Saturday 8 December 2018

एग्जिट पोल : नतीजे न सही संकेत तो हैं

एग्जिट पोल करने वाली एजेंसियां और उनका प्रसारण करने वाले टीवी चैनल बीच - बीच में ये बताते रहते हैं कि उनके निष्कर्ष केवल संकेत हैं परिणाम नहीं। अतीत में चूंकि कई मर्तबा ये पोल सिरे से गलत साबित हो चुके हैं इसलिए राजनीतिक दल भी उन्हें पूरी तरह स्वीकार कर लेने में हिचकिचाते हैं। बावजूद इसके गत दिवस पांच राज्यों के जो चुनाव परिणाम आए उनके मुताबिक मप्र, और छत्तीसगढ़ में जहां कांग्रेस भाजपा से सत्ता छीन सकती है वहीं राजस्थान में उसकी जीत सन्देह से परे है। मिज़ोरम का राष्ट्रीय राजनीति में उतना महत्व नहीं है लेकिन तेलंगाना में कांग्रेस ने तेलुगू देशम से गठबंधन बनाकर भाजपा की राह में अवरोध उत्पन्न कर दिया है जो इस राज्य में मुख्य विपक्षी दल बनने की आकांक्षा पालकर बैठ गई थी। लेकिन वहां भाजपा का पिछडऩा चर्चा का वैसा विषय नहीं बनेगा जैसा कि उसके शासन वाले तीन राज्यों में कांग्रेस के तेजी से उभरना बन गया। यद्यपि  एग्जिट पोल में कुछ प्रतिशत की घट-बढ़ परिणाम को पूरी तरह उलट सकती है जैसा बिहार और उप्र के गत विधानसभा चुनाव में देखा जा चुका है और उसी आधार पर भाजपा के रणनीतिकार अभी भी इस उम्मीद में डूबे हैं कि अंतत: मप्र, छत्तीसगढ़ का मतदाता सत्ता की चाबी एक बार फिर भाजपा को सौंप देगा वहीं राजस्थान को लेकर उसे लगता है कि प्रधानमंत्री की सभाओं में उमड़ा जनसैलाब इस बात का संकेत है कि भले ही सत्ता चली जाए लेकिन राजस्थान में पार्टी का वैसा सूपड़ा साफ नहीं होगा जैसा चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में बताया गया था। मान लिया जावे कि भाजपा का आशावाद सही साबित होगा फिर भी मप्र-छत्तीसगढ़ में 15 और राजस्थान में 5 साल की सत्ता के बाद भी यदि वह कांग्रेस को हॉशिये से बाहर नहीं कर सकी तब नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत जैसे नारे का तो कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। कल्पना के तौर पर ये सोच लिया जावे कि भाजपा अपनी तीनों सरकारें बचा ले जाएगी तो भी यदि उसकी ताकत घटती और कांग्रेस की सीटें बढ़ती हैं तो उस सूरत में भी पार्टी के लिए  शर्मनाक स्थिति होगी जो 2019 में केंद्र की सत्ता में वापिसी का सपना संजोए हुए है। एक कैडर आधारित पार्टी के प्रति उसके समर्थकों में इतनी जल्दी असंतोष का पनपना ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वह उन आकांक्षाओं को पूरा करने में बुरी तरह विफल रही है जिनके कारण वह सत्ता तक पहुंची थी। इस हालत के लिए केंद्र सरकार ज्यादा उत्तरदायी है या सम्बंधित राज्यों के सत्ताधीश , इसे लेकर तो बहस चल सकती है किंतु निष्कर्ष तो यही निकलेगा कि भाजपा कसौटी पर खरी साबित नहीं हो सकी। तीन राज्यों में यदि वह दो भी जीत लेगी तब तो उसके पास मुंह छिपाने की जगह रहेगी वरना ये मान लेना पड़ेगा कि सत्ता सुंदरी के सान्निध्य ने भाजपा को भी उसी रास्ते पर धकेल दिया जिस पर चलकर कांग्रेस के लिए अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो गया। अभी मतगणना के लिए दो दिन और शेष हैं। इस अवधि में चुनाव अभियान और एग्जिट पोल को लेकर सभी संबंधित पक्ष अपने-अपने ढंग से विचार करेंगे लेकिन भाजपा की नींद तो इससे गायब हो ही गई होगी। कांग्रेस के पास चूंकि खोने की लिए कुछ भी नहीं था इसलिए वह पूरी तरह बेफिक्र होकर लड़ी जबकि सत्ता बचाने का दबाव भाजपा पर खुलकर महसूस किया जा सकता था। छत्तीसगढ़ तो खैर , छोटा सा राज्य है इसलिए वहां कांटे की टक्कर से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन अजीत जोगी और बसपा का गठबंधन होने के बावजूद भाजपा यदि कोहनी के बल चलकर सत्ता तक पहुंच गई तब भी ये उसके लिए लज्जास्पद ही रहेगा। जहां तक मप्र का सवाल है तो चुनाव के कुछ महीने पहले तक कांग्रेस के पुनरुत्थान की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी किन्तु सवर्ण आंदोलन के बाद भाजपा जिस तरह रक्षात्मक हुई उसने उसकी सम्भावनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए। अंतिम परिणाम क्या होगा इसे लेकर यदि अभी कोई  निष्कर्ष न भी निकाला जाए तब भी ये तो कहना ही पड़ेगा कि कांग्रेस ने अपनी स्थिति में जबरदस्त सुधार करते हुए भाजपा के मजबूत गढ़ों की दीवारों को इतना क्षतिग्रस्त तो कर ही दिया है कि वे जरा से धक्के मात्र से भरभराकर गिर सकती हैं। इसका सीधा-सीधा अर्थ ये है कि भाजपा ने सत्ता में रहते हुए अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को कहीं न कहीं निराश किया होगा। वरना आज उसकी जीत पर इस तरह संदेह के बादल न मंडरा रहे होते। पता नहीं अमित शाह से लेकर उक्त तीन राज्यों में सत्ता और संगठन में कुंडली मारकर बैठे भाजपाई क्षत्रपों ने एग्जिट पोल का कितना संज्ञान लिया किन्तु एक बात बिना संकोच के कही जा सकती है कि कांग्रेस का इस तरह का उभार भी भाजपा की नैतिक हार है। कहावत है जीत के हज़ार बाप होते हैं जबकि हार हमेशा अनाथ होती है। उस दृष्टि से कांग्रेस में जहां जीत का सेहरा बंधवाने के लिए कई सिर आगे आ जाएंगे वहीं भाजपा में सत्ता और संगठन दोनों एक दूसरे पर दोष मढ़ेंगे। केंद्र और राज्य के सत्ताधीशों के बीच भी इस तरह की बात हो सकती है। दूसरी तरफ  यदि राजस्थान जीतने की बाद भी कांग्रेस मप्र और छत्तीसगढ़ नहीं जीत सकी तब भी उसकी बढ़ी हुई ताकत 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के विजय रथ का रास्ता रोकने में सक्षम होगी। 11 तारीख की दोपहर राष्ट्रीय राजनीति की पटकथा नए सिरे से लिखी जा सकती है जिसमें नायक की भूमिका नरेंद्र मोदी की होगी या राहुल गांधी की ये जानने के लिए अभी तीन रातों का इंतजार करना पड़ेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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