Wednesday 19 December 2018

इसके पहले कि चिंगारी शोला बन जाए........

एक दिन पहले तक जय-जय होने वाले की अचानक हाय-हाय होने लगी। मप्र के नये मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा सहज रूप से कही बात उनके लिए मुसीबत बन गई। कारोबारियों को सरकारी मदद के लिए 70 फीसदी स्थानीय लोगों को रोजगार देने की शर्त रखे जाने की बात कहते-कहते वे बोल गए कि उप्र और बिहार के लोग आकर प्रदेशवासियों का रोजगार हड़प लेते हैं। उनका इतना कहना ही बवाल की वजह बन गई। विपक्षी भाजपा को तो पहले ही ओवर में विकेट मिलने जैसी खुशी मानों मिल गई लेकिन नाथ सरकार को टेका लागाने वाली समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी बिना देर लगाये मप्र के मुख्यमंत्री की टिप्पणी पर नाराजगी व्यक्त कर दी। भाजपा नेताओं के अलावा सोशल मीडिया पर भी श्री नाथ पर इस बात का कटाक्ष बड़ी संख्या में हुआ कि वे स्वयं उप्र के कानपुर शहर में जन्मे और पले बढ़े कोलकाता में, लेकिन राजनीति मप्र में करने आ गए। कुछ ने तो यहाँ तक लिखा कि उन्होंने उप्र से आकर ज्योतिरादित्य सिंधिया से मुख्यमंत्री पद हथिया लिया। कुछ कटु आलोचकों ने उन्हें मप्र का राज ठाकरे कह दिया जो मुंबई में उत्तर भारतीयों के विरुद्ध जहर उगलने के लिए कुख्यात हैं। इस सबके बीच ये मान लेना गलत नहीं होगा कि कमलनाथ ने जो कहा उसके पीछे उप्र और बिहार के लोगों का विरोध कम और स्थानीय लोगों के रोजगार की चिंता ज्यादा रही होगी किन्तु वे न जाने किस झोंक में उत्तर भारतीयों द्वारा स्थानीय लोगों के रोजगार झपट लेने जैसी बात कह गए। स्मरणीय है उनकी अल्पमत सरकार को बसपा का भी समर्थन प्राप्त है जिसकी जड़ें उप्र में ही हैं। यद्यपि अभी तक स्वयं श्री नाथ की तरफ  से कोई स्पष्टीकरण इस आशय का नहीं आया जिसमें वे अपनी बात का गलत अर्थ लगाए जाने जैसी बात कहकर बच निकलते किन्तु जब यही चर्चा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तक पहुंची तब उन्होंने कमलनाथ से बात करने का आश्वासन दे डाला।  हो सकता है मुख्यमंत्री भी अपनी टिप्पणी पर स्पष्टीकरण देते हुए उत्तर भारतीयों के गुस्से से बचने की कोशिश करें क्योंकि लोकसभा चुनाव में यदि ये मुद्दा गरमा गया तब कांग्रेस को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। सौभाग्य से मप्र देश के उन राज्यों में से है जहां विभिन्न राज्यों से आकर लोग बड़ी संख्या में बस गए। इसकी एक वजह इसकी भौगोलिक स्थिति भी रही। छत्तीसगढ़ बन जाने के बाद हालांकि मप्र का आकार छोटा हो गया वरना 1956 में राज्य पुनर्गठन के बाद अस्तित्व में आए इस राज्य की सीमाएं उप्र, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र, राजस्थान और गुजरात से मिलती थीं। ग्वालियर और इंदौर में मराठा शासकों के कारण मराठी भाषी पहले से ही यहां बसे थे। महाकौशल और छत्तीसगढ़ कभी सीपी एंड बरार के हिस्से थे जिसमें विदर्भ भी रहा जो अब  महाराष्ट्र में है। केंद्रीय सेवाओं के कारण भी अन्य प्रदेशों से लोग मप्र में आये और यहां की संतुलित जलवायु और शांत वातावरण के कारण यहीं के होकर रह गए। मप्र में भाषा या क्षेत्रीयता यदि मुद्दा रहा होता तब 1979 में कमलनाथ जैसा अपरिचित कोलकाता से आकर छिंदवाड़ा का सांसद नहीं बनता। 1971 में तो तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी गिरि के पुत्र शंकर गिरि दमोह लोकसभा सीट से लड़कर जीते। इंदौर से सुमित्रा महाजन मराठी भाषी होने पर भी 1989 से लगातार लोकसभा के लिए चुनी जाती रहीं। सागर जैसे ठेठ बुन्देलखण्डी इलाके से गुजराती मूल के स्व. वि_ल भाई पटेल विधायक और मंत्री बने। इस बारे में जबलपुर का राजनीतिक इतिहास तो और भी रोचक है। यहां से मुन्दर शर्मा (बिहारी), बाबूराव परांजपे (मराठी), अजय नारायण मुशरान (कश्मीरी), श्रवण पटैल ( गुजराती), जयश्री बैनर्जी (बंगाली) लोकसभा के लिए चुने जा चुके हैं। महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी भी 1979 में यहां से लोकसभा चुनाव लड़कर हार चुके हैं। विदिशा सीट से हरियाणा की सुषमा स्वराज लोकसभा चुनाव जीतकर विदेश मंत्री बनी हुई हैं। एक जमाने में जगन्नाथ राव जोशी, डॉ. वसंत कुमार पंडित जैसे नेता अन्य प्रांतों से आकर लोकसभा चुनाव जीते। 1967 में तो स्व. आचार्य जेबी कृपलानी गुना से लोकसभा पहुंचे। कहने का आशय ये है कि यहां की राजनीति और सामाजिक ढांचा पूरी तरह से समन्वयवादी रहा है। विभिन्न प्रदेशों की संस्कृति और भाषा की उपस्थिति मप्र में महसूस की जा सकती है किंतु प्रान्त और भाषा के नाम पर कभी किसी प्रकार का झगड़ा या भेदभाव न दिखा और न ही सुनाई दिया। शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री द्वारा कही गई दो पंक्तियों ने पहले ही दिन उन्हें विवादों में घेर दिया। स्थानीय लोगों को रोजगार दिलवाना किसी भी राज्य सरकार की पहली प्राथमिकता होना चाहिए किन्तु किसी अन्य प्रान्त के लोगों को बाहरी कहना संघीय ढांचे की मूल भावना के सर्वथा विरुद्ध है जो कम से कम कमलनाथ जैसे अनुभवी, सुलझे हुए और परिपक्व नेता से कतई अपेक्षित नहीं था। उन्हें सम्भवत: ध्यान नहीं रहा होगा कि उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र छिंदवाड़ा के वर्तमान जिलाधीश वेद प्रकाश भी मूलत: बिहार के हैं। उम्मीद की जा सकती है कि राहुल गाँधी के पूछने के पहले ही मुख्यमंत्री उप्र और बिहार के लोगों के बारे में की गई टिप्पणी को वापिस लेकर खेद व्यक्त कर देंगे जिससे विपक्ष को उन पर हमला करते रहने का अवसर ही न मिल पाए। प्रदेश में बड़ी संख्या में रह रहे उत्तर भारतीय ही नहीं वरन अन्य प्रांतों के भाषाभाषियों के विरुद्ध मप्र के मूल निवासियों के मन में द्वेष भाव न उत्पन्न हो इसकी चिंता भी श्री नाथ को रखनी होगी वरना बतौर मुख्यमंत्री उनकी स्वीकार्यता पर भी तेजी से सवाल उठने लगेंगे। मप्र को शांति का टापू इसीलिए कहा जाता है क्योंकि यहाँ भाषा, प्रान्त और क्षेत्रीयता का कोई विवाद कभी नहीं रहा। हालांकि कई बातों में मध्यभारत, मालवा, महाकौशल और विंध्य क्षेत्रों में विभिन्नता के दर्शन किये जा सकते हैं। बड़ा भूभाग आदिवासी बहुल भी है जिनका रहन सहन, खान पान सब अलग है लेकिन कभी किसी टकराव की बात सामने नहीं आई। सम्भवत: ये पहला मौका होगा जब प्रदेश के मुखिया के मुंह से इस तरह की टिप्पणी सुनाई दी। बेहतर होगा स्वयं कमलनाथ इस विवाद का पटाक्षेप करते हुए स्पष्टीकरण दें वरना धजी का सांप बनते कितनी देर लगती है ये बतौर राजनेता वे भी बखूबी जानते होंगे। मप्र में उत्तर भारतीय बहुत बड़ी संख्या में हैं। प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री स्व.रविशंकर शुक्ल और स्व.द्वारिका प्रसाद मिश्र भी उप्र के उन्नाव जिले से आये थे। 1978 में बिहारी मूल के स्व.मुन्दर शर्मा तो प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तक बनाये गए थे। अपेक्षा है मुख्यमंत्री अपनी बात को रचनात्मक रूप देते हुए खुद के साथ ही मप्र को भी ऐसे किसी विवाद में नहीं फंसने देंगे जिससे यहां की शांति और सामाजिक सौहाद्र भंग हो ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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