Friday 21 December 2018

पता नहीं हम कब सुधरेंगे

गत दिवस भारत की पहली चालक रहित रेलगाड़ी का परीक्षण दिल्ली और आगरा के बीच हुआ। इसकी गति 180 किमी प्रति घंटा है। दिल्ली और वाराणसी के बीच चलाई जाने वाली पूर्णत: वातानुकूलित यह गाड़ी विश्वस्तरीय सुविधाओं से युक्त है। भविष्य की दृष्टि से इसे एक बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। भारतीय रेल इसके लिए अभिननदन की पात्र है लेकिन परीक्षण यात्रा में दिल्ली से आगरा के बीच अनेक स्थानों पर लोगों ने इस गाड़ी पर पत्थर फेंककर खिड़कियों के शीशे तोड़ दिए। ये खबर निश्चित रूप से पीड़ादायक है। ऐसा ही महामना एक्सप्रेस रेल गाड़ी के संग भी हुआ जब वह वाराणसी से दिल्ली की अपनी पहली यात्रा पर गई। अनेक यात्री उसके शौचालय  में लगी महंगी पानी की टोंटियां निकाल ले गए तो कुछ संगीत सुनने के लिए सीटों पर लगाये गए हेडफोन लेकर चलते बने। पान और गुटखा चबाकर डिब्बे  के फर्श पर थूकने जैसी बेहूदगी करने से भी कई यात्री बाज नहीं आये। तेजस एक्सपे्रस की उद्घाटन यात्रा में भी ऐसे कटु अनुभव आए। वैसे ये वाकये हमारे देश के लिए नई बात कदापि नहीं हैं क्योंकि समाज में एक बड़ा तबका ऐसा भी है जिसे व्यवस्था को अव्यवस्था में बदल देने से मानसिक सुख मिलता है। सामान्य श्रेणी के भीड़ भरे डिब्बों के फर्श पर पड़े मूंगफली के छिलके और उपयोग कर फेंकी गई बीडिय़ाँ तो आम हैं किंतु उच्च श्रेणी में यात्रा कर रहे लोग भी जब साफ-सफाई के अलावा उपलब्ध सुविधाओं के रखरखाव के प्रति अव्वल दर्जे की लापरवाही दिखाते हैं तब ये लगता है कि अनुशासन और आचरण के मामले में हमारा देश अभी भी बहुत पीछे है। ये बातें केवल रेलगाड़ी तक ही सीमित नहीं हैं। हर क्षेत्र में उद्दंडता का अनुभव किया जा सकता है। और तो और देश की संसद तक इससे मुक्त नहीं है। प्रश्न  उठता है कि क्या इन आदतों के चलते हम वह सब हासिल कर सकेंगे जो एक विकसित राष्ट्र की पहिचान होती है। अनेक लोग हर बात के लिए बड़ी आबादी को जिम्मेदार ठहराते हैं लेकिन चीन और जापान सहित लगभग सभी एशियाई देश आबादी के लिहाज से यूरोपीय देशों से बहुत आगे हैं। बावजूद उसके  वहां के समाज में अनुशासन के प्रति जो प्रतिबद्धता है उसके कारण वे भारत से हर लिहाज से आगे निकल गए। चीन जो 1949 की साम्यवादी क्रांति के समय हमारे मुक़ाबले बहुत पीछे था आज अमेरिका को टक्कर देने की स्थिति में आ गया। कोरिया, ताईवान, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम ने अगर बीते कुछ दशक में तरक्की के नए कीर्तिमान स्थापित किये तो उसका प्रमुख कारण समाज में अनुशासन के साथ रचनात्मक प्रवृत्ति की मौजूदगी है। उसके मुकाबले भारत में सार्वजनिक व्यवहार का स्तर बहुत ही घटिया है। गत दिवस दिल्ली और आगरा के बीच परीक्षण हेतु चली नई रेलगाड़ी पर पत्थर फेंकने की घटनाएं इतने बड़े देश में ऊंट के मुंह में जीरे से भी कम हैं किंतु ऐसी बातें एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली स्थिति का अंदेशा उत्पन्न करने वाली हैं। यही वजह है कि एक तरफ  देश मंगल और चंद्रयान जैसी उपलब्धियां अर्जित कर गौरवान्वित हो रहा है वहीं दूसरी तरफ करोड़ों लोग शौचालय जैसी आधारभूत जरूरत से वंचित हैं। ये बात तो सही है कि हमारा देश बदल रहा है किन्तु इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है कि हम कब सुधरेंगे?

- रवीन्द्र वाजपेयी

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