Monday 24 December 2018

बेमेल गठबंधन राष्ट्रीय दलों की मजबूरी बनी

बिहार में भाजपा, जद ( यू) और पासवान परिवार की पार्टी लोजपा के बीच लोकसभा सीटों का बंटवारा हो गया। इसके अन्तर्गत भाजपा और जद ( यू ) 17-17 तथा लोजपा को 6 सीटों पर लडऩे का अवसर मिलेगा। इसके अलावा रामविलास पासवान को भाजपा सम्भवत: असम से राज्यसभा में लाएगी। इस समझौते को भाजपा की शिकस्त और श्री पासवान की जीत के तौर पर देखा जा रहा है। 2014 में लोजपा भाजपा के साथ मिलकर 6 सीटें जीती थी जिनमें तीन तो श्री पासवान के घर की ही थीं। लेकिन तब जद (यू) अलग से लड़ा था। बाद में विधान सभा चुनाव के समय उसका लालू प्रसाद यादव के राजद से गठबंधन हुआ जो जल्द ही टूट गया और नीतीश कुमार ने नाटकीय अंदाज में फिर भाजपा का दामन थाम लिया। ऐसे में भाजपा की मजबूरी ये थी कि वह जद (यू) को किनारे नहीं कर सकती थी। उधर उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश का एनडीए में महत्वपूर्ण बनना हजम नहीं हो रहा था और वे अपने लिए  पहले से ज्यादा सीटें मांग रहे थे। जब उन्हें लगा कि नीतीश के रहते उनकी पूछ-परख कम हो गई है तब उन्होंने कांग्रेस और लालू के महागठबंधन का दामन थाम लिया। उसके बाद से पासवान परिवार ने दबाव और बढ़ाया तथा एनडीए छोडऩे तक का इशारा कर दिया। यदि भाजपा हाल में हुए विधानसभा चुनावों में जीत जाती तब शायद अमित शाह रामविलास को भी नजरंदाज कर सकते थे किंतु तीन राज्यों की सत्ता हाथ से निकल जाने के  बाद भाजपा की अकड़ काफी कम हो गई जिसका असर गत दिवस हुए समझौते पर स्पष्ट दिखाई दिया। इस सीट बंटवारे को भाजपा की हार कहना गलत नहीं है लेकिन मौजूदा हालात में लगभग हर पार्टी  इस तरह के नखरे झेलने मजबूर है। 2017 के उप्र विधानसभा चुनाव में जोरशोर से शुरू हुई राहुल गांधी की खटिया यात्रा अचानक रुक गई और कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के सामने समर्पण कर दिया। कहां तो प्रेक्षक उप्र में कांग्रेस की वापसी की संभावना बता रहे थे और कहां राहुल ने 400 में से 300 सीटें सपा के लिए छोड़कर अपने कैडर को निराश कर दिया। चुनाव बाद इससे भी एक कदम आगे बढ़कर मायावती और अखिलेश के बीच बुआ और भतीजे वाला प्रेम उत्पन्न हुआ जिसके अंतर्गत उपचुनावों में सपा-बसपा मिलकर लड़े तथा भाजपा को जबर्दस्त तरीके से मात दी। उसके बाद कर्नाटक में जब किसी को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति बनी तब कांग्रेस ने बिना देर लगाए ही देवेगौड़ा एंड कंपनी की निजी पार्टी जद (एस) को समर्थन दे दिया और मात्र 40 विधायकों के साथ कुमार स्वामी मुख्यमंत्री बन गए। इस प्रकार जो कांग्रेस किसी जमाने में विपक्षी गठबंधन को भानुमती का कुनबा कहकर उपहास करती थी वह भी कहने लगी कि गठबंधन समय की मांग है। और इसी के साथ भाजपा के विरोध में महागठबंधन का बीजारोपण शुरू कर दिया गया लेकिन हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव में महागठबंधन नहीं बना। सपा और बसपा ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के रवैये की आलोचना करते हुए अपने उम्मीदवार उतार दिए। बसपा ने छत्तीसगढ़ में तो अजीत जोगी के साथ गठजोड़ तक  किया। चुनाव बाद जब मप्र और राजस्थान में कांग्रेस बहुमत की देहलीज पर आकर रुक गई तो सपा और बसपा ने भाजपा विरोध के नाम पर कांग्रेस की सत्ता बनवा दी। ऐसा लगा जैसे महागठबंधन की कांग्रेसी मुहिम अंजाम तक पहुंच जाएगी किन्तु संसद के सत्र के पहले सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई विपक्ष की बैठक में मायावती और अखिलेश यादव न तो पहुँचे और न ही किसी प्रतिनिधि को भेजा। उधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने भाजपा और कांग्रेस से अलग तीसरे मोर्चे की मुहिम फिर छेड़ दी। द्रमुक द्वारा राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के मुकाबले आगे करने की पहल को अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि महागठबंधन अभी भी चेहराविहीन है और छोटे-छोटे दल कांग्रेस को वैसे ही आंखें दिखाने से बाज नहीं आ रहे जैसा पासवान परिवार ने भाजपा के साथ किया। इस प्रकार जितनी मजबूर भाजपा अपने सहयोगियों के सामने है उतनी ही कांग्रेस भी बल्कि कुछ हद तक तो ज्यादा भी। एनडीए में अभी तक तो श्री मोदी के नेतृत्व को लेकर कोई भी सन्देह नहीं है किंतु राहुल को महागठबंधन का नेता मानने पर सहमति  नहीं बन पा रही है। फिर भी कांग्रेस, भाजपा के अंधे विरोध के चलते उन सभी दलों से हाथ मिलाने राजी हैं जिनके साथ उनकी वैचारिक साम्यता नहीं है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो गठबंधन अब ऐसी वास्तविकता बन गई है जिसे भाजपा और कांग्रेस को चाहे या अनचाहे स्वीकार और सहन करना ही पड़ेगा। शायद यही कारण है कि मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में एक दूसरे के विरोध में लडऩे के बाद भी कांग्रेस चाहती है कि उप्र में मायावती और अखिलेश यादव उसके साथ आ जाएं। इसी तरह से शिवसेना से रोज गालियां खाने के बाद भी भाजपा कह रही है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में दोनों का गठबंधन जारी रहेगा। भारत सरीखे विविधता भरे देश में राजनीतिक दलों के बीच इस तरह का लचीलापन बुरा नहीं है लेकिन इसकी वजह से विचारधारा के आधार पर जो अंतर था वह नष्ट हो चला है। कहां तो सपा और बसपा के बीच सांप और नेवले जैसे रिश्ते थे और कहां बुआ-भतीजे सत्ता की खातिर एक साथ आना चाहते हैं। ममता बैनर्जी और चंद्रबाबू नायडू की पार्टी कांग्रेस की नीतियों से क्षुब्ध होकर बनी लेकिन अब वे उसी के साथ बैठने को तत्पर हैं। जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी का गठबंधन अवसरवाद और वैचारिक पलायन का बड़ा उदाहरण बना। लेकिन इस सत्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि गठबंधन मजबूरी की जगह जरूरी बन गया है। बावजूद इसके एक बात विचारणीय है कि येन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए किये जा रहे गठजोड़ भविष्य में देश के लिए नुकसानदेह साबित हो सकते हैं क्योंकि इनके पीछे नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा और स्वार्थ हावी होने लगे हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों जिस तरह से दबाव झेलने मजबूर हो रहे हैं उससे उनकी दयनीयता उजागर हो रही है। इस सम्बंध में देखने वाली बात ये होगी कि इसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा क्योंकि क्षेत्रीय दलों के दबाव के समक्ष राष्ट्रीय पार्टियों का समर्पण कालांतर में नई समस्याएं उत्पन्न कर सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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