Saturday 29 December 2018

अभिव्यक्ति की आजादी : अलग - अलग मापदंड

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर बनी फिल्म द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर को लेकर विवाद न हुआ होता यदि भाजपा के अधिकृत ट्विटर पर उसका प्रचार न किया जाता और उससे भी बढ़कर अनुपम खेर ने उसमें डॉ. सिंह की भूमिका न निभाई होती। उल्लेखनीय है अनुपम की पत्नी किरण खेर चंडीगढ़ से भाजपा की लोकसभा सदस्य हैं। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा ने इस फिल्म को जानबूझकर प्रायोजित किया है। निर्माता के भी भाजपा से सम्बन्ध बताए जा रहे हैं। ये भी कहा जा रहा है कि फिल्म के जरिये लोकसभा चुनाव के पहले पूर्व प्रधानमंत्री के साथ गांधी परिवार की छवि खराब करने की कोशिश की जा रही है।  कांग्रेस ने मांग की है कि चूंकि फिल्म डॉ. सिंह के व्यक्तिगत जीवन पर आधारित है इसलिए प्रदर्शित किए जाने के पहले वह उसे दिखाई जाए। दूसरी तरफ भाजपा और अनुपम खेर ने कांग्रेस को राहुल गांधी के उस ट्वीट की याद दिलवाई जिसमें उन्होंने अभिव्यक्ति की आज़ादी की पुरजोर वकालत की थी। अतीत में अनेक फिल्मों पर रोक लगाने और दबाव डालकर उनमें बदलाव करने की लिए भी कांग्रेस पर निशाने साधे गए। यद्यपि मप्र सहित कांग्रेस शासित राज्यों में डॉ सिंह संबंधी फिल्म के प्रदर्शन पर प्रतिबंध की आशंका से इनकार किया गया है लेकिन पार्टी की छात्र इकाई एनएसयूआई ने भोपाल सहित कई शहरों में  सिनेमा मालिकों को फिल्म का प्रदर्शन नहीं करने कहा है। अनुपम खेर ने इस बीच ये बयान भी दिया है कि जितना विरोध होगा फिल्म उतनी ही चलेगी। आगे क्या होगा ये फिलहाल कह पाना मुश्किल है। यद्यपि ये बात सही है कि विवादास्पद होने वाली फिल्मों के प्रदर्शन से पहले होने वाला प्रचार उनकी लोकप्रियता की गारंटी नहीं होता। अतीत में कई फिल्में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी अनेक फिल्में विवाद में फंसी। उनमें से कुछ को तो टिकिट खिड़की पर अच्छी सफलता मिली किन्तु कुछ जमकर पिटीं भी। जोधा अकबर और पद्मावत दोनों का उदाहरण सामने है। दोनों को लेकर जबर्दस्त विरोध हुआ। फसाद भी देखने मिले। निर्माता ने दबाव में आकर कुछ सुधार और बदलाव भी कथानक में किये। पद्मावत का तो पूर्व नाम पद्मावती तक बदला गया। जोधा अकबर को पेक्षित सफलता नहीं मिल सकी किन्तु पद्मावत ने जमकर कमाई की। पिछले कुछ वर्षों में फिल्म उद्योग में लीक से हटकर चर्चित हस्तियों के निजी जीवन पर फिल्में बनने लगी हैं। कुछ साल पहले बनी मणिरत्नम की फिल्म गुरु स्व. धीरुभाई अम्बानी पर आधारित मानी गई जबकि बीते साल अभिनेता संजय दत्त पर बनी संजू ने खूब कारोबार किया। सचिन तेंदुलकर, महिंदर सिंह धोनी पर भी फिल्में बन चुकी है। सरकार नामक फिल्म के बारे में कहा गया कि वह शिवसेना संस्थापक बालासाहेब ठाकरे के जीवन पर आधारित थी लेकिन शीघ्र ही ठाकरे नामक फिल्म आने वाली है जो वाकई बालासाहेब पर ही बनाई गई है। ऐतिहासिक तथा पौराणिक घटनाओं और चरित्रों पर तो शुरू से ही फिल्में बनती रहीं जिनमें वास्तविकता के साथ कल्पना पर आधारित कथानक भी जोड़ा गया। विदेशी निर्माता द्वारा बनाई गई गांधी फिल्म तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई। उसमें  गांधी जी की भूमिका तो विदेशी कलाकार ने निभाई थी जबकि कस्तूरबा, पं नेहरू और अन्य कई महत्वपूर्ण चरित्रों को भारतीय कलाकारों द्वारा अभिनीत किया गया था। आपातकाल के दौरान गुलजार की फिल्म आँधी को स्व. इंदिरा गांधी और उनके पति फिरोज गांधी के निजी जीवन से जुड़ी माना गया था। उस आधार पर यदि डॉ. मनमोहन सिंह पर फिल्म बनी तो उसे सहज रूप में लिया जाना चाहिए किन्तु ये बात भी सही है कि किसी जीवित व्यक्ति पर फिल्म बनते समय सावधानी बरतना जरूरी है। कहा जा रहा है कि डॉ. सिंह के प्रेस सलाहकार रहे संजय बारू द्वारा उन पर लिखी पुस्तक इस फिल्म का आधार है किन्तु  फिल्मांकन में पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में कोई आपत्तिजनक या तथ्यहीन बात है तो उसका विरोध स्वाभाविक रूप से होगा। इस संबंध में उल्लेखनीय बात ये है कि मनमोहन सिंह जी काफी अंतर्मुखी और कम बोलने वाले व्यक्ति हैं। उनके मुंह से कभी किसी के लिए कोई तीखी बात शायद ही किसी ने सुनी हो। बहरहाल बतौर प्रधानमंत्री उनकी चुप्पी और कार्यशैली पर सवाल उठते रहे। ये कहना काफी हद तक सही है कि उन्हें स्वतंत्र होकर काम करने का अवसर नहीं मिला। गांधी परिवार के रिमोट कंट्रोल पर काम करने की तोहमत भी उन पर लगती रही जिसका प्रतिवाद उन्होंने कभी नहीं किया। सन्दर्भित फिल्म का शीर्षक उस दृष्टि से   गलत नहीं है क्योंकि जिन नाटकीय परिस्थिति में डॉ. सिंह प्रधानमंत्री बने वे किसी सियासी दुर्घटना से कम नहीं थीं। लेकिन फिल्म में यदि उनका चरित्र हनन अथवा उपहास किया गया है तो वह काबिले एतराज है क्योंकि पश्चिमी देशों में राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रति जिस तरह का मजाकिया रवैया अपनाया जाता है वह हमारे देश में अटपटा लगता है। हालांकि हाल के कुछ वर्षों में ये मर्यादा टूटती लग रही है तथा दशकों पहले दिवंगत हुए नेताओं तक के निजी जीवन को लेकर अनकही और अनसुनी बातें सामने आने लगीं। यहां तक कि महात्मा गांधी द्वारा किये गए ब्रह्मचर्य के प्रयोगों को लेकर भी अनेक किस्से सामने आए। समाज की सोच में आए खुलेपन का असर अब चर्चित और सम्मानीय हस्तियों के बारे में भी होने लगा है। उस लिहाज से द एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर का विरोध सही नहीं है लेकिन दूसरी तरफ  ये भी सही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वछन्दता बनने की छूट  भी नहीं दी जानी चाहिए वरना राजनीति की गंदगी अन्यत्र भी फैल जाएगी। हालांकि इस विवाद का दूसरा पहलू भी है। जयपुर फेस्टिवल जैसे आयोजनों में कही जाने वाली तमाम बातें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की नाम पर स्वीकार्य मानी जाती हैं लेकिन प्रगतिशील तबका तसलीमा नसरीन को लेकर दोहरा रवैया अपनाने से भी बाज नहीं आता। कन्हैया कुमार के समर्थन में जेएनयू जाने वाले राहुल गांधी जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थन करते हैं तब वह किस संदर्भ में होती है। कहने का आशय ये है कि अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सबके अपने मापदंड हैं। यदि हम किसी की बारे में कुछ भी कहें तो वह बोलने की आज़ादी और दूसरा हमारे बारे में वैसा ही कहे तो उस पर एतराज करने जैसा विरोधाभास हमारा चरित्र बन गया है। डॉ. मनमोहन सिंह पर बनी फिल्म के कथानक को लेकर उठाई जा रहीं आपत्तियां कितनी जायज हैं ये तो फिल्म देखकर ही पता चलेगा किन्तु कांग्रेस द्वारा जवाब में नरेन्द्र मोदी पर फिल्म बनाने का धमकीनुमा संकेत भविष्य की राजनीति का एहसास करवा रहा है। लगता है दक्षिण भारत की राजनीति की तरह अब दिल्ली की सियासत पर भी फिल्मी रंग चढऩे वाला है। वैसे संचार क्रान्ति के इस दौर में जब इंटरनेट और यू ट्यूब पर धड़ल्ले से फिल्में दिखाई जा रही हों तब वह सिनेमाघरों में दिखाई जाए या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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