना गलत नहीं होगा कि कम्प्यूटर में कैद जानकारी हासिल करने का जो अधिकार 10 जांच एजेंसियों को दिया जा रहा है उसका विरोध के लिए  विरोध करने की बजाय विपक्ष को चाहिए कि वह सरकार से इस सम्बन्ध में पूरी जानकारी हासिल करने के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचे। और फिर जो व्यक्ति किसी तरह का गलत अथवा देश विरोधी काम नहीं करता उसे डरने की क्या जरूरत? ये प्रावधान आर्थिक अपराधों को पकडऩे के काम भी आएगा। बीते कुछ सालों में जो आर्थिक घोटाले हए उनको अनावृत्त करने में कम्प्यूटरों की जांच करने से काफी मदद मिली है। उस दृष्टि से देखें तो नए प्रावधान को परिस्थितियों की मांग समझकर स्वीकार करना ही अच्छा होगा। कम्प्यूटर के बढ़ते उपयोग से एक तरफ जहां कामकाज और संचार आसान हुआ है वहीं दूसरी तरफ  इससे हाइटेक अपराधों की भी बाढ़ सी आ गई है। पुलिस सहित अन्य जांच एजेंसियों में भी सायबर अपराध पकडऩे की व्यवस्था की गई है। केंद्र सरकार द्वारा शुरू की जा रही नई व्यवस्था को प्रारम्भ में ही आलोचना के घेरे में लेने से जांच एजेंसियों पर अनावश्यक दबाव पड़ेगा जो किसी भी तरह से देश हित में नहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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